क्या वन विकास निगम वर्तमान में गौण हो गए हैं? क्या उनकी उपयोगिता कम हो रही है? ये ऐसे यक्ष सवाल हैं जिसमें निगम अपने गठन के बाद से ही जूझ रहा है। निगम की कार्यप्रणाली ने जंगल और वनवासियों के बीच दीवार खड़ी कर दी है। इससे दोनों के बीच लगातार संघर्ष तेज होते जा रहे हैं। वनवासी हाशिए पर चले गए हैं। उनकी आर-पार की लड़ाई को देखने और समझने की कोशिश की अनिल अश्विनी शर्मा ने
पिछले 35 साल से विभिन्न राज्यों में 12 लाख हेक्टेयर वन क्षेत्रों पर नियंत्रण रखने के बाद जाँच से पता चलता है कि एफडीसी की उत्पादकता में न केवल गिरावट दर्ज की गई है बल्कि प्राकृतिक जंगलों के लिये भी ये खतरा बनते जा रहे हैं क्योंकि वे प्राकृतिक रूप से भारी मात्रा में मिक्स जंगलों को खत्म कर रहे हैं। यही नहीं, एफडीसी के वनों की उत्पादकता सामान्य खेती से भी कम दर्ज की गई है। जंगल कहीं खो नहीं गए बल्कि वास्तविकता यह है कि जंगल लगाए ही नहीं गए। “जीते-जागते, हरे-भरे जंगलों को बेरहमी से काट देते हैं और उसकी जगह पर पौधारोपण कर कहते हैं, हम नया जंगल लगा रहे हैं। कुछ समय बाद ये पौधे भी मुरझा जाते हैं। क्योंकि इन्हें लगाकर भूल जाया जाता है। इनकी देख-रेख नहीं की जाती है। इसके बाद बची रह जाती है खाली जमीन। ऐसे हालात में ग्रामीणों और महाराष्ट्र वन विकास निगम (एफडीसी) के बीच संघर्ष नहीं होगा तो और क्या होगा।” नागपुर के वरिष्ठ पर्यावरणविद अभिलास खांडेकर उत्तेजित होते हुए ये बातें कहते हैं।
खांडेकर कहते हैं कि एफडीसी में नौकरशाही हावी होने की वजह से वनों के उत्पादों की ठीक तरह से ग्रोथ के साथ-साथ मार्केटिंग भी नहीं हो रही है। महाराष्ट्र में बहुत तेजी से शहरीकरण हो रहा है इस वजह से वनों के ऊपर काफी दबाव है, जिसको एफडीसी लिमिटेड ठीक तरह से हैंडल नहीं कर पा रहा है। यही कारण है कि एफडीसी और वनवासियों के बीच तनाव लगातार बढ़ रहा है।
पिछले कुछ सालों से महाराष्ट्र के आधे दर्जन से अधिक स्थानों पर स्थानीय समुदायों और निगम के बीच जंगल काटकर उसके स्थान पर नए जंगल लगाने को लेकर तनातनी लगातार चल रही है। इसी तनातनी ने राज्य के कई हिस्सों में संघर्ष का रूप भी अख्तियार कर लिया है।
इस लड़ाई की शुरुआत 14 महीने पहले (दिसम्बर, 2016) हुई। महाराष्ट्र के भंडारा जिले में उस समय टकराव की स्थिति पैदा हो गई जब राज्य सरकार ने महाराष्ट्र वन विकास निगम को 200 वर्ग किलोमीटर वन्यजीव सम्पन्न भंडारा वन क्षेत्र में सागौन के पौधारोपण की इजाजत दी। राज्य सरकार के इस फैसले के खिलाफ स्थानीय समुदाय ने जमकर विरोध-प्रदर्शन किया। समुदायों के लगातार विरोध-प्रदर्शन ने राज्य सरकार को अपने इस कदम पर फिर से विचार करने के लिये मजबूर कर दिया।
इसके पहले जून, 2016 में भी संघर्ष हुआ, जब प्रदर्शनकारियों ने गढ़चिरौली जिले में निगम द्वारा की जा रही पेड़ों की कटाई बाधित की। एक प्रदर्शनकारी तो सीधे राज्य के उच्च न्यायालय की शरण में चला गया। उच्च न्यायालय की नागपुर पीठ में उसने मामला दर्ज कराया। इस सम्बन्ध में मामला दर्ज करने वाले याचिकाकर्ता हिरामंद गारेटे का कहना है, “एफडीसी को हरे-भरे जंगलों को साफ कर नए जंगल लगाने की जरूरत क्यों आन पड़ती है, जबकि उसके पास हजारों-लाखों हेक्टेयर क्षरण भूमि (डिग्रेडेड लैंड) उसके पास उपलब्ध रहती है। उच्च न्यायालय ने यह मामला अब राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) को भेज दिया है। इस पर सुनवाई चल रही है और जल्द ही फैसला आने की उम्मीद है।”
निजी स्वार्थ के लिये
इस सम्बन्ध में महाराष्ट्र वन विकास निगम के प्रबन्ध निदेशक उमेश कुमार अग्रवाल ने बताया कि जिस वन क्षेत्र को लेकर किसानों ने विरोध जताया है, वह वन क्षेत्र वास्तव में एफडीसी का है, जिसे बाकायदा राज्य सरकार ने हमें सौंपा है। वहाँ एफडीसी पौधारोपण कर रहा है, लेकिन कुछ लोग वहाँ विरोध कर रहे हैं। इसके पीछे की वजह पूछने पर वे कहते हैं कि कुछ लोग वहाँ अपने निजी स्वार्थ के लिये विरोध कर रहे हैं। जिन्हें मामले की पूरी समझ नहीं है, वे भी दुर्भाग्य से उसके विशेषज्ञ बन रहे हैं। उनका कहना था कि इसके कारण एफडीसी को काफी नुकसान पहुँच रहा है। स्थानीय लोग एफडीसी की जमीनों पर अवैध कब्जा कर लेते हैं और वन उपज बिना कोई रॉयल्टी चुकाए यूँ ही उठा ले जाते हैं। वे कई बार जंगलों में आग भी लगा देते हैं। अपने जानवर चरने के लिये भी छोड़ देते हैं, जिससे हमारे लगाए पौधे नष्ट हो जाते हैं।
उन्होंने बताया कि राज्य में लगभग 30 हजार हेक्टेयर जमीनों पर इस तरह के विवाद चल रहे हैं। इसके लिये हमने केन्द्र सरकार के साथ मिलकर 10 साल की एक योजना तैयार की है। हमारी इस सम्भावित कार्ययोजना को सरकार से मंजूरी मिल चुकी है। महाराष्ट्र के पर्यावरण एवं वन मंत्री सुधीर मुनगंटीवार विवाद पर कुछ भी कहने से इनकार करते हुए कहते हैं, “तमाम तरह की कठिनाइयों के बावजूद राज्य वन विकास निगम लाभ में चल रहा है और देश का ऐसा पहला राज्य है जो कि ऑनलाइन सागौन की बिक्री कर रहा है।”
जारी है टकराव
भारत में वनों पर नियंत्रण के लिये सालों से एक सतत संघर्ष जारी है। इस संघर्ष में एक तरफ वन समुदाय और पर्यावरणविद हैं, जबकि दूसरी तरफ सरकार के स्वामित्व वाले एफडीसी और निजी खिलाड़ी, जो औद्योगिक बागानों के लिये जंगल का अधिग्रहण करने की कोशिश कर रहे हैं। वन विकास निगम की कारगुजारी के खिलाफ अकेले महाराष्ट्र में ही गुस्सा नहीं फूट रहा है। छत्तीसगढ़ सहित देश के आधा दर्जन से अधिक राज्यों में निगम के खिलाफ स्थानीय समुदायों के बीच संघर्ष चल रहा है। अन्य राज्यों में मध्य प्रदेश, उत्तराखण्ड, आन्ध्र प्रदेश, त्रिपुरा, हिमाचल प्रदेश आदि शामिल हैं।
1970 के दशक में वन उत्पादकता में सुधार करने के लिये देश के कई राज्यों में एफडीसी का गठन किया गया। इनका गठन राज्य में वनों की उत्पादकता बढ़ाना और वनोपज का वाणिज्यिक उपयोग करने के लिये किया गया था। कुल 19 एफडीसी वर्तमान में कार्य कर रहे हैं। एफडीसी के कब्जे में लगभग 13 लाख हेक्टेयर वन क्षेत्र की भूमि है। इसमें 10 लाख पौधे लगाए गए हैं।
एफडीसी और स्थानीय समुदायों के बीच संघर्ष की शुरुआत खासतौर से छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के साथ इस तरह की घटनाएँ एफडीसी के राज्य में गठन (2001) के साथ ही शुरू हो गई थीं। आदिवासी बहुल राज्य छत्तीसगढ़ में राज्य वन विकास निगम के अपने-अपने मायने हैं। इससे प्रभावित हो रहे आदिवासियों या निवासियों जो वन आधारित गाँवों में रहते हैं या जिन्हें वन अधिकार अधिनियम के तहत व्यक्तिगत पट्टा या सामुदायिक मिल चुका है, उनके नजरिए से देखें तो यह सरकार द्वारा बनाया गया एक ऐसा निगम है जो उनके अधिकारों में जबरिया घुसपैठ अपने गठन के बाद से ही करता आ रहा है और उन्हें मिल रहे लाभ या अधिकारों में कटौती करता है। यही नहीं वह प्राकृतिक वनों का विनाश भी करता है। दूसरे अर्थों में कहें तो सरकार ही वन विकास निगम के माध्यम से लाभ कमाना चाहती है। ऐसे में संघर्ष होना लाजिमी हो जाता है। नतीजतन राज्य में कई जगहों पर संघर्ष का स्वरूप ऐसा है कि पीड़ित जनता अपने हक के लिये अनेक जगह सरकार और राज्य वन विकास निगम से दो-दो हाथ करने तैयार बैठे दिखती है।
महिलाओं ने रोका निगम का रथ
ऐसा नहीं है कि वन विकास निगम को लेकर आदिवासियों में पनप रहा गुस्सा आज की बात है। वनवासियों के अधिकार को लेकर लड़ाई लड़ने वालों की मानें तो विवाद का यह सिलसिला काफी पुराना है। आदिवासी अधिकार समिति की सदस्य सुलक्षणा नंदी बताती हैं कि 2006 में वन विकास निगम का कोरिया-कवर्धा-सरगुजा के लिये वर्किंग प्लान मंजूर हुआ था, जिसमें जंगल को काटकर पौधारोपण करना था। बड़े पैमाने पर जंगल कटाई शुरू हुई। लोगों को पता चला कि वन मंत्रालय से इसकी मंजूरी मिली हुई है। इसके बाद बिलासपुर उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका लगाई गई।
वस्तुस्थिति जानने के लिये केन्द्रीय वन मंत्रालय द्वारा एक जाँच टीम भेजी गई। जाँच के दौरान यह पता चला कि जो घना वन था, उसे छत्तीसगढ़ राज्य वन विकास निगम ने कम सघन एवं ‘बिगड़े वन’ बताया था। इसके बाद केन्द्रीय मंत्रालय ने अपनी मंजूरी वापस ले ली और वन विकास निगम को अपना काम रोकना पड़ा। सुलक्षणा के मुताबिक, यह लड़ाई छह से सात महीने तक चली और इसे महिलाओं ने ही आदिवासी अधिकार समिति नामक संगठन के बैनर तले लड़ा। इसका व्यापक असर यह हुआ कि कोरिया, कवर्धा और सरगुजा तीनों जगह एक ही साथ जंगल की अवैध कटाई रुक गई। भले ही जंगल की इस तरह होने वाली कटाई पर तत्कालीन रोक लग गई हो। लेकिन कई जगह पर आज भी यह काम धड़ल्ले से जारी है। इसके बावजूद इस तरह के विरोध का दमन करने के लिये तमाम तरह के सरकारी हथकंडे भी अपनाए जा रहे हैं। हाल ही में इस तरह की घटना राज्य के राजनांदगाँव जिले में घटी।
लगातार तनातनी
यह वही राजनांदगाँव है, जहाँ से मुख्यमंत्री रमण सिंह और उनके बेटे अभिषेक सांसद के रूप में चुने गए। राजनांदगाँव में 2015 से 25 गाँवों के ग्रामीणों (जिनमें ज्यादातर आदिवासी हैं) और छत्तीसगढ़ राज्य वन विकास निगम के मध्य तनातनी चल रही है। तनातनी का नतीजा यह रहा कि ग्रामीणों ने वन विकास निगम के द्वारा काटी गई लकड़ी, औजार, गाड़ी सबको जब्त करके ग्रामसभा के हवाले कर दिया है। स्थिति यह है कि राज्य वन विकास निगम वाले कोई भी अधिकारी इसे छुड़ाने की किसी भी तरह की कोशिश नहीं कर रहे हैं।
इस पर राजनांदगाँव के वनांचल वनाधिकार फेडरेशन के सदस्य जयदेव मोहले कहते हैं कि उनके क्षेत्र में पेसा कानून लगा है, वनाधिकार पट्टे लागू हैं, उसके बाद भी छत्तीसगढ़ राज्य वन विकास निगम के अधिकारियों ने अपने मजदूरों और मातहतों के साथ जबरन घुसपैठ कर लकड़ी काटने का दुस्साहस किया। ऐसे में आदिवासियों और ग्रामीणों ने अगर विधि सम्मत कार्रवाई की तो क्या गलत किया? जयदेव का कहना है कि हम इस मसले पर निगम और सरकार से कानूनी लड़ाई भी लड़ रहे हैं। चूँकि हम सही हैं इसलिये अभी तक वन विकास निगम वाले अपनी गाड़ी और लकड़ी को छुड़वाने भी नहीं आये।
दलित आविदासी मुक्ति मोर्चा के सदस्य देवेंद्र बघेल कहते हैं, “बार-नवापारा को अभयारण्य दर्जा हासिल है। पिथौरा से लेकर बलौदाबाजार तक फैले इस अभयारण्य में धड़ल्ले से बाँस और सागौन के साथ अन्य पेड़ भी सफाई के नाम पर काट दिये जाते हैं। अवैध कटाई जारी है लेकिन अभी तक सभी ग्रामीणों के वनाधिकार अधिनियम के तहत उन्हें पट्टा नहीं मिला है। जहाँ मिला है, वहाँ भी निगम वाले जबरिया पौधारापोण कर देते हैं। विरोध करने पर मार-पिटाई से लेकर थाना-पुलिस में मामला दर्ज करा दिया जाता है।”
कांकेर में वन विकास निगम के खिलाफ आदिवासियों के हित में अपनी आवाज बुलन्द करने वाले वन्य कार्यकर्ता अनुभव शौरी बताते हैं कि 300 एकड़ में फैले जंगल को अवैध रूप से काट दिया गया। कांकेर के अंतागढ़ में कई किसानों की निजी जमीन पर वन विकास निगम ने जबरदस्ती कैंपा योजना के तहत प्लांटेशन कर दिया है। वो भी तब, जबकि सबको यह पता है कि पाँचवीं अनुसूची के तहत आदिवासी बहुल इन क्षेत्रों में पेसा कानून लागू है। बिना ग्राम सभा के अनुमति के इस तरह से काम करना गैरकानूनी है। शौरी बताते हैं कि इस सन्दर्भ में आदिवासियों एवं पीड़ित ग्रामीणों की ओर से सैकड़ों आवेदन तमाम सरकारी महकमे के प्रमुख को दिये गए हैं। लेकिन आज तक कोई सुनवाई नहीं हुई है। लेकिन अब हम नहीं रुकेंगे। हम अदालत का दरवाजा खटखटाएँगे। यहाँ सीधे संविधान का उल्लंघन हो रहा है। सरगुजा में लम्बे समय से आदिवासियों के लिये वन अधिकार पर काम कर रहे गंगा भाई बताते हैं कि उनके क्षेत्र में तो कई गाँव वालों ने फैसला किया है कि वन निगम वालों को अपने क्षेत्र में न तो घुसने देंगे और न ही पेड़ काटने देंगे।
दूसरी ओर ‘छत्तीसगढ़ बचाओ’ आन्दोलन के अध्यक्ष आलोक शुक्ला कहते हैं, “वन विकास निगम का वनों का विकास करने का तरीका गजब है। पहले ये जंगल में घुसकर घने जंगल क्षेत्र को छोटे झाड़ एवं कम सघन जंगल वाला बताते हैं, पुराने पेड़ों को सफाई के नाम पर कटवाते हैं, फिर नए पौधे कैंपा जैसे प्रोजेक्ट के तहत लगाते हैं और ये पौधे देखते-देखते खत्म हो जाते हैं, क्योंकि उनकी देखभाल नहीं की जाती। इस तरह से राज्य में जंगल-के-जंगल साफ होते जा रहे हैं।”
वन विकास निगम के रुख को लेकर आदिवासियों के अन्दर पनप रहे असन्तोष और विरोध को लेकर चुनावी साल होने के कारण कोई भी राज्य का अधिकारी सीधे-सीधे कुछ कहना नहीं चाह रहा है। काफी मशक्कत के बाद छत्तीसगढ़ राज्य वन विकास निगम के अध्यक्ष श्रीनिवास राव मद्दी निगम का पक्ष रखने को तैयार हुए। मद्दी ने कहा, “यह मुख्यतः एक निगम है, जिसका उद्देश्य है केन्द्र और राज्य सरकार के राजस्व में वृद्धि करना। इसके लिये निगम शासन से लीज पर कॉमर्शियल प्लांटेशन के लिये जमीन लेती है और वहाँ प्लांटेशन करती है, जहाँ बंजर जमीन है या कम सघन जंगल हैं। हमारे यहाँ बाँस भी है, टिम्बर भी है लेकिन 90 फीसद प्लांटेशन सागौन का है। रही बात विरोध की तो वो ऐसा नहीं है, जनता को तो इससे फायदा ही होता है, उन्हें रोजगार मिलता है। हम इसमें अब वन ग्राम समितियों को शामिल करना चाहते हैं। इसके लिये सरकार से बात चल रही है।”
उत्तराखण्ड सरकार का दावा है कि निगम लाभ कमाता रहा है। हालांकि पिछले 17 सालों से लाभ के आँकड़ों का विश्लेषण करें तो पाएँगे कि उसमें लाभ तो अवश्य कमा रहा है लेकिन बीच के दो-तीन सालों को यदि छोड़ दिया जाये तो इस लाभ में लगातार गिरावट आई है।
एफडीसी का आकलन
वनों की उत्पादकता में वृद्धि के एफडीसी के दावों के आकलन के तहत दिल्ली स्थित गैर सरकारी संगठन सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरन्मेंट (सीएसई) ने उनके प्रदर्शन व उनके कामकाज में मौलिक समस्याओं का विश्लेषण किया। सवाल उठता है कि क्या केन्द्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय को वनों की उत्पादकता बढ़ाने या मौजूदा प्रणाली को मजबूत करने के लिये नए साधन बनाने पर ध्यान देना चाहिए। क्योंकि वनों पर आधिपत्य कायम करने के लिये निजी क्षेत्र एफडीसी के माध्यम से पौधारोपण को बढ़ाने के लिये लॉबिंग कर रहा है।
सीएसई ने देश के 11 एफडीसी का आकलन कर बताया कि एफडीसी काम तो कर रहा है लेकिन उनकी उत्पादकता बहुत कम है। वे भी कई अन्य सरकारी निगमों की तरह सफेद हाथी बनते जा रहे हैं। क्योंकि उन्होंने इसके लिये कोई मानक नहीं तैयार किया है। बस काम कर रहे हैं और इसके बाद वे बहुत अधिक लाभ नहीं कमा पा रहे हैं। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि उनका वार्षिक टर्नओवर इतना कम क्यों है। ऐसे देखा जाये तो किसान भी इतना ही जंगल उगा रहे हैं। सीएसई का आकलन (फरवरी, 2017) बताता है कि लकड़ी आधारित उद्योगों में लकड़ी की माँगों को पूरा करने के लिये एफडीसी बनाए गए, लेकिन पिछले 35 साल से विभिन्न राज्यों में 12 लाख हेक्टेयर वन क्षेत्रों पर नियंत्रण रखने के बाद जाँच से पता चलता है कि एफडीसी की उत्पादकता में न केवल गिरावट दर्ज की गई है बल्कि प्राकृतिक जंगलों के लिये भी ये खतरा बनते जा रहे हैं क्योंकि वे प्राकृतिक रूप से भारी मात्रा में मिक्स जंगलों को खत्म कर रहे हैं। यही नहीं, एफडीसी के वनों की उत्पादकता सामान्य खेती से भी कम दर्ज की गई है।
जंगल कहीं खो नहीं गए बल्कि वास्तविकता यह है कि जंगल लगाए ही नहीं गए। मध्य प्रदेश के सीधी जिले के पडरा गाँव के पूर्व फॉरेस्ट गार्ड रहे चंद्रभान पांडे बताते हैं, “मैंने अपनी 32 साल की नौकरी में कभी नहीं देखा कि कहीं नए जंगल लगाए जा रहे हों। बस खानापूर्ति के लिये कभी-कभार स्कूली बच्चों को लाकर कुछ पौधे रोप दिये जाते हैं। वह कहते हैं, जंगल कैसे नहीं गायब हो जाएँगे? आखिर उनके रखवालों को (आदिवासी) सरकार ने जंगल से ही हकाल (निकाल) दिया, यह कहकर कि वे जंगल के रक्षक नहीं भक्षक हैं। जबकि हकीकत यह है कि आदिवासी सैकड़ों सालों से जंगलों के रक्षक बने हुए हैं। जंगल उनके डीएनए में है। वे जंगल को इस तरह से काटते हैं कि वह और बढ़ता है, जबकि हमारे जैसे लोग केवल नौकरी बचाने के लिये जंगल बचाने का कथित काम करते हैं, वनकर्मी जैसा बन पड़ा आड़ा-तिरछा काटकर एक बार में ही पेड़ को जड़ से नष्ट कर देते हैं।”
उद्योगों के लिये कच्चा माल मुहैया कराना एफडीसी का मुख्य लक्ष्य था। कुछ एफडीसी को तो ऐसे बनाया गया और कुछ को कहा गया है कि वह ठेकेदार का काम करे। क्योंकि वन विभाग की ओर से उन्हें कहा गया कि उनके यहाँ लोग इतने निपुण नहीं होते हैं कि वे जंगल काटें और फिर उसे उगाएँ। चूँकि इस मामले में एफडीसी निपुण होता है। इसलिये उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश और जम्मू व कश्मीर में एफडीसी के पास जमीन नहीं है, वे बतौर ठेकेदार के रूप में काम करते हैं।
सीएसई की रिपोर्ट में बताया गया है कि 11 एफडीसी में से आठ ऐसे हैं जो उद्योगों के लिये लकड़ी तैयार कर रहे हैं यानी कच्चे माल तैयार कर रहे हैं। कुछ सागौन लगा रहे हैं, कुछ यूकेलिप्टस लगा रहे हैं। ये वे एफडीसी हैं, जिनके पास लगभग पचास हजार हेक्टेयर जमीन है। सीएसई की रिपोर्ट बताती है कि एफडीसी को जो जमीन दी गई थी, वह अच्छी खासी गुणवत्ता वाली थी। ये मिक्स जंगल काट रहे हैं। इसका कई राज्यों में स्थानीय जनता विरोध कर रही है। मध्य प्रदेश के वनवासियों और निगम के बीच टकराव भी पिछले कई सालों से चल रहा है और यह लगातार बढ़ ही रहा है कम नहीं हो रहा है।
मध्य प्रदेश के पूर्व उप वन संरक्षक सुदेश वाघमारे बताते हैं, “निगम खराब वनों की जगह अच्छे वन लगाने के नाम पर प्राकृतिक वनों को काट देता है। लेकिन इसके बाद वह काफी समय तक उसकी ओर ध्यान नहीं देता। इससे स्थानीय पारिस्थितिकी बुरी तरह से प्रभावित होती है। इन्हीं वजहों से राज्य के एक दर्जन से अधिक गाँवों में ग्रामीणों और निगम के बीच तनाव बना हुआ है।” विरोध करने वाले ग्रामीणों का तर्क है कि जब जंगल लगा ही हुआ है तो उसे आप काट क्यों रहे हैं और उसकी जगह सागौन लगा रहे हैं। सवल उठता है कि जंगल काटकर आप क्यों पौधारोपण कर रहे हैं। अगर आपको पौधारोपण करना ही है तो बहुत सी ऐसी क्षरण भूमि (डिग्रेडेड लैंड) पड़ी है, उस पर पौधारोपण कीजिए।
इस पर एफडीसी के अधिकारियों का तर्क है कि ऐसी जमीन को तैयार करने के लिये बहुत अधिक निवेश की जरूरत पड़ेगी और हमारे पास उतने पैसे नहीं हैं। फिर इसके लिये प्रतिबद्धता भी चाहिए क्योंकि ऐसी जमीन को तैयार करने के लिये पहले तीन-चार साल तक बहुत मेहनत करनी पड़ती है। इसके बाद ही उस जमीन की मिट्टी की उत्पादकता बढ़ती है। स्थानीय पारिस्थितिकी के खराब होने की बात पर एफडीसी का तर्क है कि ऐसा करने से अगले दस-पन्द्रह सालों में जंगल की स्थिति पूर्व जैसी बन जाती है। लेकिन स्थानीय लोगों पर तो इसका असर पड़ता ही है।
वन उत्पादकता को समझने के लिये वनों से लकड़ी के उत्पादन की दर के रूप में समझा जाता है। भूमि से लकड़ी के उत्पादन को अधिकतम करने के लिये एफडीसी ने सागौन (उच्च मूल्य वाली इमारती लकड़ी) और नीलगिरी (तेजी से बढ़ते पल्पवुड) जैसे वृक्षों को लगाया है। कुछ राज्यों में एफडीसी ने पट्टे वाले जंगलों पर काजू और कॉफी जैसी नकदी फसल लगाई है। सागौन और नीलगिरी में एफडीसी बागान के तहत कुल क्षेत्रफल का 60 फीसद से अधिक हिस्सा होता है। साल 2011-15 के दौरान एफडीसी ने प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष 0.77 घनमीटर की दर से लकड़ी का उत्पादन किया। सीएसई के विश्लेषण से पता चलता है कि एफडीसी की उत्पादकता वनों के बाहरी पेड़ों की तुलना में बहुत कम है।
देश की 145 लाख हेक्टेयर जमीन पर बाहरी पेड़ों पर कब्जा है और सालाना 4,434 लाख प्रति घनमीटर लकड़ी का उत्पादन करता है। जबकि खाद्य एवं कृषि संगठन की रिपोर्ट में कहा गया है कि एफडीसी भूमि की उत्पादकता मिश्रित और प्राकृतिक जंगलों से भी कम है। यहाँ तक कि जब कोई देश में लकड़ी की पूर्ति की समग्र तस्वीर को देखता है, तो एफडीसी एक छोटे खिलाड़ी के रूप में दिखता है। सीएसई की रिपोर्ट में बताया गया है कि 2011 और 2015 के बीच एफडीसी द्वारा लकड़ी का औसत वार्षिक उत्पादन 197 लाख प्रतिघन मीटर था, जो भारत में उत्पादित कुल लकड़ी का मात्र 5 प्रतिशत से भी कम है।
किसानों ने एफडीसी को मात दी
रिपोर्ट में कहा गया है कि एफडीसी ने अपने कब्जे वाली पूरी जमीन को पौधारोपण के लिये परिवर्तित कर दी। जबकि वास्तविकता यह है कि उनके पास उपलब्ध जमीन का कुछ भाग पौधारोपण के लिये लायक ही नहीं है। इस पर एफडीसी का तर्क है कि जिस भूमि पर पौधारोपण किया गया है, उनकी उत्पादकता व कुल क्षेत्रफल की औसत उत्पादकता उनके नियंत्रण में है। हालांकि सीएसई का विश्लेषण उनके इस दावे को सच मानता है। लेकिन एक बार फिर से यह बात साफ हो चुकी है कि एफडीसी की पौधारोपण की उत्पादकता व्यक्तिगत किसानों की तुलना में काफी कम है। उदाहरण के लिये तमिलनाडु और आन्ध्र प्रदेश जैसे राज्यों में एफडीसी की नीलगिरी की उत्पादकता 4.76-11.69 क्यूबिक मीटर प्रति हेक्टेयर प्रतिवर्ष है। लेकिन पड़ोसी राज्य के भद्रचलाम शहर में किसानों के स्वामित्व वाले बागानों में 32-96 क्यूबिक मीटर प्रति हेक्टेयर प्रतिवर्ष है।
एफडीसी का गठन जिस आर्थिक उद्देश्य को प्राप्त करने के लिये बनाया गया था, वह उसके लक्ष्य को हासिल करने में नाकाम रहा। साल 1972 में एफडीसी की स्थापना के समय राष्ट्रीय कृषि आयोग ने कहा था, “वन क्षेत्र के हर हेक्टेयर से जो कुछ हासिल किया जा रहा है, वह शुद्ध आय अर्जित करने की स्थिति में होना चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं हुआ है।” साल 2011 से 2015 के बीच एफडीसी भूमि का औसत प्रति हेक्टेयर वार्षिक कारोबार 4,534.6 रुपए था। यह सभी मानकों के मुकाबले कम है। यहाँ तक कि कृषि वानिकी भी एफडीसी के लकड़ी आधारित उद्योग के मुकाबले अधिक लाभप्रद स्थिति में है। यही नहीं, गेहूँ और चावल जैसी पारम्परिक कृषि फसलें भी एफडीसी से बेहतर आर्थिक लाभ प्रदान कर रही हैं।
उदाहरण के लिये यूकेलिप्टस से गुजरात के किसानों का औसत राजस्व 1.14 लाख रुपए प्रति हेक्टेयर प्रतिवर्ष है, जबकि राज्य के एफडीसी का राजस्व उसी प्रजाति के यूकेलिप्टस से 50,000 रुपए प्रति हेक्टेयर प्रतिवर्ष है। इससे अन्दाजा लगाया जा सकता है कि एफडीसी किस तरह से नए जंगल लगाता है।
एफडीसी का गठन उस समय किया गया जब वनों का संचालन 1952 की राष्ट्रीय वन नीति द्वारा किया जाता था। जिसका एकमात्र उद्देश्य था- लकड़ी की निरन्तर आपूर्ति और अधिकतम वार्षिक राजस्व की प्राप्ति। इन उद्देश्यों को पूरा करने का सबसे आसान तरीका था प्राकृतिक वनों को कम करना और उसके स्थान पर वाणिज्यिक पौधारोपण करना। एफडीसी ने अपने शुरुआती समय से इसी नजरिए को अपनाया।
यही कारण है कि महाराष्ट्र एफडीसी ने 1970 से 1987 के बीच प्राकृतिक वनों की कटाई करके उसके स्थान पर सागौन व यूकेलिप्टस का पौधारोपण (1 लाख 30 हजार हेक्टेयर) किया गया। वास्तव में एफडीसी का उद्देश्य बंजर जमीनों की उत्पादकता बढ़ाना नहीं था बल्कि प्राकृतिक जंगलों को खत्म कर उसके स्थान पर सागौन व यूकेलिप्टस जैसे वाणिज्यिक पौधों का रोपण करना था। केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय की 1990 की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि लगातार दो से तीन बार वाणिज्यिक फसलों को लेने से वन्य जमीन की गुणवत्ता कमजोर पड़ जाती है। इसके अलावा सीएसई ने अपनी रिपोर्ट में इस बात का विशेष रूप से उल्लेख किया है कि प्राकृतिक जंगलों को खत्म कर उसके स्थान पर पौधारोपण कर नए जंगल तैयार करने से वनों की पारिस्थितिकी बुरी तरह से प्रभावित होती है।
स्थानीय समुदाय तो प्रभावित होता ही है, साथ ही इससे कई पर्यावरणीय क्षति होती है। जैसे-मिट्टी का क्षरण, वन्यजीवों का आवास खत्म हो जाना और जैव विविधता की हानि। इसके अतिरिक्त हाइड्रोलॉजिकल चक्र पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। पर्यावरण मंत्रालय के अनुसार, जंगलों में वनों की कटाई से पर्यावरणीय हानि प्रति एक लाख हेक्टेयर भूमि पर 40 प्रतिशत के बराबर होती है। एफडीसी भूमि से प्रति हेक्टेयर वार्षिक कारोबार 4,534.6 रुपए है। लेकिन इसे पर्यावरणीय नुकसानों के मुआवजे के रूप में नहीं देखा जा सकता है।
एक तरफ एफडीसी ने स्वस्थ वनों को वाणिज्यिक बागानों में बदल दिया है और दूसरी तरफ वे जंगलों की क्षरण भूमि को उत्पादक बनाने के लिये अब तक कुछ नहीं किया है। इन जमीनों के लिये एफडीसी ने किसी प्रकार की योजना न तो अब तक तैयार की है और उसके व्यवहार से यह उम्मीद भी नहीं बँधती है कि भविष्य में इसके लिये वह कुछ करेगा भी। यहाँ तक कि वे अब ऐसे जंगलों को वन विभाग से लेंगे भी नहीं। उदाहरण के लिये मध्य प्रदेश एफडीसी ने 2016 में एक नीति अपनाई, जिसके तहत वह पौधारोपण के लिये गैर-उत्पादक वन क्षेत्र नहीं लेगा।
आदिवासियों को सहयोग
एफडीसी के कई उद्देश्यों में से एक प्रमुख उद्देश्य था, पिछड़े क्षेत्रों की अर्थव्यवस्था को पर्याप्त सहयोग व वानिकी गतिविधियों के विकास पर निर्भर आदिवासी जनसंख्या को सहयोग देना। पर्यावरण मंत्रालय ने 1990 में एफडीसी की अपनी समीक्षा रिपोर्ट में कहा, कमजोर तबका, भूमिहीन ग्रामीण आबादी या आदिवासी समुदायों के लिये विशेष रूप से किसी तरह के ईमानदार प्रयास नहीं किये गए हैं।
यह अफसोस की बात है। इसके बावजूद 1990 के बाद से अब तक बहुत कुछ नहीं बदला है। हालांकि यह सही है कि एफडीसी मजदूरी के रूप में काम पर रखने के लिये स्थानीय समुदायों को रोजगार के अवसर प्रदान करती है और कुछ एफडीसी में लाभों को साझा करने के लिये व्यवस्था भी मौजूद है, लेकिन यहाँ इस बात का अध्ययन किया जाना चाहिए कि लाभ वास्तव में लक्षित आबादी तक पहुँच रहा है या नहीं।
उदाहरण के लिये गुजरात एफडीसी को 2008 से 2015 तक लगभग 34 करोड़ रुपए का भुगतान स्थानीय ग्रामसभा को करना चाहिए था। लेकिन अब तक ऐसा नहीं हुआ है। इस सम्बन्ध में गुजरात एफडीसी के अधिकारियों का कहना है कि यह फैसला राज्य सरकार के साथ पिछले 8 सालों से लम्बित पड़ा है। देश के कई राज्यों में एफडीसी की कारगुजारियाँ अनुसूचित जनजातियों व अन्य पारम्परिक वनवासी अधिनियम 2006 का खुलेआम उल्लंघन करती हैं। उदाहरण के लिये 2009 में त्रिपुरा एफडीसी ने 2,606 अनुसूचित जनजातियों और अनुसूचित जातियों के परिवारों का पुनर्वास करने का दावा किया और सभी परिवारों को एक-एक हेक्टेयर जमीन पर रबड़ के पौधे लगाने के लिये दिये। लेकिन जिला प्रशासन ने 43 आदिवासी परिवारों के वन अधिकारों को रद्द कर दिया क्योंकि भूमिधारकों ने रबड़ पौधारोपण का विरोध किया था।
मूल्यांकन प्रणाली जरूरी
अक्टूबर, 2013 में मध्य प्रदेश एफडीसी ने वैकल्पिक मॉडल पर चर्चा करने के लिये एक कार्यशाला का आयोजन किया था। जिसमें सुझाव आये कि किसानों को एफडीसी परियोजना क्षेत्रों के आस-पास बंजर भूमि पर वानिकी करने के लिये सहयोग देना चाहिए। इसके अलावा यह भी सुझाव था कि बेहतर निवेश के लिये निजी क्षेत्र के साथ बातचीत की जा सकती है। इन दोनों अहम सुझावों पर विचार किया जा सकता है। यही नहीं बेहतर उत्पादन प्राप्त करने के लिये सरकार वर्तमान में मौजूदा एफडीसी बागानों को निजी क्षेत्र में सौंपने पर विचार कर सकती है।
राज्य में कृषि वानिकी की सफलता से प्रेरित होकर आन्ध्र प्रदेश एफडीसी ने अपने पौधारोपण में मृदा और जल संरक्षण के उपाय करने का प्रयास किया है। जबकि एफडीसी अधिकारियों का दावा है कि इन उपायों के उपयोग से उच्च उत्पादकता और बेहतर परिणाम हासिल किया गया।
केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय को प्राकृतिक वनों को खत्म कर एफडीसी द्वारा किये जा रहे पौधारोपण के विरुद्ध स्थानीय समुदायों के तेजी से पनपते असन्तोष को देखते हुए अनिवार्य सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन प्रणाली शुरू करनी चाहिए। एफडीसी को अपने लक्ष्य को बदलने की जरूरत है। उसके लक्ष्य के अन्तर्गत क्षरण भूमि के वनों की उत्पादकता बढ़ाने पर जोर होना चाहिए। यही नहीं, अब वक्त आ गया है कि उसे जहाँ-तहाँ भी पौधारोपण करने के पहले हर हाल में स्थानीय समुदायों की बातें भी सुननी चाहिए। उनकी तमाम समस्याओं को उसे गम्भीरता से लेना चाहिए।
इसके अलावा 2006 के वन अधिकार कानून द्वारा उसे प्रदत्त अधिकारों का उल्लंघन कतई नहीं करना चाहिए। यही नहीं उसे अपने इन अधिकारों को स्थानीय समुदायों के खिलाफ दुरुपयोग से भी बचना चाहिए। यह साफ हो चुका है कि एफडीसी अपने उद्देश्यों को पूरा करने में पूरी तरह से सफल नहीं हो पाया है। उसे और सुधारों की जरूरत है। सीएसई के मूल्यांकन के दौरान एफडीसी ने अपने प्रदर्शन के सम्बन्ध में यह महसूस किया कि उसकी कार्यप्रणाली में कहीं-न-कहीं कुछ समस्या है। नहीं तो जिस जमीन पर एफडीसी की उत्पादकता कम है, ठीक उसी जमीन पर किसानों की उत्पादकता उससे बेहतर क्यों है।
लोनल यूकेलिप्टस के विशेषज्ञ और आईटीसी लिमिटेड के पूर्व उपाध्यक्ष हर्ष कुमार कुलकर्णी ने कहा, “अब समय आ गया है कि एफडीसी किसानों के अपनाए तौर-तरीके से बहुत कुछ सीख सकता है। किसानों से कई अहम बातें सीखने की जरूरत है। जैसे पेड़ों को कैसे काटा जाये कि वह फिर से अंकुरित हो सके, क्योंकि सरकारी कटाई में पेड़ों को जड़ से नष्ट कर दिया जाता है।
इसके अलावा किसानों द्वारा की जाने वाली नियमित रूप से जुताई, उत्पादक प्रजातियों की सफल चयन प्रक्रिया, किसानों के कीटनाशक और बीमारी प्रबन्धन को एफडीसी बेहतर तरीके से जान व समझ सकती है। अगर एफडीसी इस तरह की प्रतिबद्धता दिखाती है, तो उनका भी परिणाम किसानों की तरह ही आ सकता है। एफडीसी के लिये सही होगा कि अब वह अपना मानक तय करे जिसके तहत वह प्राकृतिक जंगलों का दुरुपयोग व नई वन्य जमीन का अधिग्रहण करन पूरी तरह से बन्द कर दे।”
“निगम शासन से लीज पर कॉमर्शियल प्लांटेशन के लिये जमीन लेता है। रही बात विरोध की तो ऐसा नहीं है, जनता को तो इससे फायदा ही होता है। इसमें वन ग्राम समितियों को हम शामिल करना चाहते हैं” -श्रीनिवास राव मद्दी, अध्यक्ष, छत्तीसगढ़ राज्य वन विकास निगम
“मध्य प्रदेश वन विकास निगम के पास एक ऐसी टीम (जिसमें गैर सरकारी लोग हों) होनी चाहिए जो उनके द्वारा काटे जा रहे जंगल या पौधारोपण के दौरान पारिस्थितिकी और जैव विविधता के बीच सामंजस्य स्थापित कर सके” -सुभाष पांडे, पर्यावरणविद, भोपाल
“एफडीसी को पूरे देश में अच्छी किस्म की 13 लाख हेक्टेयर जमीन उपलब्ध कराई गई है। वह काम तो कर रहा है लेकिन उनकी उत्पादकता बहुत कम है। क्योंकि उन्होंने इसके लिये कोई ठोस मानक नहीं बनाया है” -श्रुति अग्रवाल, सीएसई, दिल्ली
(साथ में मनोज शर्मा और अवधेश मलिक)
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Post By: RuralWater