विश्व बांध आयोग की रिपोर्ट

आम आदमी को आंकड़ों के विश्लेषण या उनकी व्याख्या में कोई दिलचस्पी नहीं होती। यह काम इंजीनियरों का है मगर कभी-कभी उनके दावों पर समाज के प्रबुद्ध लोग प्रश्न खड़े करते हैं। बड़े बांधों के सन्दर्भ में एक आम आदमी की जो जरूरत या समझ है वह इसी बात तक सीमित रहती है कि जब कोई परियोजना हाथ में ली जाती है तो इससे उसकी सिंचाई की जरूरतें पूरी होंगी, जरूरत भर बिजली उसे उपलब्ध होगी तथा परियोजना का उसकी जीविका या रहन-सहन पर कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ेगा। विश्व बैंक समेत बहुत सी वित्तीय और दाता संस्थाओं तथा दुनिया भर में फैले पानी/बिजली पर काम कर रहे क्रियाशील समूहों के साझा प्रयास से बड़े बांधों की उपादेयता पर विश्व बांध आयोग (वि.बा.आ.) की रिपोर्ट सन् 2000 में जारी की गई थी। वि.बा.आ. की रिपोर्ट के आरम्भ में ही यह लिख कर स्पष्ट कर दिया गया है कि यह रिपोर्ट किसी भी मायने में बड़े बांधों के खिलाफ नुस्खा नहीं है लेकिन इस रिपोर्ट के कारण भारत के सरकारी अमला तंत्रा में एक तरह से भूचाल आ गया। भारत सरकार के जल संसाधन विभाग और केन्द्रीय जल आयोग ने इस रिपोर्ट को सिरे से ही खारिज कर दिया है।

बांध या इस तरह की किसी भी संरचना के निर्माण सम्बन्धी दो आयाम होते हैं। पहला यह कि बांध से समाज या देश को होने वाले समस्त लाभ और लागत का विश्लेषण-जिसमें भौतिक लाभ का पूरा-पूरा ध्यान रखा जाये। इसके लिए यह जरूरी है कि सम्बद्ध विभाग और इंजीनियर अपनी राय मुक्त रूप से और बेबाकी से रख सकें ताकि पूरे तथ्य और आंकड़ों के साथ तकनीकी और गैर-तकनीकी मुद्दों पर पड़ी धुंद को छांटा जा सके और तब सारे सम्बद्ध पक्ष बांध की लागत और लाभ पर बहस और विश्लेषण कर सकें। सभी सम्बद्ध पक्ष सारी सूचनाओं और ज्ञान के आधार पर ही बांध के निर्माण या उसे खारिज करने का सर्वसम्मत निर्णय लें। भूतकाल में निर्मित संरचनाओं का ज्ञान और अनुभव इस कोशिश में उनके लिए आधार का काम करेगा, ऐसी आशा रिपोर्ट में व्यक्त की गई है। वि.बा.आ. की रिपोर्ट ने विकास कार्यक्रमों में बड़े बांधों की उपयोगिता स्वीकार करते हुए इतना जरूर जोर देकर कहा है कि विकास के इन लाभों को हासिल करने के लिए समाज के एक हिस्से ने जो कीमत अदा की है वह यकीनन अनुपात से ज्यादा है और भविष्य में बनने वाले बांधों के बारे में वि.बा.आ. की सिफारिश है कि बांधों के निर्माण में बराबरी, दक्षता, सहभागी निर्णय प्रक्रिया, टिकाऊपन और जवाबदारी जैसे पाँच बुनियादी सिद्धान्तों का क्रियान्वयन सुनिश्चित किया जाय तथा बांध के सारे दूसरे विकल्पों की भली-भाँति जाँच-परख कर लेनी चाहिये।

दूसरा, बांधों की डिजाइन, निर्माण, संचालन और उसका रख-रखाव यह सारी चीजें तकनीकी महत्व की हैं और उसमें गैर-तकनीकी लोगों के हस्तक्षेप की गुंजाइश नहीं है। निर्माण कार्य का यह अंश तकनीकी विशेषज्ञों पर छोड़ देना चाहिये क्योंकि वह इस तरह के कामों के लिए सक्षम हैं।

वि.बा.आ. की रिपोर्ट ठीक ही दूसरे पहलू पर खामोश है और यह ज्यादातर बांधों के निर्माण सम्बन्धी निर्णय प्रक्रिया पर ही मुखर है जहाँ उसे लगता है कि सारे सम्बद्ध पक्षों की भागीदारी की गुंजाइश और जरूरत दोनों ही है। इसी सन्दर्भ में रिपोर्ट बराबरी, दक्षता, सहभागी निर्णय प्रक्रिया, टिकाऊपन और जवाबदारी की बात करती है। दुर्भाग्यवश इंजीनियरों और प्रशासन को पानी और बिजली परियोजनाओं में बराबरी तथा सहभागी निर्णय प्रक्रिया जैसी बातें कतई नहीं सुहातीं। अपने सीमित दायरे में वह दक्षता और टिकाऊपन जैसे शब्दों की व्याख्या जरूर कर सकते होंगे। वह दिन-प्रतिदिन के स्तर पर शायद जवाबदारी का मतलब भी समझते हों मगर लम्बी अवधि में जवाबदारी का मतलब शायद ही उन्हें तर्कसंगत लगता होगा। लंबी अवधि की जवाबदारी उनके लिए तकनीकी मामला न होकर नीतिगत फैसले से जुड़ा हुआ पहलू है। जवाबदारी एक ऐसा मसला है जिसे बड़ी आसानी से दूसरों पर ठेला जा सकता है। कभी-कभी तो यह जवाबदारी पिछली पीढ़ी के राजनीतिज्ञों और इंजीनियरों पर भी डाली जा सकती है कि उनके निर्णय सही नहीं थे। इसकी सफाई में ऐसे कामों की एक लम्बी सूची जोड़ी जा सकती है जिन्हें परियोजना में शामिल किया जाना चाहिये था मगर विभिन्न कारणों से ऐसा नहीं किया जा सका। मगर वह काम जिनके बारे में योजना बनाते समय इंजीनियरों को जानकारी ही नहीं थी या फिर उन्होंने लाभ-लागत गुणक की चमक कायम रखने के लिए जान-बूझकर जिन्हें छोड़ दिया था या तोड़-मरोड़ कर पेश किया था, वह इस सूची से बाहर रहेंगे। दुर्भाग्यवश, इंजीनियर पुनर्वास या क्षतिपूर्ति जैसे बहुत से कामों की जिम्मेवारी भी अपने सिर पर ले लेते हैं जिसका न तो उन्हें समुचित ज्ञान होता है और न ही उन्हें इस तरह के कामों का कोई प्रशिक्षण मिला होता है।

आम आदमी को आंकड़ों के विश्लेषण या उनकी व्याख्या में कोई दिलचस्पी नहीं होती। यह काम इंजीनियरों का है मगर कभी-कभी उनके दावों पर समाज के प्रबुद्ध लोग प्रश्न खड़े करते हैं। बड़े बांधों के सन्दर्भ में एक आम आदमी की जो जरूरत या समझ है वह इसी बात तक सीमित रहती है कि जब कोई परियोजना हाथ में ली जाती है तो इससे उसकी सिंचाई की जरूरतें पूरी होंगी, जरूरत भर बिजली उसे उपलब्ध होगी तथा परियोजना का उसकी जीविका या रहन-सहन पर कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ेगा। अगर परियोजना में बाढ़ नियंत्रण का भी लाभ जोड़ा गया है तो वह निश्चय ही यह उम्मीद करेगा कि उसकी जमीन बाढ़ से मुक्त रहेगी। इसके आगे न तो उसे नदी के हाइड्रोग्राफ से कोई मतलब है, न नहरों के संचालन की प्रक्रिया से और न ही उसे इस बात में काई रुचि है कि स्पिलवे के ऊपर से कब और कितना पानी जायेगा। उसकी समझ में अगर बिजली-पानी मिलता रहे तो फिर वह यह भी जानना नहीं चाहेगा कि उससे किये गये वायदों के न पूरे होने का तकनीकी औचित्य क्या है? राष्ट्रीय और विश्व स्तर पर कहाँ क्या हो रहा है, यह हमेशा उसे अपने खेत पर मिलने वाले पानी से कम महत्वपूर्ण है। दुनिया भर की चिन्ता योजना बनाने वाले करें। इतना सब होने के बावजूद अगर उसकी आकांक्षाएँ पूरी नहीं होती हैं तो फिर वह कहाँ जाकर फरियाद करेगा यह उसे नहीं मालूम। यही वह मुकाम है जहाँ तकनीकी विशेषज्ञों और एक आम आदमी के बीच तथ्यात्मक सूचनाओं के आधार पर बहस और जानकारी के आदान-प्रदान की जरूरत है।

इंजीनियरों को आम आदमी को स्पष्ट रूप यह बताना चाहिये कि किसी भी परियोजना विशेष से किसानों की रबी की सारी सिंचाई की जरूरतें किस हद तक पूरी हो सकती हैं। अमुक योजना खरीफ के मौसम में केवल सुरक्षात्मक सिंचाई देने के लिए बन रही है, अमुक योजना से बाढ़ के समय सर्वोच्च प्रवाह को केवल एक स्तर तक कम किया जा सकेगा मगर बाढ़ फिर भी एक हद तक अपनी जगह हमेशा बनी रहेगी और यह कि बाढ़ से पूरी तरह मुक्ति पाना संभव नहीं है, आदि आदि। किसानों को यह भी पता होना चाहिये कि बांध से पैदा होने वाली बिजली के पहले हकदार कौन लोग होंगे, और उनके हिस्से अगर कुछ आया तो वह कब आयेगा। आम तौर पर प्राथमिकता के अन्तिम छोर पर वहीं लोग होते हैं जिनकी जमीन और रोजी-रोटी की कीमत पर परियोजना की बुनियाद रखी जाती है, यह उन्हें मालूम होना चाहिए। उन्हें तथा समाज को यह पता होना चाहिये कि देश और समाज के व्यापक हित में वह क्या-क्या कुर्बानियाँ दे रहे हैं। इतनी सारी जानकारी के साथ अगर समाज, और खास कर वह लोग जो कि परियोजना से प्रभावित होंगे, देश-हित या समाज के हित में यह फैसला करते हैं कि अमुक योजना से स्थानीय समाज और देश को होने वाला लाभ उसके लिए चुकाई गई हर तरह की कीमतों के मुकाबले ज्यादा है, तो योजना आम सहमति के आधार पर निश्चित रूप से बननी चाहिये। और एक दफा यह फैसला हो जाता है तब यह काम पूरे विश्वास और निष्ठा के साथ सरकार और इंजीनियरों के हाथ में सौंप देना चाहिये।

कड़वी सच्चाई मगर यह है कि सरकार और सम्बद्ध विभाग, निर्माणकर्ता ठेकेदार और वित्तीय संस्थाएँ यह कभी नहीं चाहतीं कि बांध या इस तरह के किसी भी सार्वजनिक हित के निर्माण कार्य पर कोई बहस हो क्योंकि इस तरह के कामों को हाथ में लेने के पीछे बहुत से गैर-तकनीकी और राजनैतिक कारण भी होते हैं और तथ्याधारित बहस में इन सारी बातों का भांडा पूफटने का अंदेशा रहता है। इन योजनाओं के निर्माण में जिन लोगों को आर्थिक या राजनैतिक लाभ मिलने वाला होता है उनमें इतना सब्र भी नहीं होता कि वह बहस में शामिल होकर अपना समय बर्बाद करें।

वि.बां.आ. की रिपोर्ट सुझाती है कि, “...ऐसा होने पर यह प्रभावकारी तरीके से तय हो जायेगा कि किसी भी वार्तालाप में किसकी जगह वाजिब है और किन विषयों को अजेण्डा में शामिल किया जायेगा।’’ यही वह मुद्दा है जिस पर सम्बद्ध विभागों और राजनीतिज्ञों को ऐतराज है और यही वजह है कि केन्द्रीय जल-संसाधन विभाग (ज.सं.वि.) ने इस रिपोर्ट को खारिज किया हुआ है। ज.सं.वि. को इस बात का अंदेशा है कि अगर सभी सम्बद्ध पक्षों की इस तरह से भागीदारी होने लगी तब तो जनतांत्रिक संस्थाएँ निरर्थक हो जायेंगी और लोगों द्वारा चुने गये जन-प्रतिनिधियों द्वारा निर्मित प्रशासनिक ढांचा ही ढह जायेगा। वि.बां.आ. की रिपोर्ट “... परियोजनाओं के महत्वपूर्ण स्तरों पर निर्णय की उस प्रक्रिया पर अपना ध्यान केन्द्रित करती है जो कि अंतिम निष्कर्षों को प्रभावित करती है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि नियंत्राक प्रावधानों का पालन हुआ है नहीं?” यह बात भी योजना बनाने वालों के अनुकूल नहीं है।

नेपाल के तराई वाले हिस्से और भारत के पूरे कोसी क्षेत्र के लिए यह समस्या बहुत ही महत्वपूर्ण है। यहाँ की मौजूदा और भविष्य में होने वाली समस्याओं के यथोचित और समुचित निराकरण के बाद ही बांध निर्माण की दिशा में कोई कदम उठाया जाना चाहिये। इसके साथ ही हम बांध के ऊपरी क्षेत्रों में होने वाले पर्यावरण और विस्थापन/पुनर्वास के मसले को कतई हल्का करके नहीं देखना चाहते क्योंकि वहाँ होने वाली किसी भी गड़बड़ी से निचले क्षेत्र अछूते नहीं रहेंगे और इसीलिए एक तथ्य आधरित आम सहमति की अपेक्षा रखते हैं। ज.सं.वि. का मानना है कि, “...स्वतंत्र चिन्तन, स्वतंत्र अभिव्यक्ति और स्वतंत्र विकल्प का चुनाव, यह सब अपनी जगह धरा रह जायेगा अगर स्वप्रेरित समूहों को बाहर नहीं रखा जायेगा और वास्तविक स्थानीय नेतृत्व आगे नहीं किया जायेगा ताकि वास्तविक स्थानीय लोगों की आशंकाएँ और भावनाओं को अभिव्यक्ति मिल सके।” सच यह है कि स्वतंत्र चिन्तन, स्वतंत्र अभिव्यक्ति और स्वतंत्र विकल्प का चुनाव बिना किसी तथ्याधारित बहस के संभव ही नहीं है और इसी बहस से ज.सं.वि. बचना चाहता है। ज. सं. वि. स्थानीय नेतृत्व की बात तो करता है पर कभी भूल कर भी स्थानीय स्तर पर योजना बनाने की बात नहीं करता। ज.सं.वि., ऐसा लगता है, यह नहीं चाहता है कि स्थानीय रूप से प्रभावित होने वाले लोगों की मदद में कोई बाहरी संस्था, व्यक्ति या प्रबुद्ध लोगों का समूह आये। वह एक ऐसी अदालत की कल्पना करता है जिसमें अभियोजन पक्ष में तो एक से एक सूरमां हों मगर पीड़ित व्यक्ति को वकील रखने की इजाजत न हो। ज.सं.वि. की स्वीकारोक्ति है कि, “...एक ज्यादा तर्क संगत तरीका यह हो सकता है कि विस्थापन और पुनर्वास के मसले पर उन लोगों से विचार विमर्श किया जाय जो कि विस्थापित होने वाले हैं जिससे पुनर्वसन के लिए उनकी सामाजिक और आर्थिक आकांक्षाओं का ध्यान रखा जा सके।” यहाँ ज.सं.वि.यह मान कर चलता है कि पुनर्वास के अलावा इन संरचनाओं के निर्माण में दूसरा कोई ऐसा मुद्दा ही नहीं है जिस पर लोगों से बात करने की जरूरत है। वह यह बड़ी आसानी से भूल जाता है कि सरकार से केवल पुनर्वास जैसी वाजिब और इतनी जरा सी सुविधा पाने के लिए जनता को वर्षों संघर्ष करना पड़ा है वरना केन्द्रीय जल आयोग तो कोसी परियोजना के विस्थापितों को अपनी तरफ से ठिकाने लगा देने की योजना बना ही चुका था।

यह बहस केवल विस्थापन और पुनर्वास पर ही क्यों होगी, योजना के विकल्पों पर क्यों नहीं होगी? अगर कोई परियोजना अपने उद्देश्यों से भटक जाये तो क्या उस पर बहस नहीं होगी? लोग क्यों इस बात पर चुप्पी साधेंगे कि, फर्ज करें, गंडक या कोसी के कमान क्षेत्र में जल-जमाव का क्षेत्र परियोजना द्वारा सिंचित क्षेत्र से ज्यादा है? क्यों बाढ़ सुरक्षा के लिए उत्तर प्रदेश से लेकर असम तक नदियों पर बनाये गये तटबन्धों की हर बरसात में धज्जियाँ उड़ जाती हैं और इस दुर्घटना की जिम्मेवारी लेने के लिए कोई भी तैयार नहीं होता? 2004 की बाढ़ में असम की नदियों के किनारे बने तटबन्ध 336 जगह और बिहार में 56 जगह टूटे। इस उपलब्धि पर जल संसाधन विभाग, गंगा बाढ़ नियंत्रण आयोग, केन्द्रीय जल आयोग या सरकार की कौन जय-जयकार करेगा या उनकी आरती उतारेगा? राहत मांगने वालों पर बन्दूक दागने की जनता कैफियत तलब नहीं करेगी? किसी भी बातचीत का आधार इस तरह के उदाहरण क्यों नहीं होंगे।

यह भी दिलचस्प बात है कि नेपाल ने, जहाँ कि बिहार की नदियों सम्बन्धी कोई भी बांध बनने की साइट्स हैं, विश्व बांध आयोग की रिपोर्ट को स्वीकार किया हुआ है। जब भी भारत और नेपाल के बीच बांधों सम्बन्धी कोई भी बात-चीत गंभीर और निर्णायक दौर में पहुँचेगी, वि.बां.आ. की रिपोर्ट की सिफारिशें आड़े आयेंगी और कुल मिला कर इस सारी बहस से उठे सवालों की कीमत भारत को ही चुकानी पड़ेगी। बेहतर हो कि यह तैयारी पहले से की जाये।

नदी के जल संसाध्न का समुचित उपयोग करने के लिए यह जरूरी है कि सम्पूर्ण घाटी को ध्यान में रख कर ही योजना बनाई जाये। इसके लिए सभी प्रभावित होने वालों और संबद्ध पक्षों की सहमति बननी चाहिये। अगर कोई बांध् प्रस्तावित है तो उसके ऊपरी और निचले क्षेत्र में रहने वाले लोगों (नेपाल तथा भारत-दोनों देशों के लाभार्थी और प्रभावित जनता) के बीच सारी सूचनाओं के साथ एक तथ्य आधरित बहस चला कर ही कोई निर्णय लिया जाये क्योंकि बांध् से होने वाले लाभ का प्रचार तो बहुत बढ़ -चढ़ कर किया जाता है पर उससे होने वाले नुकसान और दुष्प्रभावित होने लोगों के हितों की उपेक्षा होती है। नदी के नियंत्रित प्रवाह का निचले क्षेत्रों की जीवन पद्धति, विशेषकर कृषि, मत्स्य पालन और पशु संवर्धन पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इसलिए अगर कभी बराहक्षेत्र बांध पर गंभीरता से चर्चा होती है तो इन दुष्प्रभावों की उतनी ही गंभीरता से समीक्षा भी होनी चाहिये। नेपाल के तराई वाले हिस्से और भारत के पूरे कोसी क्षेत्र के लिए यह समस्या बहुत ही महत्वपूर्ण है। यहाँ की मौजूदा और भविष्य में होने वाली समस्याओं के यथोचित और समुचित निराकरण के बाद ही बांध निर्माण की दिशा में कोई कदम उठाया जाना चाहिये। इसके साथ ही हम बांध के ऊपरी क्षेत्रों में होने वाले पर्यावरण और विस्थापन/पुनर्वास के मसले को कतई हल्का करके नहीं देखना चाहते क्योंकि वहाँ होने वाली किसी भी गड़बड़ी से निचले क्षेत्र अछूते नहीं रहेंगे और इसीलिए एक तथ्य आधरित आम सहमति की अपेक्षा रखते हैं।

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