विस्थापन, अभाव और विकास की प्रक्रिया

कुछ भी हो, यह याद रखा जा सकता है कि कुछ लोग विस्थापन के मुद्दे पर यह नजरिया रखते हैं कि यह तो इतिहास से चला आ रहा है। इस नजरिए से वे विस्थापितों के मसले पर मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का विरोध दरकिनार करने की कोशिश करते हैं। लेकिन तथ्य यह है कि समस्या को इसलिए नहीं टाला जा सकता क्योंकि यह अब पुरानी हो चुकी है। हमें याद रखना चाहिए कि कई अन्य क्षेत्रों जैसे लिंग समानता, लोकतंत्र आदि में भी जागरूकता हाल ही के वर्षों में बढ़ी है। विस्थापन और अभाव को पैदा करने वाला विकास इन दिनों मानवाधिकार का मुद्दा माना जा रहा है। न केवल अध्ययन बल्कि जमीनी अनुभव से भी यह साफ तौर पर कहा जा सकता है कि देश के विकास के नाम पर लोगों को उनकी आजीविका से वंचित किया जा रहा है, वे हाशिए पर धकेले जा रहे हैं और उनकी विपन्नता बढ़ती ही जा रही है। यह मुद्दा पश्चिम बंगाल के सिंगूर व नंदीग्राम, ओड़ीशा के नियामगिरि और काशीपुर, उत्तरप्रदेश व हरियाणा में हाइवे के खिलाफ जनांदोलन, मैंगलोर व नवी मुंबई में सेज के खिलाफ आंदोलन व ऐसे ही अन्य जन संघर्षों के चलते राष्ट्रीय स्तर पर उभरा है। ऐसे आंदोलनों ने कानूनों, निर्णय प्रक्रिया व ऐसी ही अन्य गलत प्रक्रियाओं पर सवाल खड़े किए हैं जिनकी वजह से लोगों को विस्थापित होना पड़ा या बेहद लचर पुनर्वास झेलना पड़ा।

ऐसे तमाम उपाय उन लोगों के अधिकारों के खिलाफ जाते हैं जो ऐसी परियोजनाओं की वजह से विस्थापित होते हैं या अभाव झेलते हैं, अथवा अपनी आजीविका से वंचित कर दिए जाते हैं। इस विफलता का सबसे प्रमुख कारण विकास का निर्धारित करने वाली विचारधारा है। इसके चलते मानवीय विकास की जगह आर्थिक विकास को ज्यादा तवज्जो दी जाती है। अध्ययन बताते हैं कि विस्थापन तथा आजीविका से बेदखली व विकास की वर्तमान सोच का ही नतीजा है कि ताकतवर और भी ज्यादा ताकतवर बनते जाते हैं तथा कमजोर पहले से कहीं ज्यादा अभावग्रस्त होकर और भी हाशिए पर चले जाते हैं। यही वजह है कि विस्थापन के अध्ययन में विकास के प्रतिमान केंद्र में आ जाते हैं। विकास प्रतिमानों से संबद्ध पूर्वानुमानों का परीक्षण जरूर होना चाहिए और अगर ये सही साबित हो जो समस्याओं के निदान के उपाय ढूंढे जाने चाहिए।

इस नतीजे तक पहुंचने के लिए हमें भारत में विस्थापन की प्रक्रिया को उसके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में रखकर समझना चाहिए। इस पेपर में स्वतंत्रता से पहले विस्थापन की स्थिति तथा 1947 के बाद राष्ट्रीय विकास के संदर्भ में लोगों को उनकी आजीविका से वंचित करने के संदर्भ में ध्यान दिया गया है। साथ ही इस पेपर में यह चर्चा भी होगी कि भू-उपयोग कितने तरह के तथा किस हद तक किए गए हैं तथा विस्थापित व परियोजना प्रभावित व्यक्तियों पर इसका कितना असर पड़ा है।

1. विस्थापन तथा अभाव


इस पेपर की शुरुआत संविधान के अनुच्छेद 11 में उल्लिखित जीने के अधिकार के बिंदु से होती है। देश की सर्वोच्च अदालत ने इस अधिकार की व्याख्या करते हुए इसे हर व्यक्ति के लिए सम्मानपूर्वक जीने का अधिकार करार दिया है। इसमें आर्थिक, सांस्कृतिक तथा सामाजिक व्यवस्थाएं तथा हित (वासवानी 1992-158) शामिल हैं। अध्ययन से पता चलता है कि लोगों को विस्थापित करने वाली अधिकांश परियोजनाओं में इस कर्तव्य को पूरी तरह भुला दिया गया है जिसका नतीजा परियोजना प्रभावित लोगों की बदहाली के तौर पर सामने आता है। विस्थापन और अभाव को पैदा करने वाला विकास को मानवाधिकार का मुद्दा बनाने के विषय पर बोले जाते समय हमें यह बात जोड़नी चाहिए कि हम विकास का औद्योगीकरण की जरूरत पर सवाल नहीं खड़े कर रहे। आजाद भारत को इन दोनों की ही जरूरत है क्योंकि उपनिवेश-काल में देश के उद्योग-धंधे चौपट हो चुके हैं और समूचा उप-महाद्वीप बदहाली की ओर धकेला जा चुका है। इसलिए अगर आजादी बाद की सरकारों ने विकास के लिए निवेश नहीं किया होता तो वे देश को असफलता की गर्त में झोंक देतीं। सवाल तो यह है कि विकास का पैमाना किस पर आधारित हो। ऐसे में सवाल भूमि, जल, ऊर्जा, खनिज और वित्तीय संसाधनों के अत्यधिक इस्तेमाल पर किया ही जाना चाहिए। पश्चिमी देशों में यह संभव हो सकता है क्योंकि इसके लिए उन्हें अपने उपनिवेश वाले देशों की लूट-खसोट पर निर्भर रहना है। उनके विकास में श्रमिकों का शोषण अंतर्निहित है। यूरोप ने भी अपनी अतिशेष आबादी को अमेरिका, आस्ट्रेलिया, भारत सरीखे देशों में भेजा था। आबादी की अधिकता में जमीन का अत्यधिक दोहन संभव नहीं हो सकता, खासकर ग्रामीण इलाकों में जमीन का अधिग्रहण मुश्किल हो जाता है। कुल मिलाकर ज्यादा ध्यान आर्थिक विकास पर ही रहा है। इसकी तुलना में सामाजिक क्षेत्रों मसलन, शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण व साफ-सफाई पर निवेश बेहद कम रहा है। इसी का नतीजा रहा है कि विकास के सर्वाधिक फायदे शहरी मध्यमवर्ग व ग्रामीण उच्चवर्गीय तबके को मिले जिन्होंने इन सुविधाओं तक अपनी पहुंच सुनिश्चित की। (कुरियन 1997: 136-37)

पलायन, आपदा तथा संघर्ष के नतीजे में आंतरिक विस्थापन


यह पेपर विकास परियोजनाओं से विस्थापित लोगों व परियोजना प्रभावित व्यक्तियों पर ही सारा ध्यान केंद्रित करेगा, जबकि अन्य स्वैच्छिक पलायन की वजह से होने वाले स्वैच्छिक विस्थापन को इसमें शामिल नहीं करेगा जो बेहतर आर्थिक हालत की उम्मीद में किए जाते हैं। इसके अलावा जबरन विस्थापन के अन्य प्रकार भी हैं जिन्हें आंतरिक विस्थापित व्यक्ति (आईडीपी) कहा जाता है, यानी ऐसे लोग जो किसी तरह की आपदा, संघर्ष या विकास परियोजना की वजह से विस्थापित होते हैं लेकिन देश की सरहद में ही रहते हैं। वहीं देश की सीमा को लांघने वाले रिफ्यूजी कहलाते हैं। उदाहरण के तौर पर ऐसे लोग जो 2002 के मुसलमान विरोधी गुजरात दंगों के दौरान राज्य से विस्थापन कर देश के दूसरे हिस्सों में चले गए। ऐसे लोग आंतरिक विस्थापित व्यक्तियों की ही श्रेणी में आएंगे, भले ही इन्हें नेपाल जाने वाले भूटानी शरणार्थियों या भारत आने वाले बांग्लादेशी शरणार्थियों की तुलना में ज्यादा यात्रा करनी पड़ी हो। हमारे देश का आकार ही इसे समझाने के लिए काफी है।

भूटानी लोगों के दो सौ किलोमीटर से भी कम दूरी तय करनी पड़ी शरणार्थियों का दर्जा पाने के लिए, वहीं गुजरात से 1200 किलोमीटर का यात्रा कर उत्तरप्रदेश पहुंचे मुसलमानों को जिन्हें आंतरिक विस्थापित व्यक्ति ही माना गया।

आईडीपी की पहली श्रेणी संघर्ष से संबद्ध व्यक्तियों की होती है। एक अनुमान के मुताबिक धार्मिक व सांप्रदायिक संघर्षों के चलते दुनिया भर में 50 लाख आईडीपी शरणार्थी शिविरों में रहने को मजबूर हैं। इसमें हर साल बीस लाख और आईडीपी जुड़ जाते हैं (कदीम, 2005)। वहीं भारत में धार्मिक व सांप्रदायिक संघर्ष की वजह से आईडीपी होने वाले लोगों की सटीक संख्या का पता लगाना बेहद मुश्किल है क्योंकि इनमें से अधिकांश लोग अपने नाते-रिश्तेदारों के यहां शरण ले लेते हैं। केवल उन्हीं लोगों की गिनती हो पाती है जो राहत शिविरों में जाते हैं। संयुक्त राष्ट्र के अनुमानों के मुतबिक 1999 में भारत में 507,000 लोग संघर्ष की वजह से आईडीपी की श्रेणी में थे (मजूमदार 2002:102)। भारत में बीते तीन दशकों में धार्मिक व सांप्रदायिक संघर्षों की वजह से 30 लाख से भी ज्यादा लोग आईडीपी की श्रेणी में आ गए। इनमें 1985 के जातीय दंगों में 50,000 आईडीपी, गुजरात में 2002 के सांप्रदायिक दंगों में 100,000 आईडीपी, 1980 के दशक में कश्मीर के सीमावर्ती गांवों से 500,000 आईडीपी, कश्मीर घाटी से 350,000 कश्मीरी पंडित, 1984 के सिख दंगों के दौरान दिल्ली-कानपुर के बीच तथा 1989 के हिंदू-मुस्लिम दंगों व 1992 के बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद की घटनाओं में 200,000 आईडीपी शामिल हैं (दास 2005: 122-134)।

देश का उत्तर-पूर्वी हिस्सा बीते दो दशकों से जातीय संघर्ष झेल रहा है। असम में बाहरियों के खिलाफ जारी आंदोलन में 1979 से 85 के बीच 137,000 लोग विस्थापित किए जा चुके हैं। पश्चिमी असम में 1993 में हुए बोडो स्वायत्तशासी परिषद (बीएसी) के समझौते में सीमाओं का निर्धारण साफ तौर पर नहीं हो पाया था। असम सरकार ने कई सौ गांवों को बीएसी में शामिल करने से यह कहते हुए मना कर दिया था कि उनमें बोडो बहुमत नहीं है। इसके चलते ‘बहुमत बनाने’ की कोशिश में 1993 में बंगाली मुस्लिमों पर, 1995 में बंगाली हिंदुओं पर तथा 1996 में संथालों पर हमले शुरू हो गए। इसका नतीजा हुआ 350,000 और आईडीपी। 1980 में मेघालय के शिलांग में हुए आदिवासी-बंगाली संघर्ष के नतीजे में 25-30,000 लोग आईडीपी की श्रेणी में आ गए। इसी तरह त्रिपुरा में 1980 में हुए संघर्ष में 1400 बंगाली व 280 आदिवासी मारे गए जबकि 190,000 लोग विस्थापित कर दिए गए। मणिपुर में कुकी-पैतेई तथा नागा-कुकी संघर्ष के नतीजे में 1990 में 10,000 घर जला डाले गए, 2,000 लोग मारे गए व 50,000 से ज्यादा लोग विस्थापित हो गए। मिजोरम में 30,000 से भी ज्यादा रियांग (ब्रू) आदिवासी बेदखल कर दिए गए है (भौमिक 2005: 150-165)। असम के करबी आंगलोंग जिलों तथा एनसी पहाड़ियों में हुए सांप्रदायिक झड़पों में 2003 से 100,000 लोग विस्थापित हो चुके हैं (मैंगात्तूथाझे 2008: 60-61)।

आईडीपी की अगली श्रेणी उन लोगों की है जो प्राकृतिक या मानव निर्मित आपदाओं का शिकार होते हैं। इनमें भूकंप, बाढ़, सूखा, भू-स्खलन व औद्योगिक हादसे शामिल हैं। ऐसे नियमित हादसों के अलावा भारत व दक्षिण एशिया मरुस्थलीकरण व पर्यावरण विनाश की प्रक्रिया से भी गुजर रहे हैं। इनका असर तत्काल महसूस नहीं किया जा सकता या फिर भूकंप सरीखी एक ही घटना से पता नहीं चल सकता, लेकिन यह होता जरूर है (दासगुप्ता 2007: 30-33)। कई ऐसे हादसे जो प्राकृतिक कहे जाते हैं, वस्तुतः मानवनिर्मित होते हैं। यानी ऐसे हादसे जो मानवीय दखल की वजह से होने वाले पर्यावरणीय क्षति के नतीजे में होते हों। ऐसे हादसों में हम जुलाई 2005 में मुंबई में आई बाढ़ व कोयना भूकंप जैसी घटनाओं को शामिल कर सकते हैं। बाढ़ की बढ़ती त्रासदी, सूखा और लगातार विकराल हो रहे भू-स्खलन, मरुस्थलीकरण व पर्यावरणीय विनाश की वजह से आईडीपी की संख्या बेतहाशा बढ़ती ही जा रही है (बंदोपाध्याय 2007:5)। उदाहरण के तौर पर सरकारी आंकड़ों में यह अनुमान लगाया गया है कि वर्ष 1953 की बाढ़ में कुल 524 लोगों की जान गई थी, जबकि इस दौरा 244.8 लाख हैक्टेयर जमीन प्रभावित हुई थी। इसी तरह 1960 के दशक के मध्य में बाढ़ से मौतों की संख्या 1,000 का आंकड़ा पार कर गई थी। वर्ष 1985 में बाढ़ की वजह से देश की 590.9 लाख हैक्टेयर जमीन प्रभावित हुई थी, जबकि मौतों का आंकड़ा बढ़ कर 40,593 तक पहुंच गया था। 1998 में यह आंकड़ा 58,459 था जिसमें 687.2 लाख हैक्टेयर जमीन प्रभावित हुई, वहीं 2002 में 224.4 लाख हैक्टेयर जमीन डूबने के साथ मौत का आंकड़ा 26,247 का था (प्रसाद 2005)।

विस्थापन के खिलाफ ऐसा ही एक सर्वाधिक जाना-माना आंदोलन है पुणे में मुलशी-पेटा के 1920 में टाटा कंपनी और ब्रिटिशों के सहयोग से पनबिजली परियोजना के लिए बनाए जा रहे बांध के खिलाफ छोड़ा गया आंदोलन। जिन किसानों की जमीन इस बांध की वजह से डूब में आने वाली थी उन्होंने अपने विस्थापन के खिलाफ बगावत कर दी, लेकिन वे उन औपनिवेशिक ताकतों के हाथों खदेड़ दिए गए जो उद्योगपतियों की मदद कर रहे थे। स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने इस संघर्ष को आजादी के लिए जारी लड़ाई के एक हिस्से के तौर पर मान्यता दी और इसे ब्रिटिश शासकों के खिलाफ लोगों की बहादुरी माना आपदा से जुड़े दस्तावेजों के मुताबिक दुनिया भर में इसकी वजह से होने वाले आईडीपी की संख्या 500,000 है। कुछ वर्षों में यह इससे भी ज्यादा होती है। उदाहरण के तौर पर 2001 में गुजरात के भूकंप और 2005 में कश्मीर में आए भूकंप में 20-30,000 लोगों की जानें गईं और हर राज्य में 200,000 लोग विस्थापित हुए। इसी 4 तरह 2004 की सुनामी में 300,000 लोग मारे गए और 500,000 लोग अपने घरों से बेघर हो गए। बीते कुछ वर्षों में 500,000 लोगों के प्रति वर्ष विस्थापन की संख्या काफी नियमित सी रही है (दास 2005:112-113)। इन सबके अलावा हर साल बाढ़ की वजह से 10 लाख लोग अस्थायी तौर पर विस्थापित होते हैं। सूखे, भू-स्खलन तथा मरुस्थलीकरण के प्रभावितों की संख्या इससे भी कहीं ज्यादा होती है। आम तौर पर आपदा प्रभावित आईडीपी की पूछ-परख तुलनात्मक तौर पर बेहतर होती है। आपदा की नियमितता को देखते हुए कई संस्थानों ने इसके विस्थापितों की देखभाल संबंधी दक्षता सीख ली है, मसलन, ट्राम सेंटर में देखभाल, सामुदायिक सहयोग, निवास व अन्य मदद। साथ ही आर्थिक मदद का बहाव भी अन्य की तुलना में बेहतर है। संघर्ष व आपदा प्रभावित आईडीपी को तत्काल मदद मिल जाती है। कई संगठन उनके लिए राहत की व्यवस्था कर देते हैं या इसके लिए उनके नेतृत्व से चर्चा करते हैं। और इनमें से अधिकांश बाद में उन्हें भूल भी जाते हैं।

विकास की वजह से होने वाले आईडीपी


अगर हम विकास की वजह से आंतरिक विस्थापित लोगों (आईडीपी) की बात करें तो स्थिति और बदतर दिखाई देती है। ऐसे लोगों की तीन श्रेणियां हैं। पहली श्रेणी में प्रक्रिया की वजह से विस्थापित होने वाले लोग आते हैं। प्रमुख आर्थिक बदलाव तथा नई तकनीकी ने लोगों को उनके सहारे से दूर कर दिया। उदाहरण के तौर पर 1970 में तटीय उथले या कम पानी वाले इलाकों में गहरे पानी के ट्राॅलरों को लाने की मंजूरी से हजारों मछुआरों को उनकी आजीविका से दूर कर दिया गया (अलेक्जेंडर 1980)। गैरवनीकरण के चलते लाखों आदिवासियों को अपनी रोजी-रोटी से हाथ धोना पड़ा (पांडे 1998एः2-3)। रबड़ के जूतों और चप्पलों ने दलित जूता बनाने वालों का रोजगार छीन लिया (त्रिवेदी 1977) वैष्वीकरण के एक अहम अंग मशीनीकरण की वजह से खदान मजदूरों खासकर महिलाओं को बड़ी संख्या में बेरोजगार कर दिया (बानुमथी 2002-00)। इस प्रक्रिया से विस्थापित होने वाले किसी भी व्यक्ति को विकास का पीड़ित नहीं माना गया। इनमें से अधिकांश दलित, आदिवासी तथा अन्य कमजोर सामुदायिक तबकों से थे। दूसरी श्रेणी में ऐसे लोग आते हैं विकास परियोजनाओं ने जिनकी जमीन और संसाधनों पर कब्जा कर उन्हें उनकी आजीविका से दूर कर दिया। इनमें से कुछ विस्थापित लोग (डीपी) थे तथा अन्य परियोजना प्रभावित लोग (पीएपी) की श्रेणी में आते हैं। कुछ परियोजनाओं ने लोगों को उनकी निजी जमीन से दूर कर बेरोजगार कर दिया वहीं कुछ को उनकी सामूहिक जमीन साझा संसाधनों से विहीन कर बेरोजगार की श्रेणी में ला दिया। कई मामलों में तो दोनों ही तरह की जमीनों को छीना गया है। कई अन्य योजनाओं के चलते लोगों को उनकी आजीविका तक पहुंच बनाने से रोका गया है। उदाहरण के तौर पर बंदरगाह परियोजनाएं, जिनकी वजह से मछुआरों को समुद्र में जाने और मछली पकड़ने के अधिकार से वंचित रखा जाता है (फर्नांडीस तथा आसिफ 1997: 109-111)। इसी तरह अप्रत्यक्ष तौर पर विस्थापित व्यक्ति भी हैं जो पर्यावरणीय प्रभावों की वजह से अपनी रिहाई से बाहर निकलने के लिए मजबूर कर दिए जाते हैं। मसलन थर्मल पावर प्लांट, अल्युमिनियम प्लांट आदि जिनकी वजह से भारी मात्रा में कचरा या व्यर्थ सामग्री का निश्पादन होता है। इसके अलावा जमीन की उर्वरता, पानी, स्वास्थ्य आदि पर इस कचरे के प्रभाव से भी लोगों का विस्थापन होता है (गांगुली ठुुकराल 1999:11)। ऐसे लाखों लोगों की तलाश की जा सकती है अगर उन्हें उनकी पहचान के लिए लिए किसी सटीक तरीके का इस्तेमाल किया जाए। वास्तव में ऐसे लोगों में बहुत ही कम की पहचान हो सकी है (भराली 2008:00)। कुल मिलाकर यह लगभग 5 असंंभव है कि हम अप्रत्यक्ष तौर पर विस्थापित लोगों की पहचान और गिनती कर सकें। यही वजह है कि विस्थापन पर होने वाले ज्यादातर अध्ययनों से उन्हें बाहर ही रखा जाता है।

ऐसे में यहां हम केवल उन लोगों की बात करेंगे या उन्हीं के संदर्भ में बात करेंगे जो विकास परियोजनाओं के लिए भूमि व आजीविका के संसाधनों पर कब्जा कर लिए जाने की वजह से प्रभावित हुए हैं। इससे जबरन व स्वैच्छिक पलायन, युद्ध से प्रभावित विस्थापित व्यक्ति, प्राकृतिक या मानवनिर्मित हादसों से प्रभावित व्यक्ति, परियोजना प्रभावित व्यक्ति तथा अप्रत्यक्ष विस्थापित व्यक्ति बाहर होंगे। इस पाबंदी के जरिए यह साबित करने की कोशिश करेंगे कि विकास की वजह से होने वाला विस्थापन लोगों के एक जगह से दूसरी जगह जाकर बसने का प्रमुख कारण ज़रुर है, लेकिन यही एकमात्र कारण नहीं है। इसकी खासियत यह है कि यह योजनाबद्ध होता है जबकि दूसरे जबरन पलायन या आपदा अथवा संघर्ष की वजह से पलायन आपातकालीन होते हैं। चूंकि विकास की वजह से होने वाले विस्थापन योजनाबद्ध होते हैं, ऐसे में यह निश्चित तौर पर संभव है कि परियोजना से जुड़े आला अधिकारी परियोजना प्रभावितों के पुनर्वास से इसके नकारात्मक प्रभावों को रोकने के उपाय करें। लेकिन बेहद कम मामलों में ही ऐसा हो पाता है। वास्तविकता तो यह है कि विकास परियोजनाओं की वजह से होने वाले आईडीपी की संख्या उनसे ज्यादा है जो दूसरे तरह के विस्थापितों की श्रेणी में आते हैं।

दूसरी बात, अधिकांश अध्ययन आजादी के बाद के दौर तक ही सीमित रहे हैं। जबकि इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि गुप्त काल में, तीसरी से 6वीं सदी तथा मध्य युग में बांधों तथा कई तत्कालीन परियोजनाओं से विस्थापन तथा पलायन की घटनाएं हुई थीं। हालांकि इनका नकारात्मक प्रभाव इसलिए ज्यादा नहीं हो पाया क्योंकि उस दौर में जमीन काफी ज्यादा थी और आबादी कम। यह कालोनियल युग में खतरे की श्रेणी में आया और वर्तमान योजनाबद्ध विकास के दौर में यह खतरा और भी बढ़ गया (मनकोडी 1989: 140-143)। कुछ भी हो, यह याद रखा जा सकता है कि कुछ लोग विस्थापन के मुद्दे पर यह नजरिया रखते हैं कि यह तो इतिहास से चला आ रहा है। इस नजरिए से वे विस्थापितों के मसले पर मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का विरोध दरकिनार करने की कोशिश करते हैं। लेकिन तथ्य यह है कि समस्या को इसलिए नहीं टाला जा सकता क्योंकि यह अब पुरानी हो चुकी है। हमें याद रखना चाहिए कि कई अन्य क्षेत्रों जैसे लिंग समानता, लोकतंत्र आदि में भी जागरूकता हाल ही के वर्षों में बढ़ी है। हम निश्चित ही महिलाओं के दमन, सामंतवाद या ऐसे ही अन्य अन्यायपूर्ण परंपराओं को इसलिए जारी नहीं रख सकते क्योंकि ये पुराने हैं।

2. विस्थापन, अलगाव और विकास प्रतिमान


आजादी के बाद होने वाले विस्थापन की जड़ें दरअसल आजादी के पहले से जारी प्रक्रिया से जुड़ी हुई है, खासतौर पर भूमि अधिग्रहण कानून 1894 (एलएक्यू) से। यह राज्य को अधिकार देता है कि वह लोगों से बिना पूछे उन्हें उनकी जमीन से विस्थापित कर दे। लेकिन इस कानून के लागू होने के सौ साल बाद भी आज तक यह परिभाशित नहीं हो पाया है कि जिस जनहित के नाम पर लोगों को बेदखल किया जाता है वह जनहित आखिर है क्या। यही वजह है कि विस्थापन की प्रक्रिया आज भी उसी तरह बदस्तूर जारी है जिस तरह 1947 से पहले के दौर में होती थी, इसका कारण यह है कि आज भी विकास के प्रतिमानों में कोई बदलाव नहीं आया है। तथ्य तो यह है कि योजनाबद्ध विकास के साथ ही कमजोर तबके के लोगों का और भी गरीब होने व हाशिए पर जाने की प्रक्रिया ने जोर पकड़ लिया है। इसके बावजूद विस्थापित लोगों तथा परियोजना प्रभावित लोगों की वास्तविक संख्या संबंधी कोई भी आधिकारिक आंकड़ा आज तक उपलब्ध नहीं हो सका है। इस भाग में हम विकास प्रतिमान को नए नजरिए से देखने की कोशिश करेंगे।

उपनिवेश युग में विस्थापन व अभाव


आज विस्थापन का मुद्दा मानवाधिकार का एक बड़ा मसला बन चुका है। इसका कारण यह है कि उपनिवेशकाल में ही इसका अनुपात खतरनाक स्तर को छू चुका था और 1947 के बाद तो इसमें और भी तेजी आ गई। यही वजह है कि यह भाग उपनिवेश युग से शुरू किया जा रहा है। उपनिवेश युग का मुख्य लक्ष्य यह था कि भारतीय आर्थिक व्यवस्था को ब्रिटिश औद्योगिक जरूरतों के लिहाज से बदल दिया जाए। इसके लिए पहला कदम यह था कि अपने उपनिवेश (भारत) को उद्योगविहीन कर दे और ब्रिटिश औद्योगिक क्रांति के अंतिम उत्पाद को बेचने के लिए इसे बाजार के तौर पर इस्तेमाल करें (फर्नांडीज तथा रायचौधरी 1998)। इसी तरह दूसरा कदम था कानूनी उपाय करना, जिसके तहत भूमि तथा वन कानून बनाए गए। इन कानूनों का मुख्य लक्ष्य जमीनों का ब्रिटिश आधिपत्य वाले वनीकरण तथा खनन, यातायात व अन्य परियोजनाओं के लिए जमीनों का ट्रांसफर था। इसकी शुरुआत स्थायी बंदोबस्त 1793 से हुई जो असम भूमि कानून 1838, कलकत्ता कानून, 1824 तथा ऐसे ही अन्य कानून बनाए गए जिनका अंत भूमि अधिग्रहण कानून 1894 (एलएक्यू) में हुआ जो आज तक लागू है (उपाध्याय तथा रमन 1998)।

ये सारे बदलाव निजी जमीन या संपत्ति को उचित मुआवजा देकर सरकार के आधिपत्य में लाने का अधिकार (एमिनेंट डोमेन) के सिद्धांत पर आधारित हैं। आस्ट्रेलिया ने भूमि संबंधों के इस नजरिए को इस तरह देखा जा सकता है कि ऐसी जमीन टेरा नलियस (किसी की जमीन नहीं) कहलाती है। यानी श्वेतों की औपनिवेशिक कालोनियों, आस्ट्रेलिया व अमेरिका में जमीन का यह सिद्धांत काम करता है कि जो जमीन किसी के निजी नाम पर नहीं है वह किसी की जमीन नहीं है और ऐसे में उसपर कोई भी कब्जा कर सकता है। 1992 में आस्ट्रेलिया के न्यायालय ने इस सिद्धांत के तहत जमीन पर आधिपत्य करने को गैरकानूनी घोषित कर दिया (ब्रेनन 1995:16)। लेकिन यह एमिनेंट डोमेने के ब्रिटिश नजरिए के साथ भारतीय भूमि कानूनों का आधार बदस्तूर बना रहा। इसका पहला पक्ष तो यही है कि ऐसी तमाम जमीन, जैवि विविधता सरकारी है जिसका कोई निजी पट्टा ना हो। दूसरा यह कि केवल सरकार को यह अधिकार है कि वह जनहित को परिभाषित करे। भूमि अधिग्रहण कानून तो इसी पर आधारित है लेकिन जनहित जिसके नाम पर सरकार लोगों को उसकी जमीन से बेदखल कर देती है, उसकी परिभाषा आज तक नहीं दी जा सकी है (रामनाथन 2008: 134-135)। इसके बावजूद इन कानूनों को लागू करते समय औपनिवेशिक युग में जैव विविधता तथा सामुदायिक संसाधनों पर राज्य के एकाधिकार के सिद्धांत का ही पालन किया गया।

औपनिवेशिक दखल का नतीजा परोक्ष या अपरोक्ष तौर पर लाखों लोगों के विस्थापन तथा अलगाव के तौर पर सामने आया। इसमें से अधिकांश प्रक्रिया आधारित थे। इनसे विस्थापित हुए लोगों की संख्या का कोई अता-पता नहीं है। दादाभाई नौरोजी (1998) ने यह संख्या साढ़े तीन करोड़ आंकी थी। यह जरूर पता है कि प्रक्रियागत विस्थापन के चलते बड़े पैमाने पर विस्थापित होने वालों में भूमिहीन दलित सर्वाधिक थे। सामुदायिक प्राकृतिक संसाधन आधारित आदिवासी तथा अन्य सेवारत समुदाय सस्ते मजदूरों में बदल गए। बदलावों से अभावग्रस्त और गरीब हुए अधिकांश लोगों ने हार मान ली और उनमें से कई भारतीय, अफ्रीकी, वेस्टइंडीज, प्रशांत व दक्षिण पूर्व एशिया की ब्रिटिश औपनिवेशिक कालोनियों में वनीकरण, खनन आदि परियोजनाओं में बंधुआ मजदूरों के तौर पर भेजे गए जहां उन्हें दासों की सी हालत में काम करने पर मजबूर होना पड़ा (सेन 1979: 8-12)। हालांकि कई समुदायों, समूहों ने उनके हाशिए पर जाने की प्रक्रिया का पुरजोर विरोध भी किया। इसीलिए इतिहास में आदिवासियों और दलितों के कई संघर्ष दर्ज हैं। विस्थापन के खिलाफ ऐसा ही एक सर्वाधिक जाना-माना आंदोलन है पुणे में मुलशी-पेटा के 1920 में टाटा कंपनी और ब्रिटिशों के सहयोग से पनबिजली परियोजना के लिए बनाए जा रहे बांध के खिलाफ छोड़ा गया आंदोलन। जिन किसानों की जमीन इस बांध की वजह से डूब में आने वाली थी उन्होंने अपने विस्थापन के खिलाफ बगावत कर दी, लेकिन वे उन औपनिवेशिक ताकतों के हाथों खदेड़ दिए गए जो उद्योगपतियों की मदद कर रहे थे। स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने इस संघर्ष को आजादी के लिए जारी लड़ाई के एक हिस्से के तौर पर मान्यता दी और इसे ब्रिटिश शासकों के खिलाफ लोगों की बहादुरी माना (भुस्कुटे 1997: 170-172)

विस्थापन, अभाव और विकास की प्रक्रिया वाल्टर फर्नांडीस

विस्थापन और विकास प्रतिमान


जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, 1950 में, यानी आजादी बाद के पहले दशक में, योजनकारों ने सारे अहम निर्णय ‘राष्ट्र निर्माण’ के सिद्धांत के आधार पर लिए। इसमें यह माना गया कि कुछ लोगों को विकास की कीमत जरूर चुकानी होगी लेकिन यह इस मायने में लाभप्रद भी होगा कि विकास के फायदे सभी तक पहुंच जाएंगे। जब विकास के फायदे बहुसंख्यक तक पहुंचने में नाकाम रहे तो यह नजरिया बदलकर ‘राष्ट्रीय विकास’ का हो गया। इसमें आर्थिक तरक्की इस आशा के साथ प्राथमिकता की श्रेणी में रखा गया कि इसके जरिए सभी नागरिकों तक विकास के लाभ पहुंच जाएंगे। बाद में उदारीकरण के दौर में महज ‘विकास’ शब्द का ही इस्तेमाल किया गया। विस्थापन के खिलाफ हुए मुलशी-पेटा आंदोलन को समर्थन देने के बावजूद स्वतंत्रता सेनानियों ने औपनिवेशिक कानूनी व्यवस्था को बदस्तूर जारी रखा, हालांकि इस बार उनके इरादे भिन्न थे। अंग्रेजों के शासनकाल में भूमि घोषित तौर पर उनके फायदे के लिए अधिग्रहीत की जाती थी, जबकि 1947 में आजादी के बाद भारत ने खुद को एक कल्याणकारी राज्य घोषित किया हुआ था। इसमें लाभ या फायदा एक घोषित कारण नहीं था लेकिन लगभग सभी विकास परियोजनाओं आर्थिक क्षमता को ही प्राथमिकता दी गई। यह निश्चित तौर पर हैरतअंगेज़ कारण नहीं था, क्योंकि अधिकांश भारतीय नेता विदेशों में पढ़े-लिखे थे, उनका पूरा ध्यान विदेशी तकनीकी के विकास से प्रेरित था और इस बात से पूरी तरह प्रभावित थे कि भारत पश्चिमी देशों के मुकाबले बहुत पिछड़ा हुआ था। जवाहरलाल नेहरू सरीखे कुछ नेताओं को पश्चिमी देशों के विकास के पीछे मौजूद इस बुनियादी कारण का पता था कि वे अपने यहां तथा अपने उपनिवेशों में मजदूरों का जमकर शोषण करते हैं। लेकिन नेहरू तथा पीसी महलनोबिस सरीखे लोग जिन्हें देश की मिश्रित अर्थव्यवस्था के पीछे का मुख्य दिमाग माना जाता है, ने भारत की समस्याओं के निदान के लिए तकनीक को ही मुख्य समाधान के तौर पर लिया। ‘भारत एक खोज’ (1946 : 64-65) में नेहरू इस बात की जरूरत पर जोर दिया था कि औद्योगिकीकरण एक लोकतांत्रिक ढांचे के तहत ही किया जाए। इसमें साम्यवादी तानाशाही और पूंजीवादी शोषण के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए। ऐसा करने के लिए भारत को उसके अंधविश्वासों और रूढ़िवादी से बाहर निकलना होगा, परंपराएं बदलनी होंगी और खुद को आधुनिक बनाना होगा। इसी विचारधारा ने उन्हें बड़े बांधों और उद्योगों को आधुनिक भारत के तीर्थ घोषित करने के लिए प्रेरित किया (फर्नांडीज 1993)।

आजाद भारत के नेताओं ने सामाजिक ताने-बाने की कभी भी उपेक्षा नहीं कि बल्कि उनकी सोच यह रही कि सार्वजनिक क्षेत्र के जरिए आर्थिक उन्नति को नई ऊंचाईयों पर लाकर वे सामाजिक बराबरी कर पाएंगे। वे इस बात से भी प्रभावित रहे कि राज्य द्वारा प्रेरित तकनीकी विकास के जरिए वे बेरोजगारी, गरीबी और अशिक्षा की समस्या से निजात पा जाएंगे तथा ऐसे विकास का फायदा हर भारतीय तक पहुंच जाएगा। उन्हें इस बात का अंदाजा तो था कि इस दौरान कई समस्याओं का सामना होगा वहीं वे इस बात का भरोसा भी था कि समस्याएं अस्थाई होंगी और अंततः इससे सभी का भला ही होगा (व्यासुलू 1998)। बहुत ही कम लोग, जैसे महात्मा गांधी (1948:26) ने महसूस किया था कि उपनिवेशवादी देश अपने उपनिवेशो का शोषण कर अमीर बनते जा रहे हैं। इसी वजह से महात्मा गांधी ने स्वतंत्र भारत को पश्चिमी राह का अंधानुकरण करने से आगाह किया था। उन्होंने औद्योगिकीकरण का नहीं उद्योगवाद का विरोध किया था। वे ऐसे विकास के विरोधी थे जो उस तकनीक और उपभोग की राह पर चलता था जो बहुमत की पहुंच से बहुत दूर था। इंग्लैंड सरीखे छोटे से देश ने दुनिया के आधे देशों को महज इसलिए वंचित बना रखा था ताकि उसके नागरिक अमीरों की तरह जी सकें।

इसीलिए उन्हें यह डर था कि अगर भारत जैसे बड़े देश भी उसी राह पर चल पड़े तो यह प्रक्रिया और भी ज्यादा दूर तक जाएगी, और ज्यादा देश वंचित हो जाएंगे। उनके अनुयायियों का यह मत था कि चूंकि भारत के उपनिवेश नहीं हैं इसलिए यहां मध्यम वर्ग अपनी आरामदेह सुविधाओं के लिए गरीबों को उनके हकों से वंचित कर देगा।

इसके उलट निजी क्षेत्र की यह राय था कि मिश्रित अर्थव्यवस्था लागू की जाएग, जिसमें सार्वजनिक क्षेत्र को केवल बड़ी परियोजनाओं में ही निवेश करना है, तथा मुनाफा कमाने वाले उपभोक्ता क्षेत्र को निजी उद्यमों के लिए छोड़ दिया जाता है। उनके विचार 1945 में टाटा और बिड़ला जैसे निजी औद्योगिक घरानों द्वारा तैयार किए गए बांबे प्लान के समय नजर आए। इसमें साफ कर दिया गया कि चूंकि भारतीय निजी क्षेत्र में बड़ी परियोजनाओं जैसे स्टील और ऊर्जा में निवेश करने की क्षमता नहीं है, इसलिए इन क्षेत्रों में सरकार करदाताओं के पैसे से निर्माण करे तथा मुनाफा कमाने वाले उपभोक्ता उद्योग को निजी क्षेत्रों के लिए छोड़ दिया जाए। उन्होंने विकास को महत आर्थिक वृद्धि और मुनाफ के तौर पर ही देखा। इसके सामाजिक घटक की ओर ध्यान नहीं के बराबर दिया गया जिसमें यह देखा जाना चाहिए कि कौन कीमत चुकाता है और किसका फायदा होता है (व्यासुलू 1998)। दूसरी पंच-वर्षीय योजना 1956-61 ने इसी नजरिए को अपनाया और कहा गया कि यह कवायद समानता लाने की है (योजना आयोग 1956:236)। तीसरी योजना (योजना आयोग 1961: अप्रोच पेपर नंबर 7) में कहा गया, भारत के पास एक परंपरावादी समाज है जिसकी जड़ें हजारों वर्ष पुराने इतिहास में गड़ी हैं। ऐसे में सामाजिक परंपराओं और संस्थाओं में दूरगामी बदलाव बेहद जरूरी हैं, जिनकी शुरुआत हो चुकी है, ताकि तकनीकी विकास पर आधारित ऐसा समाज बनाया जा सके जो समान अवसर प्रदान कर सके तथा सामाजिक न्याय की जगह आर्थिक तरक्की को प्राथमिकता मिल सके। इसी विचारधारा पर चलते हुए भारत के पश्चिम से पैसे तथा अत्याधुनिक तकनीकी उधार में ली। इस ‘विदेशी मदद’ के जरिए पूंजीवाद आधारित ढांचागत परियोजनाओं को लागू करने की कवायद की गई।

अधिकांश निर्णयकारी नेताओं की यही राय थी, क्योंकि उनमें से ज्यादातर ने खुद को अंतरराष्ट्रीय मान लिया था और उपनिवेशवादी मूल्यों को मान्यता दे चुके थे। औपनिवेशिक तथा आजादी के बाद के दौर में अगर संदर्भ का कोई केंद्र बिंदु था तो वह पश्चिम ही था। लेकिन औपनिवेशिक दौर की प्राथमिकता यह थी कि भारतीय औद्योगिक परिदृश्य को पश्चिमी औद्योगिक क्रांति की जरूरतों को पूरा करने के लिए बदल दिया जाए। 1947 के बाद भारत की पूरी कोशिश आधुनिकीकरण की थी ताकि वह पश्चिम की टक्कर कर सके। यहां इस तथ्य की पूरी तरह अवहेलना कर दी गई थी कि भारत जाति और लिंग आधारित असमानता वाला समाज है जिसमें विकास के फायदे देश के हर नागरिक तक तब तक नहीं पहुंच सकते जब तक समान समाज की रचना के लिए जरूरी कदम नहीं उठाए जाते। जैसा कि डाॅ बी.आर. अंबेडकर ने संविधान सभा में संविधान को प्रस्तुत करते समय कहा था, यह देश को राजनीतिक लोकतंत्र जरूर दे देगा लेकिन आर्थिक और सामाजिक लोकतंत्र तो राष्ट्रीय विकास के जरिए ही लाया जा सकता है। लेकिन ऐसा नहीं हुआ क्योंकि आधुनिकीकरण को बिना असमान समाज बदले अमल में लाया गया। इस व्यवस्था में असमानताओं का बढ़ना अंतर्निहित है क्योंकि अधीनस्थ वर्ग तकनीकी के साथ चलने के लिए तैयार नहीं हुआ है, वहीं आधुनिक समाज के लिए बदलाव हेतु कई अन्य ज़रूरतें भी अपेक्षित हैं। इस विकास के फायदों तक पहुंच बनाने के लिए औपचारिक शिक्षा, तकनीकी प्रशिक्षण के अलावा मनोवैज्ञानिक, सांस्कृतिक तथा सामाजिक तैयारी की भी जरूरत है। लेकिन इस बात को सुनिश्चित करने की बेहद कम कोशिश की गई कि अब तक उपेक्षित समुदायों, वर्ग की शिक्षा व अन्य सेवाओं तक पहुंच बन सके। स्कूल, अस्पताल व ऐसे ही अन्य संस्थान बना दिए गए तथा पिछड़े वर्गों को आरक्षण भी दे दिया गया। ऐसे संस्थानों में सुविधाएं तो मुहैया करा दी गईं लेकिन इन्हें हासिल करना तब तक संभव नहीं था जब तक सभी की इन तक पहुंच सुनिश्चित न की जाए। ऐसे जरूरी कदम उठाए बिना आधुनिक बनाने के लिए की गई कवायदों से गरीब और उपेक्षित वर्ग को और बदहाली की ओर धकेला जाएगा तथा असमानता को बढ़ावा मिलेगा (डिसूजा 1986: 26)।

यह विरोधाभास भारतीय विकास के प्रतिमानों की पूर्वी एशियाई देशों मसलन, दक्षिण व उत्तर कोरिया, चीन, ताईवान तथा मलेशिया से तुलना करने पर समझाया जा सकता है। इन देशों ने भी भारी उद्योगों में काफी निवेश किया, लेकिन इसी के साथ सामाजिक क्षेत्र में भी अच्छा-खासा निवेश किया गया। उदाहरण के तौर पर भारत में अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के लिए मुफ्त शिक्षा तथा सार्वजनिक क्षेत्र में उन लोगों के लिए नौकरी की व्यवस्था है जो स्कूली शिक्षा पा चुके हों। जो स्कूलों तक पहुंच पाने में नाकाम रहे हों उन्हें नौकरी से भी वंचित ही रखा जाता है। वहीं 1970 से लागू मलेशियाई भूमिपुत्र (धरती के बेटे) नीति के तहत मलय लोगों का ध्यान रखा जाता है जो देश की 60 फीसदी आबादी है, लेकिन आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र में पिछड़ी हुई है। इसमें नियम है कि निजी और सार्वजनिक हर क्षेत्र में मलय लोगों को नौकरी का एक निश्चित हिस्सा दिया जाएगा। जबकि भारत में केवल सार्वजनिक क्षेत्र में ही आरक्षण लागू है। इसके अलावा मलेशिया ने सभी निवासियों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, साफ-सफाई आदि के लिए भारी निवेश किया था, ना कि महज अल्पसंख्यकों के लिए जैसा कि भारत में होता है। मलेशिया में भूमिपुत्र नीति के जरिए यह कोशिश की जाती है कि देश की बहुसंख्यक आबादी को सुविधाएं दी जा सकें, लेकिन भारत में संस्थान और सेवाएं स्थापित जरूर की जाती हैं पर उन तक पहुंच सुनिश्चित करने के लिए ठोस कदम नहीं उठाए जाते। इसी तरह अन्य देशों मसलन, दोनो कोरिया, इंडोनेशिया तथा चीन ने भी शिक्षा, स्वास्थ्य, साफ-सफाई तथा पोषण के क्षेत्र में भारी योगदान दिया। चीन में भी बहुसंख्यक आबादी को दयनीय स्थिति से उबरने में मदद दी गई। वहीं अन्य देशों में अधिकांश आबादी के लिए ऊर्जा की व्यवस्था की गई (कर्नल फेरर 1998)।

भारत में आजादी के समय साक्षरता की दर बेहद कम थी। अधिकांश आदिवासी व दलित निरक्षर थे। खासकर इनमें महिलाओं की संख्या ज्यादा थी, उन्हें छोड़कर प्रभावी वर्ग की थीं जहां जिन्हें शिक्षा पाने की सुविधा थी। यह बात का संकेत था कि सामाजिक बदलाव के अभाव में आधुनिकीकरण के तमाम फायदे मध्यम तथा उच्च वर्ग को ही मिलेंगे ना कि गरीब को। इसके चलते अमीर और गरीब के बीच की खाई और भी ज्यादा बढ़ेगी। इसके बावजूद आजतक राष्ट्रीय विकास की इस सोच में कोई भी बदलाव नहीं आया है। यहां तक कि उदारीकरण के दौर के बाद निजी क्षेत्र यह नहीं चाहता कि ढांचागत क्षेत्र के विकास का काम सार्वजनिक क्षेत्र के हाथों में रहे, क्योंकि अब यह क्षेत्र भी लाभ देने वाला बन चुका है। लाभ का लालच बढ़ता जा रहा है और सामाजिक घटक कहीं पीछे छूटते जा रहे हैं। इसी का नतीजा यह है कि इस पर कोई सवाल नहीं पूछे जा रहे कि कौन कीमत चुका रहा है और कौन मुनाफा कमा रहा है (कुरियन 1997: 134-145)।

भरोसे मंद आंकड़ों का अभाव


विकास के वर्तमान प्रतिमान में आर्थिक विकास के लिए सामाजिक दायित्वों को दरकिनार करना साफ तौर पर देखा जा सकता है। यह आजादी के बाद विस्थापन तथा अभाव का एक मुख्य कारक भी रहा है। इसका पहला मुख्य घटक डीपी/पीएपी लोगों तथा उनके पुनर्वास संबंधी वास्तविक संख्या से संबंधित भरोसेमंद आंकड़ों का अभाव रहा है। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, 1950 में, यानी आजादी बाद के पहले दशक में, योजनकारों ने सारे अहम निर्णय ‘राष्ट्र निर्माण’ के सिद्धांत के आधार पर लिए। इसमें यह माना गया कि कुछ लोगों को विकास की कीमत जरूर चुकानी होगी लेकिन यह इस मायने में लाभप्रद भी होगा कि विकास के फायदे सभी तक पहुंच जाएंगे। जब विकास के फायदे बहुसंख्यक तक पहुंचने में नाकाम रहे तो यह नजरिया बदलकर ‘राष्ट्रीय विकास’ का हो गया। इसमें आर्थिक तरक्की इस आशा के साथ प्राथमिकता की श्रेणी में रखा गया कि इसके जरिए सभी नागरिकों तक विकास के लाभ पहुंच जाएंगे। बाद में उदारीकरण के दौर में महज ‘विकास’ शब्द का ही इस्तेमाल किया गया।

सारणी 1 : निजी तथा सार्वजनिक भू-प्रयोग का विस्तार व अनुपात (हैक्टेयर में.)

राज्य

निजी

%

सार्वजनिक

%

वन

%

जानकारी नहीं

%

कुल

आंध्रप्रदेश

684725.10

67.99

255077.73

25.33

67362.75

06.69

00

00

1007165.59

असम

159205.14

28.06

316041.66*

55.71

92034.49

16.23

567281.29

गोवा

12649.74

77.85

2880.00

17.72

720.00

04.43

00

00

16249.74

गुजरात

3126527.00

61.54

312653.00

6.15

1641427.00

32.31

00

00

5080607.00

झारखंड

344952.75

55.11

141226.07

22.56

139710.67

22.32

00

00

625889.49

केरल

66759.25

43.00

1222.32

0.79

40673.62

26.20

46608.33

30.02

155263.52

ओडिशा

399859.05

41.81

267648.15

27.99

288845.85

30.20

00

00

956353.05

प.बंगाल

1600404.86

82.98

328340.08*

17.02

00

00

1928744.94

 

• असम तथा पश्चिम बंगाल में वन-सार्वजनिक संसाधन भूमि पूरी तरह आवंटित नहीं हुई है। इस वजह से नका कुल सार्वजनिक राजस्व भूमि में शामिल किया गया है : स्रोत : फर्नाडीज 2008 ए:

विस्थापित तथा पुनवर्सित किए लोगों की संख्या के आंकड़ों का अभाव यह दर्शाता है कि सामाजिक परिप्रेक्ष्य का हमारा नजरिया कितना कमजोर है। इस कमी की वजह से डीपी लोगों की संख्या को लेकर विवाद की स्थिति बन गई है। उदाहरण के तौर पर, अरुंधती राय (1999) ने बड़े बांधों से विस्थापित 5.6 करोड़ लोगों का जिक्र किया है। यह आंकड़ा लोक प्रशासन संस्थान के अनुमान पर आधारित है। सुरजीत भल्ला (2001) उनके इस आंकड़े को यह कहकर चुनौती दी कि हर बड़े बांध से होने वाले डीपी का औसत 1360 है। दोनों ही तथ्य अशुद्ध आंकड़ों के आधार पर कहे गए थे। उन्होंने सभी बड़े बांधों को एक ही श्रेणी में रख दिया था।

लेकिन बांधों की ऊंचाई तथा डूब क्षेत्र अलग-अलग होती हैं। बड़े बांध 15 मीटर से 300 मीटर तक की ऊंचाई के हो सकते हैं। इस तरह उन्हें उनके प्रभाव व ऊंचाई के मुताबिक प्रमुख व मध्यम श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है। उनके डीपी/पीएपी की संख्या भी तदनुसार बदलती रहती है, जैसा कि निम्न अध्ययनों में आया भी है, आंध्रप्रदेश में (फर्नांडीज 2001), गोवा (फर्नांडीज एवं नाइक 2001), झारखंड (एकता एवं आसिफ 2000), केरल (मुरिकन 2003), ओडिशा (फर्नांडीज तथा आसिफ 1997) तथा गुजरात (लोबो एवं कुमार 2009) के मुताबिक देश के 4200 बड़े बांधों में से 300 प्रमुख हैं। अन्य मध्यम श्रेणी के हैं। एक बड़े या प्रमुख बांध से 25,000 से 250,000 तक लोग विस्थापित होते हैं। एक मध्यम श्रेणी के बांध से 400 से 8,000 तक लोग प्रभावित होते हैं। जाहिर है कि भल्ला का औसत मध्यम श्रेणी तक के बांधों की तुलना में बेहद कम है जबकि अरुंधती राय का अनुमान से कहीं ज्यादा।

1990 की शुरुआत में कुछ शोधकर्ताओं ने भरोसेमंद आंकड़ों के अभाव को दूर करने की कवायद शुरू की। मौजूदा अध्ययनों से निकाले गए द्वितीयक आंकड़ों के आधार पर यह आंकड़ा 2 करोड़ 13 लाख डीपी/पीएपी तक (150-1990 फर्नांडीज 1998: 231) पहुंचा। इस अध्ययन से साफ पता चलता है कि अधिकांश आधिकारिक आंकड़े अनुमान से कम रखे गए हैं। उदाहरण के तौर पर हीराकुंड से विस्थापित लोगों का आधिकारिक आंकड़ा 110,000 (ओडिशा सरकार 1968) था, लेकिन शोधकर्ताओं ने यह आंकड़ा 180,000 (पटनायक, दास एवं मिश्रा 1987)। इसी तरह त्रिपुरा में डुंबर बांध से विस्थापित परिवारों की आधिकारिक संख्या 2,583 रखी गई जबकि वास्तव में 9,000 परिवार या 40,000 व्यक्ति थे (भौमिक 2003: 84)। असम में नलबाड़ी जिले के पगलाडिया बांध के आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक विस्थापित परिवारों की संख्या 3,271 थी, जबकि जमीनी आंकड़ों के मुताबिक प्रभावितों की यह संख्या 20,000 परिवार (भराली 2004) थी।

सारणी 2 : कुछ राज्यों में डीपी/पीएपी की संख्या, जहां अध्ययन किया गया *

राज्य/वर्ष

1951-1995

 

1947-2000

1947-04

65-95

कुल

प्रकृति

आंध्रप्रदेश

झारखंड

केरल

ओड़ीशा

असम

बंगाल

गुजरात

गोवा

जल

1865471

232968

133846

800000

448812

1723990

2378553

18680

7602320

उद्योग

539877

87896

222814

158069

57732

403980

140924

3110

1614402

खनन

100541

402882

78

300000

41200

418061

4128

4740

1271630

ऊर्जा

87387

मौजूद नहीं

2556

मौजूद नहीं

7400

146300

11344

0

254987

रक्षा

33512

264353

1800

मौजूद नहीं

50420

119009

2471

1255

472820

पर्यावरण

135754

509918

14888

107840

265409

784952

26201

300

1845262

यातायात

46671

0

151623

मौजूद नहीं

168805

1164200

1356076

20190

2907565

शरणार्थी

मौजूद नहीं

मौजूद नहीं

0

मौजूद नहीं

283500

500000

646

एक भी नहीं

78416

कृषिफार्म

मौजूद नहीं

मौजूद नहीं

6161

मौजूद नहीं

11389

110000

7142

1745

238937

मानव आवास

मौजूद नहीं

मौजूद नहीं

14649

मौजूद नहीं

90970

220000

16343

8500

350462

स्वास्थ्य

मौजूद नहीं

मौजूद नहीं

NA

मौजूद नहीं

23292

84000

मौजूद नहीं

1850

109142

प्रशासनिक

मौजूद नहीं

मौजूद नहीं

NA

मौजूद नहीं

322906

150000

7441

3220

483567

कल्याण

37560

0

2472

मौजूद नहीं

25253

720000

20470

मौजूद नहीं

805755

पर्यटन

0

0

343

0

0

0

26464

640

27447

शहरी

103310

0

1003

NA

1241

400000

85213

1750

592517

अन्य

265537

50000

0

100000

18045

0

15453

84

449875

कुल

3215620

154807

552233

1465909

1918874

6944492

4098869

66820

19810834

 

* बीते 15 वषों में विस्थापन की समझ बढ़ी, इस पर अध्ययन भी किए गए हैं; इसी वजह से ओडीशा व आंध्रप्रदेश में अध्ययन के दौरान जहां बहुत ही कम श्रेणियां थीं, वहीं गोवा के अध्ययन में सबसे ज्यादा।
स्रोत: फर्नांडीज 2008एः 93

कुछ शोधकर्ताओं ने इस द्वितीयक आंकड़ों के आधार पर अनुमानित संख्या का अभिलेखीय तथा जमीनी आधार पर हुए अध्ययनों से मिले आंकड़ों से तुलनात्मक अध्ययन किया तथा 1951-1995 तक के सभी विस्थापनों का आंकड़ा निकाला। ओड़ीशा (फर्नांडीज तथा आसिफ 1997), झारखंड (एक्का तथा आसिफ 2000), आंध्रप्रदेश (फर्नांडीस 2001), केरल (मुरिक्कन 2003), 1965-2001 तक गोवा (फर्नांडीज तथा नाइक 2001), पश्चिम बंगाल में 1947-2000 तक (फर्नांडीज 2006), असम (फर्नांडीज तथा भराली 2006), मेघालय, मिजोरम तथा त्रिपुरा (फर्नांडीज तथा भराली 2010) तथा गुजरात में 1947-2004 (लोबो तथा कुमार 2009)। ये तथा अभी भी जारी ऐसे ही अन्य अध्ययनों से पता चलता है कि विकास परियोजनाओं में 1951 तथा 95 तक आंध्रप्रदेश, ओड़ीशा तथा झारखंड में हर परियोजना में 10 लाख हैक्टेयर जमीन ली गई, पश्चिम बंगाल में 20 लाख हैक्टेयर जमीन, असम में 567,000 हैक्टेयर, गुजरात में 20 लाख हैक्टेयर से ज्यादा, गोवा में कुल जमीन का 5 फीसदी तथा केरल में कुल जमीन का 3.5 फीसदी जमीन विकास परियोजनाओं की भेंट चढ़ गई। अध्ययनों से यह भी संकेत मिले कि विकास परियोजनाओं में वर्ष 2000 तक कुल ढाई करोड़ हैक्टेयर जमीन ली गई।

इसका 60 फीसदी हिस्सा निजी तथा जबकि शेष सार्वजनिक जमीन थी (सारणी1)।अधिकांश बांधों ने जो जमीन डुबोई उसका दो तिहाई हिस्सा सार्वजनिक क्षेत्र का था। इससे पता चलता है कि आखिर डीपी/पीएपी की संख्या क्यों इतनी कम अनुमानित है तथा क्यों हर 10 डीपी में 6 पीएपी होते हैं। उदाहरण के तौर पर हीराकुंड अधिकारियों ने सार्वजनिक जमीन पर निर्भर लोगों की संख्या गिनी ही नहीं। जबकि शोधकर्ताओं ने उन्हें शामिल कर यह संख्या 180,000 तक पहुंचा दी। आंधप्रदेश के नागार्जुनसागर बांध में डूबी 70,000 एकड़ जमीन का दो तिहाई हिस्सा सार्वजनिक क्षेत्र का था। इस वजह से यह दावा किया गया कि बांध से केवल 30,000 लोग ही विस्थापित हुए, क्योंकि इनमें सार्वजनिक क्षेत्र के प्रभावितों को गिना ही नहीं गया (फर्नांडीज 2001 : 61-63)।

इन अध्ययनों के आधार पर पहले के आंकड़ों को सुधारा गया। ओड़ीशा में 16 लाख डीपी/पीएपी की पहचान की गई जबकि आंधप्रदेश में 32 लाख की। इनमें से 80 प्रतिशत परियोजनाएं 1951-95 तक की थीं। झारखंड तथा केरल में करीब 60 प्रतिशत परियोजनाओं का अध्ययन किया गया। गुजरात में लगभग सभी परियोजनाओं के अध्ययन से यह संख्या 43 लाख डीपी/पीएपी तक पहुंची, वहीं पश्चिम बंगाल में ऐसे लोगों की संख्या 70 लाख रही। असम में यह आंकड़ा 19 लाख था जबकि गोवा में 60,000 (सारणी 2)। पुराने आंकड़ों को अपडेट किया जाए तो ओड़ीशा तथा झारखंड में 10 से 25 लाख तक डीपी/पीएपी होंगे। आंध्रप्रदेश में 40 लाख, केरल में 10 लाख तथा गोवा में यह संख्या एक लाख होगी। इस अध्ययन में छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र तथा मध्यप्रदेश सरीखे उच्च विस्थापन दरों वाले राज्यों को शामिल नहीं किया गया है। इन आंकड़ों के आधार पर तथा अभी भी जारी अध्ययनों के आधार पर मोटे तौर पर 1947-2000 तक कुल डीपी/पीएपी लोगों की संख्या 6 करोड़ तक पहुंचती है (फर्नांडीज 2008 : 93)।

कमजोर पुनर्वास


इन अध्ययनों से यह भी पता चलता है कि विस्थापितों में से बहुत कम लोगों को ही कहीं और बसाया जा सका है। ओड़ीशा में उसके कुल डीपी में से 35.27 फीसदी ही फिर से बस पाए, आंध्रप्रदेश में पुनर्वसित लोगों का आंकड़ा 28.82 फीसदी रहा तो गोवा में यह 40.78 फीसदी तक पहुंचा। वहीं केरल में महज 13.68 फीसदी लोगों को ही कहीं और रहना नसीब हो पाया, पश्चिम बंगाल में 11.18 तथा गुजरात में 23.82 फीसदी आबादी पुनर्वसित हो पाई (सारणी 1.3)। जिन राज्यों का अध्ययन किया गया है उनमें कुल मिलाकर महज 17.94 प्रतिशत आबादी का ही पुनर्वसन हो पाया है। हम यहां कहीं और बसने (री-सेटल) की बात कर रहे हैं पुनर्वास (रीहैबिलिटेशन) की नहीं। ये दोनों प्रक्रियाएं बिल्कुल जुदा है। कहीं और बसने का अर्थ है एक बार भौतिक तौर कहीं और चले जाना, किसी तरह की मदद मिले या मिले बगैर। इनकी जरूरत केवल विस्थापितों को होती है। वहीं पुनर्वास का मतलब है लोगों के आर्थिक संसाधनों, सांस्कृतिक परंपराओं, सामाजिक ढांचों और सामुदायिक मदद के समूचे ढांचे के साथ कहीं और बस जाना। यानी संक्षेप में कहें तो आजीविका का पुनर्वास।

इसकी जरूरत पीएपी को भी होती है। लेकिन यह हो नहीं पाया। अधिकांश डीपी को भौतिक तौर पर कहीं और बसाने के अलावा अन्य किसी भी तरह की सुविधाएं नहीं दी गईं। उदाहरण के तौर पर, पश्चिम बंगाल का मयूराक्षी बांध तथा गुजरात के उकाई बांध से बड़ी संख्या में लोग विस्थापित हुए लेकिन इन बांधों से सिंचाई नहीं होती। इसी तरह आंध्रप्रदेश के नागार्जुन सागर के विस्थापितों को 40 साल के बाद जाकर सिंचाई की सुविधा मिल पाई। ऐसे में निश्चित तौर पर वे अपनी जमीन का अधिकतम फायदा उठाने में नाकाम रहे। चूंकि पुनर्बसाहट की गुणवत्ता ही काफी लचर रही इसलिए इसका पुनर्वास की ओर कोई जोर नहीं रहा।

पुनर्बसाहट


कई अधिकारी पुनर्बसाहट की प्रक्रिया को यह बताकर उचित ठहराते हैं कि परियोजना के तहत विस्थापितों को जो मुआवजा दिया गया है दरअसल वह पुनर्वास है। वास्तविकता यह है कि मुआवजा केवल पट्टे की जमीन के बदले में दिया गया और अधिकांश मामलों में यह उसके लिए भी कम ही था। यह उस क्षेत्र में बीते तीन साल के बाजार मूल्य के मुताबिक तय किया जाना था। यह सभी जानते हैं कि रजिस्ट्रेशन के दौरान जमीन के वास्तविक मूल्य के 40 फीसदी से अधिक कीमत कोई नहीं चुकाता।

दूसरी बात यह कि ग्रामीण क्षेत्रों को आमतौर पर और आदिवासी क्षेत्रों को खासतौर पर ‘पिछड़ा’ माना जाता है। ऐसे में जो भी थोड़ी बहुत जमीन उनके हिस्से में है उसकी कीमत बेहद कम आंकी जाती है। तीसरी बात यह कि सार्वजनिक साझा संसाधन, जिनमें से अधिकांश आदिवासी क्षेत्रों में होते हैं का कोई मुआवजा नहीं दिया जाता। उदाहरण के तौर पर, 1980 के दशक के बीच में, नेशनल एल्युमिनियम कारपोरेशन (नालको) ने ओड़ीशा के अंगुल जिले में एक यूनिट बनाई तथा दूसरी कोरापुट के आदिवासी क्षेत्र में बनाई।

सारणी 3 : डीपी तथा पुनर्बसाहट किए गए लोगों की संख्या

राज्य

डीपी

पुनर्बसाहट

%पुनर्बसाहट

आंध्रप्रदेश

1526813

440090

28.82

असम

307024

11000

03.59

गोवा

15950

5375

33.63

गुजरात

690322

164498

23.82

केरल

219633

30036

13.68

ओड़ीशा

548794

192840

35.27

प. बंगाल

3634271

400000

11.18

कुल

6942807

1243839

17.94

 

स्रोत : फर्नाडीज 2008-95

अंगुल में अधिग्रहीत की गई जमीन का 18 प्रतिशत हिस्सा सार्वजनिक था, इसमें सड़कें, तालाब व स्कूलों आदि को विस्थापित किया गया। वहीं कोरापुट में 58 प्रतिशत अधिग्रहीत जमीन सार्वजनिक साझा संसाधन की थी जिन पर आदिवासियों की आजीविका निर्भर थी। न तो यह बदली गई ना ही इसका मुआवजा दिया गया। उन्हें प्रति एकड़ औसतन 2,700 रुपए की दर से मुआवजा बांट दिया गया, जबकि अंगुल में पट्टाधारियों को 25,000 हजार रुपए प्रति एकड़ का मुआवजा मिला (फर्नांडीज तथा राज 1992: 92)।

हमें पुनर्वास नीति को इसी संदर्भ में समझने की जरूरत है। 1960 में कुछ प्रशासकों ने महसूस किया कि भूमि अधिग्रहण समाज में बढ़ती असमानता की एक बड़ी वजह है, और इसीलिए इसकी प्रक्रिया में बदलाव लाया जाना चाहिए। तब खाद्य, कृषि, सहकारिता तथा सामुदायिक विकास मंत्रालय जो बाद में ग्रामीण विकास मंत्रालय बना, की ओर से एक 17 सदस्यीय विषेशज्ञों का समूह बनाया गया। इसे भूमि अधिग्रहण से संबंधित प्रक्रिया तथा कानूनों के अध्ययन का काम सौंपा गया। वर्ष 1967 में सौंपी गई अपनी रिपोर्ट में इस समूह ने कई प्रमुख बदलाव संबंध सुझाव दिए (गुहा, 2007)। इसी वर्ष टीएन सिंह फार्मूला के तहत सार्वजनिक क्षेत्र की खदानों तथा उद्योगों से होने वाले विस्थापितों के हर परिवार को एक नौकरी दिए जाने का सुझाव दिया गया। वर्ष 2004 में घोषित पहली पुनर्वास नीति के पहले तक यही एकमात्र केंद्रीय सुझाव था जो पुनर्वास की झलक देता था। अपनी कमियों के बावजूद यह सही दिशा में उठाया गया एक कदम था। हालांकि मशीनीकरण के साथ-साथ अकुशल नौकरियों के अवसर घटने लगे और स्कोप (स्टैंडिंग कमिटी ऑफ पब्लिक एंटरप्राइजेस) ने इस फार्मूले को 1986 में खारिज कर दिया (एमआरडी 1993)।

इसके 18 वर्ष बाद गृह मंत्रालय के कल्याण विभाग ने आदिवासी पुनर्वास के अध्ययन के लिए एक समिति का गठन किया। इसकी जरूरत इसलिए पड़ी क्योंकि अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग ने पाया कि 1951-1980 के बीच हुए डीपी/पीएपी में से 40 फीसदी आबादी आदिवासियों की थी। इस समिति ने पुनर्वास नीति की जरूरत को स्वीकार करते हुए सुझाव दिया कि यह सभी डीपी पर लागू होनी चाहिए ना कि महज आदिवासियों पर। साथ ही यह भी कहा कि नीति का क्रियान्वयन कानूनी बाध्यताओं के साथ होना चाहिए (भारत सरकार 1985)। ग्रामीण विकास मंत्रालय ने आठ साल इसके लिए इंतजार किया, जब तक विश्व बैंक ने सरदार सरोवर परियोजना से अपने हाथ पीछे नहीं खींच लिए। इसके बाद कहीं जाकर नीति का एक प्रारूप तैयार किया गया (एमआरडी 1993), तथा इसको 1994 में संशोधित किया गया (एमआरडी 1994)।

1993 के प्रारूप में यह स्वीकारा गया था कि हजारों, लाखों डीपी के साथ अन्याय किया गया है, और उनका पुनर्वास नहीं हो पाया है। इसने यह भी जिक्र किया कि स्कोप (स्टैंडिंग कमिटी ऑफ पब्लिक एंटरप्राइजेस) की ओर से टीएन सिंह फार्मूले को खारिज कर दिया गया, जबकि न्याय की मांग यह है कि आदिवासियों और दलितों की विशेष जरूरतों को देखते हुए एक खास नीति बनाई जानी चाहिए। इस वजह से इस मुद्दे पर मंत्रालय की चिंता उनके प्रति नजर आई जो विकास की कीमत चुकाते हैं। वर्ष 1994 में पुनर्वास नीति के प्रारूप में 16 मंत्रालयों और विभागों की प्रतिक्रिया दर्ज थी, जो वास्तव में सरकार का नजरिया दर्शाती थी। इसने पहले की असफलताओं के सभी संदर्भ, यहां तक कि स्कोप की सिफ़ारिश को भी भुला दिया। बल्कि इसकी शुरुआत ही यह कहते हुए हुई कि नई आर्थिक नीति के लागू होने के बाद भारतीय व विदेशी निजी निवेशकों द्वारा और ज्यादा जमीनों का अधिग्रहण किया जाएगा। इसकी वजह से पुनर्वास नीति की जरूरत और शिद्दत से महसूस हुई (एमआरडी 1994: 1.1-1.4)। हालांकि इसके पीछे सारा जोर उदारीकरण का था ना कि डीपी/पीएपी की भलाई का।

एक हजार से भी ज्यादा सामाजिक कार्यकर्ताओं के समूह, शोधकर्ताओं, कानूनी कार्यकर्ताओं तथा हजारों डीपी/पीएपी ने पुनर्वास नीति के प्रारूप का विश्लेषण किया और नीति का एक विकल्प तैयार कर दिया। यह प्रक्रिया एक साल से भी ज्यादा समय तक चली और समन्वय ने कुछ ऐसे सिद्धांत विकसित किए जिनके आधार पर नीति तथा कानूनों को बनाया जाना चाहिए था। यह वैकल्पिक नीति सचिव, ग्रामीण विकास, भारत सरकार को अक्टूबर 1995 की शुरुआत में ही दे दी गई। ( फरवरी 1997 तक की सभी नीतियों, कानूनों, प्रारूपों तथा आलोचनाओं को देखें फर्नांडीज एवं परांजपे 1997)। तीन साल बाद ग्रामीण क्षेत्र व रोजगार से जुड़े मंत्रालय ने एक और प्रारूप (एनपीआरआर 1997) विकसित किया, इसमें एलएक्यू में कई संशोधन किए गए थे (एलएबी 1998)। नागरिक समूहों के समन्वय ने विश्लेषण के बाद पाया कि प्रारूप नीति का आधा हिस्सा तो स्वीकार करने योग्य है लेकिन यह भी पाया कि उसके सभी सिद्धांत खारिज कर दिए गए हैं। इस तरह एक बार फिर उन्होंने मंत्रालय के साथ विभिन्न विकल्पों पर चर्चा का दौर शुरू कर दिया। ग्रामीण विकास मंत्रालय की ओर से जनवरी 1999 में बुलाई गई एक बैठक में इस बात पर अलिखित सहमति बन गई कि नागरिक समूहों के परामर्श से एक नीति बनाई जाएगी तथा कानून का प्रारूप भी विकसित होगा जिसमें उक्त सिद्धांतों को समाहित किया जाएगा।

विस्थापन की वजह से अधिकांश आदिवासी, दलित व अन्य ग्रामीण गरीब, खासतौर पर महिलाओं का नुकसान होता है। विस्थापन तथा वंचित रहने की वजह से इन वर्गों के अधिकांश डीपी/पीएपी उपेक्षित कर दिए जाते हैं। हालांकि विस्थापन तथा वंचितों के मुद्दे का एक अहम अंग डीपी/पीएपी का प्रकार तथा इस मुद्दे पर राष्ट्रीय जागरूकता का अभाव है। पुनर्बसाहट किए गए लोगों में से अधिकांश का पुनर्वास न हो पाने का एक अहम कारण यह है कि अधिकांश डीपी आदिवासी, दलित या अन्य ग्रामीण गरीब होते हैं जिनका समाज के अन्य वर्गों के साथ औपचारिक परिचय नहीं होता। हालांकि वर्ष 2003 में एक नीति बनाई गई और 2004 में बिना किसी सलाह-मशवरे के लागू कर दी गई। डीपी/पीएपी के अध्ययन में शामिल ज्यादातर लोगों का मानना था कि यह नीति बेहद कमजोर है (फर्नांडीज 2004)। इसलिए केंद्र सरकार की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने जो मई 2004 से अस्तित्व में आई, ने एक नई नीति का प्रारूप तैयार किया जिसे अधिकांश लोगों ने स्वीकार करने योग्य माना क्योंकि यह उनके विचारों से मिलती-जुलती थी (सेठी 2006)। ग्रामीण विकास मंत्रालय ने इससे संबंधित एक अन्य प्रारूप तैयार किया जिसमें 2004 की नीति को थोड़ा और बेहतर किया गया था (सिंह 2006)। हालांकि केंद्र सरकार ने बाद वाली नीति की संशोधित नीति के तौर पर 31 अक्टूबर 2007 को घोशणा कर दी और पुनर्वास विधेयक तथा भूमि अधिग्रहण अधिनियम में संशोधन के लिए प्रस्ताव भी तैयार कर लिया। इन दस्तावेजों की भूमिका काफी सीमित थी। इन सभी प्रारूपों तथा नीतियों में विस्थापन को बेहद सामान्य तौर पर लिया गया था।

हालांकि प्रारूप के दस्तावेजों के जरिए मंत्रालयों के प्रशासनिक अधिकारियों ने विस्थापन के दुष्प्रभावों की ओर ध्यान दिया और इसी संदर्भ में डीपी/पीएपी को राहत पहुंचाने की कोशिश की गई। हालांकि कई ताकतवर मंत्रालयों, जिनके इस मसले पर व्यापारिक हित जुड़े हुए थे ने इस प्रयासों को काफी हद तक सीमित कर दिया। इन सारे हालात के बीच नागरिक समूहों ने अनसुने तबके की आवाज बनने की अपनी मुहिम जारी रखी। इस वजह से प्रारूप में कुछ सुधार लाया जा सका। लेकिन इससे संबंधित अंतिम नीतियां तथा भूमि अधिग्रहण एवं पुनर्वास से संबंधित विधेयकों ने ये प्रयास दृष्टिगत नहीं हो सके। इनमें डीपी/पीएपी के हितों की बजाय व्यावसायिक हित ज्यादा नजर आए।

लाचारी से बदहाली तक


अध्ययनों से पता चलता है कि विस्थापन और वंचित होने का पहला नतीजा निर्धनता के तौर पर सामने आता है। निर्धनता सीधे लोगों की आर्थिक स्थिति की बदहाली और परियोजना के चलते उनकी आजीविका से हाथ धो बैठने की स्थिति से जुड़ी हुई है, इसमें पहले से उनकी गरीबी की स्थिति का कोई लेना-देना नहीं है। विस्थापन की वजह से बहुसंख्यक आबादी निर्धनता या दरिद्रगी की ओर धकेल दी जाती है, वहीं अल्पसंख्यक आबादी को खासकर ताकतवर तबके को इससे अपनी आर्थिक स्थिति बेहतर करने में मदद मिलती है (कार 1990)। विस्थापन की वजह से अधिकांश आदिवासी, दलित व अन्य ग्रामीण गरीब, खासतौर पर महिलाओं का नुकसान होता है। विस्थापन तथा वंचित रहने की वजह से इन वर्गों के अधिकांश डीपी/पीएपी उपेक्षित कर दिए जाते हैं। हालांकि विस्थापन तथा वंचितों के मुद्दे का एक अहम अंग डीपी/पीएपी का प्रकार तथा इस मुद्दे पर राष्ट्रीय जागरूकता का अभाव है। पुनर्बसाहट किए गए लोगों में से अधिकांश का पुनर्वास न हो पाने का एक अहम कारण यह है कि अधिकांश डीपी आदिवासी, दलित या अन्य ग्रामीण गरीब होते हैं जिनका समाज के अन्य वर्गों के साथ औपचारिक परिचय नहीं होता।

कमजोर तबके की उपेक्षाः


विस्थापन की वजह से पहले से ही गरीब तबके को ऐसे नए समाज में धकेल दिया जाता है जिसमें उनके लिए आपस में जुड़ाव की कोई तैयारी नहीं होती। इसीलिए, भले ही उनका पुनर्बसाहट कर दिया जाए वे नए समाज और आर्थिक स्थिति में खुद को ढालने के लिए कतई तैयार नहीं होते। उदाहरण के तौर पर, ओड़ीशा के राउरकेला स्टील प्लांट में नौकरी पर रखे गए कई डीपी को यह कहते हुए नौकरी से बाहर कर दिया गया कि वे अनुशासनहीन हैं, शराब पीते हैं तथा अनियमिति हैं। एक अध्ययन (वीगस 1992: 42-43) से पता चलता है कि इसका असल कारण यह है कि उन्हें अनौपचारिक खेतिहर पृष्ठभूमि से औद्योगिक परिदृश्य में धकेल दिया गया। ऐसे में काम करने के लिए उनकी समय संबंधी समझ में भिन्नता आ गई। डीपी इससे पहले समय की औद्योगिक अवधारणा से परिचित नहीं थे और इसीलिए वे उसे अनुशासन और समय की पाबंदी के साथ नहीं चल सके जो विस्थापन ने उनके ऊपर थोप दिया था। ऐसे में शराब पीना उनके लिए इस स्थिति ने न जूझ पाने की नाकामी छिपाने का तरीका बन गया। डीपी/पीएपी की उपेक्षा का एक और चिन्ह बहुविस्थापन के तौर पर सामने आया। ऐसा दीर्घावधि क्षेत्रीय योजना के अभाव के चलते हुआ। उदाहरण के तौर पर रिहंद बांध के ज्यादातर विस्थापित बीते तीस वर्षों में तीन बार उजाड़े गए (गांगुली ठकुराल 1989 : 47-48)। कर्नाटक के काबिनी बांध से 1970 में विस्थापित हुए सोलिगा आदिवासियों को राजीव गांधी नेशनल पार्क (चेरिया 1996) से एक बार फिर विस्थापन का खतरा झेलना पड़ा।

मैंगलोर पोर्ट से 1960 में विस्थापित हुए कई मछुआरे परिवार 1980 के दशक में कोंकण रेलवे की वजह से फिर से उजाड़े गए। जबकि उस वक्त उन्होंने मछली पालन की जगह खेती करने की आदत अपना ली थी (फर्नांडीज 1991 : 247)। मिजोरम के आदिवासी परिवार जिन्होंने अपनी जमीन आईजाॅल के लेंगपुई एअरपोर्ट के बनने में गंवा दी थी, 1990 के एक दशक में तीन बार विस्थापित हुए। पहली बार एअरपोर्ट के लिए, फिर जहां उन्हें बसाया गया वहां की जमीन सड़क बनाने के लिए अधिग्रहीत कर ली गई, और तीसरी बार वे स्टाफ क्वार्टर के लिए जमीन की जरूरत की वजह से उजाड़े गए (गर्ग, 2007)।

बहुविस्थापन के ऐसे और भी उदाहरण हैं। इसका मुख्य कारण किसी क्षेत्रीय योजना का अभाव है। बल्कि यह योजनाकारों की इस प्रवृत्ति की वजह से है जिसमें वे जरूरत से ज्यादा जमीन अधिग्रहीत कर लेते हैं। उदाहरण के तौर पर संभलपुर के पास बसा बुरलाशहर हीराकुंड बांध के लिए अधिग्रहीत अतिरिक्त जमीन पर बसाया गया है। आंध्रप्रदेश के मेदक जिले में भेल ने अपनी अतिरिक्त जमीन अनुसंधान संस्थान ‘आईसीआरआईएसएटी’ को दे दी। ओड़ीशा के कोरापुट जिले के एमआईजी-एचएल प्लांट सुनाबेदा में 1966 में अधिग्रहीत जमीन का करीब दो तिहाई हिस्सा तीन दशक तक बिना किसी उपयोग के पड़ा रहा। यहां 468 परिवार बेदखल किए गए जो न तो बसाए गए और ना ही इस जमीन पर वनीकरण हुआ। एक रिपोर्ट के मुताबिक इसका एक हिस्सा एक निजी कंपनी को भारी मुनाफे में बेच दिया गया (पांडे 1998 बीः35) ।

हमले की जद में गरीबः


गरीबों के पुनर्वास तथा इससे संबंधित भरोसेमंद आंकड़ों के अभाव का एक अहम कारण संभवतः यह है कि अधिकांश डीपी/पीएपी निशक्त वर्ग से आते हैं यानी सत्ता से दूर। आदिवासी जो कुल आबादी का 8.08 प्रतिशत हैं डीपी/पीएपी के 40 फीसदी से भी ज्यादा हैं (सारणी 1.4)। आंध्रप्रदेश में उनकी कुल आबादी राज्य की आबादी का करीब 6 प्रतिशत है लेकिन यहां डीपी/पीएपी में इनकी हिस्सेदारी 30.19 प्रतिशत है (फर्नांडीज 2001: 85)। ओड़ीशा में वे कुल आबादी का 22 प्रतिशत हैं जबकि डीपी/पीएपी में उनकी हिस्सेदारी है 40.38 प्रतिशत (फर्नांडीज तथा आसिफ 1997: 112)।

यहां तक केरल और कर्नाटक में जहां वे कुल आबादी के एक प्रतिशत के करीब हैं, बड़ी परियोजनाओं (मुरिक्कन 2003) तथा काबिनी बांध (चेरिया 1996) में उनकी संख्या बहुतायत में है। यानी संख्या में भले ही कम या ज्यादा हों, पर डीपी/पीएपी में आदिवासी आबादी की बहुतायत है। इसके बाद नंबर आता है दलितों का जो डीपी/पीएपी में करीब 20 फीसदी हैं (महापात्रा 1994)। आंध्रप्रदेश में जहां वे कुल आबादी का महज 16 प्रतिशत हैं, डीपी/पीएपी में उनकी भागीदारी 20 फीसदी की है। इनके अलावा अन्य गरीबों की, खासकर अन्य पिछड़ा वर्ग की इसमें हिस्सेदारी काफी ज्यादा है, भले ही उनकी वास्तविक संख्या का हमें पता नहीं हो। इनका पता चलना इसलिए भी काफी मुश्किल है हाल तक उनकी गिनती सामान्य श्रेणी में ही की जाती रही है। आंध्रप्रदेश के श्रीहरिकोटा तथा सिम्हाद्रि तथा केरल में स्पेस स्टेशनों जैसी परियोजनाओं के आंकड़े बताते हैं कि मछुआरे व खनन से जुड़े श्रमिक परिवार कुल डीपी/पीएपी परिवारों के 30 प्रतिशत हैं (फर्नांडीज 2001 : 85)। यानी वे भी कुल डीपी/पीएपी के 20 प्रतिशत तक हो सकते हैं।

सारणी 4: कुछ राज्यों में डीपी/पीएपी में जाति-आदिवासी अनुपात

राज्य

आदिवासी

%

दलित

%

अन्य

%

जानकारी नहीं

%

कुल

आंध्रप्रदेश

970654

30.19

628824

19.56

1467286

45.63

148856

04.63

3215620

असम*

416321

21.80

जानकारी नहीं

जानकारी नहीं

609015

31.90

893538

46.30

1918874

गोवा*

जानकारी नहीं

जानकारी नहीं

जानकारी नहीं

जानकारी नहीं

जानकारी नहीं

जानकारी नहीं

66820

100

66820

गुजरात

1821283

44.43

462626

11.29

1791142

43.70

23818

0.58

4098869

झारखंड

620372

40.08

212892

13.75

676575

43.71

38178

02.47

1548017

केरल

जानकारी नहीं

जानकारी नहीं

जानकारी नहीं

जानकारी नहीं

जानकारी नहीं

जानकारी नहीं

552233

100

552233

ओडीशा

616116

40.38

178442

11.64

671351

48.01

0

0

1465909

प. बंगाल

1330663

19.16

1689607

24.33

25662233

36.95

1357999

19.55

6944492

कुल

5775409

29.15

3172391

16.01

7781592

39.28

3081442

15.55

19810834

 

स्रोत : फर्नांडीज 2008 : 94

आदिवासियों व दलितों की संख्या के अनुमान से कम होने तक ही बात सीमित नहीं है। भूमि अधिग्रहण कानून में केवल उन्हीं को मान्यता मिलती है जो पट्टाधारक हैं। इसलिए केवल वही आधिकारिक आंकड़ों में शामिल हो सकते हैं। अधिकांश आदिवासी जो पारंपरिक तौर पर वनों तथा अन्य सामुदायिक साझा संसाधनों पर निर्भर हैं, इस गिनती में शामिल नहीं हैं। इसका उदाहरण छत्तीसगढ के राजनांदगांव में दल्ली राजहरा खदान, ओड़ीशा में हीराकुंड तथा आंध्रप्रदेश में नागार्जुनसागर के हैं, जिनका जिक्र पहले ही किया जा चुका है। अधिकांश दलित भूमिहीन मजदूर हैं और उनके पास अपना पट्टा तक नहीं है। वे गांव में अपने समुदाय के साथ सेवाओं के आदान-प्रदान पर निर्भर हैं। इसी वजह से वे डीपी/पीएपी के तहत गिनती में शामिल नहीं होते। जहां उनकी संख्या ज्यादा है वहां बड़े अनुपात में शामिल हैं। उदाहरण के तौर पर वे केरल में नेदुमबेसरी एअरपोर्ट के विस्थापितों में 43 प्रतिशत हैं। लेकिन पुनर्वास के नतीजों पर कई बार आश्चर्य होता है। कई पीएपी जो बेहतर परिवारों के हैं, समृद्ध जिलों में निवास करते हैं, अपनी उन जमीनों की बेहतर कीमत पा जाते हैं जो बहुत उपजाऊ नहीं है। जैसा कि ओड़ीशा के अंगुल जिले में कोयले की खदानों और नालको प्लांट के डीपी/पीएपी की स्थिति में हुआ (फर्नांडीज तथा राज 1992 : 123-125)।

अधिकांश आदिवासी तथा दलित न तो मुआवजे के पात्र बने और ना ही उनका पुनर्वास हो सका। ऐसे में उनकी आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक हालत में काफी गिरावट आ गई। उदाहरण के तौर पर सुप्रीमकोर्ट ने यह जानने के लिए ‘ओम्बड्समैन’ की नियुक्ति की कि 1982 में दिल्ली में आयोजित एशियन गेम्स की सुविधाओं के लिए बन रहे ढांचों का काम कर रहे 150,000 निर्माण मजदूरों में से 30-40,000 बंधुआ मजदूर थे। इन्हें ठेकेदारों द्वारा यह लालच देकर दिल्ली लाया गया था कि उन्हें बगदाद भेजा जाएगा। दिल्ली में दासों जैसी हालत में रहने के बाद उन्हें इस बात की भी कोई उम्मीद नहीं रह गई थी कि वे अपने परिवारों के पास लौट पाएंगे। जब उनसे यह पूछा गया कि उन्होंने ठेकेदारों की बात क्यों मानी तो उन्होंने अपना बचपन हीराकुंड व ऐसी ही अन्य परियोजनाओं, औद्योगिकीकरण की वजह से हुए निर्वनीकरण तथा विस्थापन की भेंट चढ़ा दिया था। ऐसे में बेहतर नौकरी की बातों के कारण वे आसानी से ठेकेदार के जाल में फंस गए (फर्नांडीज 1986 : 268-271)।

सर्वाधिक प्रभावित महिलाएंः


अभाव की होने वाले दुष्प्रभाव का आकलन करना बेहद मुश्किल है। इससे सभी प्रभावित हुए हैं लेकिन हर समूह में महिलाओं ने विकास की सबसे ज्यादा कीमत चुकाई है। यहां तक कि जब कभी किसी परियोजना में पुनर्बसाहट के लिए कोई पैकेज घोषित होता है जो सारा ध्यान केवल पुरुषों पर ही दिया जाता है, महिलाओं की पूरी तरह से उपेक्षा होती है। उदाहरण के तौर पर नौकरी हमेशा परिवार के ‘मुखिया’ को दी जाती है। अधिकांश परिवारों में पुरुष ही मुखिया होते हैं (गांगुली ठकुराल तथा सिंह 1995)।

अगर पुनर्बसाहट में जमीन का पट्टा दिया जा रहा हो तो वह भी परिवार के मुखिया के नाम पर ही होता है। सामान्यतः यह भी पुरुष के ही नाम पर होता है। जाहिर तौर पर सत्ता पुरुष या उसके बेटे के हाथों में ही केंद्रित रह जाती है। महिला सत्ताहीन तथा संपत्तिहीन ही रह जाती है। हालांकि आदिवासी परिवारों में परंपराओं के चलते महिलाओं को सामुदायिक संसाधनों व जमीन पर कुछ हक दिया जाता है। कुछ हद तक दलित महिलाओं को भी यह हक है लेकिन पुरुषों के बराबर नहीं। ऊंची जाति की महिलाओं का सामाजिक स्तर ज़रुर बेहतर होता है, वह इसलिए कि उनके हाथों में आर्थिक संपत्ति होती है। दलित महिलाएं दूसरों की जमीन पर काम करती हैं और सारी आमदनी अपने परिवार को दे देती हैं। वहीं आदिवासी महिलाओं की तुलनात्मक तौर पर बेहतर स्थिति सामुदायिक संसाधनों पर उनके नियंत्रण की वजह से होती है (मेनन 1995: 101)।

लेकिन विस्थापन की वजह से वह अपनी जमीन और जंगलों से बेदखल कर दी जाती है जो समाज की उसकी स्थिति तथा आर्थिक सक्रियता के मुख्य कारक होते हैं। वह अपना सामाजिक तथा आर्थिक दर्जा खो देती है और पहले से दयनीय हालत में चली जाती है। यहां भी जमीन पुरुषों के ही नाम पर दी जाती है (ठेकेकारा 1993)।

जहां आर्थिक तथा सामाजिक सत्ता पुरुषों को हस्तांरित होती है, महिलाओं की पारंपरिक भूमिका में कोई बदलाव नहीं आता। पुरुष को तो नौकरी मिल जाती है लेकिन महिला को पहले की ही तरह अपने परिवार की देखभाल करनी होती है। वह भी उस हालत में जब परिवार का केवल एक ही व्यक्ति कमाने वाला होता है और भोजन के मुख्य स्रोत बने रहे जमीन व जंगल उनकी पहुंच से दूर हो चुके होते हैं। महिला को अपनी बुनियादी ज़रूरतों की सभी वस्तुएँ बाजार से अपने पति की इकलौते वेतन से खरीदनी पड़ती है। वहीं पुरुष, परियोजना के अन्य विस्थापितों की जीवन-शैली से प्रभावित होकर अपने वेतन का एक हिस्सा कपड़ों, मनोरंजन और दूसरे मदों में खर्च करने लगता है।

इससे परिवार की ज़रूरतों के लिए काफी कम पैसा बचता है। ऐसे में परिवार की पोषकीय तथा स्वास्थ्य की स्थिति सामान्य तौर पर तथा महिला का खासकर बिगड़ने लगती है। पुनर्बसाहट बस्तियां बनाते समय परियोजना प्राधिकरण का ध्यान महिलाओं की ज़रूरतों व साफ-सफाई की ओर नहीं जाता। भारतीय संस्कृति में जहां महिलाओं को कई निजी जरूरतें पूरी करने के निजता की जरूरत होती है, वहीं इन बस्तियों में ऐसी जरूरतों की पूर्ति के लिए विशेष स्थान या सुविधा के अभाव में महिलाओं को मजबूरी में पड़ोस में जाकर सार्वजनिक संसाधनों का इस्तेमाल करना पड़ता है, जिनका प्रयोग आमतौर पर ग्रामीण चारागाह के तौर पर करते हैं। ऐसी हालत में महिलाओं के बीच में लड़ाई-झगड़े बेहद सामान्य हैं। बहुत से पुरुष ऐसी हालत से निजात पाने के लिए शराब का सहारा ले लेते हैं और विस्थापन तथा अभाव की यंत्रणा के बीच नए समाज में ताल-मेल बिठाने की कोशिश करते हैं। इन सबके नतीजे में पत्नियों की पिटाई के मामले बेहद आम हो जाते हैं। कई मामलों में तो महिलाओं की ओर से अकेलापन दूर करने के लिए शराब पीने के उदाहरण सामने आते हैं। क्योंकि उन्हें घर के काम निपटाने के बाद बाहर का कोई काम ही नहीं होता (फर्नांडीज तथा राज 1992)।

गरीबी से हाशिए की ओर:


कोई बेहतर विकल्प मुहैया कराए बगैर भरण-पोषण या आजीविका का नुकसान होने का पहला नतीजा होता है गरीबी या दरिद्रता। बहुत से डीपी/पीएपी खासकर पिछड़े व सत्ताहीन तबके से जुड़े लोग गरीबी या दरिद्रता से भी आगे अपनी आर्थिक स्थिति के खराब होने की वजह से हाशिए पर धकेल दिए जाते हैं। खासकर उनके सामाजिक, सांस्कृतिक व मनोवैज्ञानिक स्तर के खोने के बाद। उनकी आर्थिक स्थिति, संस्कृति और पहचान जमीन, जंगलों और अन्य प्राकृतिक संसाधनों से उनके जुड़ाव पर निर्भर होती है। लेकिन परियोजनाओं के चलते वे इन सबसे दूर हो जाते हैं और अपनी सांस्कृतिक विरासत, आध्यात्मिक विश्वास, इतिहास, मिथकों आदि से भी कट जाते हैं। विस्थापन की वजह से उनकी पारंपरिक जीवन-शैली, सामाजिक ताना-बाना और सांस्कृतिक अभ्यास सभी बिगड़ जाते हैं तथा इसका असर उन पर मनोवैज्ञानिक ढंग से पड़ता है (पमेई 2001)। इन सबके अलावा एक समाज जो पूरी तरह पैसों पर आधारित अर्थव्यवस्था से इधर एक अनौपचारिक जीवन जी रहा था, अचानक एक ताकतवर, औपचारिक धन-केंद्रित समाज में जबरन धकेल दिया जाता है जिनके साथ ताल-मेल बिठाने तक की उसकी तैयारी नहीं होती। इस हालत में वे उस संस्कृति को आत्मसात करने की कोशिश करते हैं जो परियोजना से जुड़े बाहरी लोग अपने साथ लाते हैं। बाहरी लोग खुद को उनसे बेहतर मानते हैं। ऐसे में स्थानीय लोग खुद को कमतर आंकने लगते हैं और अपने समुदाय को भी हीनभावना से देखने लगते हैं (गावेंता 1980 : 7-9)।

यह स्थिति विस्थापितों को हाशिए पर धकेले जाने के लिए अंतर्निहित है और आर्थिक बदहाली से बाद ही स्थिति है। इससे उनकी सामाजिक और मनोवैज्ञानिक स्थिति और भी बदहाल हो जाती है। वे खुद को ऐसे समुदाय के तौर पर देखना शुरू कर देते हैं जो खुद के विकास के योग्य ही नहीं है या ऐसी परियोजना के लाभ से अपना हिस्सा मांग सकती है जिसके विकास की कीमत उन्होंने ही चुकाई है। इस बदहाली के चलते उनका शारीरिक स्वास्थ्य बिगड़ जाता है, वहीं काम करने के प्रति उत्साह तथा प्रेरणा की कमी की कमी से उनमें उनके भविष्य के प्रति आशा नहीं बचती। वे अपनी ताकत को पहचानने में भी नाकाम हो जाते हैं और खुद को इस अवसाद व दबी स्थिति से उबारने में अक्षम मानने लगते हैं। कुछ तो यह भरोसा कर लेते हैं कि यही उनकी किस्मत है और दूसरे इस विचार को आत्मसात कर लेते हैं कि वे इनपर हावी हो सकते हैं क्योंकि ये उनसे निचले दर्जे के हैं। अपने जंगलों, भूमि तथा अन्य संसाधनों से अलग होने के नतीजे में कई आदिवासी समुदाय अपनी संस्कृति को भुला देते हैं। जबकि इस संसाधनों के होने तक यह तय था कि उनके बीच हर चीज का समान बंटवारा और समान उपयोग होगा। लेकिन इस स्थिति से वे संरचनात्मक निर्भरता से विध्वंसात्मक निर्भरता की ओर बढ़ते हैं। वे अपनी आजीविका के लिए संसाधनों को नष्ट करना शुरू कर देते हैं (रेड्डी 1995)।

साफ है कि हाशिए पर धकेले जाने, दरिद्रता और अपनी स्थिति को स्वीकार कर लेने की प्रवृत्ति की चलते वे प्रगति करने से खुद को ही रोक लेते हैं। जाॅन गावेंटा (1980 : 3-5) ने इस स्व-चित्रण को उन तीन आधारों का ही एक हिस्सा बताया जिन पर असमान समाज बनते और पनपते हैं। पहला चरण है कानूनी समानता। सत्ताधीश वर्ग संस्थाएं और व्यवस्थाएं बनाता है जो सभी के लिए कानूनी तौर पर उपलब्ध होती हैं लेकिन कमजोर की इन तक पहुंच नहीं बन पाती, क्योंकि इसके लिए जिस भाषा, संस्कृति और खर्च का इस्तेमाल होता है वह उनके बस के बाहर है। उदाहरण के तौर पर, अदालतें सभी के लिए उपलब्ध हैं लेकिन गांव से दूरी, भाषा तथा खर्च की वजह से यह आम लोगों से दूर हैं। ‘हम जानते हैं कि लोग अपने अधिकारों की प्राप्ति के लिए अदालत जा सकते हैं, गरीब खुद को अदालत नहीं जाते पर ले जाए ज़रुर जाते हैं’ (बख्शी 1983 : 103)।

दूसरा चरण है सीमित लोगों की पहुंच का जिसके तहत व्यवस्था को चोट पहुंचाए बिना कुछ लोग कुछ खास सुविधाओं का लाभ उठाते हैं। उदाहरण के तौर पर, कुछ गरीब बच्चे अमीरों के लिए बनाए गए स्कूलों में दाखिला पा जाते हैं। उनमें से कई आर्थिक तथा सांस्कृतिक कारणों से स्कूल छोड़ जाते हैं। हालांकि लाभकर्ता वर्ग को यही लगता है कि वे उनके बौद्धिक स्तर तक पहुंच पाने के काबिल नहीं हैं (नाइक 1975: 8-13)। वे आर्थिक हालात की वजह से लिए गए उनके निर्णयों को सांस्कृतिक बताते हुए इस भेदभाव को सही भी मान लेते हैं।

अंतिम चरण अधीनस्थ वर्ग की प्रभावी मानने की विचारधारा है जिसके तहत वे यह स्वीकार कर लेते हैं कि उनका खुद का समाज तुच्छ है। कोई भी असमान समाज तब तक नहीं जी सकता जब तक अधीनस्थ वर्ग प्रभावी मानने की विचारधारा व मूल्यों को आत्मसात न कर ले (गावेंटा 1980: 25-30)।

उदाहरण के तौर पर पुरुष तथा महिलाएं दोनों ही इस व्यवस्था को आत्मसात कर चुके हैं जिसमें महिलाओं को दोयम दर्जा दिया जाता है, खासकर तब जब वे विस्थापितों के साथ नए क्षेत्र में पहुंचते हैं। कई बार जब बेरोजगार महिलाएं जिन्हें केवल एक व्यक्ति के वेतन से अपने परिवार का गुजर-बसर करना होता है, कम वेतन वाले अकुशल काम की तलाश में जाती हैं तो पुरुष जो परियोजना कार्यालय में एक कर्मचारी या श्रमिक होता है, यह कहकर आपत्ति जताता है कि वह एक ऑफिस कार्यकर्ता की पत्नी है, ऐसे में निचले दर्जे का काम कैसे कर सकती है। ऐसा कर वह उस आय से परिवार को वंचित रखता है जिससे परिवार की पोषण ज़रूरतें कुछ हद तक पूरी हो सकती थीं (मेनन 1995 : 102)। वहीं पारंपरिक तौर पर बेहतर दर्जा रखने के बावजूद ओड़ीशा तथा आंध्रप्रदेश में आदिवासी महिलाएं अकुशल श्रमिक के तौर पर कम वेतन वाले काम करने के लिए मजबूर की जाती हैं, यहां यह बात आत्मसात कर ली जाती है कि पितृसत्तात्मक समाज में महिलाएं उतनी बुद्धिमान नहीं हैं और इसीलिए उनके जैसा काम नहीं कर सकतीं, इसलिए उनका वास्तविक काम हाउस वाइफ या घरवाली का है और उनका स्थान घर के अंदर ही है (फर्नांडीज 2008बीः 125-126)।

इसके अलावा, अभाव की वजह से प्रभावित डीपी/पीएपी प्रभावी व्यवस्था की विचारधारा के साथ ऐसे असमान टकराव की ओर धकेल दिए जाते हैं जिसके प्रति उनकी जानकारी बेहद कम होती है और अपनी आजीविका से दूर कर दिए जाने की वजह से तैयारी बेहद लचर। ऐसे में वे नई स्थिति से तालमेल नहीं बिठा पाते। उनके विस्थापन तथा अभाव की दिशा में उठाया गया हर एक कदम, जो परियोजना में अहम निर्णयों के तौर पर होता है, जिसमें कम मुआवजा और पुनर्वास का अभाव शामिल होता है, से उनके खुद को कमतर आंकने तथा दूसरों के प्रभाव में जीने की स्थिति स्वीकार करने की प्रवृत्ति और मजबूत होती है। उनकी दरिद्रता तथा हाशिए पर जीने का एक अहम कारण निर्णयकारी वर्ग की विचारधारा है। इनमें से अधिकांश डीपी/पीएपी की भलाई की बजाय आर्थिक तरक्की को ज्यादा तरजीह देते हैं। अधिकांश परियोजनाओं में उनके पास पुनर्बसाहट तथा पुनर्वास योजनाएं होती हैं जो भौतिक पुनर्बसाहट को ही सुनिश्चित करती हैं पुनर्वास को नहीं। और इस तरह विकास के प्रतिमानों से संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत उनके अधिकारों का उल्लंघन होता है तथा वे और भी अभावग्रस्त हो जाते हैं।

भूमि अधिग्रहण का हर एक कदम उनके हाशिए पर धकेले जाने में अपनी भूमिका निभाता है। उनकी आजीविका बिना उनकी सहमति के अधिग्रहीत कर ली जाती है। इससे वे सुनिश्चित करते हैं कि खुद के निर्णय लेने में उनकी स्थिति कमतर है। यहां तक कि परियोजना के बारे में अधिकारी भी उन्हें कुछ नहीं बताते। उदाहरण के तौर पर ओडीशा में कुल डीपी/पीएपी के 40 प्रतिशत तथा असम में एक तिहाई ने परियोजना के बारे में तब सुना जब अधिकारी उनकी जमीन के आकलन के लिए पहुंचे। अन्य को इसकी जानकारी गांव में चल रही चर्चा के दौरान मिली। उच्च शिक्षित केरल को छोड़कर बहुत ही कम डीपी/पीएपी ऐसे थे जो अखबारों में प्रकाशित परियोजना से संबंधित अधिसूचनाओं को पढ़ सकते हों।

वहीं एक ताकतवर तबका ऐसा भी है जो उनकी इस अनभिज्ञता का फायदा उठाकर अफवाहें फैलाता है और उन्हें अपनी जमीनें बेहद कम कीमत में बेचने के लिए दबाव बनाता है। ज्ञान ही ताकत है। लेकिन इसे लोगों से दूर रखकर परियोजना निर्धारक इन कमजोर लोगों को निषक्त बना देते हैं। उनके अंदर असुरक्षा और भय की भावना पनपती है जिसके नतीजे में वे नियतिवाद के शिकार बन जाते हैं और प्रगति की उनकी प्रेरणा कमजोर पड़ जाती है (गुड 1996: 1505)। अपनी जमीन को बाहरी लोगों को बेचने से उनकी हताशा, असहायता, नियतिवाद तथा खुद को विकसित करने के लिए अक्षमता ही नजर आती है।

सामुदायिक संसाधनों के सही मुआवजे के अभाव तथा बाजार भाव से बेहद कम कीमत पर जमीनों की कीमत निर्धारित किए जाने वे पिछड़े इलाकों में रह रहे इन लोगों के क्षेत्र महज लाभ के तौर देखे जाने लगते हैं। इसका नतीजा यह होता है कि सामुदायिक संसाधनों पर निर्भर ये लोग जिनके पास और कोई संपत्ति नहीं होती, अपनी आजीविका बिना किसी विकल्प के दूसरों को सौंप देते हैं (सेरनिया 2007)।

ऐसी स्थिति में वे प्रभावशील समाज के एकदम सामने आ खड़े होते हैं जबकि उनकी हालत दयनीय और उलट-पुलट वाली होती है। एक बेहतर समाज के साथ इस असमान टकराव की स्थिति में उनके अंदर यह भावना और भी प्रबल हो जाती है कि वे असहाय हैं तथा जो हो रहा है वही उनकी नियति है। यही नहीं, मशीनीकरण तथा श्रम बचाने वाली तकनीकों की वजह से उन्हें महसूस होता है कि खुद को कमतर आंकने की उनकी सोच गलत नहीं है। ऐसा इसलिए भी होता है कि नई सोच में उनकी पारंपरिक तकनीक को ही दरकिनार नहीं किया जाता, बल्कि जो तकनीक इस्तेमाल होती है वह इनकी पहुंच में भी नहीं होती। सही पुनर्वास के अभाव और घटिया गुणवत्ता से रही-सही कसर भी दूर हो जाती है।

अधिकांश मामलों में डीपी तभी पुनर्वसित हो पाते हैं जब वे परियोजना के खिलाफ आंदोलन छोड़ देते हैं या अधिक लाभ के लिए लड़ाई करते हैं। या फिर जब अंतरराष्ट्रीय अनुदान संस्थाएं इसके लिए दबाव बनाती हैं या सामाजिक जागरूकता के चलते प्रशासक योजना में इसे शामिल करें। अगर ये परिस्थितियां कारगर ना हों तो उस हालत में कमजोर लोग पूरी तरह उपेक्षित रह जाते हैं। उदाहरण के तौर पर महाराष्ट्र में 70 के दशक में 220 में महज 133 मध्यम बांधों को ही महाराष्ट्र पुनर्वास अधिनियम 1976 के तहत लाए गए। 94,387 परिवारों में से 28.5 प्रतिशत को भूआवंटन के योग्य माना गया और उन्हें जमीन दी भी गई। बांध प्रभावितों में 31.4 प्रतिशत गैर आदिवासी तथा 15.18 प्रतिशत आदिवासी परिवार थे (फर्नांडीज 1990:36)। यहां तक कि परियोजना से जुड़े स्टाफ तक पुनर्बसाहट पैकेज को कल्याण के तौर पर देखते थे ना कि विस्थापितों के अधिकार के तौर पर। संविधान के अनुच्छेद 21 के बावजूद भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया के दौरान उनकी स्वतंत्र कामगर की स्थिति को सस्ते मजदूर के तौर पर बदल दिया गया।

ऐसे तथा इसी तरह के अन्य तरीकों से उनकी संस्कृति तथा सामाजिक जिंदगी का मूल्य कमतर कर दिया गया तथा उन्हें गरीबों सेे बिना अधिकार के व्यक्तियों की तरह व्यवहार किया गया। उनकी आजीविका को उपभोक्ता सामग्री के तौर पर माना गया और उन्हें यह संदेश देने की कोशिश की गई वे त्याज्य सामग्री की तरह हैं। इस तरह विस्थापितों की आजीविका के प्रति सम्मान के अभाव तथा कम मुआवजे के मिश्रण से यह सुनिश्चित किया जाता है वे खुद को कमतर ही आंके (हेयरडेरो 1989: 33-34)।

सांस्कृतिक बदलाव भी इसमें जुड़ जाता है। उदाहरण के तौर पर, जैसा पहले कहा जा चुका है आदिवासी समुदाय अपनी आजीविका को ऐसे संसाधन के तौर पर देखते हैं जो पुरखों से उनके पास ही बने रहे हैं। अभाव की वजह से उनकी यह परंपरा कमजोर होती है। ऐसे में आजीविका के लिए उन्हें अपने संसाधनों का अत्यधिक शोषण करना पड़ता है। वे अपने जंगलों की लकड़ियां काटकर जलावन के तौर पर बेचते हैं और रोजाना की मजदूरी कमाते हैं या फिर ठेकेदारों के बंधुआ मजदूरों के तौर पर काम करते हैं। इस बदलाव से भविष्य के प्रति उनकी आशाएं खत्म हो जाती हैं। वे केवल वर्तमान के ही बारे में सोचते हैं क्योंकि वे इन संसाधनों को अगली पीढ़ी के लिए बचाकर नहीं रख सकते। इसके नतीजे में वे और भी दरिद्रता की ओर बढ़ते हैं तथा सामाजिक व मनोवैज्ञानिक तौर पर टूट जाते हैं। ऐसे में सत्ताहीनता ही एक प्रवृत्ति उनके अंदर घर कर जाती है और खुद को बेहतर करने या आजाद करने की उम्मीद खत्म हो जाती है (फर्नांडीज 2000 : 218-222)।

समापन:


इस दस्तावेज के जरिए विस्थापन और अभाव को पैदा करने वाला विकास की पृश्ठभूमि तथा आजीविका से वंचित रखने के अन्य तरीकों के बारे में बताया गया है जिनकी वजह से विकास परियोजनाओं के चलते लोगों को विस्थापित कर उनकी आजीविका प्रभावित की जाती है। लोगों को उनके संसाधनों से अलग करने की प्रक्रिया औपनिवेशिक दौर में ही शुरू हो गई थी और 1947 के बाद योजनाबद्ध विकास में यह और भी ज्यादा बढ़ी। यही नहीं, विस्थापन और अभाव की प्रकृति में भी बदलाव आया, पहले महज प्रक्रिया आधारित दखल सेबढ़कर यह भूमि और उनकी आजीविका के सीधे नुकसान तक पहुंच गई। धीरे-धीरे इसकी तीव्रता बढ़ी लेकिन जागरूकता और पुनर्वास दोनों ही क्षेत्रों में कमजोरी रही। इसका मुख्य कारण यह है कि विकास के प्रतिमानऔपनिवेशिक देशों से लिए गए और स्वतंत्र भारत के निर्णयकारी लोगों द्वारा जस के तस लागू कर दिए गए।

उदारीकरण के दौर का नतीजा निर्बल लोगों के और दरिद्र होने के तौर पर सामने आया। यह भी बेहद स्पष्ट है कि विस्थापन और जमीन के इस्तेमाल में बदलाव का असर डीपी/पीएपी के आर्थिक, सांस्कृतिक, सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक पहलुओं पर पड़ा है। इनकी संख्या काफी बड़ी है। यह प्रायद्वीप अभी भी 1947 के बंटवारे के सदमे से पूरी तरह उबर नहीं पाया है जिसमें डेढ़ करोड़ लोगों को प्रभावित किया था। ये लोग भारत व पाकिस्तान के दोनों हिस्सों में आए-गए थे। लेकिन भारत से कई बार राश्ट्रीय विकास के नाम पर इस संख्या को दरकिनार कर दिया और लोग अपनी आजीविका से बेदखल होते रहे। भरोसेमंद आंकड़ों के अभाव तथा पांच दशकों तक पुनर्वास नीति के न बनने से डीपी/पीएपी के प्रति सरकार की संवेदनहीनता साफ तौर पर नजर आती है।

इस स्थिति से यह भी पता चलता है कि योजनकारों का सारा ध्यान योजना के वित्तीय व तकनीकी पहलुओं परही जाता है, लेकिन वे इस बात का पता लगाने के बेहद कम प्रयास करते हैं कि उनकी योजनाओं के कितनेलोग प्रभावित होने वाले हैं। जब पुनर्बसाहट की कवायद होती है, तो हाशिए पर जी रहे समुदायों, महिलाओंतथा बच्चों की जरूरतों को नजरअंदाज कर दिया जाता है। डीपी/पीएपी के बारे में सही सूचना, जो विस्थापनकी त्रासदी को घटाने, योजना के नफा-नुकसान का सही विश्लेषण करने के लिए जरूरी होती है, नजरअंदाजकर दी जाती है। यह चुनौती अब नागरिक समूहों को स्वीकारनी होगी, दोनों ही स्वरूपों में, अध्ययन के तौर परभी और बदलाव के लिए लोगों को जागरूक करने के तौर पर भी।

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