लोगों को जीवनदान देने वाले शहर के प्रतिष्ठित अस्पताल ही लोगों के जीवन से खेल रहे हैं। अस्पताल कबाड़ियों के माध्यम से इस नदी और पास के जंगलों में जैव चिकित्सीय कचरा डाल रहे हैं। गौला रोखड़ ट्रेंचिंग ग्राउंड में सैकड़ों टन जैव चिकित्सीय कचरा डाला गया जा रहा है और उसे जलाया भी नहीं जाता है। नाम के लिये कहीं-कहीं गौला नदी के किनारे पर डंप चिकित्सीय कचरे में बस आग भर लगा दी जाती है। हल्द्वानी की जीवनरेखा कही जाने वाली गौला नदी का निर्मल पानी विषैला हो गया है। वजह है इसकी तलहटी में बसे हल्द्वानी शहर से निकलने वाले नालों, औद्योगिक कचरों, घरेलू कचरों और मेडिकल वेस्ट का नदी में बिना रोक टोक प्रवाह।
लगभग 500 किलोमीटर लम्बी गौला नदी का उद्गम स्थल निचले हिमालय की तलहटी में स्थित सातताल झील हैं। यह नदी काठगोदाम, हल्द्वानी, किच्छा और शाही होते हुए बरेली से 15 किलोमीटर पहले रामगंगा में मिल जाती है। रामगंगा थोड़ी दूरी तय करने के बाद गंगा में मिल जाती है।
कहते है कि हल्द्वानी और काठगोदाम के कुल पानी की जरूरत का 60 प्रतिशत से अधिक हिस्सा गौला नदी से ही पूरा किया जाता था लेकिन आज इसका पानी इतना गन्दा हो चुका है कि लोग इसे छूने से भी कतराते हैं। हल्द्वानी सहित अन्य इलाकों में नदी का बड़ा ही धार्मिक महत्त्व है। लोग इसके जल का इस्तेमाल धार्मिक अनुष्ठानों के लिये करते थे लेकिन पानी के विषैले हो जाने के कारण अब ऐसा करने से कतराते हैं। लोग बस यही कहते हैं कि नदी का स्वरूप बिगड़ चुका है कि उन्हें पानी भरने के लिये बहुत दूर जाना पड़ता है।
उत्तराखण्ड में कुछ शहरों को छोड़ दें तो अधिकांश नदियों के किनारे ही बसे हैं। लेकिन दिनोंदिन बढ़ते प्रदूषण उनमें से अधिकांश नदियों की स्थिति नालों जैसी हो गई है। यहाँ गौला नदी का एक उदाहरण ही काफी है जो कभी हल्द्वानी जैसे विकसित हो रहे शहर की शोभा थी। खनन और कूड़ा-कचरा अब इस नदी का पर्याय बन चुके हैं। नदी का लगभग रानीबाग से लेकर लालकुआँ तक लगभग 30 किलोमीटर क्षेत्र एकदम प्रदूषित हो चुका है।
बताते चलें कि कुमाऊँ का द्वार कहे जाने वाले हल्द्वानी शहर ने गौला नदी को मरणासन्न स्थिति में ला खड़ा किया है। नदी में चल रहे खनन से भी इसकी स्थिति पर काफी फर्क पड़ा है। दूसरी ओर होटल, ढाबों, मोटर वर्कशाप के अलावा अस्पतालों से निकलने वाला मेडिकल वेस्ट, संक्रमित कचरा, संक्रमित प्लास्टिक कचरा आदि नदी के किनारे अटे पड़े हैं लेकिन उसकी सुध लेने वाला कोई नहीं है। पर्यावरण और नदी संरक्षण के नाम पर कुछ लोग आवाज तो बुलन्द करते हैं लेकिन वे भी कहीं शहर के कोलाहल में गुम होकर रह जाते हैं। यही वजह है कि ‘गौला नदी’ का जख्म एक नासूर का रूप ले चूका है।
नदी की स्थिति
जनपद नैनीताल के क्षेत्र में पुष्पभद्र जो बाद में गौला बन जाती है में शवदाह का संस्कार करते हैं। चित्रशिला घाट संसार से विदाई का अन्तिम पड़ाव है जो वर्तमान में घोर दुर्दशा का शिकार हो चुका है। कभी लकड़ी का अभाव तो कभी नदी में पानी की कमी शवदाह करने में संकट पैदा कर देते हैं। घाट पर व्याप्त गन्दगी का आलम तह है कि लोग यहाँ आने से कतराते हैं। गौरतलब है कि हल्द्वानी से लगभग 10 किमी पहले रानीबाग का यह क्षेत्र तीर्थाटन और पर्यटन का केन्द्र होने के बावजूद भी अव्यवस्थाओं का शिकार बनता जा रहा है। जो लोग इस पावन स्थल के दर्शन को आते हैं पर कड़वे अनुभव साथ लेकर लौटते हैं।
नदी पास मगर पानी दूर है
राज्य बनने के बाद हल्द्वानी शहर तेजी से विकसित हो रहा है। दिनोंदिन शहर में पानी की जरूरत बढ़ती ही जा रही है। किसी जमाने में हल्द्वानी शहर को पानी मुहैया करने के लिये पुष्पभद्रा नदी ही काफी थी क्योंकि इस नदी में तब अविरल पानी बहता था। अब इस नदी का पानी ठहर सा गया क्योंकि नदी स्रोत से ही गन्दी होती जा रही है।
पिछले दो दशक से हल्द्वानी शहर के लोग श्मशान घाट से बहकर आ रहे गन्दे पानी के इस्तेमाल के लिये मजबूर हैं। हल्द्वानी से लगभग 10 किलोमीटर पहले कभी रानीबाग के चित्रशिला घाट में पहुँचकर हर पर्यटक सहज ही कह बैठता था कि उत्तराखण्ड तो वास्तव में देवभूमि है वह अब मौजूदा स्थिति को देखकर भरे मन से वापस लौटता है। आगन्तुकों को सभी दन्त कथाएँ, धार्मिक व आध्यात्मिक की बातें झूठी लगती हैं।
पौराणिक मान्यताएँ
गार्गी यानि गौला नदी चित्रेश्वर महादेव के निचले भाग से होकर बहती है। पुराणों में इस सम्बन्ध में वर्णन आता है कि गर्ग मुनि की तपस्या से इस नदी का प्रादुर्भाव हुआ जो सात धाराओं का संगम है। स्कंद पुराण के मानसखण्ड के अनुसार भीम सरोवर से निकली पुण्य भद्रा (पुष्पभद्रा) में गार्गी संगम, कमल भद्रा संगम, सुभद्रा संगम, वेणुभद्रा संगम, चन्द्रभद्रा संगम, शेष भद्रा संगम है। जिसे चित्रशिला के पावन गंगा के नाम से पुकारा जाता है। यह स्थल हल्द्वानी शहर से 8 व काठगोदाम से 2 किमी की दूरी पर स्थित है। लेकिन घाट पर व्याप्त गन्दगी और रातों-रात खड़े होते कंक्रीट के जंगल पुष्पभद्रा का नामों निशान मिटाने पर तुले हैं।
नदी में है कचरे का अम्बार
लोगों को जीवनदान देने वाले शहर के प्रतिष्ठित अस्पताल ही लोगों के जीवन से खेल रहे हैं। अस्पताल कबाड़ियों के माध्यम से इस नदी और पास के जंगलों में जैव चिकित्सीय कचरा डाल रहे हैं। गौला रोखड़ ट्रेंचिंग ग्राउंड में सैकड़ों टन जैव चिकित्सीय कचरा डाला गया जा रहा है और उसे जलाया भी नहीं जाता है। नाम के लिये कहीं-कहीं गौला नदी के किनारे पर डंप चिकित्सीय कचरे में बस आग भर लगा दी जाती है।
बताया गया कि गौला रोखड़ के किनारे बसे कबाड़ियों के टेंट के आजू-बाजू की जगहों पर शहर के कई प्रतिष्ठित अस्पतालों के कचरे को डम्प किया जाता है। लोग बताते हैं कि टेम्पो के माध्यम से यहाँ मेडिकल वेस्ट लाया जाता है। कचरे में डम्प किये गए बड़े अस्पतालों के पर्चें स्पष्ट दिखाई देते हैं। झुग्गियों में रह रहे कूड़ा चुनने वाले रात खत्म होते ही इस कचरे की छँटाई में लग जाते हैं। इससे ग्लूकोज की बोतल सहित बिकने वाला कबाड़ दिन भर अलग किया जाता है। रात होते बाकी बचे कचरे को गौला नदी में फेंक दिया जाता है। कचरा चुनने वाले बताते हैं कि यहाँ पिछले दो साल से चिकित्सीय कचरे का धंधा फल-फूल रहा है।
कचरे का निस्तारण
चिकित्सीय कचरे की अलग-अलग रंग की प्लास्टिक थैलियाँ रानी बाग से लेकर हल्द्वानी तक साफ दिखाई देती हैं। पीला बैग में रोगी का कचरा, संक्रमित कचरा, प्रयोगशालाओं का कचरा होता है।
लाल बैग में संक्रमित प्लास्टिक कचरा, कैथेटर, कैनुला, सीरिंज, ट्यूब, आरबी बोतल। नीले बैग में ग्लास का टूटा सामान, ट्रेट इंजेक्शन,स्लाइड, कांच की सीरिंज, निडिल, ब्लेड, धातु के धारदार एवं नुकीला सामान। काले बैग में पेशाब, बलगम, मवाद, संक्रमित द्रव्य, संक्रमित कपड़े, ओटी के कपड़े, लेबर रूम के कपड़े आदि स्टोर किये जाते हैं। गौला नदी के पानी को विषैला बनाने में इनका भरपूर योगदान है। इधर नगर निगम के कर्मचारी कानून की दुहाई देते फिरते नजर आते हैं। बता दें कि नगरीय ठोस अपशिष्ट प्रबन्धन 2016 अधिनियम के तहत चिकित्सीय कचरे को अन्य कूड़े में मिलाया जाना कानूनन जुर्म है।
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