भूकम्प एक ऐसा प्राकृतिक कहर है जिसके सम्मुख वैज्ञानिक विकास के इस युग में अजेय बनकर खड़ा मनुष्य अत्यन्त असहाय एवं विवश दिखाई देता है। गणतंत्र दिवस की सुबह गुजरात के कच्छ क्षेत्र में आए भूकम्प में करोड़ों रुपये की जान-माल की क्षति हुई। यद्यपि यह सच है कि भूकम्प जैसी त्रासदी के समक्ष मनुष्य लाचार है तथापि भूकम्प पूर्वानुमान एवं भूकम्प राहत कार्य में अधिक मुस्तैदी लाकर भूकम्प से होने वाली क्षति को कम अवश्य किया जा सकता है, ऐसी लेखक की मान्यता है।
वैज्ञानिक विकास के इस युग में मनुष्य अजेय बनकर खड़ा हुआ है। उसकी विजय यात्रा निर्बाध गति से आगे बढ़ रही है। परन्तु तभी एक ऐसा भी क्षण आता है जिसमें विज्ञान की बदौलत प्रकृति के अनसुलझे रहस्यों की परत उतारने का दावा करने वाला मानव असहाय और बौना दिखने लगता है। गणतंत्र दिवस की सुबह गुजरात के कच्छ क्षेत्र में आया भूकम्प एक तरह से मनुष्य की वैज्ञानिक शक्ति, उसकी प्रगति और उसके चातुर्य पर प्रकृति के कटाक्ष जैसा ही तो था। एक मिनट से भी कम समय में लाखों मकान खंडहर में तब्दील हो गए, हजारों लोग असमय ही काल के गाल में समा गए।देश के पूँजीपतियों के सबसे बड़े संगठन ‘फिक्की’ का अनुमान है कि इस त्रासदी में लगभग 25 हजार करोड़ रुपये की सम्पत्ति नष्ट हुई। गुजरात सरकार ने केन्द्र से 13 हजार 5 सौ करोड़ रुपये की मांग की है जिसमें 10 हजार करोड़ ध्वस्त मकानों को बनाने के लिए, 2500 करोड़ रुपये भविष्य के आपदा प्रबंधन के लिए और 1000 हजार करोड़ रुपये तत्काल राहत के लिए हैं।
भूकम्प क्या है?
भूकम्प एक ऐसा प्राकृतिक कहर है जिसके सामने मानव समाज और विज्ञान दोनों ही नतमस्तक हैं। पृथ्वी के भूपटल में किसी ज्ञात अथवा अज्ञात, आन्तरिक या बाह्य, प्राकृतिक या कृत्रिम कारणों से होने वाला कम्पन ही भूकम्प है। इसे भू-पटल में कम्पन या उस लहर के रूप में भी जाना जाता है जो धरातल के नीचे अथवा ऊपर चट्टानों के लचीलेपन या गुरुत्वाकर्षण की समस्थिति या सन्तुलन की दशा में क्षणिक अव्यवस्था के कारण उत्पन्न होता है। यह भू-पटल में असन्तुलन की दशा का परिचायक होता है और धरातल पर विनाशकारी प्रभावों का जनक भी। यह प्रकृति का विनाशकारी अस्त्र है जिसके उत्पन्न होने की परिस्थितियाँ पृथ्वी के जन्म की प्रक्रिया में ही छिपी हैं।
क्यों आता है भूकम्प?
भूकम्प का आगमन पृथ्वी के आन्तरिक भाग में तापीय परिवर्तन एवं विवर्तनिक घटनाओं के कारण होता है। हमारी पृथ्वी कई परतों वाली है। इसका ऊपरी भाग खोल की तरह है। मध्य भाग में कठोर और लचीली चट्टानें हैं। सबसे आन्तरिक भाग में तरल लावा है। इस तरल लावे पर पृथ्वी विभिन्न प्लेटों के रूप में तैर रही है जिनमें कभी गति तो कभी स्थिरता आती रहती है। प्लेट-टेक्टोनिक सिद्धान्त के अनुसार पृथ्वी की बाहरी सतह सात प्रमुख और कई छोटी प्लेटों में बंटी हुई है। इन प्लेटों की मोटाई 50 से 100 किलोमीटर होने का अनुमान लगाया गया है। जब ये प्लेटें आपस में टकराती हैं तो भूकम्प आते हैं। अब इसे भारत के सन्दर्भ में उदाहरण से समझना रोचक होगा।
भूकम्प वैज्ञानिकों के अनुसार भारतीय क्षेत्र की प्लेट प्रतिवर्ष 5.5 सेन्टीमीटर की दर से उत्तर-पूर्व की ओर खिसक रही है। इसके आगे तिब्बत प्लेट है जो स्थिर अवस्था में है। इसी कारण इसे ‘फुट’ और भारतीय प्लेट को ‘हैंगिग’ कहा जाता है। हैंगिंग प्लेट के अगले भाग पर उसकी गति का सर्वाधिक दबाव पड़ता है। लगातार दबाव के कारण वह मुड़ने लगती है। कई दशकों बाद जब इस चट्टानी प्लेट की प्रत्यास्थता सीमा खत्म हो जाती है तो वह टूट जाती है। प्लेट के टूटने के साथ वर्षों से यहाँ इकट्ठी ऊर्जा बाहर आने का मार्ग खोजती है। नतीजतन हिमालय क्षेत्र थरथरा उठता है। यह भी ध्यान देने की बात है कि जो प्लेटें जल्दी टूट जाती हैं, वहाँ हल्के भूकम्प आते हैं और जहाँ प्लेटें देर से टूटती हैं वहाँ विनाशकारी भूकम्प आते हैं।
भूकम्प का वैज्ञानिक विश्लेषण करने से पता चला है कि यह मुख्य रूप से दो प्रकार का होता है। एक वह भूकम्प जो धरती के अंदर टकराहट से उत्पन्न होता है और दूसरा वह जो धरती के अंदर गर्मी बढ़ जाने से ज्वालामुखी विस्फोट के कारण आता है। इसके अलावा वलन, भ्रंशन, भूपटल के संकुचित होने, अभ्यान्तरिक गैसों की मात्रा में वृद्धि, जलीय भार, पृथ्वी के अपने अक्ष पर घुर्णन और परमाणु बमों का परीक्षण भी भूकम्प की परिस्थिति का निर्माण कर सकते हैं। कुछ समय पूर्व इंडियन इंस्टच्यूट ऑफ साइंस, बैंगलूर के दो खगोलविदों ने यह तथ्य पेश किया कि ‘‘शुरुआत में पृथ्वी की जो गुरुत्वाकर्षण शक्ति थी वह अब धीरे-धीरे कम हो रही है।’’ इस तथ्य को भी भूकम्प से जोड़ कर देखा जा रहा है, यद्यपि इस पर अभी विस्तृत शोध की जरूरत है। वैसे विश्व-स्तर पर वैज्ञानिकों में यह सामान्य सहमति है कि पृथ्वी के साथ हो रही छेड़-छाड़ के कारण भी भूकम्प की स्थिति आ रही है। भूगर्भीय धातुओं के अंधाधुंध दोहन से पृथ्वी खोखली होती जा रही है।
भूकम्प का मापन
वर्तमान समय में भूकम्प का मापन दो पैमानों द्वारा होता है:
(क) मरकेली स्केल: इस पर भूकम्पीय तीव्रता का मापन 1 से 12 तक के अंकों द्वारा होता है।
(ख) रिच्टर स्केल: इसमें 1 से 9 तक संख्या होती है। हर आगे वाली संख्या अपने पीछे की संख्या से 10 गुना ज्यादा भूकम्पीय परिणाम बताती है।
मरकेली स्केल अंक | भूकम्प का प्रभाव | रिच्टर स्केल अंक |
1. | मात्र सीस्मोग्राफ पर ही पता चलता है | 0 |
2. | केवल संवेदनशील लोगों द्वारा अनुभव | 3.5 से 4.2 |
3. | सड़क पर ट्रक गुजरने जैसा कम्पन | 3.5 से 4.2 |
4. | जमीन पर पड़ी वस्तुएँ हिलने लगती हैं | 4.3 से 4.8 |
5. | इसका अनुभव लोगों को हो जाता है | 4.3 से 4.8 |
6. | वृक्ष व लटकी वस्तुएँ हिलने लगती हैं। बस, ट्रक जैसे वाहन उलट भी सकते हैं | 4.9 से 5.4 |
7. | मकानों की दीवार फटने लगती है। अब खतरे की स्थिति आ जाती है | 5.5 से 6.1 |
8. | वाहनों के चालक नियन्त्रण खो देते हैं। मकान (पुराने) गिरने लगते हैं। कारखानों की चिमनियाँ गिर जाती हैं। | 6.2 से 6.9
|
9. | मकान गिरने की गति तेज: तेल की पाइप फटने लगती है | 6.2 से 7.3 |
10. | रेल लाइनें मुड़ जाती हैं। भूस्खलन प्रारम्भ | 7.0 से 7.3 |
11. | अधिकांश भवन, पुल नष्ट, भूस्खलन की गति तीव्र नदियों में बाढ़ की स्थिति | 7.4 से 8.1 |
12. | सर्वनाश की स्थिति | 8.1 से 9.0 |
भारत में आए सर्वाधिक विनाशकारी भूकम्प
तारीख/वर्ष | अक्षांश (उत्तरी) | देशांतर (पूर्वी) | क्षेत्र | तीव्रता |
16 जून, 1819 | 23.6 | 68.6 | कच्छ, गुजरात | 8.0 |
10 जनवरी, 1869 | 25 | 93 | कछार, असम | 7.5 |
30 मई, 1885 | 34.1 | 74.6 | सोपोर, जम्मू-कश्मीर | 7.0 |
12 जून, 1897 | 26 | 91 | शिलांग पठार | 8.7 |
4 अप्रैल, 1905 | 32.3 | 76.3 | कांगड़ा, हिमाचल प्रदेश | 8.0 |
8 जुलाई, 1918 | 24.5 | 91.0 | श्रीमंगल, असम | 7.6 |
2 जुलाई 1930 | 25.8 | 90.2 | धुब्री, असम | 7.1 |
15 जनवरी, 1934 | 26.6 | 86.8 | बिहार-नेपाल सीमा | 8.3 |
26 जून, 1941 | 12.4 | 92.5 | अंडमान द्वीप समूह | 8.1 |
23 अक्टूबर, 1943 | 26.8 | 94.0 | असम | 7.2 |
15 अगस्त, 1950 | 28.5 | 96.7 | अरुणाचल प्रदेश, चीन सीमा | 8.5 |
21 जुलाई, 1956 | 23.3 | 70.0 | अंजार, गुजरात | 7.0 |
10 दिसम्बर, 1967 | 17.37 | 73.75 | कोयना, महाराष्ट्र | 6.5 |
19 जनवरी, 1975 | 32.38 | 78.49 | किन्नौर, हिमाचल प्रदेश | 6.2 |
6 अगस्त, 1988 | 25.13 | 95.15 | मणिपुर-म्यांमार सीमा | 6.6 |
21 अगस्त, 1988 | 26.72 | 86.63 | बिहार-नेपाल सीमा | 6.4 |
20 अक्टूबर, 1991 | 30.75 | 78.86 | उत्तरकाशी, उत्तर प्रदेश (अब उत्तरांचल) | 6.6 |
30 सितम्बर, 1993 | 18.07 | 76.62 | लातूर-उस्मानाबाद, महाराष्ट्र | 6.3 |
22 मई, 1997 | 23.08 | 80.06 | जबलपुर, मध्य प्रदेश | 6.0 |
29 मार्च, 1999 | 30.41 | 79.42 | चमोली, उत्तर प्रदेश (अब उत्तरांचल) | 6.8 |
26 जनवरी, 2001 | 23.6 | 69.8 | कच्छ का रन | विवाद 6.9 या 7.9 |
स्रोतः भारत का मौसम विभाग |
क्षेत्रीय वितरण
वैसे तो भूकम्प पृथ्वी पर कहीं भी और कभी भी आ सकते हैं, लेकिन इनकी उत्पत्ति के लिए कुछ क्षेत्र बहुत संवेदनशील होते हैं। संवेदनशील क्षेत्र से तात्पर्य पृथ्वी के उन दुर्बल भागों से है जहाँ बलन और भ्रंश की घटनाएँ अधिक होती हैं। इसके साथ ही महाद्वीपीय और महासागरीय सम्मिलन के क्षेत्र, ज्वालामुखी क्षेत्र भी भूकम्प को उत्पन्न करने वाले प्रमुख स्थान हैं। इन भौगोलिक क्षेत्रों के आधार पर भूकम्प की विश्व पेटियाँ निम्नलिखित हैं:
प्रशांत महासागरीय तटीय पेटी: इसमें सम्पूर्ण विश्व के 63 प्रतिशत भूकम्प का अनुभव किया जाता है।
मध्य महाद्वीपीय पेटी: इस पेटी में विश्व के 21 प्रतिशत भूकम्प आते हैं। इसमें आने वाले भूकम्प संतुलनमूलक और भ्रंशमूलक होते हैं। भारत भी इसी भूकम्प पेटी के अन्तर्गत आता है।
मध्य एटलांटिक पेटी: इसमें भूमध्य रेखा के समीपवर्ती क्षेत्रों में सर्वाधिक भूकम्प आते हैं।
इसके अलावा नील नदी से लगा अफ्रीका का पूर्वी भाग, अदन खाड़ी से अरब सागर तक का क्षेत्र और हिन्द महासागरीय क्षेत्र की गिनती भी भूकम्प प्रभावी स्थलों के रूप में होती है।
भारतीय क्षेत्र
भारत का दो-तिहाई भाग भूकम्प प्रभावित है। यहाँ पर कश्मीर से अंडमान द्वीप तक फैली भूकम्प पट्टी में हिमाचल प्रदेश, पंजाब, बिहार, गुजरात और दक्षिण-पश्चिम समुद्रतटीय इलाके संवेदनशील हैं जबकि कश्मीर से अरुणाचल प्रदेश तक फैला हिमालय क्षेत्र सर्वाधिक भूकम्प-प्रभावित क्षेत्र माना जाता है।
भूकम्प के खतरों को देखते हुए भारत को 1956 में इन्हें ‘भयंकर तबाही’, ‘नुकसानदेह’ और ‘मामूली असर वाले’- इन तीन वर्गों में बाँटा गया था। भारत में ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टैण्डर्ड भूकम्प जोन का मानचित्र प्रस्तुत करता है। इसने 1962 में भूकम्प के छह, 1966 में सात और 1970 में पाँच जोनों को प्रदर्शित करने वाला एक मानचित्र छापा था। 1984 में भी भूकम्प के पाँच ही क्षेत्रों को मान्यता दी गई।
पाँचवा जोन सबसे ज्यादा तबाही वाला है। इसके अन्तर्गत अंडमान-निकोबार द्वीपसमूह, समूचा पूर्वोत्तर भारत, उत्तर-पश्चिम बिहार, उत्तरांचल का पूर्वी हिस्सा, हिमाचल प्रदेश में कांगड़ा घाटी, श्रीनगर के आस-पास का क्षेत्र और गुजरात में कच्छ का रन आते हैं। चौथे जोन में बिहार, उत्तर प्रदेश, जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश के अलावा दिल्ली, मुम्बई और कोलकाता जैसे महानगर आते हैं। देश के अधिकांश हिस्से तीसरे जोन में आते हैं। यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना जरूरी है कि जिस प्रकार यह वर्गीकरण किया गया है, उसी अनुसार भूकम्प आएगा, ऐसा नहीं है। मसलन महाराष्ट्र का लातूर क्षेत्र पहले जोन में आता है लेकिन 1993 में यहाँ भूकम्प की भयावहता इतनी थी कि इसमें हजारों लोगों की जानें चली गई थीं।
भूकम्प को प्राचीन ग्रंथों में ‘इति’ कहा गया है। ‘इति’ का अर्थ ही होता है ‘समाप्त’। विनाश के इस प्रतीक ने अपने प्रत्येक झटके से दुःखद यादों का अम्बार लगा दिया है। इसके बावजूद आज भी यह पहेली बना हुआ है। यद्यपि सच है कि इस प्राकृतिक विपत्ति से पूर्णरूपेण बच पाना मुश्किल है, तथापि इससे राहत पाने के लिए कुछ उपाय अवश्य किए जा सकते है।
उपाय
भूकम्प के कारण सबसे ज्यादा क्षति होती है आवासीय स्थलों को। इस बात को ध्यान में रखते हुए विश्वस्तर पर ऐसे मकान बनाने पर जोर दिया जा रहा है जो भूकम्प के झटकों को काफी हद तक बर्दाश्त कर सकें। इस लिहाज से रूस के वैज्ञानिकों ने ऐसे मकानों के निर्माण का सुझाव दिया है जिनकी नींव में मजबूत इस्पात-निर्मित स्प्रिंग का प्रयोग किया जाएगा। यह भी देखने में आया कि कंक्रीट के मकान स्थानीय परम्परागत विधि से लकड़ी और पत्थर-प्लेटों से निर्मित मकानों की अपेक्षा नुकसान की चपेट में अधिक आए। कुछेक शोधों से ज्ञात हुआ है कि मकानों की कम ऊँचाई, गहरी नींव और दो मकानों के बीच पर्याप्त फासला भूकम्प से होने वाली क्षति में कमी लाता है।
भूकम्प से कम से कम तबाही हो इसके लिए जरूरी है कि उन क्षेत्रों का फिर से निर्धारण किया जाए जो इसके प्रति संवेदनशील हैं। इस कार्य के लिए उस क्षेत्र में आए पिछले भूकम्पों की आवृत्ति, अधिकेन्द्र का गम्भीरतापूर्वक विश्लेषण करके भविष्य में आने वाले भूकम्पों की तीव्रता और सम्भावित खतरे का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है।
प्राचीन काल से हमारे देश में भूकम्प के पूर्वानुमानों की पद्धतियाँ प्रचलित हैं। भूकम्प के वक्त सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात होती है पशु-पक्षियों के व्यवहार में परिवर्तन। भूवैज्ञानिकों के अनुसार भूकम्प से पूर्व पृथ्वी से उठने वाली तरंगों का रेडान गैस के माध्यम से पशु-पक्षियों को पूर्वाभास हो जाता है। यह भी देखने में आया है कि पक्षी अपने घोसलों से निकल कर भूकम्प के केन्द्र की विपरीत दिशा में उड़ने लगते हैं। भूकम्प से पाँच-सात दिनों पूर्व अनेक जगहों पर जलस्तर में अचानक वृद्धि एवं भूमिगत जल में आश्चर्यजनक रासायनिक परिवर्तन दर्ज किए गए। मसलन भूकम्प से एक-दो महीनों पहले भूमिगत जल में कार्बन-डाई-ऑक्साइड के आयनों की मात्रा दुगुनी से भी ज्यादा बढ़ जाती है और दो-तीन हफ्ते पहले हीलियम और नाईट्रोजन की मात्रा भी बढ़ जाती है। फिर भी इन लक्षणों के आधार पर भूकम्प की विश्वसनीय भविष्यवाणी कर पाना सम्भव नहीं है।
प्राचीन काल से ही भूकम्प लोगों की चिन्ता का कारण और वैज्ञानिक अनुसंधान का विषय रहा है। भारत में लातूर के विनाशकारी भूकम्प के बाद श्री बी.के. राव की अध्यक्षता में गठित समिति ने सुझाव दिया था कि प्रधान भूकम्पशास्त्री के नेतृत्व में एक एजेंसी गठित की जाए जो इससे होने वाली क्षति को कम करने के लिए सभी आवश्यक कदम उठाए। साथ ही यह एजेंसी भूकम्पीय जाँच और अनुसंधान को भी प्रोत्साहित करे। सरकार को इस समिति के सुझावों पर अमल करना चाहिए। साथ ही भूकम्प आपदा प्रबंधन पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। इसके अन्तर्गत भूकम्प राहत कोष और भूकम्प कमांडो सेवा का गठन किया जाना चाहिए।
भूकम्प पृथ्वी के इतिहास जितने ही पुराने हैं और इनके समक्ष मनुष्य की लाचारी भी उतनी ही पुरानी है जितनी मनुष्य की उत्पत्ति। इसके बाद भी यह मनुष्य के लिए रहस्यमय पहेली बने हुए हैं। बहरहाल इन उपायों पर अमल करके भूकम्प से होने वाली क्षति में निःसंदेह कमी लाई जा सकती है।
(लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
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