जलवायु बदलाव जैसे संकट के दौर में यह और भी जरूरी हो जाता है कि सभी पशु-पक्षियों, जीव-जंतुओं के अस्तित्व और भलाई का पूरा ध्यान रखा जाए-फिर चाहे वे पालतू पशु-पक्षी हैं या वन्य जीव, समुद्र में रहते हों या नदियों में या जमीन पर। इस तरह, वैकल्पिक समाज बनाने का प्रयास कई स्तरों पर करना होगा और जो तरह-तरह के ईमानदार आंदोलन व अभियान अभी से चल रहे हैं, उन सभी का इसमें सार्थक योगदान हो सकता है। बहुत से छोटे-बड़े सार्थक प्रयास दुनिया में, देश में पहले से हो रहे हैं और आपसी समन्वय, एकता से भी इनकी ताकत काफी बढ़ सकती है।
सवाल यह है कि इन दोनों मुख्य संकटों-आर्थिक और पर्यावरण-को सुलझाने के लिए दुनिया क्या करे? हालिया वर्षो में विश्व के अधिक पढ़ने-सोचने वाले लोगों में उपलब्ध जानकारियों के आधार पर यह समझ बनी कि विश्व स्तर की मौजूदा व्यवस्था जिस तरह चल रही है। उससे पर्यावरण के संकट; विशेषकर जलवायु बदलाव का समाधान संभव नहीं है। इस व्यवस्था में बुनियादी बदलाव जरूरी है। इसके बाद जिस तरह का आर्थिक संकट उग्र व व्यापक हुआ, पूंजीवाद के बड़े प्रतीक संस्थान ढहने लगे व गरीब देशों के साथ अमीर देशों के अधिकांश परिवार भी दैनिक जीवन में कठिनाइयां महसूस करने लगे तो मौजूदा आर्थिक व्यवस्था बदलने की चाहत अधिक व्यापक स्तर पर प्रकट हुई। बढ़ती संख्या में लोग यह सवाल पूछने लगे कि यदि मौजूदा मॉडल आज के सबसे अमीर देशों को भी राहत नहीं दे रहा है तो गरीब देशों का क्या भला करेगा? मौजूदा मॉडल ने कुछ देशों को अधिकांश अन्य देशों की लूट के बढ़ते अवसर दिए पर यदि लूटने वाले देशों का भी उद्धार इस मॉडल ने नहीं किया तो लुटे हुए देशों का भला वह कैसे करेगा?अब आगे सवाल यह है कि इन दोनों मुख्य संकटों-आर्थिक और पर्यावरण-को सुलझाने के लिए दुनिया क्या करे? यदि पर्यावरण का संकट न होता और केवल आर्थिक संकट से जूझना होता तो यह अपेक्षाकृत सरल कार्य था। लेकिन हकीकत यह है कि पर्यावरण संकट इतने गंभीर रूप में अब उपस्थित है, जितना पहले कभी नहीं था। सबसे बड़ी बात तो यह है कि यदि अगले एक-दो दशक में इसे सुलझाने का समुचित प्रयास दुनिया नहीं कर सकी तो हमेशा के लिए जलवायु बदलाव का मुद्दा नियंत्रण से बाहर निकल सकता है। इस दृष्टि से देखा जाए तो अगले एक-दो दशक का समय धरती के इतिहास का सबसे महत्त्वपूर्ण समय माना जा सकता है। बड़ा सवाल यह है कि क्या दुनिया अपनी इस इतनी बड़ी जिम्मेदारी के प्रति सचेत है? क्या उसने इतना बड़ा उत्तरदायित्व संभालने की तैयारी की है ताकि हमारी भावी पीढ़ियों, हमारे बच्चों और आगे उनके बच्चों का जीवन सुरक्षित रहे? ऐसी ही एक अन्य चुनौती महाविनाशक हथियारों को धरती से समाप्त करने की है। क्या इस दिशा में दुनिया के वर्तमान नेतृत्त्व ने महत्त्वपूर्ण कदम उठाए हैं।
गहरे दुख की बात है कि इन सवालों के जवाब नकारात्मक हैं। इन सबसे बड़े मुद्दों पर नेतृत्त्व की विफलता के कारण ही अब विश्व स्तर पर एक बहुत व्यापक अहिंसक जन आंदोलन की जरूरत बहुत बढ़ गई है। ऐसा आंदोलन ही ऐसी स्थिति उत्पन्न कर सकेगा कि व्यवस्था को न्यायसंगत बनाने के साथ दुनिया को बचाने के जो उपाय जरूरी हैं, उन्हें अगले दशक में अपनाया जा सके। जिस वैकल्पिक व्यवस्था की यहां बात हो रही है, उसकी पहली प्राथमिकता यह होगी कि जलवायु बदलाव व पर्यावरण के संकट को नियंत्रण से बाहर जाने से रोकने के लिए जरूरी कदम; जैसे ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में समुचित कदम समय पर उठा लिए जाएं। यह पहली प्राथमिकता इस कारण कही जा रही है क्योंकि इसके लिए समय बहुत कम बचा है। पर इसके साथ दुनिया के सभी लोगों के लिए ऐसी न्यायसंगत आर्थिक व्यवस्था के लक्ष्य को जोड़ना बहुत जरूरी है जिसमें सभी लोगों की बुनियादी जरूरतें पूरी हों व आजीविका सुरक्षित हो। यह बात इसलिए मायनेखेज है कि कुछ वर्षो में आजीविका पर चोट ज्यादा पड़ने लगी है।
दूसरे शब्दों में, हमें समय रहते ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन में भारी कमी लानी है तथा साथ ही यह सुनिश्चित करना है कि इसके बावजूद दुनिया में सभी लोगों की बुनियादी जरूरतें पूरी हो सकें। इन दोनों लक्ष्यों का मिलन तभी संभव है यदि कुछ गैर जरूरी उत्पादों में कमी लाई जाए। किसी की भलाई पर प्रतिकूल असर डाले बिना सभी तरह के हथियारों के उत्पादन को कम किया जा सकता है, नशे के सब पदार्थ, अनेक खतरनाक उत्पादों तथा साथ ही विलासिता के अनेक उत्पादों को कम किया जा सकता है। दूसरी ओर, ऊर्जा के अक्षय स्रोतों को जीवाश्म ईंधन के स्थान पर बढ़ाया जा सकता है। साथ ही ऊर्जा संरक्षण के तमाम उपाय और गंभीरता से अपनाए जा सकते हैं। इस तरह, ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम रखते हुए भी लोगों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लक्ष्य प्राप्त किए जा सकते हैं। इस कार्यक्रम को संक्षेप में बताएं तो कहेंगे कि हमें समता, सच्चाई और अहिंसा की राह अपनानी है। समाजवाद हमें समता की ओर ले जाता है, शांति आंदोलन हमें हथियारों से मुक्त होने में मदद करता है और आध्यात्मिकता से सच्चाई व संयम की बुनियाद तैयार होती है। इस तरह कई स्तरों पर वैकल्पिक व्यवस्था के प्रयास चाहिए जो पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों की सोच से अलग हैं। इतने बड़े बदलावों को लोकतांत्रिक व्यवस्था में लाने के लिए जरूरी है कि लोकतंत्र में कई सुधार करने होंगे। भ्रष्टाचार को दूर करना होगा। अत: लोकतांत्रिक सुधारों और भ्रष्टाचार दूर करने के और हर स्तर पर पारदर्शिता, विकेन्द्रीकरण तथा जन-भागीदारी लाने के आंदोलन अपनी जगह पर जरूरी हैं।
इतने बड़े बदलावों के लिए नागरिक तभी योगदान दे सकेंगे, जब घर-परिवार की स्थिति बेहतर होगी, सामाजिक टूटन नहीं होगा, भेदभाव व द्वेष की सोच नहीं फैलेगी। अत: घर-परिवार, गली-मोहल्ले, गांव-कस्बे के मानवीय संबंध सुधारने, सांप्रदायिकता व सामाजिक टूटन को रोकने के प्रयास व आंदोलन-अभियान भी अपने स्तर पर जरूरी हैं। लिंग के आधार पर या जाति, रंग, धर्म के आधार पर, सब तरह के सामाजिक भेदभाव व अन्याय दूर होना चाहिए। वैसे भी नई दुनिया को बनाने में अब तक के उपेक्षित और वंचित लोगों की ही अधिक उत्साहवर्धक भूमिका होगी। वैसे भी यह काम इसी स्तर के तबकों द्वारा किए जाने का इतिहास रहा है। यह बात हमें स्पष्ट कर लेनी चाहिए कि धरती केवल मनुष्य के लिए ही नहीं है। जलवायु बदलाव जैसे संकट के दौर में यह और भी जरूरी हो जाता है कि सभी पशु-पक्षियों, जीव-जंतुओं के अस्तित्व और भलाई का पूरा ध्यान रखा जाए-फिर चाहे वे पालतू पशु-पक्षी हैं या वन्य जीव, समुद्र में रहते हों या नदियों में या जमीन पर। इस तरह, वैकल्पिक समाज बनाने का प्रयास कई स्तरों पर करना होगा और जो तरह-तरह के ईमानदार आंदोलन व अभियान अभी से चल रहे हैं, उन सभी का इसमें सार्थक योगदान हो सकता है। बहुत से छोटे-बड़े सार्थक प्रयास दुनिया में, देश में पहले से हो रहे हैं और आपसी समन्वय, एकता से भी इनकी ताकत काफी बढ़ सकती है। पर एक बड़े लक्ष्यों, देश-दुनिया के स्तर के लक्ष्यों से छोटे स्तर के आंदोलनों को जोड़ने के प्रयास के बिना केवल छोटे प्रयास वैकल्पिक समाज की दिशा में बहुत आगे नहीं बढ़ सकेंगे।
पहले और अब की स्थिति के बारे में एक बड़ा फर्क आज यह है कि जलवायु बदलाव के गहराते संकट और महाविनाशक हथियारों की मौजूदगी जैसी विशेष प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण अब हमारे पास अधिक वक्त नहीं बचा है। इस स्थिति में वैकल्पिक समाज की सोच व इसकी ओर बढ़ने की रणनीति बनाने वाले प्रयास बहुत महत्त्वपूर्ण हो गए हैं। इसके बारे में बहुत सावधानी की जरूरत है कि भटकाव न हो और छोटे-मोटे मुद्दों को बड़ा बनाकर मूल्यवान समय न गंवाया जाए। सार्थक बदलाव की ताकतों के सीमित संसाधनों व ताकत का बेहतर से बेहतर उपयोग व्यापक उद्देश्यों के लिए हो सके, यह बहुत जरूरी है। इसके साथ यह भी आवश्यक है कि आंदोलन और अभियान में निरंतरता बनी रहे। भूल सुधार का समय हाथ से निकलता जा रहा है और समय का दबाव इतना है कि आंदोलनकारी महज छोटी-मोटी सफलताओं से संतोष कर नहीं बैठ सकते हैं। उन्हें संतुष्ट होकर बैठ भी नहीं जाना चाहिए। बेशक आंदोलन में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं पर एक ऐसी निरंतरता बनाए रखना जरूरी है जिससे नए साथी प्रेरित होकर इस सार्थक व आवश्यक बदलावों की प्रक्रियाओं से जुड़ते चलें।
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