गया जिले के आमस चौक से कुछ पहले स्थित एक स्कूल के करीब से बायीं तरफ एक सड़क जाती है। कुछ दूर चलने पर यह सड़क बायीं तरफ मुड़ जाती है। वहीं से दायीं तरफ एक पगडंडी शुरू हो जाती है। आड़ी-तिरछी, उतार-चढ़ाव और गड्ढोंवाली यह पगडंडी पहाड़ों के बीच से होकर एक गांव तक पहुंचती है। इस गांव का नाम भूपनगर है।
पहाड़ की तलहटी में बसे इस गांव में 50 परिवार रहते हैं और सभी अनुसूचित जाति से हैं। इस गांव में बिजली अभी तक नहीं पहुंची है। किसी के पास एलपीजी का कनेक्शन नहीं है। जंगल से लकड़ी चुनकर लोग लाते हैं और उसी से खाना पकता है। खेतों की सिंचाई के लिए पानी की कोई व्यवस्था नहीं है। चार पहिया वाहन इस गांव तक नहीं जाता। मिडिल स्कूल और प्राइमरी हेल्थ सेंटर गांव से करीब 4 किलोमीटर दूर है।
सन 1998 में यह गांव तब सुर्खियों में आया था, जब अज्ञात बीमारी से करीब आधा दर्जन लोगों की मौत हो गयी थी। शायद वह पहला मौका था जब प्रशासन बीह में बसे गांव तक पहुंचा था और लोगों की सुध ली थी। घटना के बाद डॉक्टरों की एक टीम भी वहां गयी थी। टीम ने वहां के लोगों की जांच की, तो पाया कि करीब-करीब सभी लोग फ्लोरोसिस नामक बीमारी की चपेट में आ चुके हैं। वहां के भूगर्भ जल की जांच की गयी, तो देखा गया कि भूगर्भ जल में सामान्य से काफी ज्यादा फ्लोराइड है।
फ्लोराइड शरीर की अस्थियों पर बुरा असर डालता है। यह हड्डी को कमजोर कर देता है जिससे ये टेढ़ी-मेढ़ी हो जाती हैं और इनमें हमेशा दर्द होता रहता है। सरकार को जब पानी में प्लोराइड की जानकारी मिली, तो यहां एक प्लांट स्थापित किया गया ताकि लोगों को साफ पानी मिल सके। उसके बाद से प्रशासनिक अधिकारी कभी वहां नहीं गये।
अलबत्ता राजनेता चुनाव से पहले जरूर एक बार वहां पहुंचते हैं। पहुंचे भी क्यों नहीं, वहां करीब 200-250 वोटर भी तो हैं! वाटर ट्रीटमेंट प्लांट के करीब आम के ठिगने पेड़ के नीचे सुस्ता रहे गांव के बुजुर्ग बुलाकी मांझी कहते हैं, ‘चुनाव से पहले नेता यहां आते हैं वोट मांगने। चुनाव खत्म हो जाने के बाद मुंह घुमाकर हमारी तरफ देखते भी नहीं।’
बुलाकी मांझी फ्लोरोसिस से ग्रस्त हैं। उनकी कमर में हमेशा बेतहाशा दर्द रहता है। बिना लाठी के वह एक कदम भी चल नहीं पाते हैं। बुलाकी मांझी की तरह 50 वर्षीय राम प्रवेश मांझी को भी चलने के लिए लाठी का सहारा लेना पड़ता है। फ्लोरासिस के कहर का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इस गांव में शायद ही कोई घर होगा जिसमें लाठियों ने अपनी पहुँच न बनायी हो।
ये लाठियां फ्लोरोसिस से ग्रस्त लोगों का एकमात्र सहारा हैं। कमर की दर्द से परेशान राम प्रवेश मांझी कहते हैं, ‘पिछले 15-20 सालों से यह बीमारी है। डॉक्टर के पास जाते हैं, तो दर्द की दवाई देता है। दवा का असर जब तक रहता है, तब तक दर्द से आराम रहता है। दवा का असर खत्म होते ही दोबारा दर्द शुरू हो जाता है। दर्द इतना ज्यादा होता है कि झुक कर 10 किलो का सामान भी नहीं उठा पाता। कोई काम नहीं कर पाता हूं। पूरी तरह लाचार हो चुका हूं।’
गांव के आसपास न तो अच्छा अस्पताल है और न ही विशेषज्ञ डॉक्टर। इस वजह से हड्डियों में दर्द होने पर डॉक्टर यह नहीं बता पाते हैं कि फ्लोरोसिस के कारण ऐसा होता है। रामप्रवेश मांझी कहते हैं, ‘कई बार डॉक्टर के पास गया। हर बार दर्द की गोलियां ही दी गयीं। डॉक्टर ने कभी नहीं बताया कि मुझे फ्लोरोसिस है।’
राम प्रवेश मांझी से बातचीत हो ही रही थी कि एक और शख्स लड़खड़ाता हुआ पास आ गया। वह भी लाठी के सहारे ही किसी तरह चल पा रहे थे। उन्होंने अपना नाम, राम प्रवेश भोक्ता बताया। उनकी उम्र महज 40 साल है, लेकिन देखने से बूढे लगते हैं। हड्डियों में इतना दर्द होता है कि चलते वक्त कांपने लगते हैं। जन्म हुआ था, तभी से फ्लोरोसिस है।
बीमारी के कारण उनके सिर पर सेहरा भी नहीं बंध पाया। राम प्रवेश बताते हैं, ‘कमर एकदम काम नहीं कर रहा है। शादी की तो बहुत इच्छा थी, लेकिन बीमारी के कारण मैं अपनी देखभाल नहीं कर पाता हूं, पत्नी की देखभाल कैसे करता, इसलिए पिताजी ने मेरी शादी ही नहीं करायी।’राम प्रवेश जब ये सब बोलते हैं, तो उनके चेहरे पर उदासी व दर्द की झलक मुखर हो आती है।
घर-परिवार न बसा पाने का अफसोस भी उनके चेहरे पर देखा जा सकता है। रामप्रवेश अकेले नहीं हैं, जिनकी शादी बीमारी के कारण नहीं हुई। 40 वर्षीय गनौरी का भी विवाह इसलिए नहीं हो पाया कि उसे फ्लोरोसिस बीमारी थी। कुछ महीने पहले ही उनकी मौत हो गयी। इक्का-दुक्का छोड़ दें, तो इस गांव के सभी घर मिट्टी के हैं। इन्हीं में एक घर के मिट्टी के चबूतरे पर सुधीर कुमार से हमारी मुलाकात होती है। सुधीर की उम्र महज 20 साल है। उसकी दोनों टांगों की हड्डियां डेढ़ी हो चुकी हैं। उसे चलने के लिए दीवारों का सहारा लेना पड़ता है। सुधीर के पिता राजदेव सिंह भोक्ता बताते हैं, जब जन्म हुआ था, तभी से उसे यह बीमारी है। डॉक्टरों के पास ले गये, लेकिन डॉक्टर उसे ठीक नहीं कर पाये। डॉक्टर यह भी नहीं बता पाये कि उसे यह बीमारी हुई कैसे। सुधीर की तरह ही 15 साल के दशरथ कुमार को भी जन्म से ही फ्लोरोसिस है। वह भी बचपन में ही इस बीमारी का शिकार हो गया था। दशरथ के पिता को भी फ्लोरोसिस ने अपनी चपेट में ले लिया है।
गांव के सहदेव मांझी को भी फ्लोरोसिस बीमारी है। उन्होंने बताया कि बचपन से ही उन्हें रोग है। कई बार डॉक्टर से दिखाया लेकिन कोई राहत नहीं है। यहां यह भी बता दें कि गांव में रहनेवाले लोगों की रोजी-रोटी का मुख्य जरिया खेती-बाड़ी ही है। इस गांव का अस्तित्व विनोबा भावे से जुड़ा हुआ है।
कहते हैं कि यहां रहनेवाले लोगों की पुरखें पहले जमींदारों के यहां बंधुआ मजदूर थे। उनके पास न अपनी जमीन थी और न अपना घर। यह कोई 60 के दशक की बात है। उन्हीं दिनों विनोबा भावे का भूदान आंदोलन परवान पर था। बंधुआ मजदूरों में से ही एक व्यक्ति का विनोबा भावे से मेल-जोल था। उन्होंने विनोबा भावे को अपनी और अन्य मजदूरों की दयनीय हालत के बारे में बताया, तो वे द्रवित हो उठे।
उस समय के एक जमींदार वन बिहारी प्रसाद भूप ने आमस ब्लॉक में पहाड़ की तलहटी में पड़ी अपनी 251 एकड़ जमीन विनोबा भावे को दान कर दी थी। इसी जमीन पर बंधुआ मजदूर बने अनुसूचित जातियों के 25 परिवारों को बसाया गया। चूंकि उन्हें जिस जमीन पर बसाया गया था, वह जमीन वन बिहारी प्रसाद भूप की थी इसलिए उस जगह को भूपनगर कहा जाने लगा। जंगल से भरे उक्त जगह पर तमाम दुश्वारियां थीं, लेकिन लोगों ने वहां रहना स्वीकार कर लिया, क्योंकि उन्हें बंधुआ मजदूरी से आजादी मिल रही थी। उन्हें उम्मीद थी कि राज्य सरकार की तरफ से उन्हें बुनियादी सुविधाएं मुहैया करायी जायेंगी, लेकिन वे अब निराश हो गये हैं।
बुलाकी मांझी कहते हैं, ‘हमें जब यहां लाया गया था, तो लगा कि अब हम खुशहाल जिंदगी जी सकेंगे, लेकिन यहां भी हमारी हालत पहले जैसी ही है। या यूं कह लीजिये कि वहां से बदतर है। वहां कम से कम फ्लोरोसिस बीमारी नहीं थी। यहां यह बीमारी हमारे सर आ गयी है।’ यहां रह रहे लोगों को जो जमीन मिली है, उसमें बहुत कम उपज होती है, क्योंकि जमीन उर्वर नहीं है। दूसरी बात यह है कि यहां सिंचाई की कोई व्यवस्था नहीं है. इस वजह से यहां की खेती पूरी तरह बारिश पर निर्भर है। बुलाकी मांझी कहते हैं, ‘खेती-बाड़ी से 7-8 महीने के लिए खाने का जुगाड़ हो जाता है। बाकी 3-4 महीने खाने के लाले रहते हैं। रोजी-रोटी के लिए लोगों को मजदूरी करनी पड़ती है।’ 300 लोगों की आबादीवाले इस गांव के 2-3 लड़के ही मैट्रिक तक की पढ़ाई कर पाते हैं, क्योंकि स्कूल काफी दूर है।
मैट्रिक से ऊपर की पढ़ाई करने के लिए उन्हें 20 से 25 किलोमीटर दूर शेरघाटी का रुख करना पड़ता है। गांव के लोगों को साफ पानी मुहैया कराने व आनेवाली पीढ़ी को फ्लोरोसिस न हो, इसके लिए गांव के एक किनारे पर एक वाटर ट्रीटमेंट प्लांट यहां लगाया गया था, जो एक्टिवेटेड एल्युमिनिया की मदद से 3 घंटे में 10 हजार लीटर पानी से फ्लोराइड निकाल सकता है।
इस गांव के लोगों को सालभर साफ पानी मुहैया कराने के लिए 9 क्विंटल एक्टिवेटेड एल्युमिनिया की जरूरत पड़ती है। एक किलोग्राम एल्युमिनिया की कीमत करीब 105 रुपये आती है। यानी एक साल तक साफ पानी मुहैया कराने के लिए सरकार को महज 94500 रुपये खर्च करना पड़ता है। लेकिन, एक्टिवेटेड एल्युमिनिया के अभाव में करीब दो साल से यह प्लांट निष्क्रिय पड़ा हुआ है और यहां रहनेवाले लोग फ्लोराइडयुक्त पानी पीने को विवश हैं।
गांव में स्थित प्राइमरी स्कूल में पढ़नेवाले 60 बच्चों के लिए दोपहर का खाना भी फिलहाल फ्लोराइडयुक्त पानी से ही बन रहा है।स्थानीय लोगों ने बताया कि प्रशासनिक अफसरों से लगातार नालिश की जा रही है, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हो रही है।
भूपनगर गांव के मुखिया अरविंद मिसिर कहते हैं, ‘एसडीओ से कई बार अपील की गयी कि प्लांट को एक्टिवेटेड एल्युमिनिया उपलब्ध कराया जाए, लेकिन उनका कहना है कि जिस कंपनी को सप्लाई का कॉन्ट्रैक्ट मिला हुआ है, वही कंपनी उपलब्ध कराएगी।’ वहीं, इस संबंध में कंपनी से जुड़े पदाधिकारियों का कहना है कि उन्हें जो कॉन्ट्रैक्ट मिला था, उसकी मियादी खत्म हो चुकी है, इसलिए वे आगे सामान उपलब्ध नहीं करा सकते।
कंपनी के इंजीनियर हितेश कुमार सिन्हा कहते हैं, ‘हमें उक्त प्लांट की देखरेख व एल्युमिनिया मुहैया कराने का कॉन्ट्रैक्ट वर्ष 2011 में पांच साल के लिए मिला था। कॉन्ट्रैक्ट 2016 में खत्म हो गया। दोबारा कॉन्ट्रैक्ट का नवीनीकरण नहीं हुआ, जिस कारण हमने एल्युमिनिया की सप्लाई बंद कर दी।’ जनप्रतिनिधि, सरकारी अफसरान व अन्य साझेदारों के बयान से साफ पता चलता है कि इस गांव की समस्या को लेकर वे गंभीर नहीं हैं। वरना ऐसी क्या दिक्कत आ रही होगी कि दो सालों में एक कॉन्ट्रैक्ट ही नहीं हो पाये?
विशेषज्ञों के अनुसार पानी में फ्लोराइड की सुरक्षित मात्रा प्रति लीटर 1 मिलीग्राम है। पानी में अधिकतम 1.5 मिलीग्राम (प्रतिलीटर) फ्लोराइड स्वीकार्य मात्रा है। भूपनगर के बच्चों के दांतों को देखकर लगता है कि यहां के पानी में फ्लोराइड की मात्रा सामान्य से कई गुना अधिक है। इस गांव को लेकर प्रशासनिक उदासीनता का सबसे बड़ा सबूत गया के विभिन्न गांवों में पानी की जांच है।
बिहार सरकार के जनस्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग की ओर से गया के गांवों के भूजल की जाँच की गई, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से इसमें भूपनगर को जांच में शामिल नहीं किया गया। इसके पीछे क्या वजह थी, यह पता नहीं चल पाया।
हां, इस गांव की भौगोलिक स्थिति देखकर सहज ही समझ में आ जाता है कि क्यों अब तक यह गांव हाशिये पर है। गांव मुख्य सड़क से करीब चार किलोमीटर भीतर है। चार पहिया वाहन से गांव तक पहुंचना नामुमकिन है। हां, साइकिल और मोटरसाइकिल से वहां तक पहुंचा जा सकता है। बहरहाल, जनस्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग की ओर से वर्ष 2016 में की गयी जांच में गया जिले के लगभग 18 ब्लॉक के गांवों के पानी में फ्लोराइड की मात्रा सामान्य से बहुत अधिक पायी गयी है। जांच में आमस ब्लॉक के करमैन गांव के बेलदारबीघा, करमैन और मुरगीबीघा टोले में 3 मिलीग्राम से अधिक फ्लोराइड पाया गया है। मुरगीबीघा टोले में 3.70 मिलीग्राम फ्लोराइड मिला है।
आमस ब्लॉक के ही अकौना गांव के कम-से-कम तीन टोले ऐसे मिले जहां पानी में फ्लोराइड की मात्रा सामान्य से अधिक है। अकौना गांव के बंकट पछियारी टोला, बंकट पुसारी तथा जीटी रोड की दक्षिण ओर के टोले के जलस्रोतों में फ्लोराइड की मात्रा क्रमशः 2.30 मिलीग्राम, 2.64 मिलीग्राम और 2.16 मिलीग्राम मिली है। इसी ब्लॉक के बैदा गाँव के दो टोले, बैदा और हरिजन टोले में पानी में फ्लोराइड की मात्रा लगभग 2.5 मिलीग्राम पायी गयी है
आमस ब्लॉक के बिसुनपुर गांव के माढपर टोले में पानी में फ्लोराइड की मात्रा 2.30 मिलीग्राम मिली है जबकि बलियारी टोले में भूजल में 2.60 मिलीग्राम फ्लोराइड पायी गयी है। इसी ब्लॉक के राजपुर, सिहुली, तेतरिया, रामपुर, चकरा, बैताल गाँवों में फ्लोराइड की मात्रा सामान्य से दोगुनी है। बिहार के कुल 11 जिले फ्लोराइड से ग्रस्त हैं जबकि आर्सेनिक की चपेट में 13 जिले हैं। वहीं, 9 जिलों में आयरन का कहर है।
विशेषज्ञों के अनुसार दूध, सहजन, आंवला, अण्डे जैसे खाद्यानों से फ्लोरोसिस का असर कम किया जा सकता है। विशेषज्ञों ने कहा कि अगर लोगों को बताया जाये कि इस तरह के खाद्यान से फ्लोरोसिस का असर कम किया जा सकता है, तो निश्चित तौर पर इसका फायदा मिलेगा। गांव में रहनेवाले लोग इस बात से पूरी तरह अनजान हैं कि इन खाद्य पदार्थों से फ्लोराइड का असर कम हो सकता है।
भूपनगर के लोगों का कहना है कि वर्ष 1998 में जब इस गांव में मौत का कहर बरपा था, तभी डॉक्टरों की एक टीम आयी थी। उन्होंने जांच की और फिर चले गये। इसके बाद वे दोबारा कभी यहां नहीं आये। उस घटना के बाद सरकार ने यहां रहनेवाले लोगों की शारीरिक जांच कर पता लगाने की कोशिश नहीं की कि फ्लोरोसिस का असर कितना हुआ है। मांझी ने कहा, ‘जब प्लांट लगा था, तो हमें उम्मीद थी कि आनेवाली पीढ़ी फ्लोरोसिस के चंगुल से मुक्त हो जायेगी, लेकिन सरकारी रवैया देखकर लगता है कि भूपनगर की किस्मत में फ्लोरोसिस से मुक्ति नहीं बदा है।’
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