विकास विरुद्ध विकास

ओडिशा के समुद्र तट के नजदीक स्थित यह इस्पात संयंत्र और बंदरगाह परियोजना और ऐसे लोग जिनकी जमीन अधिग्रहित की जानी है, पिछले 6 वर्षों से आमने-सामने हैं। अब पर्यावरणीय स्वीकृतियां भी मिल गई हैं तो राज्य सरकार किसी भी कीमत पर अधिग्रहण पर उतारु है। उसने ऐसा आर्थिक पैकेज भी देने की बात कही है, जिसमें अतिक्रमित भूमि का भी मुआवजा दिया जाएगा।

टेलीविजन में वह दृश्य देखकर दिल दहल जाता है जिसमें बच्चे धधकते सूरज के नीचे खुले आसमान तले दक्षिण कोरिया के विशाल पास्को संयंत्र के खिलाफ मानव ढाल बने कतार में बैठे हैं। उनके सामने राज्य सरकार द्वारा भेजा गया सशस्त्र पुलिस बल है जो इस ‘ऑपरेशन’ में कंपनी की मदद कर रहा है। ओडिशा के समुद्र तट के नजदीक स्थित यह इस्पात संयंत्र और बंदरगाह परियोजना और ऐसे लोग जिनकी जमीन अधिग्रहित की जानी है, पिछले 6 वर्षों से आमने-सामने हैं। अब पर्यावरणीय स्वीकृतियां भी मिल गई हैं तो राज्य सरकार किसी भी कीमत पर अधिग्रहण पर उतारु है। उसने ऐसा आर्थिक पैकेज भी देने की बात कही है, जिसमें अतिक्रमित भूमि का भी मुआवजा दिया जाएगा। सरकार का विश्वास है कि यह एक ऐसा सुनहरा मौका है जो लोगों को जीवन में दोबारा नहीं मिलेगा। उन्हें इसे स्वीकार कर लेना चाहिए। सभी को आगे बढ़ना चाहिए और अब परियोजना का निर्माण हो जाना चाहिए क्योंकि इससे इस गरीब राज्य के समुद्र तट पर बहुमूल्य विदेशी निवेश की आवक संभव हो पाएगी।

हमें स्वयं से यह प्रश्न एक बार फिर पूछना चाहिए कि ये लोग जो कि बहुत गरीब दिखाई देते हैं, इस परियोजना के खिलाफ संघर्षरत क्यों हैं? वे नकद मुआवजा स्वीकार क्यों नहीं कर रहे हैं जो कि न केवल उन्हें एक नया जीवन प्रारंभ करने का मौका देगा, बल्कि उनके बच्चों को सुपारी उगाने में कोल्हू के बैल की तरह जुटे रहने से भी छुटकारा दिलवाएगा। क्या यह वृद्धि और विकास के विरुद्ध पर्यावरण का संघर्ष है या कि ये लोग निहायत बेवकूफ हैं या बस ये राजनीतिक रूप से उद्वेलित लोग हैं?

मेरे ख्याल से ऐसा नहीं है। पॉस्को परियोजना ‘विकास विरुद्ध विकास’ है। यहां रहने वाले लोग गरीब हैं, लेकिन वे जानते हैं कि ये परियोजना उन्हें और अधिक गरीब बनाएगी। यही वह सच्चाई जो कि हम आधुनिक अर्थव्यवस्था में रहने वाले नहीं समझ पाते। यह ऐसा क्षेत्र है जहां अधिकांश ऐसे वनों में सुपारी की खेती होती है जो कि सरकार के हैं। परियोजना के लिए आवश्यक 1620 हेक्टेयर भूमि में 90 प्रतिशन यानि 1440 हेक्टेयर भूमि इसी विवादास्पद वन में है।

जो मुआवजा मिल रहा है, वह तो दो-तीन वर्षों की आमदनी के बराबर है। इसके अलावा धान, मछलियों के तालाब और फलदार वृक्ष भी तो आमदनी के अन्य जरिए हैं। यह भूमि पर टिकी अर्थव्यवस्था अत्यधिक रोजगारमूलक भी है। हालांकि लौह और इस्पात संयंत्र देश के आर्थिक विकास के लिए आवश्यक हैं, लेकिन वे स्थानीय रोजगार उपलब्ध नहीं करा पाते।

जब परियोजना के लिए इस स्थान का चयन किया गया तो सरकार ने इस बात पर विचार ही नहीं किया कि उसे इस जमीन के लिए मुआवजा भी देना पड़ सकता है। उसका विचार था कि इस पर लोगों ने अतिक्रमण कर लिया है और सरकार इस विशाल इस्पात संयंत्र के लिए आसानी से इसे अपने कब्जे में ले लेगी। परंतु यह वन भूमि थी और लोग अनादिकाल से वहां रह रहे थे और खेती कर रहे थे। इसी बीच वन अधिकार अधिनियम के अंतर्गत निहित शर्तों की बात भी उठने लगी। इसमें परियोजना हेतु वहां रह रहे लोगों की सहमति भी आवश्यक थी। केंद्रीय पर्यावरण व वन विभाग ने स्वगठित कमेटी की प्रतिकूल टिप्पणियों को रद्द करते हुए कहा कि उसे राज्य सरकार की इस बात पर भरोसा है कि यह सुनिश्चित करने में ऐसी सभी प्रक्रियागत कार्यवाहियां पूरी कर ली गई हैं। इससे यह बात पक्की हो गई है कि इन गांवों में रह रहे व्यक्तियों को स्वामित्व का कोई अधिकार ही नहीं है। ये पारंपरिक रूप से वन में रहने वाला समुदाय नहीं माना गया।

इस प्रत्याशा के साथ पर्यावरण व वन स्वीकृति दे दी गई और परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहण की कार्यवाही को आगे बढ़ाया जाने लगा। परंतु लोगों से अभी तक कुछ भी पूछा नहीं गया था और अंततः उन्होंने इंकार कर दिया। ऐसा क्यों? राज्य सरकार का कहना है कि उसने अपने प्रस्ताव में सभी मांगों को समाहित कर लिया है। वह इस बात पर राजी हो गई है कि निजी रिहायशी मकानों और गांव की भूमि का अधिग्रहण नहीं किया जाएगा। लोगों के पास अपने घर होंगे, केवल उनकी जीविका का ही नुकसान होगा। परंतु उसका भी मुआवजा दिया जाएगा। इस पर भी सहमति जताई गई थी कि वन भूमि का उपयोग न कर पाने से होने वाली हानि की भी क्षतिपूर्ति की जाएगी। यों तकनीकी तौर पर लोगों का उस पर कोई हक नहीं है।

ओडिशा से आई रिपोर्ट के अनुसार ‘अतिक्रमित’ पान/सुपारी के खेतों पर प्रति हेक्टेयर 28.75 लाख रुपए का मुआवजा दिया जाएगा। इसके बाद उन दिहाड़ी मजदूरों के लिए भी प्रावधान किया गया है, जिनकी जीविका पान/सुपारी की खेती बंद होने से खतरे में पड़ जाएगी। यह क्षतिपूर्ति वेतन भी लाभदायक है। इसके अंतर्गत सरकार अधिकतम एक वर्ष तक ‘रोजगार’ ढूंढने के लिए ‘भत्ता’ प्रदान करेगी। इसके अलावा जिन 460 परिवारों को अपने घरों से हाथ धोना पड़ रहा है, उन्हें कॉलोनियों में पुनः बसाया जाएगा। तो फिर ऐसे उदार प्रस्ताव को लोग खारिज क्यों कर रहे हैं भला?

देश भर में जहां-जहां भी विकास के नाम पर लोगों की जीविका, रोजगार छीने जाने के खिलाफ लड़ाई चल रही है, वहां यही सवाल पूछे जा रहे हैं। अभी यह जमीन पास्को की नहीं हुई है, लेकिन सुपारी/पान की खेती से यहां प्रति हेक्टेयर प्रतिवर्ष 10 से 17.50 लाख रुपए की आमदनी हो जाती है। जो मुआवजा मिल रहा है, वह तो दो-तीन वर्षों की आमदनी के बराबर है। इसके अलावा धान, मछलियों के तालाब और फलदार वृक्ष भी तो आमदनी के अन्य जरिए हैं। यह भूमि पर टिकी अर्थव्यवस्था अत्यधिक रोजगारमूलक भी है। हालांकि लौह और इस्पात संयंत्र देश के आर्थिक विकास के लिए आवश्यक हैं, लेकिन वे स्थानीय रोजगार उपलब्ध नहीं करा पाते। इसके लिए पहला तर्क है कि इस तरह के संयंत्रों के लिए ये लोग ‘नौकरी’ पर रख जाने लायक नहीं हैं। दूसरा है कि इन आधुनिक सुसज्जित संयंत्रों के परिचालन में बहुत ही सीमित संख्या में कर्मचारियों की जरूरत पड़ती है।

इस तरह पॉस्को ‘विकास विरुद्ध विकास’ है। हम सब लंबे समय से इस भूमि आधारित अर्थव्यवस्था को समझने का प्रयास कर रहे हैं। लेकिन अभी तक हम शायद यह नहीं समझ पाए हैं कि इसके क्या काम हैं और भारतीय समाज में यह क्या मायने रखती है। यह सिर्फ इतना है कि हम सब यह भूल गए हैं वह विकास, विकास ही नहीं है, जो उन्हीं लोगों का जीवन छीने, जिनके लिए इसे (विकास) किया जा रहा हो। बस तो अगर हम उनकी जमीन चाहते हैं तो हमें उन्हें बदले में एक जीवन तो देना ही पड़ेगा।

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