विकास! किंतु किस कीमत पर

उत्तराखंड का विकास यहां की परिस्थितियों को ध्यान में रखकर टिकाऊ विकास की ओर जाने का एकमात्र विकल्प है। छोटी-छोटी जल धाराओं मसलन गाड़-गधेरों में कम शक्ति की बिजली परियोजनाओं के प्रति पंचायत स्तर पर अभियान चलाए जाएं। प्रत्येक ग्राम स्तर पर स्थापित स्वयं सहायता समूहों को इससे जोड़ा जाए। गांव अपने लिए बिजली का उत्पादन भी करे और पर्यावरण हितैशी भी बना रहे। गांव की नदी जब बिजली के लिए जरूरी साधन बन जाएगी तो उसके प्रति सकारात्मक नजरिया भी बनेगा। ऐसा ही अन्य मुद्दों पर भी सोचा जा सकता है। 2013 की केदारनाथ आपदा को समाज के विभिन्न हिस्सों द्वारा विभिन्न रूपों में व्याख्यायित किया गया। कुछ लोगों का मानना है कि यह एक दैवीय आपदा थी, कुछ का मानना था कि प्राकृतिक आपदा थी तो कुछ का मानना था कि यह अंधाधुंध बने इमारतों की वजह से पहाड़ों में आई दरारें थीं। लेकिन इनमें से किसी भी प्रकार आपदा के समय उपजे सवालों का सही-सही जवाब दे पाने में असमर्थ था। लेकिन अगर वैज्ञानिक कारणों को देखें तो यही समझ आता है कि समूचे उत्तराखंड में बांधों के निर्माण के नाम पर चल रहा अंधाधुंध खनन पहाड़ों को लगातार खोखला करता जा रहा जिससे पहाड़ों की किसी भी तरह की आपदा को रोक सकने की क्षमता खत्म होती जा रही है।

विकास के नाम पर चल रहे इस अंधाधुंध निर्माण का ही खामियाज़ा भुगता केदारनाथ के यात्रियों ने और केदार घाटी में बसे गांव के निवासियों ने। आज केदार घाटी एक चिरस्मरणीय शोक में डूबी हुई है। लेकिन केदार घाटी का यह दुर्गति अनोखी नहीं है। विकास के नाम पर पर्यावरण से खिलवाड़ करने की छूट बहुराष्ट्रीय कंपनियों को हमारी सरकारों ने देश के हर कोने में दे रखी है।

बढ़ते औद्योगिकरण की वजह से शहरों पर दबाव भी बढ़ता जा रहा है। शहरों में बढ़ते जनसंख्या दबाव से भीड़ का बढ़ना और अव्यवस्थाओं का जन्म लेना जीवनशैली को नुकसान पहुंचा रहा है। पेयजल, आवास, शिक्षा, चिकित्सा, सुरक्षा जैसी मूलभूत आवश्यकताएं बढ़ते शहरीकरण के लिए यक्ष प्रश्न है। इस सबके बावजूद तथाकथित विकास की प्रक्रिया रुकने का नाम नहीं ले रही है। पहाड़ों में खासकर उत्तराखंड में बड़े बांधों का बनना जारी है। जिससे विस्थापन हो रहा है। लोग हजारों की संख्या में गांव से शहर की ओर रूख कर रहे हैं।

देश भर में सड़कों का जाल बिछाया जा रहा है। इससे वनों का दोहन हो रहा और पर्यावरण का गंभीर संकट भी पसर रहा है। बड़े शहरों में हाइवे और फ्लाई ओवर के साथ अब मैट्रो के चलन ने चमकते मॉल्स और ग्लैमरस संस्कृति को उफान पर ला खड़ा किया है। लेकिन प्रश्न यह उठता है की यह विकास किसके लिए किया जा रहा है। क्योंकि समाज का कमजोर तबका, चाहे वह किसी भी राज्य का हो, अभी भी अपनी बुनियादी सुविधाओं से वंचित है। अमीरी और गरीबी के बीच की खाई लगातार चौड़ी होती जा रही है। विकास के नाम पर चमकते इन मॉल्स का लुत्फ उठा रहा है संपन्न वर्ग किंतु इसका खामियाजा भुगत रहा है गरीब तबका।

शोध और अध्ययन बताते हैं - भारत में शहरीकरण की रफ्तार उदारीकरण नीति के बाद तेजी से बढ़ी है। 1961 में देश की 17.97 फीसदी जनता शहरों में निवास करती थी तो 2011 में यह आंकड़ा 31 फीसदी को पार कर गया। आंकड़ों के अनुसार 2001 की जनगणना के मुताबिक शहरों व कस्बों की संख्या 5,161 थी जो अब बढ़कर 7,936 हो गई है और यह वृद्धि लगातार बढ़ ही रही है। ऐसे में और अधिक शहरों को बसाना कितना तर्कसंगत होगा यह भी महत्वपूर्ण सवाल है।

शहरीकरण के विस्तार से विश्व में प्रति वर्ष 1.1 करोड़ हेक्टेयर वनों का कटान हो रहा है। भारत में यह आकड़ा 10 लाख हेक्टेयर है। इस विस्तार के प्रमुख नुकसान जो साफ तौर पर देखे जा सकते हैं उनमें आदिवासी समुदाय के अस्तित्व का संकट में आना है तो दूसरी ओर बहुत से वन्यजीवों का लुप्त होना, जमीन से अधिक उत्पादन लेने का दबाव, रासायनिक खादों का उपयोग। वनों के कटान व कमजोर पहाड़ों पर भारी निर्माण कार्यों से भूमि कटान नदियों पर बढ़ते अतिक्रमण आदि प्रमुख है।

विकास के मॉडल पर पुनर्विचार करना भी समय की मांग है। एक तरह का मॉडल सभी क्षेत्रों में लागू हो ही नहीं सकता लेकिन ऐसा किया जाता है। आज आवश्यकता है भौगोलिक परिस्थितियों को ध्यान में रखकर विकास के मॉडल बनाए जाएं, परियोजनाओं में स्थानीय समुदायों, संभावित प्रभावित लोगों के विचार, सहमती, असहमती और उनके निर्णय शामिल किए जाएं। ताकि जरूरतें भी पूरी हो सके और प्राकृतिक संतुलन भी बना रहे। उत्तराखंड के परिप्रेक्ष्य में विकास के मायने बदलने की जरूतर है।

अब जरूरत है कि स्थानीयता परक विकास मॉडल के प्रति सकारात्मक रूख अपनाया जाए। छोटे-छोटे रोजगार खड़े किए जाएं। ताकि पलायन पर नियंत्रण लग सके और शहरों के प्रति रूख करने की लालसा कम हो। आखिरकार व्यक्ति बेहतर सुविधा व रोजगार के लिए ही तो अपनी जमीन अपना घर-बार छोड़कर शहरों की ओर रूख करता है।

बागेश्वर में युवाओं के साथ हुई एक चर्चा में उन्होंने बताया कि पहाड़ में रोजगार के साधन बहुत कम हैं। टैक्सी चालक, दुकान और सेना, पुलिस के अलावा कोई दूसरा खुला विकल्प आज दिखता नहीं। ऐसे में जरूतर है एक बेहतर रोजगार परक योजना की। जिसमें शिक्षित युवाओं को उचित अवसर मिलें।

उत्तराखंड का विकास यहां की परिस्थितियों को ध्यान में रखकर टिकाऊ विकास की ओर जाने का एकमात्र विकल्प है। छोटी-छोटी जल धाराओं मसलन गाड़-गधेरों में कम शक्ति की बिजली परियोजनाओं के प्रति पंचायत स्तर पर अभियान चलाए जाएं। प्रत्येक ग्राम स्तर पर स्थापित स्वयं सहायता समूहों को इससे जोड़ा जाए। गांव अपने लिए बिजली का उत्पादन भी करे और पर्यावरण हितैशी भी बना रहे।

गांव की नदी जब बिजली के लिए जरूरी साधन बन जाएगी तो उसके प्रति सकारात्मक नजरिया भी बनेगा। ऐसा ही अन्य मुद्दों पर भी सोचा जा सकता है। एक ओर विकास की नई सोच के प्रति लगातार प्रयास हो और दूसरी ओर शिक्षा, चिकित्सा जैसे महत्वपूर्ण विषय के प्रति गंभीर प्रयास हों। विकास किसी एक आयाम पर सघनता से होने वाला कार्य नहीं है। संतुलित और टिकाऊ विकास के लिए सभी आयामों पर रचनात्मक सोच और कार्यान्वयन की आवश्यकता है।

व्यक्ति निर्माण और सामाजिक बदलाव भी विकास की दशा व दिशा को निर्धारित करेगा। इसलिए तमाम पहलुओं को ध्यान में रखते हुए योजनाएं बननी चाहिए और विविधतापूर्ण संभावनाओं को ध्यान में रखना चाहिए। ताकि विकास का कोई एक मॉडल सारे देश में आदर्श ना बने। क्षेत्र विशेष की भौगोलिकता को ध्यान में रखते हुए विकास की अवधारणा को पुष्ट किया जा सके। समय की मांग भी यही है।

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