मानव पर्यावरण में वायु, जल, भूमि, विभिन्न प्रकार की वनस्पतियां एवं जीव-जंतु प्रमुख घटक माने गये हैं। हमारे देश में इन सभी घटकों की हालत बिगड़ चुकी है एवं सभी में प्रदूषण का जहर फैल गया है। राष्ट्रीय तथा विश्व स्तर पर भी कई संगठनों एवं संस्थानों द्वारा किये गये अध्ययनों से पता चला है कि भारत में पर्यावरण की हालत काफी बिगड़ चुकी है। पर्यावरण अब स्वास्थ्यवर्धक न रहकर रोगजन्य हो गया है। वायु जीवन के लिए आवश्यक है परंतु देश के महानगरों के अलावा छोटे शहर भी वायु प्रदूषण के केन्द्र बन गये हैं।
उपग्रहों से मिले आंकड़े बताते हैं कि देश में हर साल करीब 10 लाख हेक्टेयर जंगल नष्ट हो रहे हैं, हालांकि वन विभाग वाले हमेशा इसका जोरदार खंडन करते हैं। हमारी पर्वतमालाएं जो जीवन देने वाली नदियों का उद्गम स्थल हैं, तेजी से नष्ट की जा रही हैं। भारी बारिश वाले इलाकों में भी, जहां घने जंगल होने चाहिए, आज भूमि बंजर बन रही है। देश की हजारों हेक्टेयर उपजाऊ भूमि हर दिन परती भूमि में बदलती जा रही है। हां, इन तीन वर्षों में इतना जरुर हुआ कि सरकारी भाषा में 'परती भूमि' शब्द जोड़ लिया गया है। हरे-भरे इस देश को परती भूमि में बदलने की प्रक्रिया अंग्रेजी राज में शुरू हुई थी और आजादी के बाद भी जारी है। इसका सबसे बुरा असर लोगों की सामूहिक सम्पत्ति पर पड़ा। वन, चरागाह, नदी, तालाब और झील जैसी सम्पदा का दुरुपयोग संगठित रूप से होता रहा और सरकार ने इसे बढ़ावा ही दिया। सरकार 'आर्थिक उन्नति और वैज्ञानिक प्रबंध' के नाम पर इस शोषण की 'मंजूरी लेती रही।'
जब तक समाज अपनी प्राकृतिक सम्पदा के साथ अपने संबंध फिर से परिभाषित नहीं करेगा और उससे जुड़े लोग प्रकृति की सार संभाल फिर से अपने हाथ में नहीं लेंगे, तब तक उसकी रक्षा संभव नहीं दिखती। पहले प्राकृतिक सम्पदा का संचालन सामाजिक नियंत्रण की अलग-अलग प्रक्रियाओं के माध्यम से होता था। लेकिन इस सामूहिक सम्पदा को राय की सम्पत्ति में बदलने की नीति ने इसे प्रशासनिक नियंत्रण के घेरे में ला दिया है। प्रशासन इन्हें 'ताकतवर' हाथों के हवाले कर देता है। अभी कुछ ही पहले तक देश के शहर और गांव चरागाह, खेत, जंगल, तालाब, कुओं और बावड़ियों से समृद्ध रहे हैं। पर सरकारी विकास कार्यक्रमों ने समाज के इस 'सामाजिक चरित्र' को छिन्न-भिन्न करके रख दिया है। आज की अपेक्षा है कि इस भूमिका की समीक्षा की जाए।
यह मानना गलत है कि हमारी आबादी इतनी बढ़ गई है या हम सब इतने 'अधिक' हो गए हैं कि हमारी प्राथमिक जरुरतें पूरी नहीं की जा सकतीं। सच कहा जाए तो 'बढ़ती जनसंख्या' देश की धरती पर नहीं, बल्कि अक्षम सरकारों पर बढ़ता बोझ है। हर ठीक चीज का उत्पादन बढ़ना चाहिए पर उसका ठीक वितरण भी होना चाहिए। लेकिन यह तभी हो सकता है जब समाज के विभिन्न अंगों की मर्यादाएं, कर्तव्य व अधिकार फिर से निश्चित किए जाएंगे। हमारी प्राकृतिक सम्पदा की पूरी उपेक्षा करने वाले नए राजकर्ताओं, नियोजकों ने अपने विकास कार्यक्रमों के जरिए पर्यावरण को दुह कर कुछ ही लोगों की जरुरतें पूरी करते हुए भी उसकी क्षमता बढ़ाने की बजाय दिनों-दिन घटाई ही है। ऐसी विकट परिस्थिति में पर्यावरण के संवर्धन का सरकारी प्रयत्न भी लोगों के लिए उतना ही कष्टकारी बन जाता है, जितना उसका दोहन। ये सभी बातें हमारे नेतृत्व पर गंभीर सवाल तो उठाती ही हैं, हमें संभलने के मौके भी देती हैं।
आज कोई भी काम हमारी समस्याओं से जूझने के साथ-साथ इतने बड़े पैमाने पर हम सभी में उतना आत्मविश्वास नहीं भर सकता, जितना कि पर्यावरण को बचाने का काम। शोषण, हिंसा और तनाव के आज के वातावरण में पर्यावरण की चुनौती पूरे देश को एक सूत्र में बांध सकती है। निसंदेह अंतर्राष्ट्रीय दबाव कड़ी परीक्षा लेंगे। विकसित औद्योगिक देशों में बड़ी तेजी से व्यापक तकनीकी परिवर्तन हो रहे हैं। ये परिवर्तन उन देशों के तकनीकी ढांचे में जबर्दस्त बदलाव तो लाएंगे ही, उनका असर दुनिया के अन्य देशों पर भी पड़ेगा। भारत जैसे देश जहां विकास पश्चिम की नकल के लिए अंधी दौड़ भर है, ये तकनीकी परिवर्तन कई नई गंभीर समस्याएं खड़ी करेंगे। इसलिए सोचना ही पड़ेगा कि हम इस तकनीकी दौड़ में बने रहने के लिए और पश्चिम की शर्तों पर '21वीं सदी' में प्रवेश पाने के लिए ऐसा ही 'विकास' करते रहें या अपनी भूमि, जल, वन सम्पदा और चरागाहों पर ध्यान केंद्रित करके वह ज्ञान, वह विज्ञान अपनाएं जिससे पर्यावरण का यह असंतुलन खत्म हो सके और उस पर टिका हम सबका जीवन फिर से गौरव पा सके।
शहरों में, जहां आधुनिक विज्ञान और तकनीक का सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया गया, मामला बिल्कुल चौपट हो रहा है। यों हमारा देश मुख्य तौर पर ग्रामीण ही बना रहेगा, पर सदी के आखिर तक हमारे यहां दुनिया की सबसे ज्यादा शहरी आबादी होगी। इन शहरों में कई भयंकर समस्याएं आएंगी। अब भी बड़े शहरों के कारण हमारा ढांचा चरमरा रहा हैं देश का सबसे बड़ा शहर कोलकाता संभाले नहीं संभल रहा है। मुंबई भी उसी हालत में पहुंच गया है। जल्दी ही मद्रास (अब चेन्नई) और दिल्ली का भी नंबर आ जाएगा। कानपुर, इलाहाबाद, मुर्शिदाबाद जैसे छोटे शहरों की सांस तो कई साल पहले ही टूट चुकी है। देश के सैकड़ों छोटे और मंझोले शहरों की ओर तो कोई ध्यान ही नहीं दे पा रहा। हर जगह शहरी जिंदगी का स्तर गिर रहा है। हर तरह की सुविधाएं घटती जा रही हैं और हर तरह के तनाव बढ़ चले हैं। पीने के पानी की क्या कहें, हवा तक प्रदूषित हो चली है।
यह स्थिति भी तब है जब सारा ध्यान शहर के विकास पर ही दिया गया हैं गांवों की जरुरतें पूरी करने के इरादे से ग्रामीण विकास की नीति कभी नहीं अपनाई गई। नीति यह रही कि ग्रामीण इलाकों का 'विकास' कर उनके संसाधन शहरों के हवाले कर दिए जाए। गांव का सारा कच्चा माल और सम्पदा शहर चली आए और शहरों का पक्का माल गांव में उंडेल दिया जाए। ग्रामीण उद्योगों को तहस-नहस करके गांव का 'विकास' भी शहरी विकास का ही विस्तार रहा है। इधर शहरों के मामले में हमने काफी महंगे पश्चिमी मॉडल की अंधी नकल की। नतीजा एक तरफ अंधाधुंध पैसा बहाकर भी शहर रहने लायक नहीं बन पाए और दूसरी तरफ गांवों का पूरा ताना बाना उजड़ गया। अगर इस सड़े हुए माहौल से छुटकारा पाना है, तो शहरों और गांवों के लिए विकास का कोई तरीका ढूंढना होगा। परस्पर सहजीवन के आधार पर शहरी और ग्रामीण विकास करना होगा।
ऐसी प्रक्रिया में शहरी इलाकों के आत्म नियंत्रित विकास के साथ-साथ ग्रामीण पर्यावरण की समृद्धता पर भी ध्यान देना होगा ताकि अनाज, ईधन, चारा, मकान बनाने का सामान, खेती और ग्रामीण उद्योग धंधे के लिए कच्चे माल आदि से जुड़ी जरुरतें पूरी हो सकें और शहर भी लूट के बदले अपने पैरों पर खड़े हो सके। इन उद्देश्यों की प्राप्ति के बारे में आज के विज्ञान और उसी को चला बढ़ा रहे राजकर्ताओं के पास देने को कुछ खास नहीं है। उनके अनुभव काफी सीमित हैं। सभी कामों में उनका अनुभव एक विशिष्ट किस्म की बाजारु मांग को पूरा करने का ही रहा है। यह सब कैसे सुधरेगा? उत्तर कठिन है पर हमें तो खोजना ही चाहिए कि अपना समाज कैसे चलता था, आज कैसे चल रहा है और इसे सचमुच कैसे चलना चाहिए। इसे सोचे बिना, हम सब पर मुसीबत आने वाली है। गांधीजी के शब्दों में 'पता नहीं हम अपना यह कर्तव्य कब पूरा करेंगे। इसे नहीं निभा पाए तो हमारे समाज पर मुसीबत आने वाली है और वह आनी ही चाहिए, अगर समाज अपने को सुधारता नहीं है।'
भारत जैसे देश जहां विकास पश्चिम की नकल के लिए अंधी दौड़ भर है, ये तकनीकी परिवर्तन कई नई गंभीर समस्याएं खड़ी करेंगे। इसलिए सोचना ही पड़ेगा कि हम इस तकनीकी दौड़ में बने रहने के लिए और पश्चिम की शर्तों पर 21वीं सदी में प्रवेश पाने के लिए ऐसा ही विकास करते रहें या अपनी भूमि, जल, वन सम्पदा और चरागाहों पर ध्यान केंद्रित करके वह ज्ञान, वह विज्ञान अपनाएं जिससे पर्यावरण का यह असंतुलन खत्म हो सके और उस पर टिका हम सबका जीवन फिर से गौरव पा सके।
पिछले तीन वर्षों के दौरान देश में पर्यावरण के प्रति चिंता काफी बढ़ी है। यह चिंता दिनों-दिन थोड़ी-थोड़ी मानवीय भी होती जा रही है। पर्यावरण का महत्व, अपनी संस्कृति, अपनी परम्परा और अपने समाज से उसके संबंध या कहें कि उसके विच्छेद की समझ बढ़ने से पर्यावरण की चिंता का स्वरूप भी बदलता जा रहा है। इसके बावजूद इन वर्षों में प्रत्यक्ष तौर पर ऐसा कुछ नहीं हो पाया है, जिसके कारण हम कह सकें कि पर्यावरण को बिगड़ने से रोका जा रहा है। भोपाल कांड ने प्रदूषण नियंत्रण के लिए जिम्मेदार लोगों को, भले ही कुछ समय के लिए सकते में डाल दिया था और लाखों औद्योगिक मजदूरों और कारखानों के पास रहने वालों के मन में डर पैदा कर दिया था। लेकिन भोपाल आज भी घट रहे हैं। कई सूक्ष्म और अदृश्य प्रक्रियाएं हमारी पूरी उपेक्षा करते हुए हमारी प्राकृतिक सम्पदा को लूटे ले जा रही हैं। देश भर के कारखानों और खेतों में हर साल हजारों श्रमिक अपंग हो जाते हैं या मारे जाते हैं।उपग्रहों से मिले आंकड़े बताते हैं कि देश में हर साल करीब 10 लाख हेक्टेयर जंगल नष्ट हो रहे हैं, हालांकि वन विभाग वाले हमेशा इसका जोरदार खंडन करते हैं। हमारी पर्वतमालाएं जो जीवन देने वाली नदियों का उद्गम स्थल हैं, तेजी से नष्ट की जा रही हैं। भारी बारिश वाले इलाकों में भी, जहां घने जंगल होने चाहिए, आज भूमि बंजर बन रही है। देश की हजारों हेक्टेयर उपजाऊ भूमि हर दिन परती भूमि में बदलती जा रही है। हां, इन तीन वर्षों में इतना जरुर हुआ कि सरकारी भाषा में 'परती भूमि' शब्द जोड़ लिया गया है। हरे-भरे इस देश को परती भूमि में बदलने की प्रक्रिया अंग्रेजी राज में शुरू हुई थी और आजादी के बाद भी जारी है। इसका सबसे बुरा असर लोगों की सामूहिक सम्पत्ति पर पड़ा। वन, चरागाह, नदी, तालाब और झील जैसी सम्पदा का दुरुपयोग संगठित रूप से होता रहा और सरकार ने इसे बढ़ावा ही दिया। सरकार 'आर्थिक उन्नति और वैज्ञानिक प्रबंध' के नाम पर इस शोषण की 'मंजूरी लेती रही।'
जब तक समाज अपनी प्राकृतिक सम्पदा के साथ अपने संबंध फिर से परिभाषित नहीं करेगा और उससे जुड़े लोग प्रकृति की सार संभाल फिर से अपने हाथ में नहीं लेंगे, तब तक उसकी रक्षा संभव नहीं दिखती। पहले प्राकृतिक सम्पदा का संचालन सामाजिक नियंत्रण की अलग-अलग प्रक्रियाओं के माध्यम से होता था। लेकिन इस सामूहिक सम्पदा को राय की सम्पत्ति में बदलने की नीति ने इसे प्रशासनिक नियंत्रण के घेरे में ला दिया है। प्रशासन इन्हें 'ताकतवर' हाथों के हवाले कर देता है। अभी कुछ ही पहले तक देश के शहर और गांव चरागाह, खेत, जंगल, तालाब, कुओं और बावड़ियों से समृद्ध रहे हैं। पर सरकारी विकास कार्यक्रमों ने समाज के इस 'सामाजिक चरित्र' को छिन्न-भिन्न करके रख दिया है। आज की अपेक्षा है कि इस भूमिका की समीक्षा की जाए।
यह मानना गलत है कि हमारी आबादी इतनी बढ़ गई है या हम सब इतने 'अधिक' हो गए हैं कि हमारी प्राथमिक जरुरतें पूरी नहीं की जा सकतीं। सच कहा जाए तो 'बढ़ती जनसंख्या' देश की धरती पर नहीं, बल्कि अक्षम सरकारों पर बढ़ता बोझ है। हर ठीक चीज का उत्पादन बढ़ना चाहिए पर उसका ठीक वितरण भी होना चाहिए। लेकिन यह तभी हो सकता है जब समाज के विभिन्न अंगों की मर्यादाएं, कर्तव्य व अधिकार फिर से निश्चित किए जाएंगे। हमारी प्राकृतिक सम्पदा की पूरी उपेक्षा करने वाले नए राजकर्ताओं, नियोजकों ने अपने विकास कार्यक्रमों के जरिए पर्यावरण को दुह कर कुछ ही लोगों की जरुरतें पूरी करते हुए भी उसकी क्षमता बढ़ाने की बजाय दिनों-दिन घटाई ही है। ऐसी विकट परिस्थिति में पर्यावरण के संवर्धन का सरकारी प्रयत्न भी लोगों के लिए उतना ही कष्टकारी बन जाता है, जितना उसका दोहन। ये सभी बातें हमारे नेतृत्व पर गंभीर सवाल तो उठाती ही हैं, हमें संभलने के मौके भी देती हैं।
आज कोई भी काम हमारी समस्याओं से जूझने के साथ-साथ इतने बड़े पैमाने पर हम सभी में उतना आत्मविश्वास नहीं भर सकता, जितना कि पर्यावरण को बचाने का काम। शोषण, हिंसा और तनाव के आज के वातावरण में पर्यावरण की चुनौती पूरे देश को एक सूत्र में बांध सकती है। निसंदेह अंतर्राष्ट्रीय दबाव कड़ी परीक्षा लेंगे। विकसित औद्योगिक देशों में बड़ी तेजी से व्यापक तकनीकी परिवर्तन हो रहे हैं। ये परिवर्तन उन देशों के तकनीकी ढांचे में जबर्दस्त बदलाव तो लाएंगे ही, उनका असर दुनिया के अन्य देशों पर भी पड़ेगा। भारत जैसे देश जहां विकास पश्चिम की नकल के लिए अंधी दौड़ भर है, ये तकनीकी परिवर्तन कई नई गंभीर समस्याएं खड़ी करेंगे। इसलिए सोचना ही पड़ेगा कि हम इस तकनीकी दौड़ में बने रहने के लिए और पश्चिम की शर्तों पर '21वीं सदी' में प्रवेश पाने के लिए ऐसा ही 'विकास' करते रहें या अपनी भूमि, जल, वन सम्पदा और चरागाहों पर ध्यान केंद्रित करके वह ज्ञान, वह विज्ञान अपनाएं जिससे पर्यावरण का यह असंतुलन खत्म हो सके और उस पर टिका हम सबका जीवन फिर से गौरव पा सके।
शहरों में, जहां आधुनिक विज्ञान और तकनीक का सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया गया, मामला बिल्कुल चौपट हो रहा है। यों हमारा देश मुख्य तौर पर ग्रामीण ही बना रहेगा, पर सदी के आखिर तक हमारे यहां दुनिया की सबसे ज्यादा शहरी आबादी होगी। इन शहरों में कई भयंकर समस्याएं आएंगी। अब भी बड़े शहरों के कारण हमारा ढांचा चरमरा रहा हैं देश का सबसे बड़ा शहर कोलकाता संभाले नहीं संभल रहा है। मुंबई भी उसी हालत में पहुंच गया है। जल्दी ही मद्रास (अब चेन्नई) और दिल्ली का भी नंबर आ जाएगा। कानपुर, इलाहाबाद, मुर्शिदाबाद जैसे छोटे शहरों की सांस तो कई साल पहले ही टूट चुकी है। देश के सैकड़ों छोटे और मंझोले शहरों की ओर तो कोई ध्यान ही नहीं दे पा रहा। हर जगह शहरी जिंदगी का स्तर गिर रहा है। हर तरह की सुविधाएं घटती जा रही हैं और हर तरह के तनाव बढ़ चले हैं। पीने के पानी की क्या कहें, हवा तक प्रदूषित हो चली है।
यह स्थिति भी तब है जब सारा ध्यान शहर के विकास पर ही दिया गया हैं गांवों की जरुरतें पूरी करने के इरादे से ग्रामीण विकास की नीति कभी नहीं अपनाई गई। नीति यह रही कि ग्रामीण इलाकों का 'विकास' कर उनके संसाधन शहरों के हवाले कर दिए जाए। गांव का सारा कच्चा माल और सम्पदा शहर चली आए और शहरों का पक्का माल गांव में उंडेल दिया जाए। ग्रामीण उद्योगों को तहस-नहस करके गांव का 'विकास' भी शहरी विकास का ही विस्तार रहा है। इधर शहरों के मामले में हमने काफी महंगे पश्चिमी मॉडल की अंधी नकल की। नतीजा एक तरफ अंधाधुंध पैसा बहाकर भी शहर रहने लायक नहीं बन पाए और दूसरी तरफ गांवों का पूरा ताना बाना उजड़ गया। अगर इस सड़े हुए माहौल से छुटकारा पाना है, तो शहरों और गांवों के लिए विकास का कोई तरीका ढूंढना होगा। परस्पर सहजीवन के आधार पर शहरी और ग्रामीण विकास करना होगा।
ऐसी प्रक्रिया में शहरी इलाकों के आत्म नियंत्रित विकास के साथ-साथ ग्रामीण पर्यावरण की समृद्धता पर भी ध्यान देना होगा ताकि अनाज, ईधन, चारा, मकान बनाने का सामान, खेती और ग्रामीण उद्योग धंधे के लिए कच्चे माल आदि से जुड़ी जरुरतें पूरी हो सकें और शहर भी लूट के बदले अपने पैरों पर खड़े हो सके। इन उद्देश्यों की प्राप्ति के बारे में आज के विज्ञान और उसी को चला बढ़ा रहे राजकर्ताओं के पास देने को कुछ खास नहीं है। उनके अनुभव काफी सीमित हैं। सभी कामों में उनका अनुभव एक विशिष्ट किस्म की बाजारु मांग को पूरा करने का ही रहा है। यह सब कैसे सुधरेगा? उत्तर कठिन है पर हमें तो खोजना ही चाहिए कि अपना समाज कैसे चलता था, आज कैसे चल रहा है और इसे सचमुच कैसे चलना चाहिए। इसे सोचे बिना, हम सब पर मुसीबत आने वाली है। गांधीजी के शब्दों में 'पता नहीं हम अपना यह कर्तव्य कब पूरा करेंगे। इसे नहीं निभा पाए तो हमारे समाज पर मुसीबत आने वाली है और वह आनी ही चाहिए, अगर समाज अपने को सुधारता नहीं है।'
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