विकास के प्रति सही समझ पैदा करे सरकार

कृषि पर संकट गहराता जा रहा है
कृषि पर संकट गहराता जा रहा है

मेधा पाटकर भूमि अधिग्रहण कानून का नया मसौदा तैयार है लेकिन इस गंभीर मसले को लेकर राजनीतिक पार्टियां और सरकार अभी भी ईमानदार नहीं दिख रहे हैं। इनकी प्राथमिकताओं में अभी भी औद्योगिक घराने हैं। भूमि अधिग्रहण कानून जिस साम्राज्यवादी सोच की उपज रहा है, उससे दिल्ली अब तक नहीं उबर पाई है। हाशिये पर पड़े लोगों की अनिवार्य आवश्यकताओं से अधिक उन्हें औद्योगिक घरानों की पूंजी के विकास की चिंता है। नए मसौदे में जिस व्यापक विकास नियोजन के कानून को प्रस्तावित करने की जरूरत थी वह नहीं दिखता। इसका कारण इतना भर दिखता है कि देश के विभिन्न हिस्सों में किसानों द्वारा उठा आंदोलन किसी तरह दिशा भटक जाए या फिर शांत हो जाए।

मेरी समझ से सबसे अहम जरूरत यह है कि कृषि से गैर कृषि कार्यों में जमीन का हस्तानांतरण बिल्कुल निषिद्ध हो। पर्यावरण रक्षण को देखते हुए हमने जिस तरह इस बात पर सैद्धांतिक सहमति बनाई है कि कुल भूमि का एक तिहाई हिस्सा वनों के लिए आरक्षित होना चाहिए उसी तरह इस बात पर भी सैद्धांतिक सहमति बननी चाहिए कि ज्यादातर भूमि को अनाज उत्पादन के कार्यों में ही उपयोग में लाया जाना चाहिए। इस संबंध में एक बड़ी जरूरत ग्राम सभाओं के अधिकार से जुड़ी है। ग्राम सभाओं को यह संवैधानिक अधिकार मिलना चाहिए कि उसकी सहमति के बगैर किसी भी तरह की भूमि अधिग्रहित न की जाए। अभी देश में करीब छह लाख गांव हैं और हमारा देश ग्रामीण पृष्ठभूमि का खेतीहर देश है, इसलिए किसी भी तरह के अधिग्रहण में गांवों की सहमति को अनिवार्य कर देना हमारी आवश्यकता है फिर जिस भी जमीन का अधिग्रहण हो, उसमें इस बात का पूरा-पूरा ध्यान रखा जाए कि किस तरह सबसे कम विस्थापन हो। साथ ही पर्यावरण को भी कैसे कम से कम नुकसान पहुंचे।

आज हो यह रहा है कि हमारे किसान गलत अधिग्रहण कानून और अन्य नीतियों के कारण मजदूरों में तब्दील हो रहे हैं और इसने विस्थापन को भी काफी बढ़ावा दिया है। याद रखिए कि जब तक विस्थापन न्यूनतम स्तर पर नहीं होगा तब तक सही तौर पर पुनर्वास की व्यवस्था भी नहीं हो पाएगी फिर नए मसौदे में पुनर्वास की स्पष्ट और न्यायपूर्ण व्याख्या भी जरूरी है, जो अपना घर-बार और जमीन खो रहे हैं, उन्हें केवल कुछ पैसे और कहीं दूर दो कमरे का एक आवास दे देना भर पुनर्वास नहीं है। विस्थापन में जिन परिवारों ने अपनी अधिकांश विरासत खो दी, उन्हें जीविका का जरिया अनिवार्य तौर पर मिलना ही चाहिए। आखिर हम एक आजाद देश के वासी हैं और भूमि अधिग्रहण पर राज्य की सार्वभौमिक सत्ता का वह रूप हमें स्वीकार्य नहीं हो सकता जो गुलामी के दौर में था। रोजगार और विकास के नाम पर बरगलाने का खेल हमारे साथ अब और नहीं खेला जा सकता है।

सरकार को चाहिए कि वह अब विकास के प्रति सही समझ पैदा करे। एकांगी विकास से किसी देश का भला नहीं हो सकता। केवल अरबपति पैदा करना समृद्धि का लक्षण नहीं है। प्रत्येक वर्ष देश के हजारों लोग अपनी जमीन से बेदखल होते हैं। किसान ही नहीं, आदिवासियों तक को अपने आशियानों से दर-ब-दर होना पड़ रहा है। इतना ही नहीं, वंचितों के विद्रोह को दबाने का भी हर संभव प्रयास किया जा रहा है। उन पर गोलियां चलाई जा रही हैं। डंडे बरसाए जा रहे हैं। यह आर्थिक विषमता और लोगों के हक छीनने का ही नतीजा है कि नक्सलवाद जैसी समस्याएं पैदा हुई हैं। हमें नहीं भूलना चाहिए कि नक्सलवाद के पीछे भी मूल रूप से आर्थिक विषमता और जमीन का सही बंटवारा नहीं होना है। सरकार जमीन का सही वितरण करने की जगह जमीन जबरन छीन औद्योगिक घरानों को दे रही है। सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून पर हालांकि कुछ सकारात्मक कदम उठाए हैं, लेकिन वे पर्याप्त नहीं है, यह याद रखना चाहिए।

प्रस्तुति- प्रवीण कुमार
 

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