विकास का उचित स्थान

योजना का जनवरी 2012 विशेषाँक हमने बारहवीं पंचवर्षीय योजना की दृष्टि पर केन्द्रित किया था। किन्तु एक विशेषाँक के कलेवर में समूची पंचवर्षीय योजना का सम्यक विवेचन सम्भव नहीं है। साथ ही इस विशेषाँक ने अनेक विद्वानों को अपनी राय प्रकट करने के लिए भी आन्दोलित किया। ऐसे महत्वपूर्ण आलेखों-प्रतिक्रियाओं को हम योजना के आगामी अंकों में प्रकाशित करते रहेंगे। इस शृंखला की दूसरी कड़ी के रूप में यहाँ वरिष्ठ अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज़ और नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अमर्य्। सेन का आलेख प्रस्तुत है। विमर्श के इस मंच पर योजना के सुधी पाठक भी अपने विचार व्यक्त करने के लिए आमन्त्रित हैं -वरिष्ठ सम्पादक

विकास सम्बन्धी मसलों पर भारत में सार्वजनिक चर्चा के दायरे को व्यापक विस्तार देना होगा। मीडिया द्वारा जगाई गई दिलचस्पी के कारण कुछ थोड़े से सम्पन्न लोगों के बारे में जो आवश्यकता से अधिक ध्यान दिया जाता है, वह भारत की प्रगति की सही तस्वीर नहीं है। समृद्धि की वह तस्वीर अवास्तविक है। इससे अन्य विषयों पर लोक संवाद नहीं हो पाता। भारत की वैकासिक उपलब्धियों के विस्तार के लिए कल्पनाशील लोकतान्त्रिक पद्धति अनिवार्य है।क्या भारत में कुछ बढ़िया काम हो रहा है, या फिर यह बुरी तरह से नाकाम हो रहा है? इसका उत्तर इस बात पर निर्भर करता है कि आप यह सवाल किससे कर रहे हैं। भारत में कुछ थोड़े से सम्पन्न लोगों के एक वर्ग में एक कहानी बहुत प्रचलित है। कहानी कुछ इस प्रकार है, ‘‘नेहरुवादी समाजवाद के अन्तर्गत दशकों तक औसत विकास और ठहराव के बाद पिछले दो दशकों में भारतीय अर्थव्यवस्था ने शानदार शुरुआत की है। प्रति व्यक्ति आय में अप्रत्याशित सुधार लाने वाली यह उड़ान काफी हद तक बाजार की पहल और प्रयासों से ही भरी जा सकी है। इससे असमानता तो कुछ बढ़ी है, परन्तु तीव्र विकास के दौरान प्रायः ऐसा होता ही है। कालान्तर में त्वरित आर्थिक विकास का लाभ निर्धनतम व्यक्तियों को भी मिलेगा और हम इसी रास्ते पर चल रहे हैं, पूरी दृढ़ता से।’’

परन्तु यदि एक दूसरे कोण से आज के भारत को देखा जाए तो दूसरी कहानी सामने आती है, जो कुछ आलोचनात्मक है, ‘‘चुनिन्दा सम्पन्न वर्ग के विपरीत, आम लोगों के जीवन-स्तर की प्रगति बेहद धीमी रही है, इतनी धीमी कि भारत के सामाजिक संकेतक अभी भी बहुत निर्बल हैं। उदाहरणार्थ, विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार, अफ्रीका से बाहर केवल पाँच देश (भूटान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, पपुआ न्यू गिनी और यमन) ही ऐसे हैं जिनकी युवा महिला साक्षरता दर भारत से कम है। कुछ अन्य उदाहरण भी हैं; बाल मृत्यु के मामले में अफ्रीका से बाहर केवल चार देश ऐसे हैं जिनकी स्थिति भारत से भी अधिक बुरी है; केवल तीन देशों में ही (अफ्रीका से बाहर) स्वच्छता की सुविधाएँ भारत से कम है; और किसी भी देश में (कहीं भी, अफ्रीका में भी नहीं) कम वजन वाले कुपोषित बच्चों का अनुपात भारत से अधिक नहीं है। स्वास्थ्य, शिक्षा और पोषण से सम्बन्धित किसी भी संकेतक के मामले में भारत का क्रम अफ्रीका से बाहर, अन्य देशों से नीचे ही है।’’

प्रगति और विकास


इन दोनों कहानियों में से कौन-सी सही है— अप्रत्याशित सफलता अथवा असाधारण विफलता? उत्तर है— दोनों, क्योंकि दोनों ही सही हैं। दोनों ही एक-दूसरे की सहजीवी हैं। शुरू में तो यह अजीब-सा लग सकता है, परन्तु यह शुरुआती विचार आर्थिक विकास से परे विकास की माँगों को समझ पाने की विफलता को ही दर्शाएगा। सही है, आर्थिक प्रगति और विकास दोनों एक ही बात नहीं हैं। जीवन-स्तर में सामान्य सुधार और लोगों की भलाई और स्वतन्त्रता में वृद्धि के मामले में यह बात ज्यादा लागू होती है। आर्थिक प्रगति से विकास प्राप्त करने में काफी मदद मिल सकती है, परन्तु इसके लिए ऐसी जन-नीतियों की आवश्यकता होती है जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि आर्थिक विकास का लाभ अधिकतम लोगों को मिल सकेगा। इसके अतिरिक्त त्वरित आर्थिक प्रगति से प्राप्त होने वाले राजस्व का सामाजिक सेवाओं, विशेषकर लोक शिक्षा और लोक स्वास्थ्य पर अधिक उपयोग किया जाना चाहिए।

इस प्रक्रिया को हमने 1989 में प्रकाशित अपनी पुस्तक हंगर एण्ड पब्लिक एक्शन (प्रका. : ऑक्सफोर्ड यूनीवर्सिटी प्रेस, 1989) में प्रगति-जनित विकास कहा था। यह विकास का एक अति महत्वपूर्ण हिस्सा हो सकता है, परन्तु हमें स्पष्ट रूप से यह पता होना चाहिए कि केवल त्वरित आर्थिक विकास के बल पर हम क्या हासिल कर सकते हैं और उपर्युक्त सहायता के बिना क्या नहीं हासिल किया जा सकता? सतत आर्थिक प्रगति न केवल आय में वृद्धि की एक बड़ी शक्ति बन सकती है, बल्कि उससे लोगों के जीवन-स्तर और जीवनशैली में भी सुधार लाने में मदद मिल सकती है। परन्तु जीवन-स्तर पर आर्थिक प्रगति का प्रभाव और विकास प्रक्रिया की प्रकृति जन-नीतियों पर निर्भर करती है (जैसे इसकी वर्गवार संरचना और रोजगार की क्षमता)। इनमें बुनियादी शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं का विशेष महत्व है, क्योंकि इन्हीं के बलबूते आम लोगों को विकास की प्रक्रिया में हाथ बँटाने और उसका फल चखने का अवसर मिलता है। भारत में एक और चीज है जिस पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है, वह है— प्रगति का विध्वंसक पहलू। इसमें पर्यावरण की लूट और लोगों का अनिच्छा से विस्थापन सम्मिलित है। विकास परियोजनाओं के कारण जनजातीय समूहों को अनिच्छा से अपना घर-द्वार-खेत छोड़ना होता है।

भारत की हालिया आर्थिक उपलब्धियाँ काफी उल्लेखनीय हैं। यह देखते हुए कि आय के व्यापक पुनर्वितरण के बाद भी जीवन-स्तर को एक उचित स्तर पर बनाए रखा जा सकता है, भारत को त्वरित आर्थिक विकास की आवश्यकता है। परन्तु इन सबके बावजूद वंचित वर्गों के जीवन-स्तर में बदलाव लाने के लिए केवल आर्थिक विकास पर निर्भर रहना एक भूल हो सकती है। अपनी पुस्तक हंगर एण्ड पब्लिक एक्शन में हमने प्रगति-जनित विकास के साथ-साथ दिशाहीन समृद्धि के खतरे की ओर भी ध्यान आकर्षित किया है। आर्थिक समृद्धि और विस्तार का बँटवारा कैसे होगा अथवा इसका लोगों के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ेगा, इस तथ्य पर विचार किए बिना आर्थिक विकास के पीछे हाथ धोकर पड़ जाना खतरनाक भी हो सकता है।

पिछले बीस वर्षों में भारत बांग्लादेश की अपेक्षा अधिक सम्पन्न हुआ है। प्रति व्यक्ति आय 1990 में, जहाँ बांग्लादेश के मुकाबले भारत में 60 प्रतिशत अधिक थी, वहीं 2010 में यह बढ़कर 98 प्रतिशत अधिक हो गई। परन्तु इसी अवधि में बांग्लादेश तमाम बुनियादी सामाजिक संकेतकों के मामले में भारत से आगे निकल गया है। औसत आयु, बच्चों के जीवन, प्रजनन दर, टीकाकरण और शिक्षा के कुछ संकेतकों के मामले में बांग्लादेश भारत से आगे निकल चुका है।1980 के दशक के उत्तरार्ध में ब्राजील इसका सर्वोत्तम उदाहरण था, जहाँ त्वरित आर्थिक विकास के साथ-साथ वंचितों की संख्या भी बढ़ती गई। दक्षिण कोरिया की अपेक्षाकृत न्यायसंगत विकास प्रणाली के साथ ब्राजील की प्रगति की तुलना करते हुए हमने लिखा था, ‘‘यह खतरा बना हुआ है कि भारत दक्षिण कोरिया के बजाय ब्राजील का रास्ता अपना सकता है।’’ इस बीच, ब्राजील ने अपना रास्ता काफी बदल दिया है और सामाजिक सुरक्षा तथा आर्थिक पुनर्वितरण के साथ-साथ निःशुल्क और सर्वसाधारण के लिए स्वास्थ्य सुविधा की संवैधानिक गारण्टी जैसे साहसिक कार्यक्रम शुरू किए हैं। यही एक कारण है कि ब्राजील में अच्छी प्रगति हो रही है। उदाहरण के लिए वहाँ बाल मृत्युदर इस समय प्रति 1,000 जन्म पर मात्र 19 हो गई है, जबकि भारत में यह संख्या 48 प्रति हजार है। इसी प्रकार 15-24 वर्ष की महिलाओं की साक्षरता का प्रतिशत जहाँ भारत में 74 है, वहीं यह ब्राजील में 99 है। ब्राजील में केवल 2.2 प्रतिशत बच्चों का ही वजन निर्धारित मानक से कम है, जबकि भारत में ऐसे बच्चों का प्रतिशत 44 है। भारत को जहाँ विश्व के अन्य देशों में पूर्व में अपनाए गए प्रगति-जनित विकास के अनुभवों से बहुत कुछ सीखना है, वहीं उसे दिशाहीन समृद्धि से भी बचना होगा। निर्धनों के जीवन-स्तर में सुधार लाने का यह तरीका विश्वसनीय नहीं है।

दक्षिण एशिया में भारत की अवनति


भारत की विकास रणनीति में कहीं-न-कहीं कुछ कमी है, इसका एक संकेत इसी बात से मिलता है कि सामाजिक संकेतकों के मामले में भारत दक्षिण एशिया के अन्य सभी देशों (केवल पाकिस्तान को छोड़कर) के पीछे आ गया है। हालाँकि प्रति व्यक्ति आय के मामले में भारत में अच्छी प्रगति हो रही है। इसे तालिका-1 में दर्शाया गया है।

तालिका-1 : दक्षिण एशियाचुनिन्दा संकेतक (1990 और अन्तिम सूचना तक)


दक्षिण एशिया

चीन

भारत

बांग्लादेश

भूटान

नेपाल

पाकिस्तान

श्रीलंका

प्रति व्यक्ति जीएनआई (पीपीपी डॉलर में)

1990

2010

877

3560

543

1,800

1,280

4,950

513

1,200

1,210

2,780

1,420

4,980

813

7,570

जन्म पर जीवन प्रत्याशा (वर्ष)

1990

2010

58

64

54

67

52

67

54

67

61

67

69

74

68

73

शिशु मृत्युदर (प्रति 1,000 जीवित जन्म)

1990*

2010

81

48

99

38

96

44

97

41

96

70

26

14

38

16

5 वर्ष से नीचे के बच्चों में मृत्युदर

1990*

2010

115

63

143

48

139

56

141

50

124

87

32

17

48

18

मातृ मृत्यु अनुपात

1990

2008

570

230

870

340

940

200

870

380

490

260

91

39

110

38

कुल प्रजनन दर (प्रति महिला बच्चों की संख्या)

1990*

2009

3.9

2.7

4.5

2.3

5.7

2.5

5.2

2.8

6.0

3.5

2.5

2.3

2.3

1.6

बेहतर स्वच्छता की सुविधा (प्रतिशत में)

1990

2008

18

31

39

53

65

11

31

28

45

70

91

41

55

बाल टीकाकरण (डीपीटी, प्रतिशत)

1990*

2008

59

66

64

94

88

96

44

82

48

80

86

98

95

96

शिशु टीकाकरण (खसरा)

1990*

2008

47

71

62

98

87

97

57

80

50

82

78

97

95

94

विद्याध्ययन के औसत वर्ष

1990

2010

3.0

4.4

2.9

4.8

2.0

3.2

2.3

4.9

6.9

8.2

4.9

7.6

महिला साक्षरता दर, आयु 15-24 वर्ष  (प्रतिशत)

1991

2009

49

74

38

77

68

33

77

61

93

99

91

99

कम वजन वाले बच्चों का अनुपात लगभग

1990

2007

59.5

43.5

61.5

41.3

34

12

38.8

39

29

21.6

13

4.5

* सन्दर्भ वर्ष में तीन वर्ष का औसत-केन्द्रित (यथा— 1989-91 का औसत जबकि सन्दर्भ वर्ष 1990 है)।

(क) चीन के लिए 1990, श्रीलंका के आँकड़े 1981 और 2001 के बीच के आँकड़ों का अन्तर्वेशन है।

(ख) भारत के लिए 2006, भूटान के लिए 2005, पाकिस्तान और श्रीलंका के लिए 2008, अन्य देशों के लिए 2009 (ताजा विश्व बैंक अनुमान)।

(ग) भूटान के लिए 1988, पाकिस्तान के लिए 1991, श्रीलंका के लिए 1987

(घ) चीन के लिए 2005, भारत और नेपाल के लिए 2006, बांग्लादेश के लिए 2007, भूटान के लिए 2008, श्रीलंका के लिए 2009 (ताजा विश्व बैंक अनुमान)।

स्रोत: विद्याध्ययन और जीवन-प्रत्याशा के औसत वर्षमानव विकास रिपोर्ट, 2010; अन्य संकेत विश्व विकास संकेतकों से लिए गए हैं।


शुरुआत में बांग्लादेश और भारत के बीच तुलना करना उपयुक्त होगा। पिछले बीस वर्षों में भारत बांग्लादेश की अपेक्षा अधिक सम्पन्न हुआ है। प्रति व्यक्ति आय 1990 में, जहाँ बांग्लादेश के मुकाबले भारत में 60 प्रतिशत अधिक थी, वहीं 2010 में यह बढ़कर 98 प्रतिशत अधिक हो गई। परन्तु इसी अवधि में बांग्लादेश तमाम बुनियादी सामाजिक संकेतकों के मामले में भारत से आगे निकल गया है। औसत आयु, बच्चों के जीवन, प्रजनन दर, टीकाकरण और शिक्षा के कुछ संकेतकों के मामले में बांग्लादेश भारत से आगे निकल चुका है। उदाहरण के लिए, 1990 में भारत के लोगों की औसत आयु बांग्लादेश के मुकाबले 4 वर्ष अधिक थी, जो 2008 आते-आते तीन वर्ष कम हो गई। बांग्लादेश की प्रति व्यक्ति आय भारत की आधी से भी कम होने के बावजूद, उसके सामाजिक संकेतक भारत से बेहतर दिखाई देते हैं।

यह कोई मामूली बात नहीं है कि नेपाल भी तेजी से भारत को छूने की कोशिश में लगा है और कुछ मामलों में तो वह भारत से आगे भी निकल गया है। सामाजिक संकेतकों के क्षेत्र में नेपाल 1990 तक प्रायः सभी मामलों में भारत से पीछे था, परन्तु आज दोनों देशों के सामाजिक संकेतक लगभग एक जैसे हैं। कहीं-कहीं भारत अभी भी बेहतर बना हुआ है तो कहीं-कहीं मामला इसके विपरीत है और यह सब उस स्थिति में है जब भारत की प्रति व्यक्ति आय नेपाल से लगभग तीन गुना अधिक है।

इसी विषय को दूसरे कोण से देखने का प्रयास तालिका-2 में किया गया है। तालिका में 1990 और वर्तमान में, दक्षिण एशिया के 6 प्रमुख देशों में भारत के क्रम को दर्शाया गया है। अपेक्षा के अनुसार, प्रति व्यक्ति आय के मामले में, भारत के क्रम में सुधार हुआ है और वह चौथे से तीसरे स्थान पर आ गया है। परन्तु अन्य तमाम मामलों में भारत का क्रम और नीचे आ गया है। कुछ मामलों में तो काफी तेजी से गिरावट आई है। कुल मिलाकर देखा जाए तो 1990 में भारत के सामाजिक संकेतक दक्षिण एशिया में श्रीलंका के बाद सबसे अच्छे थे। परन्तु अब दूसरा सबसे खराब प्रदर्शन भारत का रहा है। उसके नीचे केवल पाकिस्तान का स्थान है। अपने दक्षिण एशियाई पड़ोसियों की ओर जब भारत के गरीब देखते हैं तो वे हैरत में पड़ जाते हैं कि आर्थिक विकास से आखिर उन्हें क्या हासिल हुआ है?

तालिका-2 : दक्षिण एशिया में भारत का स्थान (6 देश)

संकेतक

6 दक्षिण एशियाई देशों में भारत का स्थान

(शीर्ष = 1, निम्न = 6)

1990 में

2009 के आसपास

1.

प्रति व्यक्ति जीएनआई

4

3

2.

जीवन प्रत्याशा

3

6

3.

शिशु मृत्युदर

2

5

4.

5 वर्ष से नीचे बाल मृत्युदर

2

5

5.

मातृ मृत्यु अनुपात

3

3

6.

कुल प्रजनन दर

2

4

7.

बेहतर साफ-सफाई की स्थिति

4-5

5-6

8.

बाल टीकाकरण (डीपीटी)

4

6

9.

बच्चों को खसरे का टीका

6

6

10.

विद्याध्ययन के औसत वर्ष

2-3

4-5

11.

महिला साक्षरता दर 15-24 वर्ष आयु वर्ग

2-3

4

12.

कुपोषित बच्चों का समानुपात

4-5

6

क भूटान (अथवा नेपालकुपोषित बच्चों के मामले में) के आँकड़ों के उपलब्ध न होने के कारण अस्पष्ट क्रम।

स्रोत : देखें तालिका-1, जिन 6 देशों का उल्लेख किया गया है वे हैंबांग्लादेश, भूटान, भारत, नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका।


व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता


भारत में नीतिगत चर्चाओं में प्रगति-जनित विकास की आवश्यकता को बिल्कुल ही नजरअन्दाज नहीं किया गया है। ‘समावेशी विकास’ का जो सरकारी लक्ष्य है, वह लगभग इसी प्रकार के कार्य का दावा करता है। परन्तु, समावेशी विकास का जो लुभावना नारा दिया गया है वह अभिजात्य नीतियों के साथ ही आगे बढ़ रहा है। इससे समाज दो अलग-अलग राहों पर चलता दिखाई देता है। एक ओर तो कुछ विशेष वर्गों के लिए ‘विश्व-स्तरीय’ उत्कृष्ट सुविधाएँ जुटाई जा रही हैं, वहीं दूसरी ओर, वंचित वर्गों के साथ दूसरे दर्जे का व्यवहार हो रहा है। या तो उन्हें अपने हाल पर छोड़ दिया गया है, या फिर वे दमन के शिकार हो रहे हैं; जैसाकि आमतौर पर बिना उचित मुआवजे के उनकी जबरन बेदखली के मामलों में प्रायः देखने को मिलता है। सामाजिक नीतियों का जहाँ तक सवाल है, वे काफी प्रतिबंधात्मक (राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी अधिनियम जैसे कुछ महत्वपूर्ण प्रयासों के बावजूद) बनी हुई हैं और फौरी तौर पर उनको निपटाने की कोशिश की जा रही है। सशर्त नकदी अन्तरण इसी तरह की कोशिश का एक उदाहरण है। इस तरह की सुविधा, आमतौर पर ‘गरीबी रेखा से नीचे’ के परिवारों को ही दी जाती है। यह एक ऐसा वर्ग है जिसकी संख्या प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि के साथ-साथ कम होती जाती है। इससे यह भ्रम हो सकता है कि सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों से समस्याओं का स्वतः अन्त हो सकता है।

भारत में नकद अन्तरण (नकद सहायता) को अब सामाजिक नीति की सम्भावित आधारशिला के रूप में देखा जाने लगा है। जो कि प्रायः दक्षिण अमेरिकी देशों के अनुभवों के गलत निष्कर्षों पर आधारित है। निश्चित रूप से कुछ परिस्थितियों में नकद अन्तरण के पक्ष में सुदृढ़ तर्क (सशर्त अथवा बिना शर्त) है; ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार जिंस के अन्तरण के पक्ष में कुछ अच्छे तर्क हैं। यथा— विद्यालयीय छात्रों के लिए मध्याह्न भोजन। परन्तु इसमें जो खतरा है, वह इस भ्रम को लेकर है कि नकद अन्तरण (साफ-साफ कहें तो सशर्त नकद अन्तरण) लोक सेवाओं का स्थान ले सकता है और उससे लाभार्थियों को निजी सेवा प्रदाताओं से शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी सेवाएँ प्राप्त करने के लिए मनाया जा सकता है। जीवन-स्तर में बदलाव लाने के बारे में व्यावहारिक अनुभव के आधार पर इसे सिद्ध करना न केवल कठिन है, बल्कि यूरोप, अमेरिका, जापान और पूर्वी एशिया के ऐतिहासिक अनुभवों के पूर्णतः विपरीत भी है। इसके अलावा, यह ब्राजील, मैक्सिको अथवा अन्य सफल उदाहरणों जैसा भी नहीं है जहाँ नकद अन्तरण आज काम कर रहा है।

दक्षिणी अमेरिका में, स्वास्थ्य, शिक्षा और अन्य बुनियादी सेवाओं जैसी लोक व्यवस्था के लिए सशर्त नकद अन्तरण, आमतौर पर एक पूरक के रूप में काम करते हैं, विकल्प के रूप में नहीं। ये प्रोत्साहन पूरक के रूप में काम करते हैं क्योंकि बुनियादी लोक सेवाएँ वहाँ पहले से ही मौजूद होती हैं। उदाहरणार्थ, ब्राजील में टीकाकरण, प्रसव-पूर्व देखभाल और जन्म पर कुशल हाथों द्वारा देखभाल जैसी बुनियादी स्वास्थ्य सेवाएँ वस्तुतः सभी को प्राप्त हैं। सरकार ने अपना गृहकार्य ठीक से किया है— ब्राजील में समस्त स्वास्थ्य व्यय का लगभग आधा, सरकारी व्यय होता है; जबकि इसकी तुलना में भारत में कुल स्वास्थ्य व्यय पर मुश्किल से एक-चौथाई भाग ही सरकार खर्च करती है। इस स्थिति में, स्वास्थ्य सेवा के पूर्ण लोक-व्यापीकरण के लिए प्रोत्साहन देना बुद्धिमानी की बात होगी। परन्तु भारत मं ये बुनियादी सुविधाएँ अभी भी दुर्लभ हैं और सशर्त नकद अन्तरण से इस कमी को दूर नहीं किया जा सकता।

हाल के वर्षों में बीपीएल को लक्षित कर बनाई गई योजनाओं के खतरे अब साफ दिखने लगे हैं। पहले तो निर्धन परिवारों की पहचान का कोई विश्वसनीय तरीका नहीं है। उनके छूट जाने की त्रुटियों की सम्भावना काफी ज्यादा है। कम-से-कम तीन राष्ट्रीय सर्वेक्षणों से यह पता चलता है कि 2004-05 के आसपास, ग्रामीण भारत के करीब आधे गरीब परिवारों के पास ‘बीपीएल कार्ड’ नहीं था। दूसरे, भारत में ‘गरीबी’ की रेखा बहुत ही नीचे खिंची हुई है। अतः यदि सभी गरीब परिवारों को बीपीएल कार्ड दे भी दिए जाएँ, तो भी ऐसे तमाम लोग बाकी रह जाएँगे जिन्हें सामाजिक सहायता की अतीव आवश्यकता है। वे तो सामाजिक सुरक्षा प्रणाली से बाहर ही रह जाएँगे। तीसरे, बीपीएल को लक्षित कर योजना बनाना एक विभाजनकारी प्रयास है और यह कार्यकुशल सामाजिक सेवाओं की लोगों की माँग की एकता और शक्ति को कमजोर बनाता है।

सामाजिक नीति में व्यापकता की शक्ति का पता न केवल अन्तरराष्ट्रीय और ऐतिहासिक अनुभव से चलता है, वरन भारत में ही वर्तमान अनुभव से भी इसका पता चलता है। भारत में कम-से-कम तीन राज्य ऐसे हैं जिनमें सर्वसाधारण के लिए आवश्यक सेवाओं का प्रावधान किया जाना एक स्वीकार्य सिद्धांत बन गया है। केरल में व्यापक सामाजिक नीतियों का एक लम्बा इतिहास है, विशेषकर, प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में। सरकारी खर्च पर सबके लिए शिक्षा का सिद्धांत 1817 में ही तत्कालीन रियासत त्रवणकोर में राज्य नीति का उद्देश्य बन चुका था। प्रारम्भ में ही, प्राथमिक शिक्षा का लोक-व्यापीकरण केरल की तमाम सामाजिक उपलब्धियों की आधारशिला रही है।

विकास के बारे में भारत के हाल के अनुभवों में शानदार सफलता के साथ-साथ भारी विफलता भी जुड़ी हुई है। आर्थिक प्रगति अत्यधिक प्रभावी रही है और बहुमुखी विकास के लिए एक महत्वपूर्ण आधार प्रदान करती है। सार्वजनिक राजस्व में, 1990 की तुलना में चार गुनी अधिक वृद्धि हुई है परन्तु विफलताएँ भी हैं। जिससे यह स्पष्ट होता है कि त्वरित विकास से भारतीयों की परिस्थितियों में भी सुखद बदलाव आएगा, यह कोई निश्चित नहीं।तमिलनाडु में सामाजिक नीतियों के क्रमिक विकास और उसके सुदृढ़ीकरण के बारे में लोग ज्यादा नहीं जानते, परन्तु इससे उनका महत्व कम नहीं हो जाता। तमिलनाडु देश का पहला राज्य था जहाँ प्राथमिक विद्यालयों में सभी बच्चों को मध्याह्न भोजन निःशुल्क रूप से देने की योजना शुरू की गई थी। इस प्रयास को उस समय ‘लोक लुभावन’ कार्यक्रम कहकर आलोचना की गई, परन्तु बाद में, यही भारत के राष्ट्रीय मध्याह्न भोजन कार्यक्रम का आदर्श बन गया। इसकी ‘केन्द्र प्रायोजित योजनाओं’ में सबसे अच्छे कार्यक्रमों में गणना होती है। शिशु एवं छोटे बच्चों की देखभाल के लिए तमिलनाडु में जो मार्गदर्शी पहल की गई, उसी से प्रेरणा लेकर ‘आँगनबाड़ी’ योजना को मूर्त रूप दिया गया, जो आज देश के हर गाँव में विद्यमान है। अन्य अनेक राज्यों के विपरीत, तमिलनाडु में जीवन्त और प्रभावी केन्द्रों का एक व्यापक संजाल बिछा हुआ है, जहाँ सभी सामाजिक पृष्ठभूमि के लोगों को निःशुल्क रूप से उचित स्वास्थ्य चिकित्सा सुविधाएँ उपलब्ध हैं। सार्वजनीन सामाजिक कार्यक्रम का एक और उदाहरण, राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी अधिनियम (नरेगा) पर भी तमिलनाडु में अच्छा काम हो रहा है। काफी लोगों को रोजगार मिल रहा है। मजूदरी का भुगतान, आमतौर पर, समय पर होता है और हेराफेरी अपेक्षाकृत कम है। और तो और, तमिलनाडु में एक ऐसी सार्वजनीन सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) है जो न केवल लोगों को अनाज वितरित करती है, बल्कि तेल, दालें और अन्य जरूरी वस्तुएँ भी देती है।

हिमाचल प्रदेश में यह सिलसिला केरल और तमिलनाडु के काफी बाद शुरू हुआ। परन्तु तेजी से बढ़ रहा है। प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में यह अधिक स्पष्ट दिखाई देता है। स्वतन्त्रता के समय बिहार अथवा उत्तर प्रदेश की तरह हिमाचल प्रदेश में भी साक्षरता का स्तर काफी निराशाजनक था, परन्तु कुछ ही दशकों में यह प्रदेश केरल जैसे सर्वोत्कृष्ट प्रदर्शन वाले राज्य के समकक्ष आ खड़ा हुआ है। शिक्षा में यह क्रान्ति सरकारी विद्यालयों की लोक-व्यापी नीति के फलस्वरूप ही सम्भव हो सकी है। आज भी हिमाचल प्रदेश में प्राथमिक शिक्षा अधिकांशतः सार्वजनिक क्षेत्र में है। तमिलनाडु की भाँति, हिमाचल प्रदेश में भी एक बढ़िया सार्वजनिक वितरण प्रणाली काम कर रही है, जो न केवल अनाज बल्कि दालें और तेल भी प्रदान करती है। यहाँ गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) और गरीबी रेखा से ऊपर (एपीएल) दोनों प्रकार के परिवारों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली का लाभ मिलता है। हिमाचल प्रदेश ने न केवल आवश्यक सामाजिक सेवाओं के क्षेत्र में (विद्यालयीन सुविधाओं, स्वास्थ्य सुविधाओं और बच्चों की देखभाल सहित) व्यापक सिद्धांतों का अनुसरण किया है, बल्कि सड़क, बिजली, पेयजल और सार्वजनिक परिवहन जैसी बुनियादी सुविधाओं के मामले में भी यही नीति अपनाई गई है। उदाहरणार्थ, दुर्गम भौगोलिक स्थिति और बिखरी हुई बस्तियों के बावजूद 2005-06 में हिमाचल प्रदेश के 98 प्रतिशत घरों में विद्युत सुविधा उपलब्ध थी।

सम्भवतः यह कोई संयोग नहीं है कि केरल, तमिलनाडु और हिमाचल प्रदेश, सामाजिक संकेतकों के मामले में भी सभी बड़े राज्यों से आगे हैं। उदाहरण के तौर पर देखा जाए तो बाल स्वास्थ्य, शिक्षा और पोषाहार के क्षेत्र में ये तीनों राज्य सबसे ऊपर के क्रम में आते हैं। व्यापक ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक विभिन्नताओं के बावजूद तीनों ने सामाजिक नीति पर एक समान दृष्टिकोण अपनाया है और परिणाम भी एक जैसे ही हैं। ये तीनों राज्य न केवल अन्य राज्यों के लिए, बल्कि पूरे देश के लिए एक अनुकरणीय सबक हैं।

उपसंहार


हमें आशा है कि जिस पहेली के साथ हमने यह आलेख शुरू किया था, वह अब अधिक समझ में आ रही होगी। विकास के बारे में भारत के हाल के अनुभवों में शानदार सफलता के साथ-साथ भारी विफलता भी जुड़ी हुई है। आर्थिक प्रगति अत्यधिक प्रभावी रही है और बहुमुखी विकास के लिए एक महत्वपूर्ण आधार प्रदान करती है। सार्वजनिक राजस्व में, 1990 की तुलना में चार गुनी अधिक वृद्धि हुई है परन्तु विफलताएँ भी हैं। जिससे यह स्पष्ट होता है कि त्वरित विकास से भारतीयों की परिस्थितियों में भी सुखद बदलाव आएगा, यह कोई निश्चित नहीं। ऐसा नहीं है कि उसमें कुछ सुधार हुआ ही नहीं है, परन्तु सुधार की गति बहुत धीमी रही है— बांग्लादेश और नेपाल से भी धीमी। विश्व के इतिहास में विकास के मामले में ऐसा कोई उदाहरण नहीं है कि इतने लम्बे समय तक इतनी तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था में व्यापक सामाजिक प्रगति के नतीजे इतने सीमित रहे हों।

इस विरोधाभास में कोई रहस्य नहीं है और न ही भारत के विकास प्रयासों के सीमित विस्तार में कोई रहस्य है। दोनों ही इस अवधि में नीतिगत प्राथमिकताओं की प्रकृति को परिलक्षित करते हैं। परन्तु इन प्राथमिकताओं को लोकतान्त्रिक प्रयासों से बदला जा सकता है, जैसा कुछ राज्यों में कुछ हद तक हुआ है। इसके लिए, विकास सम्बन्धी मसलों पर भारत में सार्वजनिक चर्चा के दायरे को व्यापक विस्तार देना होगा। मीडिया द्वारा जगाई गई दिलचस्पी के कारण कुछ थोड़े से सम्पन्न लोगों के बारे में जो आवश्यकता से अधिक ध्यान दिया जाता है, वह भारत की प्रगति की सही तस्वीर नहीं है। समृद्धि की वह तस्वीर अवास्तविक है। इससे अन्य विषयों पर लोक संवाद नहीं हो पाता। भारत की वैकासिक उपलब्धियों के विस्तार के लिए कल्पनाशील लोकतान्त्रिक पद्धति अनिवार्य है।

(लेखकद्वय में से प्रथम दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स में मानद प्रोफेसर और इलाहाबाद के जी.बी. पंत समाजविज्ञान संस्थान में वरिष्ठ प्रोफेसर हैं तथा दूसरे नोबेल पुरस्कार प्राप्त अर्थशास्त्री हैं।)
ई-मेल: jaandaraz@gmail.com

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