विकास ढांचा बदलने से नदियों की मुक्ति


गंगा की मुक्ति के लिए काम करने वाले एक बार पुन: उत्साहित हैं। आखिर केन्द्र सरकार के मंत्रिमण्डलीय समूह ने लोहारी नागपाला जल विद्युत परियोजना पर काम रोक दिया है।

साथ ही केन्द्र सरकार ने गोमुख से उत्तरकाशी तक के 135 किलोमीटर क्षेत्र को पर्यावरण की दृष्टि से अतिसंवेदनशील घोषित किया है। लोहारी नागपाला परियोजना बन्द होने से गंगा बतौर नदी विलुप्त होकर 16 किलोमीटर के सुरंग में बहने से बच गयी है। अनशन पर बैठे पर्यावरणविद् गुरुदास अग्रवाल की तो एकमात्र मांग ही यही थी कि गोमुख से उत्तरकाशी तक गंगा के प्रवाह को अविरल रहने दिया जाए। उनके अनशन के साथ सक्रिय लोग अगर इसे अपनी विजय मान रहे हैं तो यह स्वाभाविक है। स्वयं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने हरिद्वार जाकर अनशनरत अग्रवाल से मुलाकात कर केन्द्र के इस निर्णय से अवगत कराया। हालांकि केवल अतिसंवेदनशील घोषित करना इस बात की गारण्टी नहीं है कि उस क्षेत्र में गंगा पर आगे कोई परियोजना आरम्भ नहीं होगी, किन्तु भविष्य में परियोजना का विचार करते समय सरकारी महकमा पहले से ज्यादा गम्भीर होगा। साथ ही विरोधियों के लिए इस निर्णय को आधार बनाकर संघर्ष करना भी आसान रहेगा।

केन्द्रीय ऊर्जा मंत्री सुशील कुमार शिन्दे ने सभी सार्वजनिक प्रतिष्ठानों को निर्देश दिया है कि बिजली परियोजनाएं तैयार करते समय पारिस्थितिकी प्रभावों का तथ्य आधारित आकलन किया जाए। यदि गंगा मुक्ति की मांग सामने नहीं आती तो शायद ही सरकार तत्काल इस दिशा में विचार करती। किन्तु इसका दूसरा पहलू भी है, जो कहीं ज्यादा गम्भीर है। नि:स्संदेह, गंगा जैसी जीवनदायिनी नदी के लिए आदर्श स्थिति यही होगी कि वह अविरल रहे, उसके साथ विकास के नाम पर किसी प्रकार की छेड़छाड़ न हो। केन्द्र सरकार ने गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित किया है। किसी भी प्राकृतिक सम्पदा को राष्ट्रीय घोषित करने का मतलब ही यही होता है कि उसे संरक्षित रखने के लिए हरसम्भव यत्न किया जाएगा। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि लोहारी नागपाला परियोजना पर पहले काम रोका जा चुका था और गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करने के बाद काम दोबारा आरम्भ हुआ।

वैसे उत्तराखण्ड सरकार के अन्दर भी इस पर एकमत स्थिति नहीं है। सरकार में कई ऐसे लोग शामिल हैं जो गंगा बचाओ आन्दोलन चलाने वालों या उत्तराखण्ड नदी बचाओ आन्दोलन के बारे में कभी अच्छे शब्द का प्रयोग नहीं करते। यह वही भाव है जो गुजरात में नर्मदा बचाओ आन्दोलन के खिलाफ बना हुआ है। ये इसे जन विरोधी भी कहते हैं।

यह तो संयोग कहिए कि जब से अभियान ने थोड़ा जोर पकड़ा है, उत्तराखण्ड में भाजपा की सरकार है जो चाहकर भी भारतीय संस्कृति एवं धार्मिक मान्यताओं के विरुद्ध जाती नहीं दिखना चाहती। मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने तो अग्रवाल के अनशन के बाद प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर गंगा की अविरलता एवं पवित्रता को बचाने की अपील कर दी। चूंकि अग्रवाल के अनशन के बाद गोविन्दाचार्य सक्रिय हो गये और उनके संरक्षण में बनी गंगा महासभा उपस्थित हो जाती है, इसलिए इसका राज्य सरकार पर असर होता है। अन्यथा जो आम माहौल है उसमें अग्रवाल का अनशन बेअसर हो जाता।

अग्रवाल ने तो कभी जनान्दोलन करने का विचार भी नहीं किया, किन्तु उत्तराखण्ड नदी बचाओ आन्दोलन ने प्रदेश में एक साथ तीन दर्जन से ज्यादा यात्राएं निकालकर इसे जनान्दोलन का स्वरूप देने की पहल की। इसे कहीं-कहीं स्थानीय समर्थन मिला, फिर भी इससे प्रदेश की जनता का व्यापक जुड़ाव नहीं हुआ। साध्वी समर्पिता की लोहारी नागपाला परियोजना के सामने धरना-प्रदर्शन के साथ भी यही हुआ। इस बार भी अग्रवाल के अनशन का केन्द्र सरकार ने संज्ञान इस कारण लिया, क्योंकि स्वामी रामदेव जैसे व्यक्तित्व सड़क पर उतर गये, गोविन्दाचार्य सहित कई लोगों ने उनको बचाने के लिए केन्द्र का दरवाजा खटखटाया।

गंगा मुक्ति पर विचार करते समय यह नहीं भूलना चाहिए कि उत्तराखण्ड में सभी नदियों पर छोटी-बड़ी 600 से ज्यादा जल विद्युत परियोजनाएं हैं। 42 किमी तक टिहरी परियोजना ही फैली है। मनेरी भाला प्रथम चरण परियोजना के लिए जो सुरंग और जलाशय बन गये हैं, उनका अन्त किये बगैर गोमुख से उत्तरकाशी तक भी गंगा अविरल नहीं हो सकती। सच कहें तो ऐसा हो पाना अभ्ब भी दूर की कौड़ी है। अगर प्रदेश सरकार या कांग्रेस के लिए नदियों की अविरलता एवं पवित्रता का इतना ही महत्व है तो वे इन सबको नि:षेश कर दें। इस समय कोई सरकार ऐसा नहीं कर सकती। ध्यान रहे कि मुख्यमंत्री निशंक केन्द्र से 2000 मेगावाट बिजली की मांग कर रहे हैं। इसका निहितार्थ समझने की जरूरत है। विकास के इस ढांचे में अगर उत्तराखण्ड अपने प्रमुख प्राकृतिक संसाधन जल से पर्याप्त बिजली नहीं बना पाएगा तो उसे कहीं से तो बिजली चाहिए।

आगामी चुनाव में निशंक को जनता का सामना करना है और वे गेंद केन्द्र के पाले में डालना चाहते हैं। वास्तव में गंगा की मुक्ति इस सम्पूर्ण विकास ढांचे से जुड़ी है। पूर्व कांग्रेस सरकार हो या वर्तमान भाजपा की, दोनों ने उत्तराखण्ड को ऊर्जा प्रदेश बनाने को अपना लक्ष्य बनाया। योजना नदियों का उपयोग करते हुए अधिकाधिक जल बिजली का उत्पादन करने की थी ताकि प्रदेश के विकास की गाड़ी इसकी ऊर्जा से सरपट दौड़े एवं दूसरे प्रदेशों को बिजली बेचकर अच्छी आय पैदा की जाए।

इस लक्ष्य में पिछड़ने का अर्थ वर्तमान आर्थिक ढांचे में विकास की दौर में पिछड़ जाना है। जो लोग गंगा के अविरल प्रवाह एवं पवित्रता की बात करते हैं वे भाजपा को वोट नहीं दिला सकते। जब विरोधी पार्टी यह आंकड़ा देगी कि इस सरकार ने एक यूनिट भी अतिरिक्त बिजली पैदा नहीं की एवं प्रदेश को विकास के रास्ते पीछे धकेला, तो सरकार के लिए जवाब देना कठिन होगा। विकास के वर्तमान औद्योगिक प्रधान ढांचे की मंशा गंगा या अन्य नदियों के जल का बिजली बनाने में अधिकाधिक उपयोग करना है ताकि इस ढांचे को ऊर्जा मिले। इस ढांचे के अन्त के बगैर ऐसा कोई भी प्रयास वैसे ही होगा जैसे पेट्रो उत्पाद से चलने वाले किसी बड़े वाहन में साइकिल टांगकर पर्यावरण संरक्षण की बात करना।

गंगा सहित अन्य नदियों की मुक्ति एवं वायुमण्डल को पवित्र बनाये रखने के लिए हमें इस विकास ढांचे से मुक्ति की दिशा में आगे बढ़ना ही होगा। इस ढांचे में आज एक सरकार ने लोहारी नागपाला परियोजना बन्द की तो कल कोई दूसरी सरकार इसी तरह का अन्य प्रोजेक्ट आरम्भ कर देगी। आखिर मुख्यमंत्री निशंक भी तो कह ही रहे हैं कि हम छोटी-छोटी परियोजनाएं चाहते हैं। इसलिए नदियों की मुक्ति के अभियान को विकास ढांचे में बदलाव की व्यापक मुहिम से सन्तुलित करना होगा।
 
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