दुनिया का इतिहास समाज के बदलते चरित्र की कहानी ही तो है। कहते हैं कि हड़प्पा की संस्कृति के लुप्त होने का कारण जलवायु परिवर्तन था। प्राकृतिक घटनाओं के फलस्वरूप होने वाले विनाश को तो शायद हम कभी रोक नहीं पाये और ये घटनाएँ समुदायों या उनकी पहचान की विलुप्ति का कारण बनती गई। 1940 के दशक में जब बंगाल में अकाल पड़ा और तीन लाख लोग अकाल के गाल में समा गए, तब भी लोग ही मरे थे। विकास और विस्थापन की बहस से कई मर्तबा गुजरने के बाद हम सबके सामने यह सवाल आया कि बिजली, सड़क, कारखाने या किसी तानाशाह की मनोवृत्ति को संतृप्त करने के लिये जब विकास की परिभाषा गढ़ी जाती है, तब क्या-क्या घटता है? अक्सर बहस इस बात पर आकर टिक जाती है कि विकास के लिये विस्थापन जरूरी है और जब किसी का विस्थापन होता है तो उसका अच्छे से पुनर्वास होना चाहिए।
बस यहाँ आकर विस्थापन से जुड़ी और बाकी की तमाम दुर्घटनाओं को विकास के कालीन के नीचे बुहार दिया जाता है। जो सवाल विकास के लाल मखमली कालीन के नीचे दबे हुए हैं (पर जिन्दा हैं) उनमें से एक सवाल उन समाजों की पहचान का भी है, जो विस्थापन की आँधी में इस तरह उड़ती है कि बस कुछ मत पूछिए। हम सोचते हैं कि इस समाज में जितना विकास हो रहा है उससे तो समाज और स्वतंत्र होना चाहिए, उसकी पहचान और साफ होना चाहिए। पर हो कुछ उल्टा रहा है।
हम अब और ज्यादा संग्रहालय (म्यूजियम) बना रहे हैं। इन संग्रहालयों में हमें क्या देखने को मिलता है? कुछ टूटे हुए बर्तन, कुछ घरों की प्रतिकृति आलों और ओटलों की नकल, पानी भरने वाले घड़े, चटाई और खाट, अनाज रखने वाले मिट्टी के भण्डार, बच्चों के खिलौने, उन चित्रों की प्रतिलिपि हैं जो घरों के दरवाजों पर उकेरे जाते रहे और भी शायद कई वस्तुएँ!
कुल मिलाकर समाज को हम दिखाते हैं कि देखिये। किसी जमाने में अलग-अलग समुदायों के लोग क्या करते थे, क्या पहनते थे, क्या गाते थे और कैसे रहते थे! वास्तव में संग्रहालय बताते हैं कि अब वह समुदाय या उसकी पहचान नहीं रही! जो कुछ भी इन संग्रहालयों में रखा जाता है, वह उन समाजों की संस्कृति और पहचान के अवशेष होते हैं, जो किसी कारण से खत्म हो गयी। कपडों पर की गयी बुनाई से लेकर अपने घर के दरवाजे पर बने हुए चित्रों तक, रसोई के बर्तनों से लेकर शिकार के हथियार तक.... .जो कुछ भी एक समाज रचता है, वह उसकी सांस्कृतिक पहचान बन जाता है।
हम सब जानते हैं कि यह पहचान बदलती रहती है और अक्सर खत्म भी हो जाती है। वास्तव में दुनिया का इतिहास समाज के बदलते चरित्र की कहानी ही तो है। कहते हैं कि हड़प्पा की संस्कृति (समुदाय) के लुप्त होने का कारण जलवायु परिवर्तन था।
प्राकृतिक घटनाओं के फलस्वरूप होने वाले विनाश को तो शायद हम कभी रोक नहीं पाये और ये घटनाएँ समुदायों या उनकी पहचान की विलुप्ति का कारण बनती गई। 1940 के दशक में जब बंगाल में अकाल पड़ा और तीन लाख लोग अकाल के गाल में समा गए, तब भी लोग ही मरे थे। लेकिन उनकी पहचान किसी न किसी रूप में जिन्दा रही और वक्त ने उसे फिर से स्वस्थ बना दिया।
हमारे सामने यह सवाल भी आया कि क्या पहले कभी भी इंसानी व्यवहार या कृत्यों के कारण कभी समुदायों की सांस्कृतिक पहचान खतम हुई? शायद विस्थापन समुदायों की पहचान को खत्म करता है। हमें अब तक इसका पूरा जवाब तो नहीं मिला है, पर विस्थापन की घटनाओं ने एक परीक्षण करने का अवसर जरूर दिया।
कुछ विशालकाय निर्माण परियोजनाओं, जिन्हें सभ्य भाषा में विकास परियोजनाएँ कहा जाता है, से प्रभावित समुदायों के मूल अधिकारों के मुद्दों पर अध्ययन करते हुए हमने अक्सर यह पाया कि इनके विषय और चुनौतियाँ बहुत भिन्न किस्म की हैं और यह भिन्नता विस्थापन के कारण है। बहुत आसानी से यह कह दिया जाता है कि बिजली, सिंचाई या परिवहन के लिये ऐसी परियोजनाएँ तो बनानी ही पड़ेगी। और जब इस तरह की परियोजनाएँ बनेगी, तो विस्थापन तो होगा ही।
जिनका विस्थापन होगा, उनका पुनर्वास कर दिया जायेगा। अब प्रश्न यह है कि जब विस्थापन होता है, तब किसका स्थान परिवर्तन होता है, क्या कभी भी सोचा गया है? जब यह कभी सोचा ही नहीं गया, तो फिर हम विकास के नाम पर होने वाले विस्थापन में पुनर्वास किसका करते हैं? वर्ष 2012 में हम श्योपुर जिले के पालपुर-कुनो अभ्यारण्य गए थे। वहाँ भी राष्ट्रीय अभ्यारण्य के लिये 27 गाँवों को विस्थापित किया गया था।
लोगों को तो विस्थापित कर दिया गया, लेकिन उन गाँवों की गायों को सरकार विस्थापित न कर पायी। लोग जाते समय अपनी गायों को भी साथ ले गए, पर कुछ समय बाद ही हजारों की संख्या में ये गायें वापस लौटकर अपने पुराने गाँवों को लौट आयीं। उन्होंने उस उजाड़ को महसूस किया था। वो निर्जीव नहीं थी। विस्थापन की दुर्घटना ने इन गायों को जंगली बना दिया। अब वे हमेशा आक्रोशित रहती हैं और आक्रमण भी करती हैं।
हम सोचते हैं इनका तो पुनर्वास हुआ था, परन्तु ये लौट कर उन्हीं उजड़े गाँवों कीं तरफ क्यों लौट गयीं? इसका जवाब है कि जीव का सम्बन्ध सम्पत्ति से नहीं, प्रकृति और परिवेश से होता है । वह जमीन से जुड़ा रहता है, वह पगडंडियों से जुड़ा रहता है, वह बरगद और आम के पेड़ से रिश्ता बना लेता है। उसे पहाड़ और नदियों से प्रेम हो जाता है। हवा का बहाव उसे सुकून देता है। वह यह सब अपने गाँव और अपने घर के आस-पास जुटाता है।
वह एक मजदूर, एक किसान, एक व्यापारी के रूप में दुनिया के किसी भी हिस्से में चला जाता है, पर वह सबसे सुरक्षित अपने गाँव-अपनी बस्ती में ही होता है। उसे कितनी भी भौतिक सुविधाएँ या वस्तुएँ किसी दूसरे शहर में मिल जायेँ, पर रिश्ते उसे हमेशा पुकारते हैं। उसके ये रिश्ते केवल माँ-बाप, भाई-बहन या पति-पत्नी होने से नहीं होते, हवा और पेड़ो से भी उसके रिश्ते होते हैं।
उसे अपने माहौल की भाषा, बोलियां, मादक पेय, नृत्य और रूप-प्रदर्शन सबसे ज्यादा आत्म-विश्वास देते हैं। हर एक इंसान को पता है कि यदि जीवन की जरूरत को पूरा करने के लिये घर के आस-पास ही संसाधन उपलब्ध हो, तो इससे बेहतर उपलब्धि कोई और नहीं है। जब विकल्प खत्म हो जाये, तब ही घर से बाहर कदम रखना। क्योंकि जिस (सामाजिक-पारिस्थितिकी से तुम्हारा रिश्ता नहीं है, वहाँ जीवन के सबसे सार्थक पल तुम्हें मिल न सकेंगे।
विकास के नाम पर होने वाला विस्थापन इसी भाषा-त्यौहार-उत्सव-सुरक्षा और प्रेम की संस्कृति के ताने-बाने को तोड़ कर रख देता है । बहुत ही बुनियादी भी बात है कि स्थानीय पारिस्थितिकी और संसाधन ही एक समुदाय को खाद्य सुरक्षा देते हैं। समुद्र के किनारे रह कर कोई गेहूँ की खेती नहीं कर सकता। वहाँ तो समुद्र ही भोजन देता है और इसी से मछली पालन लोगों की आजीविका जीवन का काम बन जाता है।
जंगल में रहने वाले ऐसी व्यवस्था बना लेते हैं कि अनाज से लेकर फल और मादक पेय तक सब कुछ बिना किसी कारखाने के पैदा कर लेते हैं और जिन्दगी जी लेते हैं। कभी भी वे आर्थिक गरीबी का रोना रोते नहीं पाये गए। इस तरह से संसाधनों पर आधारित काम-काज उन्हें सुखी करते रहे। इसीलिये तो उन्होंने जंगल, जमीन और समुद्र से अपने रिश्तों और काम-काज से जुड़े गीत और धुनें रच दीं, नृत्य गढ़ लिये।
जरा आप बताइये कि आज, जब पूरा जोर आर्थिक सम्पन्नता पर है, लोग अपने काम-काज से जुड़ाव रखते हुए क्या गीता-धुन-नृत्य रचते हैं या रच सकते हैं? विकास ने हमें शायद आर्थिक सम्पन्नता दी होगी शायद पर क्या खुद के गीत और नृत्य रचने दिये क्या?
हम सोचते हैं कि आजीविका और आय-अर्जन की गतिविधियों (लाइवलीहुड और इनकम जनेरशन एक्टिविटी) क्या एक ही मायनों वाले शब्द हैं? जंगलों और दूसरे प्राकृतिक संसाधनों से जीवन जोड़ने वाले बताते हैं कि आजीविका में जीवन्तता है और आय-अर्जन के काम में एक निर्जीवता! यानी आजीविका का काम भी संस्कृति का ही हिस्सा है, अटूट हिस्सा।
जब उनके पास बहुत मुद्रा न रही होगी, तब भी वे भूख से तो नहीं मरे, अब जबकि सबकुछ मुद्रा से मापा जा रहा है, तब विकास भूख पैदा कर रहा है। यह कैसा जाल है? विकास के लिये भीमकाय परियोजनाएँ, उन परियोजनाओं के लिये विस्थापन, उस विस्थापन से भुखमरी और अस्मिता की समाप्ति, इसी विकास से असमानता में वृद्धि और टकराव भी!
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Post By: RuralWater