कहा जाता है कि जब सौ साल पहले अंग्रेजों ने दिल्ली को राजधानी बनाया तो यहां छोटे-बड़े कोई 800 तालाब थे। आज मुश्किल से आठ तालाब बचे हैं। बाकी के नाम सरकारी फाइलों में भी नहीं मिलते हैं।
हमारे मित्र देवेंद्र का कहना है कि नल निचोड़ने के दिन आ गए हैं। इस मुद्दे पर 10 साल पहले उन्होंने एक बहुत ही सुंदर कार्टून भी बनाया था। कई बार कोई एक कार्टून भी बहुत उथल-पुथल मचा जाता है। लेकिन देवेंद्र के उस कार्टून पर तब किसी राजनेता का ध्यान तक नहीं गया था।अब नल निचोड़ने के साथ किसी भी क्षण नल को डुबो देने के दिन भी आ सकते हैं। थोड़ा-सा पानी गिरता नहीं कि शहरों में एकदम से बाढ़ आ जाती है। हाय-तौबा मच जाती है। कल तक जो शहर गर्मी और पानी की कमी से परेशान दिखते थे, आज अचानक उनकी सड़कों पर और उनके मकानों में घुटने-घुटने पानी जमा हो जाता है।
इस सबका दोष नालियों की सफाई से लेकर प्लास्टिक के कचरे तक पर मढ़ा जाता है। एक दूसरे पर आरोप लगाए जाते हैं, लेकिन अब हर साल शहरों में बाढ़ बरसात से पहले ही आने लगती है। फिर बरसात की बाढ़ का तो कहना ही क्या! विचार का सूखा और डूब दो-चार चीजें एक दूसरे के साथ जुड़ जाएं तो मुंबई जैसा बड़ा शहर जुलाई के किसी हफ्ते में पूरे सात दिन के लिए तैर जाता है, डूब जाता है।
इंद्र को वर्षा का देवता माना जाता है। उनका एक नाम ‘पुरंदर’ भी है। पुरंदर का मतलब पुरों को तोड़ने वाला। पुर यानी गढ़ या शहर। गढ़ अक्सर शहर में ही होते थे। इंद्र का बाढ़ से संबंधित एक किस्सा बहु-प्रचारित है। वह गोवर्धन से जुड़ा हुआ है। उस किस्से में गांव की बाढ़ का वर्णन है। गोपाल कृष्ण ने अपनी छिंगली से गोवर्द्धन पर्वत को उठाकर कई गांवों को डूबने से बचा लिया था। लेकिन शहरों पर जब इंद्र का कहर टूटता है तो कोई गोपालक उन शहरों को बचाने के लिए आगे नहीं आ पाते। वे वहां होते ही नहीं हैं।
पुरंदर बहुत पुराना नाम है और इससे लगता है कि उन दिनों भी हमारे शहर बहुत व्यवस्थित रूप से नहीं बसे थे। शहर की बसावट अच्छे ढंग से की जाए, उस पर गिरने वाले पानी को ठीक से रोकने का प्रबंध हो, पानी के ठीक से बह जाने का प्यार भरा रास्ता हो तो वर्षा का पानी वहां के तालाबों में भर जाएगा और बचा हिस्सा आगे चला जाएगा।
अब हम ऐसा होने नहीं देते। जमीन की कीमत हमारे शहरों में आसमान तक पहुंचा दी गई है, इसलिए आसमान से गिरने वाला पानी जब शहर की इस जमीन पर उतरता है तो उसकी पिछली याद मिटती नहीं। हमारे इन सारे शहरों में बड़े-बड़े कई तालाब हुआ करते थे। आज जमीन की कीमत के बहाने हमने इन सबको कचरे से पाटकर सोने के दाम में बेच दिया और अब इन्हीं इलाकों में पानी दौड़ा चला आता है।
कहा जाता है कि जब सौ साल पहले अंग्रेजों ने दिल्ली को राजधानी बनाया तो यहां छोटे-बड़े कोई 800 तालाब थे। आज मुश्किल से आठ तालाब बचे हैं। बाकी के नाम सरकारी फाइलों में भी नहीं मिलते हैं। जो हाल दिल्ली का है, वही बाकी सारी जगहों का। इन तालाबों के मिटने के कारण शहर में पानी की कमी होना अब पुरानी बात हो गई। उसका हल हमारी सरकारों ने सौ-सौ, दो-दो सौ किलोमीटर दूर से किसी और के हिस्से का पानी इन शहरों में लाने की योजनाएं बनाकर बड़े लोकतांत्रिक तरीके से पास करवा ली हैं। वैसे देखा जाए तो यह है चोरी का पानी।
लेकिन या तो इन सरकारों ने इंद्र को बताया नहीं या इंद्र ने इनकी बात सुनी नहीं। इसलिए वे हमारे इन शहरों पर उतना ही पानी गिराए चले जा रहे हैं जितना कुछ हजार साल पहले गिराते रहे होंगे। इस मामले में हम अकेले नहीं हैं। रूस, चीन, जैसे देश भी भारी बाढ़ का सामना कर रहे हैं।
जान-माल की कीमत भी चुका रहे हैं। पहले पानी की कमी, अकाल और उससे निपट भी नहीं पाए कि बाढ़ का दौड़ा चला आना। अब तरह-तरह के राजनीतिक घोटालों के बीच इन घटनाओं को प्राकृतिक आपदा कहकर छुटकारा पाने का घोटाला भी चलता जा रहा है।
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