वे भी अपना हक मांगते हैं

नदी के नियंत्रित प्रवाह का निचले क्षेत्रों की जीवन पद्धति विशेषकर कृषि, मत्स्य पालन और पशु संवर्धन पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इसलिए अगर कभी बराहक्षेत्र, नुनथर या शीसापानी बांध पर गंभीरता से चर्चा होती है तो इन दुष्प्रभावों की उतनी ही गंभीरता से समीक्षा भी होनी चाहिये। नेपाल के तराई वाले हिस्से और बिहार के कोसी, बागमती और कमला क्षेत्र के लिए यह समस्या बहुत ही महत्वपूर्ण है। यहाँ की मौजूदा और भविष्य में होने वाली समस्याओं के यथोचित और समुचित निराकरण के बाद ही बांध निर्माण की दिशा में कोई कदम उठाया जाना चाहिये।

बात नेपाल द्वारा केवल विश्व बांध आयोग की सिफारिशें स्वीकार कर लेने की ही नहीं है। नेपाल की जनता और आदिम जाति समूहों ने विदेशी कम्पनियों द्वारा शुरू किये गए इन बांधों के सर्वेक्षणों को रोकने का काम सफलतापूर्वक किया है। भारत और नेपाल के संयुक्त दल के दफ्तरों पर काम 2007 से इसी विरोध के कारण बन्द कर देना पड़ा और अभी भी हालात वहाँ सामान्य नहीं हैं। स्थानीय मुखर विरोध के बीच केन्द्रीय नेतृत्व को जल-विद्युत के विकास संबंधी योजनाओं पर काम कर रहे दलों या प्राइवेट कम्पनियों को उनकी सुरक्षा की गारन्टी देने के लिए बाध्य होना पड़ता है। इसी बीच अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) का कन्वेन्श्वन आई.एल.ओ. 169 प्रस्ताव आया जिसमें इस तरह की विकास मूलक परियोजनाओं में आदिवासियों और आदिम जन-जातियों के अधिकारों की रक्षा की बात कही गयी है। नेपाल में फिलहाल प्रशासन के पुनर्गठन का जो प्रयास चल रहा है उसमें इन अधिकारों के समावेश को भी सुनिश्चित किया जाना है क्योंकि नेपाल इस कन्वेन्शन की सिफारिशों पर हस्ताक्षर कर चुका है।

अब नेपाल के स्थानीय राजनैतिक कार्यकर्ता तथा आदिवासियों और आदिम जन-जातियों के समूह अपने तरीके से ILO- 169 के प्रस्ताव की व्याख्या कर रहे हैं और चाहते हैं कि जल-विद्युत का उत्पादन करने वाले प्रकल्पों में उनके हितों की अनदेखी न हो। उनका तर्क है कि अपने क्षेत्र के प्राकृतिक संसाधनों को नियंत्रित करने का अधिकार इस तरह के स्थानीय समूहों का ही है जिसका सीधा-सीधा मतलब यह होता है कि कोई भी केन्द्र सरकार पूरी जानकारी दिये जाने के साथ-साथ उनकी सहमति के बिना कोई निर्णय नहीं ले सकती। इस तरह से जल-संसाधनों को नियंत्रित करने वाली केन्द्रीय व्यवस्था को अब न केवल विश्व बांध आयोग की सिफारिशों का ध्यान रखना पड़ेगा वरन् उनको स्थानीय आदिवासियों और आदिम जाति और जन-जाति समूहों के विरोध का सामना भी करना पड़ेगा। 19 जून 2010 को पूर्वी नेपाल में माओवादियों द्वारा समर्थित पन्द्रह समूहों ने 3300 मेगावाट क्षमता वाले प्रस्तावित 269 मीटर ऊँचे सप्तकोसी बांध के विरोध में जबर्दस्त प्रदर्शन किया। नेपाल के विदेश मंत्रालय को दिये गए एक स्मार पत्र में उनका कहना था कि अगर इस बांध का निर्माण होता है तो उसके डूब क्षेत्र में नेपाल के 83 गाँव आयेंगे जिनमें न केवल उनकी कृषि भूमि डूबेगी वरन् उनके धार्मिक और पारम्परिक आस्था के केन्द्र भी डूबेंगे।

उनका यह भी कहना था कि इस बांध के निर्माण का लाभ मुख्यतः भारतवर्ष को मिलेगा। सूत्रों के अनुसार इस प्रतिरोध के बावजूद सर्वेक्षण का काम रुका नहीं है। भारी सुरक्षा के बीच नेपाल के सर्वे विभाग ने इलाके का एक नक्शा तैयार कर लिया है और जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के तीन भूगर्भशास्त्रिायों की मदद से जमीन के अन्दर की शिलाओं का अध्ययन जारी है। नदी के जल संसाधन का समुचित उपयोग करने के लिए यह जरूरी है कि सम्पूर्ण घाटी को ध्यान में रख कर ही योजना बनायी जाए। इसके लिए प्रभावित होने वालों सभी संबद्ध पक्षों की सहमति बननी चाहिये। अगर कोई बांध प्रस्तावित है तो उसके ऊपरी और निचले क्षेत्र में रहने वाले लोगों (नेपाल तथा भारत-दोनों देशों के लाभार्थी और प्रभावित जनता) के बीच सारी सूचनाओं के साथ एक तथ्य आधारित बहस चला कर ही कोई निर्णय लिया जाए क्योंकि बांध से होने वाले लाभ का प्रचार तो बहुत बढ़-चढ़ कर किया जाता है पर उससे होने वाले नुकसान और दुष्प्रभावित होने वाले लोगों के हितों की उपेक्षा होती है।

नदी के नियंत्रित प्रवाह का निचले क्षेत्रों की जीवन पद्धति विशेषकर कृषि, मत्स्य पालन और पशु संवर्धन पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इसलिए अगर कभी बराहक्षेत्र, नुनथर या शीसापानी बांध पर गंभीरता से चर्चा होती है तो इन दुष्प्रभावों की उतनी ही गंभीरता से समीक्षा भी होनी चाहिये। नेपाल के तराई वाले हिस्से और बिहार के कोसी, बागमती और कमला क्षेत्र के लिए यह समस्या बहुत ही महत्वपूर्ण है। यहाँ की मौजूदा और भविष्य में होने वाली समस्याओं के यथोचित और समुचित निराकरण के बाद ही बांध निर्माण की दिशा में कोई कदम उठाया जाना चाहिये। इसके साथ ही हम बांध के ऊपरी क्षेत्रों में होने वाले पर्यावरण और विस्थापन/पुनर्वास के मसले को कतई हल्का करके नहीं देखना चाहते क्योंकि वहाँ होने वाली किसी भी गड़बड़ी से निचले क्षेत्र अछूते नहीं रहेंगे और इसीलिए एक तथ्य आधारित आम सहमति की अपेक्षा रखते हैं। बिहार के दूसरे सिंचाई आयोग की रिपोर्ट (1994) में इस बांध के बारे में कुछ जानकारी दी हुई है जिसे हम इस अध्याय के अंत मे परिशिष्ट-1 में उद्धृत कर रहे हैं।

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Post By: tridmin
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