वास्तु शास्त्रियों की सलाह पर अपने-अपने घरों में खूबसूरती बढ़ाने के लिए कांच के बर्तनों में कछुओं को रखे जाने का चलन लगातार बढ़ता ही चला जा रहा है इसके पीछे यह भी माना जा रहा है घरों में रखने वाले इन कछुओं के बलबूते परिवार में सुख समृद्धि आती है साथ ही लोगों को लक्ष्मी यानि धन की भी बढ़ोतरी होती है। कुछ इस तरह की ही भ्रांतियो के कारण दुर्लभ प्रजाति के कछुओं की तस्करी थमने का नाम नहीं ले रही है।
चंबल इलाके इटावा में एक ऐसा ही मामला सामने आया है जिसमें देखने को मिला है सुडुल वन प्रजाति के कछुओं की एक खेप को ले जा रहे लोडर को पकड़ने में पुलिस को कामयाबी मिली है। ऐसा कहा जा रहा है कि इस लोडर के जरिए कछुओं को कानपुर की ओर से दिल्ली ले जाने का प्रयास किया जा रहा था लेकिन कानपुर आगरा हाइवे पर औरैया के पास पलट जाने के बाद इस लोडर को चलाने वाले दोनों लोग फरार हो गए उसके बाद पुलिस ने लोडर को जब सीधा किया तो उसमें से दुर्लभ प्रजाति के कछुओं की बरामदगी हुई। बरामद हुए सभी कछुए की तादात 158 है। चार बोरों में बंद इन कछुओं को पुलिस ने वन्यजीव विभाग के अफसरों के सुपुर्द कर दिया है। बरामद हुए कछुए का नाम स्पोडिडपोंडटर्टल के नाम से पुकारा जाता है। यह कछुए सामान्यतः दक्षिण भारत की नदियों में पाए जाते हैं लेकिन उत्तर प्रदेश के इटावा के आसपास के खेतों में यह कछुए पाए जाते हैं।
वन्य जीवों के संरक्षण की दिशा में काम कर रहे सोसायटी फॉर कंजरवेशन ऑफ नेचर के सचिव डॉ. राजीव चौहान का कहना है कि उपरोक्त कछुए जियोटलिनिस जीनस प्रजाति के हैं जो कि अक्सर तालाबों में पाई जाने वाली दुर्लभ प्रजाति के हैं जिन्हें मल्टीनेशनल शहरों में लोग एक्वेरियम में रखकर के शौक पूरा करते है तो वही इसका यौनवर्धक दवाओं में भी प्रयोग किया जाता है बरामद कछुओं का मूल्य बेसकीमती है।
वैसे सामान्यतः इटावा में आए दिन ऐसी खबरें वन्य जीव अफसरों को परेशान किए रहती है जिनमें कछुओं की तस्करी के मामले सामने आते हैं। कछुओं की तस्करी का यह काम आज शुरू नहींं हुआ है। बरसों से तस्कर इस काम में लगे हुए हैं। इस इलाके में चंबल, यमुना, सिंधु, क्वारी और पहुज जैसी अहम नदियों के अलावा छोटी नदियों और तालाबों में कछुओं की भरमार है।
1979 में सरकार ने चंबल नदी के लगभग 425 किलोमीटर में फैले तट से सटे हुए इलाके को राष्ट्रीय चंबल अभ्यारण्य घोषित किया था। इसका मकसद घड़ियालों, कछुओं (रेड क्राउंड रूफ टर्टल यानी गर्दन पर लाल व सफेद धारियों वाले शाल कछुए) और गंगा में पाई जाने वाली डॉल्फिन (राष्ट्रीय जल जीव) का संरक्षण था। मगर, यहां हुआ कुछ उल्टा ही। दरअसल, इस अभ्यारण्य की हदें उत्तर प्रदेश के अलावा मध्य प्रदेश और राजस्थान तक फैली हुई हैं। इसमें से 635 वर्ग किलोमीटर उत्तर प्रदेश के आगरा और इटावा में है। इनमें से इटावा कछुओं की तस्करी का केंद्र बन गया।
अभ्यारण्य बनने के एक साल बाद यानी 1980 से आज तक इटावा में ही सौ से भी अधिक तस्कर गिरफ्तार किए जा चुके हैं, जिनके पास से कुल 85 हजार से ज्यादा कछुए बरामद किए गए। इनमें से 14 तस्कर पिछले दो बरसों में पकड़े गए हैं, जिनके पास से 12 हजार से ज्यादा कछुए बरामद हुए। अंदाजा लगाना मुश्किल नहींं कि जब इतने कछुए पकड़ में आए तो कितने सप्लाई हो चुके होंगे। यह धंधा सैकड़ों रुपए प्रति कछुए से शुरू होकर हजारों-लाखों के खेल तक पहुंचता है।
आखिर इतने कछुओं का होता क्या है? डॉ. राजीव चौहान के पास इसका जवाब है । वह कहते हैं, कछुओं की सप्लाई पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश के रास्ते चीन, हांगकांग और थाईलैंड जैसे देशों तक की जाती है। वहां लोग कछुए के मांस को पसंद करते हैं। साथ ही इसे पौरुषवर्धक दवा के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है। इन तमाम देशों में कछुए के सूप और चिप्स की जबरदस्त मांग है।
2012 के विधानसभा चुनाव से पहले गाड़ियों की चेकिंग के दौरान पकड़े गए ट्रक में दो हजार से अधिक कछुए बरामद हो चुके हैं। गिरफ्तार किए गए चार तस्करों ने बताया कि ये सारा माल पश्चिम बंगाल तक पहुंचाना होता है। उसी दौरान दो ट्रकों में 11 हजार कछुए और पकड़े गए। यह माल भी पश्चिम बंगाल भेजा जा रहा था। इसी तरह जनवरी में औरैया में 2500 कछुए पकड़े गए थे। वहां के तत्कालीन एसपी अब्दुल हमीद ने भी यही बात कही थी कि सारा माल बांग्लादेश, थाईलैंड, चीन और मलेशिया सप्लाई किया जाना था।
टॉरट्वाइज एड इंटरनेश्नल की एक रिपोर्ट के मुताबिक चीन में केवल खोल की जेली बनाने के लिए ही सालाना 73 हजार कछुए मारे जाते हैं। वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड (डब्लूडब्लूएफ) का मानना है कि इस जबरदस्त मांग को पूरा करने के लिए कई देशों से माल मंगाया जाता है। इसी तरह थाईलैंड और हांगकांग में भी कछुओं की बहुत मांग है। उन्हें बचाने के तमाम प्रयास (जिनमें कुछ कानून बनाना भी शामिल है) इसलिए ज्यादा कामयाब नहींं हो सके हैं क्योंकि इन देशों में परंपरागत रूप से किसी न किसी तरह कछुओं का इस्तेमाल होता रहा है।
जिंदा कछुओं की मांग सबसे ज्यादा है, क्योंकि उनका खोल और मांस ताजा मिलता है। मगर, जिंदा कछुओं की तस्करी मुश्किल होती है इसलिए तस्करों ने एक और तरीका ईजाद कर लिया है। अब कछुओं के मांस के चिप्स बनाकर तस्करी की जाने लगी है। वन विभाग को मिली सूचना के मुताबिक चिप्स बनाने का काम आगरा के पास पिनहाट और इटावा के ज्ञानपुरी और बंसरी में दो जातियों के लोग करते हैं।
ये लोग कछुओं को मार कर उनके शरीर की निचली सतह (जिसे प्लैस्ट्रॉन कहते हैं) को काट लेते हैं। उसे पानी में घंटों उबाला जाता है। इसके बाद साफ करके इस परत को सुखा लिया जाता है और फिर उसके चिप्स बना लिए जाते हैं। एक किलो वजन के कछुए में तकरीबन 250 ग्राम चिप्स बन पाती है। इटावा में एक किलो चिप्स का दाम 3,000 रुपए है। बंगाल पहुंचते-पहुंचते कीमत दस गुना तक पहुंच जाती है। मगर, वहां से आगे जितना जोखिम बढ़ता जाता है, उतनी ही कीमत भी। इटावा में पांच नदियों का संगम होने के अलावा कई ऐसे बड़े तालाब हैं, जहां लाखों की तादाद में कछुए पाए जाते हैं।
चीन के लोग कई तरह के पूजा-पाठ और भविष्यवाणी के लिए कछुओं की खाल का इस्तेमाल लंबे अरसे से करते आए हैं। यह परंपरा 1,000 ईसा पूर्व यानी शांग काल से चली आ रही है। कछुए की खाल के जरिए भविष्य बताने की कला को किबोकू कहा जाता है। इसमें कछुए के खोल को गर्म करके उस पर पड़ने वाली दरारों और धारियों को पढ़कर भविष्य जाना जाता है। इसी तरह चीन के लोग कछुए के खोल की जेली बनाकर दवाओं में इस्तेमाल करते हैं। कछुओं के खोल से तरह-तरह का सजावटी सामान, आभूषण, चश्मों के फ्रेम आदि भी बनाए जा रहे हैं।
ऐसा माना जाता है कि देश में पाए जाने वाले कछुओं के मांस की चीनी बाजार में मांग बहुत अधिक रहती है इसी वजह से जिंदा या फिर चिप्स के रूप में कछुओं की आपूर्ति के मामले समय-समय पर सामने आते रहते हैं।
पूरी दुनिया में लगभग 225 जातियों के कछुए हैं, जिसमें सबसे बड़ा समुद्री कछुआ सामान्य चर्मकश्यप होता है। समुद्री कछुआ लगभग 8 फुट लंबा और 30 मन भारी होता है। इसकी पीठ पर कड़े शल्कों की धारियाँ सी पड़ी रहती हैं, जिन पर खाल चढ़ी रहती है। इसका निवास स्थान उष्ण प्रदेशीय सागर हैं और इसका मुख्य भोजन मांस, मछली और घोंघे कछुए हैं। अन्य कछुओं की भांति इस जाति के मादा कछुए भी रेत में अंडे देते हैं।
हमारे देश में कछुओं की लगभग 55 जतियाँ पाई जाती हैं, जिनमें साल, चिकना, चितना, छतनहिया, रामानंदी, बाजठोंठी और सेवार आदि प्रसिद्ध कछुए हैं।
सहसों थाना क्षेत्र के हनुमंतपुरा ग्राम पंचायत के मजरा कुंअरपुरा के नीचे प्रतिबंधित सेंचुरी क्षेत्र चम्बल नदी में शिकारियों के द्वारा कछुओं की शिकार सेंचुरी क्षेत्र के कर्मचारियों की मिली भगत से बड़े पैमाने पर हो रही है। शनिवार सुबह दो दर्जन से अधिक कछुओं के अवशेष मिले जिनकी छाल काटकर निकाल ली गई थी। गांव कुअंरपुरा के नीचे प्रतिबंधित सेंचुरी क्षेत्र में सिद्धनाथ मन्दिर के दो किलोमीटर आगे नदी के किनारे दो दर्जन से अधिक कछुओं के अवशेष पड़े थे। जिनको जंगली जानवर अपना भोजन बना रहे थे।
कुछ लोगों से जानकारी मिली है कि शिकारी कछुओं की इस छाल को निकाल कर कानपुर मंडी में लगभग एक किलो तीस हजार रुपए के भाव से बेचते है। ये शिकार कई वषों से लगातार सेंचुरी क्षेत्र के कर्मचारियों की मिली भगत से चल रहा है। इतने मामले सामने आते हैं। फिर भी कोई कार्यवाही अमल में नहीं आती है।
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