हेला समाज के बारे में ऐसी लोकमान्यता है कि प्राचीन समय में किसी राजा ने अपने आदेश की अवहेलना पर एक बिरादरी को मैला ढोने की सजा सुनाई थी। इस बिरादरी के मुखिया का नाम इब्राहिम हेला था। ऐसा कहा जाता है कि तभी से इनके वंशजों को हेला कहा गया। इनके नाम पर संसार का सबसे घृणित काम लिख दिया गया। वैसे इस समुदाय के म.प्र. में होने का इतिहास नहीं है और कहा जाता है कि यह लोग उ.प्र. से पलायन करके यहां पहुंचे। जिसके बाद यह कथित आदेश एक अघोषित नियम बन गया।
हमारा संविधान, इस देश का कानून कागजों पर भले ही कुछ कहते दिखे, लेकिन इसके बाद भी हमारे देश में आज भी करोड़ों ऐसे लोग हैं, जो अपने मौलिक अधिकारों से वंचित, सामान्य जीवन जीने का अधिकार नहीं रखते हैं। मैला ढोने जैसी घृणित कुप्रथाएं आज भी जिंदा हैं। जंगों के जमाने में हारे हुए लोग गुलाम बनाए जाते थे, जिनकी जिंदगी तय करने का हक विजेता राजा को होता था। वक्त बदल गया लेकिन उन हारे हुए लोगों की कौम आज भी वैसी ही जिंदगी के लिए विवश है। अंतर इतना ही है कि लोकतंत्र में ऐसी भूमिका में वह बहुसंख्यक वर्ग होता है, जिसकी सरकार हो, जिसके पास वोट हों। जिसके पास वोट नहीं होते, उसकी स्थिति लोकतंत्र में किसी पराजित सैनिक से कम नहीं होती। सदियों पहले इस देश में एक सेना किसी जंग में हार गई थी और ऐसा माना जाता है कि विजित सेना ने उन्हें सजा सुनाई कि वे जीते हुए मनुष्यों का मैला साफ करें। इसके बाद से मैला ढोने की प्रथा का आरंभ हुआ। सदियां बीत गईं लेकिन यह प्रथा म.प्र. समेत देश के 13 से अधिक राज्यों में बदस्तूर जारी है। इस पर कार्रवाई के लिए अब तक अनेक समितियों का गठन हुआ और अनेक रिपोर्ट्स भी फाइल की गईं, लेकिन ग्रासरूट पर कुछ हुआ नहीं।यह महज संख्याओं का मामला नहीं है। चूंकि हम एक लोकतांत्रिक गणराज्य में निवास करते हैं, इसलिए हम संख्याओं और आंकड़ों से खेलने के आदि हो चुके हैं। इस फैलोशिप पर अध्ययन के दौरान मैं बड़ी संख्या में लोगों से मिला, उनसे विचार-विमर्श किया। लेकिन इस दौरान ज्यादातर लोगों की सोच यही थी कि अब बहुत थोड़े से लोग इस काम को कर रहे हैं, अतः मामला बहुत गंभीर नहीं है। यही है आंकड़ों की बाजीगरी। हमारा समाज हर चीज को आंकड़ों से क्यों तौलता रहता है। यदि मप्र में मुट्ठीभर लोग भी यह काम करते हैं तो इस बात से अंतर पड़ता है, लोगों के दिलो-दिमाग पर अंतर पड़ना ही चाहिए। मप्र के उज्जैन की हैलावाड़ी, तराना का इलाका, देवास, नीमच और मंदसौर, शाजापुर मप्र के वे प्रमुख स्थान हैं, जहां पर मैला ढोने की कुप्रथा अब तक के तमाम प्रयासों के बाद भी समाप्त नहीं की जा सकी है। फैलोशिप पर अध्ययन के दौरान मैंने वाल्मिकियों, हेला समुदाय के लोगों के साथ निरंतर संवाद के माध्यम से यह जानने का प्रयास किया कि आखिर उनके बहिष्कृत होने के पीछे क्या कारण हैं। एक ओर हम एक गणतंत्र के रूप में मजबूत हो रहे हैं, तो दूसरी ओर हमारे सामाजिक ढांचे में सहिष्णुता की जगह कट्टरता का विस्तार होता जा रहा है। इस अध्ययन के माध्यम से मैंने वाल्मिकी और हेला दोनों समुदायों के सामाजिक, आर्थिक अध्ययन के साथ ही खुद उनकी विचार प्रक्रिया और दूसरे समाजों के साथ अंर्तसंबंधों को समझने का प्रयास किया है।
मैं फैलोशिप के दौरान मिले प्रत्येक सहयोग के लिए सदैव प्रस्तुत रहने वाले मो. आसिफ का विशेष आभारी रहूंगा। जो हमेशा मेरी मदद के लिए तत्पर रहे। इसके साथ ही महू की शबनम से भी मुझे समय-समय पर सहयोग मिला। आप दोनों ने ही हेला और वाल्मिकी समुदायों की समस्याओं को समझने में मेरी भरपूर मदद की। शबनम ने शोध कार्य के लिए आवश्यक संदर्भ सामग्री जुटाने में बहुत अधिक मदद की, जिसके लिए मैं सदैव उनका आभारी रहूंगा। मानवीय सरोकारों के लिए प्रतिबद्ध सचिन जैन ने इस संपूर्ण अध्ययन के दौरान एक गाइड की भूमिका निभाई, उनके आत्मीय सहयोग के लिए भी साधुवाद।
विकास संवाद फैलोशिप के दौरान सामाजिक भेदभाव और बहिष्कार पर काम करने के दौरान मेरे अनुभव और शोध के मुख्य निष्कर्ष इस प्रकार से हैं, जो हमारे सामाजिक ताने-बाने की न केवल पोल खोलते हैं, बल्कि सामाजिक हकीकत और विभिन्न धर्मों में व्याप्त आपराधिक, अमानवीयता को भी बखूबी बयां करते हैं:
1. जब रिसर्च के लिए मैं दलित बस्तियों में जाता था तो वहां के लोग कहते कि आपके स्पर्श से हमें ही उल्टा पाप लगता है, जबकि सवर्णों का विरोध इस बात को लेकर था कि क्यों भंगियों के बीच अपने ब्राहमणत्व की धज्जियां उड़ा रहे हो भाई। सबसे अधिक आश्चर्य इस बात का है कि ऐसे लोग जो कथित तौर पर मानवतावादी रिपोर्टिंग और पत्रकारिता की बात करते हैं, उनको इस तरह की कुप्रथाओं पर अचरज नहीं होता। वे इसे हमारे सामाजिक प्रथाओं की आवश्यक बुराई करार देते हैं।
2. मुझे एक से अधिक अवसरों पर ऐसी बातें सुनने को मिलीं कि इस इस तरह के अध्ययन वास्तव में दलितों को झांसा देने के लिए किए जाते हैं, सवर्ण जाति का हूं। मैं कथित तौर अस्पृश्य जातियों के बीच हूं इस बात का विरोध मुझे दलितों के साथ ही सर्वणों के बीच भी झेलना पड़ा।
3. केवल दो वक्त की रोटियों के लिए भरी बरसात में मैले की टोकरी का सारा मैला सर पर उठाना यह एक ऐसी विवशता है, जो किसी भी संवेदनशील मनुष्य को परेशान कर सकती है। लेकिन कैसा हमारा शिक्षित, सहिष्णु समाज और कैसे कथित तौर पर पढ़े लिखे लोग और नकारा सरकारी तंत्र और विशेषकर कलेक्टरों की जमात है, जिनकी आंखों को कुछ नहीं दिखाई देता।
4. एक कलेक्टर ने कहा कि हम बरसात में पीतल की मटकी इनको उपलब्ध करवाएंगे, ताकि मैला ढोने में परेशानी नहीं हो।
5. इसी तरह से एक पूर्व मुख्यमंत्री जो दलितों की मसीहा हैं, खुद भी पिछले वर्ग से हैं, कहा है कि मैला ढोने के लिए नई गाड़ियों की व्यवस्था करेंगे। इन मासूमों को नहीं मालूम था कि मैला ढोने की प्रथा कानूनी तौर पर प्रतिबंधित है। ऐसे समाज में और कब तक मैला ढोने का काम बंद होगा कहना मुश्किल है और हो भी गया तो उनको मुख्यधारा में आने में कम से कम एक से अधिक सदी का वक्त लगेगा।
6. जाति हमारे देश की सबसे बड़ी सच्चाई है। यह एक ऐसा बोध है, जिससे देश का आदमी कभी भी उबर नहीं पाता। हाल ही में मुंबई में मेरी मुलाकात फ्रांस से आए एक इंजीनियर से हुई और उसे यह समझाने में कि जाति क्या होती है, लंबा वक्त लगा। लेकिन अंतत: उसे बात समझ आ गई। अपने देश में करोड़ों पढ़े लिखे सवर्ण-दलित दोनों हैं, लेकिन इस पूरी रिसर्च के दौरान मुझे म.प्र. में एक सरकारी अफसर, नेता और इस संदर्भ में पढ़ा-लिखा कहा जा सकने वाला व्यक्ति नहीं मिला जो जातिगत धारणाओं से इतर मानवीय सरोकारों की पैरवी करे।
7. इन समुदायों के भीतर खुद भी एक ऐसी हीनग्रंथि है, जो उनको आगे बढ़ने से रोकती है। यह संभवत: सदियों से दलितों के दमन का सामाजिक परिणाम है कि उनके भीतर सवर्णों से बेहतर हो सकने का भाव कहीं खो गया है। इसका सवर्ण भरपूर दोहन कर रहे हैं।
8. पुरुषों और महिलाओं के बीच एक ही तरह का यूनिवर्सल रिश्ता है। पुरुष स्त्रियों को किसी भी तरह से अपने समान दर्जा देने को तैयार नहीं हैं और वह उसे अपने अधिकार क्षेत्र के सीमाओं से बाहर निकलने, शिक्षा जैसे सहज मानवीय अधिकार से महज इसलिए वंचित रखना चाहता है ताकि कहीं उसे अपने अधिकारों के बारे में पता नहीं लग जाए। मैला ढोने का काम करने को विवश समाजों में भी स्त्री चेतना, उसकी अभिव्यक्ति पर पुरुषों का ही बोलबाला है। दूसरों का मैला ढोए औरत और मर्द दूसरी औरत के चक्कर में फिरे, दिनभर चिलम फूंकता रहे। उसके लिए अधिक पत्नी का मतलब है अधिक काम और आय का साधन। इसकी पुष्टि हेला समाज में बहुपत्नी प्रथा के रूप में मिलती है, चूंकि इस्लाम में एक से अधिक पत्नियों को मान्यता दी गई है, इसलिए इसके विरोध में कहीं से कोई स्वर नहीं उभरता है।
9. गांवों विशेषकर कस्बों में छूआछूत में इतना ही अंतर आया है कि जो व्यक्ति किसी न किसी तरह से मुख्यधारा में शामिल हो गया है, उसे कुछ हद तक चाय की दुकान में चाय पीने का हक है और अपनी बात रखने का हक है। इसके अलावा वह जो गरीबी के मकड़जाल से मुक्त नहीं हो सके हैं, उनकी स्थिति अभी भी सामंतवादी दिनों जैसी ही है।
10. मैला ढोने वाले वाल्मिकियों और हेला समाज दोनों की स्थिति अपने ही समुदाय यानि दलितों और पिछड़ों के बीच बहिष्कार की है। इस्लाम में अस्पृश्यता की स्थिति को देखना दुखद अनुभव है, क्योंकि मनुष्यों के बीच आपसी समानता पर सबसे अधिक बल देने वाले धर्मों में से एक यह धर्म है।
11. मस्जिदों में हेलाओं के लिए अलग कतार होती है। ईद पर उनके साथ खुशियां नहीं बाटीं जाती। इसी से तंग आकर उज्जैन की हैलावाड़ी में हेलाओं ने एक अलग मस्जिद ही बना ली है। यह मस्जिद भेदभाव की समस्या का हल तो नहीं है, क्योंकि यह समुदाय को जोड़ने की जगह उसे स्वत: ही बहिष्कृत कर देता है।
12. मायावती और कांशीराम के सत्ता में आने से दलित चेतना में खासी सुधार हुआ है। इस बात में कोई दो संशय नहीं होना चाहिए कि दलितों, पिछड़ों के आत्मबल में जो कुछ सुधार गत दो दशकों में दर्ज किया गया है वह मुख्यत: बहुजन समाज पार्टी और उसके जैसे अन्य नेताओं के सत्ता में रहने से हुआ है। म.प्र. में बसपा का असर भले ही अभी भी कम हो लेकिन अंदर ही अंदर एक तरह की कसमसाहट तो है ही। माया एंड कंपनी को श्रेय देने के दो कारण हैं।
13. पहला तो यह कि दलितों का एक वोट बैंक बना। जिसने उनको एक किस्म की सामुदायिक एकता प्रदान की। दलितों के भीतर की सामाजिक चेतना के विस्तार से सबसे बड़ा लाभ यही हुआ कि उनको यह विश्वास हुआ कि उनके भीतर की एक दलित लड़की देश के सबसे बड़े राज्यों में से एक की मुखिया बन सकती है। मायावती के एक नहीं अनेक बार सीएम बनने से दलितों में उनके एकदिन आगे हो जाने की संभावना को बल मिला।
14. दूसरा बड़ा काम जो माया के बार-बार सत्ता में आने से हुआ वह यह कि ब्राह्मण अब दलितों के साथ सामुदायिक और सार्वजनिक स्थानों पर अब बेहतर तरीके से पेश आने लगे दिखते हैं।
15. मेरे लिए यह पहला अवसर था जब मैं मेला ढोने वालों के इतने जीवंत रूप में देख रहा था। मेरे भीतर कोई जातिगत हिचक तो नहीं थी, जो मुझे उन समुदायों के साथ इस बैठने, भोजन करने से रोकती, लेकिन जिस गंदगी, बजबजाहट भरे वातावरण वे रहने को विवश हैं, वहां पर उनके साथ भोजन और चाय-पान के प्रस्तावों को स्वीकारते हुए अंदर से मैं कांप जाता था। हालांकि मैंने इन प्रस्तावों को किसी भी कीमत पर अस्वीकार नहीं करने का पक्का इरादा कर लिया था, क्योंकि इससे मेरी समानता और जातिगत बुराइयों पर कही गई बातों का उल्टा असर होने का खतरा था। इन समुदायों के लोग ऐसा होने पर किसी भी तरह से संवाद के दौरान सरल नहीं हो पाते।
16. देश बदल रहा है, वक्त बदल रहा है। लेकिन जातियों को लेकर आने वाला बदलाव बेहद धीमी गति से आ रहा है। जातियों के नाम पर समाज इस तरह से बंटा हुआ है कि गरीबी की मार खाते किसानों की बमुश्किल बची जमा पूंजी मुकदमों के लिए तहसील जाने-आने में ही खर्च हो रही है।
17. रोटी-बेटी के व्यवहार की बात तो दूर की कौड़ी है। अभी भी आते जाते स्पर्श हो जाने पर सवर्णों की गालियां, अपनी औकात भूलने के ताने दिए जाते हैं। इस हाल में इन वर्गों के बच्चों की शिक्षा किस तरह से प्रभावित हो रही है, यह समझ पाना कतई मुश्किल नहीं है।
18. वाल्मिकियों और हेलाओं समेत दूसरी अछूत माने जाने वाली जातियों की लड़कियों के लिए स्कूल से आगे का सफर बेहद मुश्किल होता है, क्योंकि उन्हें न केवल सवर्ण जातियों की गंदी गालियों का सामना करना पड़ता है, बल्कि केवल इसी वजह से उनको गांवों में अनेक प्रकार के अघोषित बहिष्कारों का भी सामना करना पड़ सकता है।
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