अगर यही झारखंड को समझना है, तो उनके झारखंड में खनन पीड़ितों के आंदोलन की क्या पहचान है? इसलिये यहीं आकर हमें पिछले सम्मेलन के नारे को याद करना चाहिए, जिसमें कहा गया था- थिंक डीपली और डाइ स्लोली। अब हमें अपनी किस्मत का फैसला खुद करना होगा। खनिजों के दोहन के लिये भारत में इस साल नया कानून एमएमडीआर-2010 लागू किया गया है। अब इसी के तहत खदानों को संचालित किया जाएगा। इसका आधार है-राष्ट्रीय खनिज नीति, जिसका निर्माण केंद्र सरकार ने 2008 में किया था। इससे पहले खदानों का संचालन माइंस एंड मिनरल्स डवलपमेंट रेगुलेशन एक्ट-1957 के तहत होता था। नौ संशोधनों के बावजूद सरकार और खनन कम्पनियों के हितों की रक्षा इस कानून से नहीं हो रही थी, इसलिये पुराने कानून को नए सिरे से मूल्यांकन करते हुए इसे नया नाम दिया गया। खनन से जुड़े कई मंत्रालयों व राज्य सरकारों के प्रतिनिधियों, औद्योगिक व सामाजिक संगठनों के सदस्यों के साथ विचार-विमर्श के बाद नया कानून हमारे सामने आया है। सरकार ने इसके बारे में कहा,
1. यह कानून राज्यों की शक्तियों को विकेंद्रीकृत करेगा। 2. मूल्य खोज और सही मूल्य की अवधारणा के आधार पर राजस्व में बढ़ोत्तरी होगी। 3. सहज प्रक्रिया, पारदर्शिता और इक्विटी को सुनिश्चित किया जाएगा। 4. वैज्ञानिक खनन और स्थाई विकास की ओर बढ़ा जाएगा।
झारखंड के प्रतिनिधियों ने इस कानून पर अपनी पूरी सहमति जताई है, जबकि झारखंड ही वह राज्य है, जिसमें खनिज संसाधनों की हिफाजत के लिये लम्बे समय से संघर्ष चल रहा है।
झारखंड का संदर्भ : ब्रेटनवुड कॉन्फ्रेंस से विश्व बैंक, आईएमएफ, विश्व व्यापार जैसे संगठन निकले हैं। इनके इशारे के बगैर अभी दुनिया में कोई कानून न तो पास हो रहा है और न ही किसी योजना का क्रियान्वयन। ऐसे में झारखंड, तो जहाँ खनिजों का अकूत भंडार है, वहाँ खनन सम्बन्धी कोई भी काम साम्राज्यवादी ताकतों को ही पुष्ट करती है। स्थानीय सामाजिकता का निषेध करती है। उसके लिये न तो विचारों का कोई अर्थ है और न ही नैतिकताओं का। झारखंड में सालों से खनन क्षेत्र में काम करते हुए अनुभव है कि खनन प्रक्रियाओं ने सिर्फ जंगल, पहाड़, जलस्रोतों को ही नष्ट नहीं किया है, बल्कि हमें गरीबी, जलालत, असहाय बनाकर एक अंधेरी गली में छोड़ दिया है, जहाँ से पीछे लौटना सम्भव नहीं है। उस गली में हमारे लिये तय है कि हम किसी घर के जूठे बर्तन धोएँ, कचरों में अपने लिये रोटी तलाशें। अगर किसी तरह से खदान क्षेत्रों में रह भी गए, तो हमारे लिये बस एक ही नाम दिया जाता है खनिज चोर। क्या हम सही में कोयलाचोर, लोहाचोर और तांबाचोर हैं, जिस संज्ञा से झारखंड के अधिसंख्य आदिवासी व मूलवासी सम्बोधित होते रहे हैं?
खनन कम्पनियों का नजरिया : फेडरेशन ऑफ इंडियन मिनरल्स इंडस्ट्रीज खनन सम्पत्ति के वार्षिक लाभ का 26 प्रतिशत जनता को देना नहीं चाहती है। इसका कारण बताते हैं कि आलसी व दारू पीने वाले लोगों और अपनी औरतों को पीटने वालों को खुराक मिलेगी। फिमी के इस तर्क का समर्थन फेडरेशन ऑफ इंडियन चैम्बर ऑफ कॉमर्स इंडस्ट्रीज और कंफेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्रीज ने भी किया है। कानून को नहीं लागू करने के बहाने के रूप में ये संस्थाएँ सामाजिक समस्याओं को प्रचारित-प्रसारित कर रही हैं। जबकि कौन नहीं जानता है कि दारू में होने वाले पूरे खर्च का एक बड़ा हिस्सा इन्हीं उद्योगपतियों और उनके समर्थकों पर जाता है। यह बहानेबाजी प्रस्तावित 26 प्रतिशत न देने के लिये है।
पेसा हो या काश्तकारी कानून या फिर यूएन डिक्लीयरेशन ऑन इंडिजीनस राइट्स, सभी की अवहेलना इस कानून द्वारा होगी और झारखंड जैसे खनिज सम्पन्न राज्य में एक ऐसी संस्कृति और जीवनशैली पैदा होगी, जो एक दबावयुक्त कथित विकास के लिये हमें मजबूर कर देगा, जहाँ न तो स्वनिर्भर झारखंड की परिकल्पना कर सकते हैं और न ही एक लोकतांत्रिक स्पेस की। हम देख चुके हैं कि खनन जहाँ भी गया, वहाँ एक क्रूर और संहार की प्रवृत्ति पैदा हुई है। इसे हम लैटिन अमेरिका के आदिवासी संहार से लेकर पैनेम कम्पनी के क्षेत्र में काम करने वाली सिस्टर वालसा और उनके साथियों की श्रृंखलाबद्ध हत्या से समझ सकते हैं कि आगे का हमारा भविष्य क्या होगा? एमएमडीआर कानून में जो स्वागतयोग्य बात है, वह यह कि खनन कम्पनियों को उसके वार्षिक लाभ में से 26 प्रतिशत हिस्सा स्थानीय लोगों और उनके विकास पर खर्च करना है। फेडरेशन ऑफ इंडियन मिनरल्स इंडस्ट्रीज (फिमी) 26 प्रतिशत जनता को देना नहीं चाहती है। दलील देते हैं कि आलसी और दारू पीने वाले लोगों और अपनी औरतों को पीटने वालों को इससे खुराक मिलेगी। फिमी के इस तर्क का समर्थन फेडरेशन ऑफ इंडियन चैम्बर ऑफ कॉमर्स इंडस्ट्रीज और कंफेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्रीज ने भी किया है। लेकिन, यह कौन नहीं जानता कि जिनके पास पैसे नहीं होते या रोजगार नहीं होता, ऐसे लोग ही अधिक नशे की खाई में गिरते हैं।
स्थानीय लोगों को इस स्थिति तक पहुँचाने वाला कौन है, इस पर भी विचार करें जरा। मेजर मिनरल्स के लिये प्रॉस्पेक्टिंग लाइसेंस देने के लिये कम-से-कम 500 वर्ग किमी भूमि निर्धारित की जाएगी। इसे हम झारखंड के संदर्भ में समझ सकते हैं। झारखंड में कई खनिज हैं, उनमें से कई मेजर मिनरल्स हैं। ऐसे में प्रॉस्पेक्टिंग लाइसेंस किसी कम्पनी को मिल जाता है, तो उस क्षेत्र में आवासीय क्षेत्र ही नहीं बचेगा। भूमि और उस पर अवस्थित संस्कृति व अधिकार में किसी प्रकार छेड़छाड़ किसी भी परिस्थिति में निषेध है। कानून के दायरे में जनाधिकारों को लाकर उससे पारम्परिक, वैधानिक, संवैधानिक अधिकार के क्षरण को यह बढ़ावा देगा। यह एक तरह से सरकार द्वारा प्रायोजित आर्थिक उग्रवाद के सिवा कुछ नहीं है, जो देशी-विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनी के हित में है। इस तरह से जब देश की सम्प्रभुता ही नहीं बचेगी, तो झारखंड और झारखंडियों के अस्तित्व की बात करना ही बेमानी है।
खनिज नीति महज धोखा : जिस तरह से राष्ट्रीय खनिज नीति का हल्ला है कि इससे खनन प्रभावित समुदायों की किस्मत बदल जाएगी। ऐसा कुछ नहीं होने वाला है, बल्कि इसके नाम पर हमारे ही समुदाय में कुछ और दलाल बढ़ जाएँगे और समाज के विखंडित होने की आशंका बढ़ेगी और हमारे अस्तित्व के लिये यह एक बड़े खतरे के रूप में उभरेगा। एक तरफ सरकार एंटी नक्सल ऑपरेशन के नाम पर खनन विरोधी जनांदोलनों को दबाने के लिये क्रूरता और बर्बरता की हद पार कर रही है, वहीं दूसरी तरफ हमें इस कानून के नाम पर लालच में फँसाना चाहती है। दोनों का एकमात्र उद्देश्य है- हमारे संसाधनों को हमारे हाथों से छीनकर देशी-विदेशी पूँजीपतियों को सौंप देना।
हमें सचेत होने की जरूरत है। नहीं तो हमारे हाथों से हमारा संसाधन ही नहीं, हमारा वजूद भी समाप्त होने वाला है। सोचिए, ये कम्पनी वाले सरकार के प्रस्ताव को भी मानने वाले नहीं हैं। वे इसके लिये सरकार को बता रहे हैं कि हम दारू पीने वाले, आलसी और पत्नी को पीटने वाले हैं। दारू पीने पर आते हैं तो देखते हैं कि हम दस रुपये तक के पॉलीथीन पीकर मस्त हो जाते हैं, लेकिन वे लाखों रुपये बार में रोज उड़ाते हैं। अब कोई हमें यह समझाए कि हम पियक्कड़ हैं या वो। वैसे ही आलसी हमें कहते हैं, जबकि हमारी मेहनत की कमाई और पसीने की खुशबू से पूरी दुनिया में चकाचौंध फैली हुई है। और जहाँ तक पत्नी को पीटने की बात है, तो वे जिस समाज में रहते हैं, वहाँ तो औरतों की कितनी कीमत है? क्या इसे बताने की जरूरत है। कौन है जो दहेज के लिये अपने बहुओं को जलाता है। कौन है, जिसने तंदूर में औरतों को कबाब बनाकर खाता है?
क्या कोई आदिवासी और दलित है? इसका जवाब है नहीं। वे उन्हीं के समाज के लोग हैं। इसलिये इस तरह से उन्हें हम पर कमेंट करने का कोई अधिकार नहीं है। अब देखिए, जो कानून हमारे सामने है, उसे बनाने में हमारा कोई योगदान नहीं है। न तो राज्य सरकार ने इस पर लोगों से पूछने की जरूरत समझी और न ही केंद्र सरकार ने। झारखंड से जो भी प्रतिनिधि भेजा गया है, वह हमारे समाज का नहीं था। वह एक अफसर था। जिसने वहाँ पर सिर्फ इतना ही मुँह खोला कि इसका हम पूरी तरह से समर्थन करते हैं। वह भी उस सरकार द्वारा भेजा गया था, जिसके मुखिया गुरूजी थे। ये वही शिबू सोरेन हैं, जो दिशोम गुरू के नाम से पूरे राज्य में जाने जाते हैं और अभी भी लोग उनका सम्मान करते हैं। उनके सम्मान में कोई कटौती न करते हुए इतना ही कहना चाहूँगा कि उन्हें इस समस्या को समझने वाला और कोई नहीं मिला, एक अफसर के सिवा। जबकि उनका दावा है कि झारखंड को वह बेहतर तरीके से समझते हैं।
अगर यही झारखंड को समझना है, तो उनके झारखंड में खनन पीड़ितों के आंदोलन की क्या पहचान है? इसलिये यहीं आकर हमें पिछले सम्मेलन के नारे को याद करना चाहिए, जिसमें कहा गया था- थिंक डीपली और डाइ स्लोली। अब हमें अपनी किस्मत का फैसला खुद करना होगा। इसके लिये हमें अपने संघर्ष के सभी आयामों को खुद तैयार करना होगा। हम सरकार के भरोसे नहीं बैठ सकते। आइए सोचना शुरू कीजिए, अन्यथा धीरे-धीरे मरने के लिये तैयार रहिए।
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