वैगै और कावेरी

भारतीय एकता के प्रखर समर्थक हमारे धर्माचार्यों ने और संस्कृत-कवियों ने जिन नदियों को एक श्लोक में बांध दिया और अपने पूजा-जल में जिन नदियों की सन्निधी मांग ली, उनमें कावेरी का नाम हैः

गंगे! च यमुने! चैव, गोदावरी! सरस्वति!
नर्मदे! सिन्धु! कावेरि! जलेSस्मिन् सन्निधिं कुरु।।


इसलिए मुझे कावेरी से ही सबसे पहले क्षमा मांगनी चाहिए। परन्तु मैं कावेरी से भी सुदूर दक्षिण में बहने वाली वैगै से प्रारम्भ करूंगा। इसका कारण बहुत कम लोगों के ध्यान में आयेगा लेकिन सुनने के बाद वे भी मेरे साथ सहमत होंगे कि वैगै की वैसी विशेषता है जरूर। दक्षिण में मेरे मन में मद्रास के बाद सबसे अधिक महत्त्व का कोई शहर है तो वह है मदुरा अथवा मदुरै। और मैंने वैगै के अनेक बार दर्शन किये मदुरै मे ही। वहां वैगै के किनारे-किनारे अनेक बार घूमा हूं और करीब-करीब नदी के पात्र में ही खड़े एक मंदिर में दक्षिण के ब्राह्मणेतर भाइयों के साथ मैंने बड़े उत्साह के साथ खाना भी खाया है। उस मंदिर के एक पत्थर में एक बड़ी मछली उकीरी हुई देखकर मैंने दरियाफ्त भी किया कि यह मंदिर किन्हीं मच्छीमरा लोगों के पुरखों का बनवाया हुआ तो नहीं है?

यह वैगै नदी मेरे सह्याद्रि की पूर्व बाजू की दो सुन्दर घाटियों से निकलने वाले प्रवाहों से बनती है। और मदुरा को अपना दूध पिलाकर, रामेश्वर, पंबन पहुंचने के थोड़ा पहले ही रामनाथ के उत्तर में समुद्र से जा मिलती है।

वैगे नदी को मैं समन्वय की नदी कहता हूं। पश्चिम-घाट के दो स्रोतों का पानी वह एकत्र करती है। केवल इसीलिए मैं उसे समन्वय-नदी नहीं कहूंगा। ऐसे तो दुनिया की असंख्य नदियां अनेक स्रोतों को एकत्र करती आई है। गंगा-यमुना का सगंम तो कवियों ने गाया ही है। मुला-मुठा के संगम पर महाराष्ट्र की राजधानी स्वरूप पूना शहर बसा है। उस संगम ने एक नदी का नाम दबाकर दूसरी नदी का नाम आगे चलाने का पक्षपात नहीं किया है। मुला और मुठा दोनों नामों का द्वंद्व समास बनाकर मुलामुठा आगे बहती हैं। यही न्याययुक्त व्यवहार तुंगभद्रा ने भी किया है, क्योंकि तुंगा और भद्रा मिलकर तुंगभद्रा बनती है।

ऐसी-ऐसी नदियों को भी जब मैंने समन्वय-नदी नहीं कहां, तब वैगै को मैं समन्वय-नदी क्यों कहता हूं? इसका मुख्य कारण यह है कि यह संगम अथवा समन्वय मनुष्य के पुरुषार्थ से हुआ है।

जिस तरह वैगै नदी पश्चिमी घाट का पानी साठ-सत्तर मील बहाने के बाद पूर्वी समुद्र को दे देती है, उसी तरह उसी पश्चिमी घाट के उस पार की पेरियार नदी उस बाजू का पानी पश्चिमी समुद्र को देने ले जाती है। अंग्रेजों ने सोचा कि पेरियार नदी का इतना ढेर पानी देखते-देखते अरबी समुद्र में फेंका जाय, यह कोई न्याय नहीं है। पेरियार नाम का अर्थ ही होता है महानदी। अगर सह्याद्रि को बींधकर पहाड़ के पेट में से करीब एक मील की नहर खोदी जाय तो पेरियार का बहुत-सा पानी उस पार की वैगै नदी को सौंपा जा सकता है। इस तरह जिस पानी को कुदरत ने पश्चिमी समुद्र को देने का सोचा था, उसे उलटाकर तमिलनाडु की सेवा करते-करते पूर्वी समुद्र तक पहुंचाया जा सकता है।

किंतु ऐसा करने के लिए पेरियार नदी का पानी एक बड़े बांध से रोककर वहां एक छोटा-सा सरोवर बनाना पड़ा और फिर यह पानी उस सरोवर में से एक मील से अधिक लम्बी नहर के द्वारा सह्याद्रि के पूर्व की ओर छोड़ दिया गया है। पहाड़ के उस पार जाने के लिए बाद वही नहर छत्तीस मील आगे जाकर पानी को अनेक दिशाओं में छोड़ देती हैं। इतने बड़े पुरुषार्थ के इतिहास को रोमांचक समझना चाहिए। ऐसा ‘विपरीत’ काम करें या न करें, इसका अंग्रजों ने भी सौ साल तक चिंतन किया।

ऐसे मनुष्य-कृत पुरुषार्थ के फलस्वरूप जो नदी जल-पुष्ट बन गई, उस समन्वित वैगै को सर्वप्रथम श्रद्धांजली अर्पण करने की जी चाहा तो उसमें आश्चर्य क्या?

अब आती हैं दक्षिण की रानी कावेरी नदी। इसका पौराणिक इतिहास कैसा भी रम्य और भव्य क्यों न हो, आज कावेरी का स्मरण हम इसलिए करते हैं कि यही एक भारतीय नदी है, जिसके पानी का मध्यकाल से हम अधिक-से-अधिक उपयोग करते आये हैं। पूर्वी समुद्र भले ही हमसे इस कारण नाराज हो, असंख्य मनुष्य और पशु, पक्षी (और खेत की वनस्पतियां भी) हमें इस पुरुषार्थ के लिए हमेशा आशीर्वाद देते रहेंगे।

जब मैं कुर्ग प्रांत की राजधानी मरकारा (मडीकेरे-शुद्ध शहर) गया था तो किसी ने आसपास का और दूर का प्रदेश दिखाते हुए कावेरी के उद्गम की दिशा भी बताई थी। ब्रह्मगिरि से यह नदी निकलती है। उसका नाम है तलैकावेरी। जिस तरह तापी (ताप्ती) नदी के उद्गम को मूलतापी कहते हैं, उसी तरह कावेरी के उद्गम स्थान को तलैकावेरी कहते होंगे। कन्नड़ भाषा में सिर को तलै कहते हैं। पहाड़ के ऊंचे स्थान से नदी का उद्गम है, इसलिए भी उसे तलैकावरी कहते होंगे। बड़ा काव्यमय और लुभावना स्थान है वह। यहां कावेरी कुर्ग और मैसूर इन प्रांतों या राज्यों को बींधकर तमिलनाडू की भूमि को अनेक शाखाओं और नहरों के द्वारा अपने पानी का दान करते-करते जो कुछ पानी बच जाता है, समुद्र को दे देती है। इसी कावेरी की उत्तर की बड़ी शाखाओं को स्वतंत्र नदी समझकर कोलेरून का नाम मिला है। अंग्रेज लोगों ने अपनी सहूलियत के लिए हमारे नामों के मनमाने रूपांतर किये हैं, उसका यह एक नमूना है।

कावेरी को अपना पानी अर्पण करने वाली उप-नदियों की संख्या कम नहीं है। फिर समुद्र की ओर पहुंचते उसकी शाखाएं अनेक बनें, तो उसमें आश्चर्य क्या है?

महाराष्ट्र के हम लोग हमारी गोदावरी को दक्षिण-गंगा कहते हैं। पुराणों ने भी इस नाम को स्वीकार किया है, तो भी दक्षिण के लोग कावेरी को ‘दक्षिण-गंगा’ कहने का आग्रह रखते हैं। किसने कहा है दक्षिण में एक ही गंगा होनी चाहिए गोदावरी और कावेरी दोनों को हम समान-भाव से दक्षिण-गंगा कहें तो इसमें किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए।

मैंने कावरी का भव्य दर्शन किया था। टीपू सुल्तान के श्रीरंगपत्तन में। कावेरी-ने अपने प्रवाह में। श्रीरंगपत्तन शिव समुद्रम और श्रीरंगम् ऐसे तीन सुन्दर टापुओं को जन्म दिया है। इनका वर्णन मैं नहीं करूंगा। कावेरी को स्कंदपुराण में आया हुआ इतिहास, चोल राजाओं का कावेरी के पानी से सेवा लेने का पुरुषार्थ, कावेरी के मार्ग में आने वाले अप्रतिम सुन्दर प्रपातों आदि का वर्णन भी मैं नहीं करूंगा, क्योंकि वह अनधिकार-चेष्टा होगी।

भारत की नदियों के बारे में लिखते हुए मैंने गुजरात की विपुल-जल नदियों के बारे में कुछ भी नहीं लिखा, हालांकि गुजरात में मैंने अपने जीवन के सर्वोत्कृष्ट दिन बिताये थे। कारण पूछने पर मैंने कहा, “अपनी लेखमाला मैं गुजराती में लिख रहा हूं तो गुजरात के बाशिंदों के सामने उन्हीं के प्रदेश की नदियों के बारे में क्यों लिखूं? यह काम गुजरात के सुपुत्रों का है।”

कावेरी के बारे में लिखने बैठा और वैसा ही विचार आया कि तमिलनाडू की नदियों के बारे में तमिल भाषा में लिखने का अधिकार तमिलनाडू के सुपुत्रों का और सुकन्याओं का है।

हम सब भारतवासी नदी-पुत्र और नदी-भक्त हैं। इसी कारण हम एक-दूसरे का हृदय अच्छी तरह से पहचान सकते हैं। नदी-भक्ति के द्वारा भी हम भारतवासी भारत की एकता को मजबूत और समृद्ध बना सकते हैं।

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