वैदिक वाङ्मय में पर्यावरण

(जल के विशेष संदर्भ में)


पर्यावरण संरक्षण की आवश्यकता इस सदी की सबसे गंभीर समस्या का रूप धारण करके मानव के समक्ष प्रस्तुत है। मानव सृष्टि का सर्वाधिक बुद्धिमान प्राणी है। वैज्ञानिक तथा तकनीकी ज्ञान के द्वारा मनुष्य ने बहुत प्रगति की, किंतु प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन भी हुआ। आज स्थिति इतनी भयावह हो गई है कि समस्त पृथ्वी का अस्तित्व संकट में है। पर्यावरण संरक्षण हेतु धर्म एवं धार्मिक निर्देशों और विज्ञान का समन्वय करना अतिआवश्यक हो गया है। प्रकृति-प्रेम एवं प्रकृति–संरक्षण की चिंतनधारा भारतीय संस्कृति की सर्वोपरि विशेषता है। भारतीय ऋषि-मनीषियों को प्रकृति एवं पर्यावरण प्रणाली का संपूर्ण एवं समग्र ज्ञान था। इन्हें प्रकृति, जीव के आपसी संबंधों तथा इन संबंधों से उत्पन्न परिणाम एवं प्रभावों का पूर्ण अनुभव था। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति में प्रकृति को माता के गरिमामय पद से अलंकृत किया जाता है और इसके पंचतत्वों से बने भौतिक घटक तथा वृक्ष-वनस्पतियों को देवतुल्य मानकर पूजा की जाती है।

वेद, रामायण एवं महाभारत में वृक्षों के प्रति मनोरम कल्पना की गई है। महाभारत के भीष्म पर्व में वृक्ष को सभी मनोरथों को पूरा करने वाला कहा गया है, ‘सर्वकाम फलाः वृक्षा’। विष्णु धर्मसूत्र, स्कंदपुराण में वृक्ष के काटने के अपराध माना गया है। वृक्षों की भांति यहां पशु-पक्षियों के प्रति भी सुरक्षा एवं संरक्षण के साथ समुचित सम्मान का भाव सन्निहित है। वन्य पशुओं को भी यही सम्मान प्राप्त है।

प्रकृति और पर्यावरण की इन्हीं सब विशेषताओं के कारण यहां पर पर्यावरण-संरक्षण और इसके विकास के प्रति निरंतर जागरूकता बनी रही है, परंतु पर्यावरण के प्रति इस भावधारा के लुप्त होते ही शोषण और शोषक रूपी आत्मघाती मनोवृत्ति पनपी, जिसके अभिशप्त परिणाम से सभी अवगत हैं। यही कारण है कि आज स्वस्थ समाज के लिए पर्यावरण का अध्ययन नितांत आवश्यक हो गया है। मानव पर्यावरण का अभिन्न अंग है। प्रकृति और पर्यावरण को सुरक्षा प्रदान करने, इसे फिर से संरक्षित, सुरक्षित और समृद्ध करने के लिए हमें इनके प्रति फिर से भावनात्मक संबंध स्थापित करने होंगे। प्राचीन भारतीय संस्कृति की मान्यताओं को सामयिक परिप्रेक्ष्य में समय की कसौटी पर कसकर फिर से हमें ‘माता भूमिः पुत्रोSहं पृथिव्याः।’ का उद्घोष करना होगा। हमें प्रकृति और पर्यावरण के हर घटक को देवतुल्य मानकर इसको संरक्षित एवं विकसित करने का प्रयास-पुरुषार्थ करना होगा। यही युग का आह्वान है-

शांता द्यौः शांता पृथिवी
शांतमिदभुर्वशंतरिक्षम्।
शांता उदंवतीरापः
शांता नः संत्वोषधीः।।

-अथर्ववेद, 21/9/1

अर्थात् अत्यधिक उष्ठाता वाला प्रकाश शांत हो, पृथ्वी की उथल-पुथल शांत हो, अंतरिक्ष शांत हो, उत्तम जल वाली उफनती नदियां शांत हों, औषधियां शांत हों। वेदकर्ता का कहना धरती पर और धरती तथा आकाश के मध्य जहां कहीं भी प्राकृतिक विपदाएं आएं, वे प्राणिमात्र के लिए शांतिदायक हों। पृथ्वी पर उत्पन्न होने वाली समस्त औषधियां प्राणी के दुःख को शमन करने वाली हों अर्थात् ईश्वर ने जिस प्रकृति की सृष्टि की है, वह प्राणिमात्र के लिए सुखकारी हो। इस प्रकार का भावनात्मक संबंध हमें वेदों में देखने को मिलता है। प्रस्तुत लेख में अथर्ववेद को केंद्र में रखकर जल के सदर्भ में अध्ययन किया गया है।

‘पर्यावरण’ दो शब्दों – ‘परि’ अर्थात् बाहर अथवा चारों ओर और ‘आवरण’ अर्थात् घेरा के योग से बना है। इस प्रकार पर्यावरण का शाब्दिक अर्थ हुआ, ‘वह आवरण जो हमें चारों ओर से घेरे हुए हैं। ’ प्रकृति के अंतर्गत जो कुछ भी हमें दिखाई पड़ता है, वह पर्यावरण का एक अंग है। जल, वायु, मृदा, पर्वत, नदी, झील, तालाब, समुद्र, पेड़-पौधे एवं जीव-जंतु सभी पर्यावरण के ही अभिन्न अंग हैं। पर्यावरण प्रकृति का सर्वश्रेष्ठ वरदान है। कोई भी जीव अपने पर्यावरण से अलग रहकर जीवनयापन नहीं कर सकता। आवास, पोषण, जल, श्वसन, प्रजनन आदि प्रक्रियाएं संप्रति पर्यावरण से ही संभव है। ‘किसी भी जीव व जीव समूह के चारों ओर विद्यमान परिस्थितियां, जो उस जीव या जीव-समूह को प्रभावित करती हैं, उसका पर्यावरण कहलाती हैं। मानव भी चूंकि एक जीवधारी है, अतः अन्य जीवों की भांति वह भी पर्यावरण का एक अभिन्न अंग है। भौतिक घटक जैसे खनिज, जल, वायु, मृदा, प्रकाश, तापक्रम, आदि तथा वे सभी जैविक घटक जैसे सूक्ष्म या बड़े जीवधारी, जिनसे हमारा प्रत्यक्ष रूप से संपर्क होता है, हमारे पर्यावरण के महत्वपूर्ण भाग हैं। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि हमारा पर्यावरण वह भौतिक व जैविक संसार है, जिसमें हम निवास करते हैं।’ वैदिक ऋषि अथर्वा, वाचस्पति की प्रार्थना करते हुए कहते हैं-

ये त्रिसप्ताः परियंति विश्वा रूपाणि बिभ्रतः।
वाचस्पतिर्बला तेषां तन्वो अद्य दधातु में।।


अर्थात् पृथ्वी, जल, तेज, वायु आकाश, तन्मात्रा और अहंकार – ये सात पदार्थ और सत्, रज तथा तम ये तीन गुण, इस प्रकार जगत् में तीन गुणा सात ‘इक्कीस’ देवता सब ओर आवागमन करते हैं। वाणी के स्वामी ब्रह्मा उनके अद्भुत बल को हमें प्रदान करें। इस मंत्र में प्राकृतिक शक्तियों से बल प्राप्त करने के लिए प्रार्थना की गई है।

पर्यावरण संरक्षण की आवश्यकता इस सदी की सबसे गंभीर समस्या का रूप धारण करके मानव के समक्ष प्रस्तुत है। मानव सृष्टि का सर्वाधिक बुद्धिमान प्राणी है। वैज्ञानिक तथा तकनीकी ज्ञान के द्वारा मनुष्य ने बहुत प्रगति की, किंतु प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन भी हुआ। आज स्थिति इतनी भयावह हो गई है कि समस्त पृथ्वी का अस्तित्व संकट में है। पर्यावरण संरक्षण हेतु धर्म एवं धार्मिक निर्देशों और विज्ञान का समन्वय करना अतिआवश्यक हो गया है। मानव ने बुद्धि एवं चिंतन द्वारा असीमज्ञान अर्जन किया है। इस ज्ञान को दो धाराओं में विभक्त किया जा सकता है-

1. अंतर्बोध पर आधारित आध्यात्म अथवा धर्म।
2. अवलोकन, विश्लेषण एवं तर्क पर आधारित भौतिक जगत् से संबंधित निष्कर्ष जिसे विज्ञान कहा जाता है।

संपूर्ण ब्रह्मांड को जानने-समझने की मानव की असीम जिज्ञासा के फलस्वरूप विज्ञान का उत्तरोत्तर विकास होता चला गया। मानव के चारों ओर जो कुछ भी भौतिक पदार्थ हैं, उनसे मिलकर उसका पर्यावरण निर्मित होता है, जिसमें जल, वायु एवं पृथ्वी तथा जैविक तत्व सम्मिलित हैं। आदर्श स्थिति में इन सबमें परस्पर संतुलन होना अनिवार्य है, तभी जीवन-चक्र सुचारु रूप से गतिमान रहते हुए विकसित होता रह सकता है। जल, वायु, मृदा (धरती) एवं जैविक तत्वों में किसी प्रकार का अवांछनीय भौतिक अथवा रासायनिक परिवर्तन जीवन-चक्र में व्यवधान उत्पन्न करता है। इसी को प्रदूषण कहा जाता सकता है।

विज्ञान-विकास एवं पर्यावरण


विज्ञान की प्रगति के साथ उस अर्जित ज्ञान के उपयोग की कला ने तकनीक को जन्म दिया और इसी तकनीकी ज्ञान ने मानव को एक ऐसा अस्त्र दे दिया, जिससे वह इस धरती का असीम शक्ति-संपन्न, निरंकुश स्वामी बन बैठा, जिसके फलस्वरूप उसने पृथ्वी के संसाधनों का अविवेकपूर्ण दुरुपयोग किया। विकास की सामान्य अवधारणा अधिक-से-अधिक आर्थिक एवं भौतिक संपदा अर्जन करना एवं सुख-सुविधा युक्त जीवन माना गया है। अनियमित विकास के परिणामस्वरूप पृथ्वी पर पर्यावरण का संतुलन बिगड़ने लगा। पृथ्वी अपने संसाधनों की एक सीमित मात्रा तक पर्यावरण को संतुलित रखने की क्षमता रखती है, परंतु इसके पश्चात पर्यावरण में असंतुलन उत्पन्न होना अवश्यंभावी है और आज उसी विकट परिस्थिति से संपूर्ण विश्व आक्रांत है। निश्चित रूप से यह स्थिति एकाएक उत्पन्न नहीं हुई, वरन्, बहुत धीमी गति से औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप उत्पन्न हुई है।

धर्म एवं पर्यावरण संरक्षण


मानव ज्ञान के अंतर्बोध पर आधारित धारा, जिसे आध्यात्म अथवा धर्म का नाम दिया गया है, मानवीय समस्याओं, विशेष रूप से पर्यावरण के संबंध में अत्यंत मुखर हैं। विशेष रूप से भारतीय चिंतन में पर्यावरण के संबंध में उस काल के मनीषियों की दूरदृष्टि आश्चर्यजनक है। वैदिक धर्म-शास्त्रों से लेकर जैन, बौद्ध, ईसाई, इस्लाम, सिख आदि धर्म में किसी-न-किसी रूप में ऐसी शिक्षाओं का समावेश है, जिनके अनुसार आचरण करने से पर्यावरण का संरक्षण स्वतः हो सकता है, क्योंकि धर्म और विज्ञान, ज्ञान की दो अलग धाराएं होने पर भी एक ही लक्ष्य प्राप्ति की ओर अग्रसर हैं। धर्म के संस्दर्शन से विज्ञान विश्व को सुख-शांति देने की क्षमता रखता है।

इस दृष्टि से हिंदू धर्म-ग्रंथ एक विशिष्ट स्थान है, क्योंकि उनकी मूल भावना ही ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की अवधारणा पर आधारित है। हिंदू धर्म के मूल सिद्धांत वेदों पर आधारित हैं। वैदिककाल के मनीषियों को अपनी अंतर्चेतना से शायद यह ज्ञात था कि मानव अंततः अपने लिए भयंकर समस्याएं उत्पन्न कर लेगा, जिससे उसका विनाश हो सकता है। उन्होंने पहले ही इसके लिए सचेत कर दिया था।

प्रस्तुत लेख में ‘’जल को अध्ययन का विषय बनाया गया है। यह अध्ययन अथर्वेवेद पर आधारित है। भारतीय संस्कृति में पर्यावरण संरक्षण को महत्व करना अत्यंत पुनीत कार्य माना गया है। यह किसी आराधना से कम नहीं है। पर्यावरणविद् एवं मनोविज्ञानी इस तथ्य से भलीभांति परिचित हैं कि मानवीय व्यक्तित्व के त्रिविध आधार-भौतिक, जैविक और मानसिक-तीनों परिवेश पर्यावरण से गहराई से जुड़े हैं। अंतःकरण का प्रकृति से संबंध है। आज इसी क्षेत्र में खोज जारी है। इसके निष्कर्ष इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि पर्यावरण असंतुलन हमारे मन, भावना आदि को भी प्रभावित किए बिना नहीं रहता।

आज हमारी धरती संकट में है। संकट में जल, वायु, मृदा आदि भी हैं और मानव भी संकट से घिरा हुआ है। आखिर ऐसा क्यों है? किस कारण से मानव के साथ पर्यावरण भी महामारी का दंश झेलने को विवश है। धरती माता एवं उनकी संतानें-जलचर, नभचर, उभयचर एवं पेड़-पौधे भी अपने अस्तित्व के खतरे से डरे-सहमें हुए हैं। यह सभी पर्यावरण के विनाश के कारण घट रहा है। विकास के नाम पर अपनी धरती के प्रत्येक कोने पर मानव ने विनाश ही किया है। नदी-नाले, पहाड़-पर्वत, जंगल-झुरमुट, सागर-महासागर, रेगिस्तान एवं यहां तक कि हमने वीरान ध्रुव प्रदेश को भी नहीं छोड़ा है। धरती पर जीवन को संचालित करने वाले लगभग दो-तिहाई कुदरती घटक छिन्न-भिन्न हो चुके हैं। प्रकृति का जर्रा-जर्रा जल, वायु और जीवन के लिए जरूरी पोषक तत्व प्रदान करने वाला पारिस्थितिकी-तंत्र बेहाल एवं बर्बादी के कगार पर खड़ा हुआ है। धरती की कुल 24 पारिस्थितिकी-प्रणालियों में से 15 पूर्ण रूप से क्षतिग्रस्त हो चुकी हैं। इससे पर्यावरण में बेहद असंतुलन आ चुका है। यही कारण है कि बरसात के मौसम में सूखा, गर्मी में बर्फ गिरती है, ठंड में लू और हवाएं चलती हैं। प्रकृति के साथ छेड़छाड़ से हमें तात्कालिक लाभ तो मिलता है, परंतु पर्यावरण विनाश के रूप में इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ती है।

जल – संसाधन


वर्षा के जल का कुछ भाग भूमि सोख लेती है, जिसे भूमिगत जल कहते हैं तथा शेष जल ढालू सतह से बहना प्रारंभ कर देता है। इसे बहता हुआ जल कहते हैं। जैसे – नदी, नाला, झरना, सोता आदि। इस प्रकार भू-पृष्ठ के ऊपर तथा भूगर्भ के आंतरिक भागों में मिलने वाले समस्त जल-भंडारों को जल-संसाधन कहा जाता है। जल ही जीवन है। इसके बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। मानव, जल का उपयोग पीने के अतिरिक्त स्नान करने, कपड़े धोने, मछली, पालने, सिंचाई, परिवहन आदि कई कार्यों में करता है। जल की सहायता से ही मानव मिट्टी पर कुछ पैदा कर सकता है। पृथ्वी पर पाए जाने वाले जल-संसाधन दो श्रेणियों में विभाजित किए जा सकते हैं-

1. सामुद्रिक अथवा लवणीय जल,
2. स्वच्छ अथवा अलवणीय जल।

पृथ्वी का ¾ भाग (72 प्रतिशत) समुद्री जल से घिरा है। यह विशाल एवं प्राचीनतम् पारिस्थितिकी-तंत्र है। इसकी औसत गहराई 3.5 किलोमीटर है। यह खारा है तथा पीने योग्य भी नहीं है। यह खेती एवं उद्योग के लिए भी उपयुक्त नहीं है। यह लवणीय जल मछलियों एवं समुद्री जीवों के रहन-सहन तथा जल-परिवहन के लिए ही उपयुक्त है। जल की लवणता लगभग 3.5 प्रतिशत यानी एक लीटर जल में पैंतीस ग्राम लवण घुला होता है, जिसमें मुख्य सोडियम क्लोराइड (27 प्रतिशत) है। इसके अतिरिक्त अन्य उपस्थित लवण मैगनीशियम, पोटैशियम, कैल्शियम आदि हैं।

संपूर्ण पृथ्वी पर सिर्फ 3 प्रतिशत जल ही पीने योग्य है, जिसका 24.4 भूमि में, 0.4 प्रतिशत नदियों, झीलों, तालाबों, कुओं आदि में था 77.2 प्रतिशत ध्रुवों के हिमखंडों में बर्फ के रूप में जमा रहता है। इसका उपयोग पीने के अतिरिक्त कृषि व उद्योग के लिए होता है। सभी स्वच्छ जल में लवण का प्रतिशत 0.05 अथवा एक लीटर जल में 0.5 ग्राम से कम मिलता है। स्वच्छ जल का विशिष्ट गुण इसकी निम्न लवणता है।

जल-संसाधन का मानव के लिए उपयोग


जल संसाधन मानव के लिए निम्न उपयोग हैं-

1. जमीन के लिए जल स्वयं परम् आवश्यक पोषक तत्व है, अनेक भोज्य पदार्थों की प्राप्ति जल संसाधनों से ही होती है। मत्स्य व्यवसाय जल पर ही आधारित है।
2. कृषि एवं उद्योग-धंधों का आधार है, सिंचाई के लिए आवश्यक है।

3. जीव-जंतुओं का आवास-स्थल है। इसके अतिरिक्त इन्हें अपनी वृद्धि एवं पोषण के लिए जल की आवश्यकता होती है।
4. अनेक प्रकार के खनिजों जैसे-नमक, चूना आदि की प्राप्ति होती है। जापान में मोतियों के लिए मोती सीप पाली जाती है।
5. जल विद्युत तथा वाष्प-शक्ति के उत्पादन में सहयोग करता है।
6. यह जलवायु के नियमन और ऊष्मा के असीम भंडार का शोषण करने की क्रिया में भाग लेता है।
7. जल द्वारा वायुमंडल में आर्द्रता बढ़ती है तथा तापक्रम सामान्य बनाने में सहयोग करता है।
8. जलीय-पौधों की खेती करने के लिए एवं मवेशियों की आवश्यकताओं को पूरा करता है।
9. शहर की नालियों की गंदगी को बहाने के लिए, नाव द्वारा यातायात के लिए नहाने-धोने के लिए आवश्यक है।
10. जल दैनिक उपयोग की वस्तु है। पीने, भोजन बनाने के काम आता है।
11. समुद्र यातायात में भारी बचत करता है। नौपरिवहन मानव को यात्रा करने, भारी-से-भारी माल ढोने में सहयोग देता है।
12. समुद्र के गर्भ से करोड़ों टन तांबा, लोहा, निकिल, मैगनीज , मूंगा, कोयला, पेट्रोल, विभिन्न गैसें प्राप्त होती हैं। मछलियों के अतिरिक्त विभिन्न जलीय वनस्पतियां जैसे-शैवाल आदि भारी मात्रा में मौजूद हैं। कुछ अन्य बहुमुल्य धातुएं जैसे-सोना,चांदी आदि समुद्र की गहराई में चट्टानों के रूप में मिलते हैं। अभी समुद्री जल से सीमित मात्रा में नमक, आयोडीन, मैगनीशियम आदि ही निकाले जा रहे हैं।


अथर्ववेद में सबसे अधिक जल को महत्व दिया गया है। वैदिक ऋषि कहता है, ‘यह हम अच्छी तरह जानते हैं कि सभी जड़-चेतन का धारण और पोषणकर्ता पर्जन्य सृष्टि का पिता और समस्त तत्वों से परिपूर्ण पृथ्वी इसकी माता है। इनसे ही सृष्टि उत्पन्न होती है। बादल जड़-चेतन को धारण और पोषण करने वाला है। मेघ सैकड़ों सामर्थ्यवाला और आत्मबल की शक्ति से युक्त है। जल के अधिष्ठाता देवता बादल का आह्वान करता हुआ ऋषि कहता है कि जो समुद्र का पान करके, वृष्टि कर हवि प्रदान करता है और जहां बहने वाली जलपूर्ण नदियों और जलाशयों के जल का सेवन कर हमारी गौएं तृप्त होती हैं। जल के औषधीय महत्व को रेखांकित करते हुए कहा गया है कि रोग-निवारक और पुष्टिवर्धक पदार्थ जिस जल से उत्पन्न होते हैं, वह जल अमृतरूपी औषधियों से परिपूर्ण है। उसके दिव्य गुणों से गौएं और अश्व बलवान होकर उपकारी होते हैं।’

अप्स्वंतरमृतमप्सु भेषजम्।
अपामुत प्रशस्तिभिरश्वा भवथ
वाजिनो गावो भवथ वाजिनीः।।


जल सुख प्रदाता है, परब्रह्म से साक्षात्कार करने, सुख का उपभोग करने और रमणीय तत्वों का दर्शन करने के लिए वैदिक ऋषियों ने उसकी प्रार्थना की है। वे कहते हैं कि हम वृद्धि प्रदान करने वाले उस जल का सान्निध्य पाना चाहते हैं, जो अन्नादि उत्पन्न करके प्राणिमात्र को पोषण देने वाला है। प्राणिमात्र की व्याधियों का औषधियों द्वारा निवारण करने वाला जल दिव्य गुणों से युक्त एवं सुख-साधनों का स्वामी है। हम उस औषधीय जल की उपासना करते हैं-

आपो हिष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन।
महेरणाय चक्षसे।
तस्मा अरं गमाम के यस्यक्षयायजिन्वथ।
आपो जनयथा च नः।
ईशाना वार्याणं क्षयंतीश्वर्षणीनाम।
अपो याचामि भेषजम्।।


जिस प्रकार माताएं प्रेम से अपनी संतानों को दूध पिलाकर पुष्टि प्रदान करती हैं, उसी प्रकार जल में जो तत्वरूप परम् कल्याणकारी रस है, उसकी प्राप्ति के लिए प्रार्थना की गई है। दिव्यगुण युक्त जल अभीष्ट को सिद्ध करने वाला, सुखकारी, सेवन योग्य, शांति प्रदान करने वाला है। इसमें सब दिव्य औषधियां विद्यमान हैं। सौर जगत् को आनंद पहुंचाने वाला और कल्याण करने वाला अग्नि देवता भी उसमें अवस्थित है-

अप्सु मे सोमो अब्रवीदंतदर्विश्वानि भेषजा।
अग्निं च विश्व शंभुवम्।।


रोगों के निवारणार्थ औषधियां प्रदान करने वाला जल, मनुष्य के शरीर को स्वस्थ रखने वाला है। वैदिक ऋषि सिंधुद्वीप जल की प्रार्थना करता हुआ कहता है – निर्जल देश का जल हमारे लिए सुखकारी हो, जल वाले देश का जल सुख प्रदान करने वाला हो। भूमि आदि खोदकर निकाला गया कुएं का जल तथा घड़े में भरकर लाया गया जल सुख प्रदान करे। इसी प्रकार वर्षा से प्राप्त हुआ जल भी कल्याणकारी हो-

शं न आद्यो धन्वन्याः
शमु संत्वनूप्याः
शं नः खनित्रिभा आपः।
शमु याः कुंभ आभृताः
शिवा नः संतु वार्षिकी।।


अथर्ववेद का शंताति ऋषि जल की प्रार्थना करता हुआ कहता है-जो जल सुवर्ण की आभा से युक्त, अत्यंत रमणीय और पवित्र है, जिससे अग्नि और सविता देवता उत्पन्न हुए हैं तथा जो श्रेष्ठ वर्ण वाला जल अग्निगर्भ है, वह हमारी व्याधियों का समन करके हम सबको सुख और शांति प्रदान करने वाला हो। जिस जल में स्थित रहकर वरुण देव सत्य और असत्य का निरीक्षण करता चलता है और जो सुंदर वर्ण वाला जल अग्नि को गर्भ में धारण करता है, वह हमारे लिए शांति का दाता हो। इंद्रादि देवता स्वर्ग में जिस जल के सारभूत तत्व का तथा सोमरस का सेवन करते हैं, जो अंतरिक्ष में विविध रूप से वास करता है, वह अग्निगर्भा जल हम सबको सुख और शांति प्रदान करने वाला हो। हे जल के अभिमानी देवताओं! अपने कल्याणकारी नेत्रों द्वारा तुम हमें देखो और अपनी देह द्वारा हमारी त्वचा का स्पर्श करो। अमृततुल्य, तेजस्वी, शुद्ध और पवित्र जल हमें सुख और शांति प्रदान करने वाला हो-

हिरण्यवर्णाः शुचयः पावकायासु जातः सविता यास्विग्निः।
या अग्निं गर्भ दधिरे सुवर्णास्ता न आपः शं स्योना भवंतु।।
यासां राजा वरुणो याति मध्ये सत्यानृते अवपश्यन् जनानाम्।
या अग्निं गर्भं दधिरे सुवर्णास्ता न आपः शं स्योना भवंतु।।
यासां देव दिवि कृण्वंति भयं या अंतरिक्षे बहुधा भवंति।
या अग्निं ग र्भं दधिरे सुवर्णास्तान आपः स्योना भवंतु।।
शिवेन मा चक्षुषा पयश्यतापः शिवया तन्वोप स्पृशत त्वचं मे।
घृतश्रुतः शुचयो याः पावकास्ता न आपः शं स्योना भवंतु ।।


औषधि के निमित्त प्रयोगात्मक जल सुख प्रदान करने वाला तथा रोगों का शमन करने वाला है। अथर्वा ऋषि शत्रुओं के विनाश के लिए जल से प्रार्थना करते हुए कहते हैं- हे जल! तू अपने भीतर की ताप शक्ति के द्वारा उस शत्रु को शांत कर जो हमसे द्वेष करता है अथवा जिससे हम द्वेष करते हैं। तू अपनी हरण शक्ति के द्वारा उसकी शक्ति को हर ले। हे जल! जो हमसे द्वेष करता है तथा जिससे हम विद्वेष करते हैं, तू अपने भीतर की प्रज्जवलन शक्ति के द्वारा उस शत्रु को जला दे। हे संतप्त करने वाले जल! तू अपनी इस शक्ति के द्वारा उस मनुष्य को शोक-संतप्त कर, जो हमसे द्वेष करता है अथवा जिससे हम द्वेष करते हैं। हे जल! जो हमसे द्वेष के कारण शत्रुता रखता है अथवा जिससे हम भी द्वेष करते हैं। हे जल! जो हमसे द्वेष करता है अथवा जिससे हम द्वेष करते हैं, उस शत्रु को तू अपनी शक्ति द्वारा तेजविहीन कर दे-

आपो यद् वस्तपस्तेन तं प्रति
तपत योस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः।।
आपो यद् वो हरस्तेन तं प्रति
हरत योस्मान द्वेष्टि यं वयं द्विष्म।
।आपो यद् वोSर्चिस्तेन तं प्रत्यर्चत
योस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः।।
आपो यद् वः शोचिस्तेन ते प्रति
शोचते योस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः।।
आपो यद् वस्तेजस्तेन तमतेजसं
कृणतु योस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्म।।


सभी व्याधियों की औषधि में जल प्रमुख है। औषधि रूप में (स्नानादि के द्वारा) यह अनेक रोगों का शमन करता है। वैदिक ऋषि रोगियों से कहता है कि हे रोगिन! ऐसे जल से तेरे सभी क्षेत्रीय रोगों का शमन हो-

आप इद वा उ भेषजीरापो अमीवचातनीः।
आपो विश्वस्य भेषजीस्तास्त्वा मुञ्चंतु क्षेत्रियात्।।


जल को नदी भी कहते हैं। नदी क्यों कहते हैं, इस पर प्रकाश डालते हुए ऋषि कहता है- अच्छी प्रकार से सदा गतिशील रहने वाले जल! मेघ के ताड़ित करने पर इधर-उधर नाद करने के कारण तेरा नाम ‘नदी’ पड़ा। यह मान तेरे अनुरूप ही है-

यददः संप्रयतीरहावनदता हते।
तस्मादा नद्यो नाम स्थ ता वा नामानि सिंधवः।।


जल का पर्यायवाची ‘आपः’ है। इसके संदर्भ में भृगु ऋषि ने कहा है – वरुण द्वारा प्रेरित होकर जब तू नाचता हुआ-सा मिलकर चलने लगा, तब इंद्र ने तुझे प्राप्त किया, इसी कारण तेरा नाम ‘आपः’ पड़ गया-

यत् प्रेषिता वरुणेनाच्छीभं समवल्गत।
तदाप्नोदिंद्रो वो यती स्तस्मादापो अनुष्ठनः।।


‘वारि’ के संदर्भ में कहा गया है – अपनी इच्छा के विरुद्ध इंद्र ने अपनी शक्ति के द्वारा तेरा वरण किया, अतः हे देवनशील जल! तेरा नाम ‘वारि’ हुआ-

अपकामं स्यंदमाना अवीवरत् के हि किम।
इंद्रो वः शक्तिभिर्देवीस्तस्माद्वार्नाम वो हितम्।।


‘उदक’ के विषय में ऋषि ने कहा है-हे प्रभावित होने वाले जल! इंद्र ने एक बार तुझ पर आधिपत्य जमाया। इंद्र के महत्व के कारण तूने स्वयं को बड़ा मानकर उदन किया, तभी से तेरा नाम ‘उदक’ पड़ा-

एको वो देवोSप्यतिष्ठत् स्पंदमाना यथावशम्।
उदानिषुर्महीरिति तस्मादुदकमुच्यते।।


जल का आह्वान करता हुआ ऋषि कहता है कि हम अनुभव करते हैं और उच्चारित शब्द हमारे कानों में आ रहे हैं। हे सौंदर्यमय आभायुक्त जल! अमृत के समान तेरा सेवन करने के उपरांत हमें बड़ी शांति की अनुभूति हो रही है। हे जल! तुम्हारा हृदय सुवर्ण के समान है। हे प्रभावित धाराओं! ऋतु तुम्हारा पुत्र है। हे बल प्रदान करने वाली धाराओ! तुम यहां आगमन करो, ताकि हम तुम्हें प्राप्त कर सकें-

आदिल् पश्याम्युत वाश्रृणोम्या मा घोषो गच्छति वाड्मासाम्।
मन्ये भेजानो अमृतस्य तर्हि हिरण्यवर्णा अतृपं यदा वः।।
इदं व आपो हृदयमयं वत्स ऋतावरी।
इहेत्थमेत शक्वरीर्येत्रेदं वेशयामि वः।।

ऋषि आकाश में स्थित जल देव से वृष्टि करने के लिए कहता है – हे वायो! हे सूर्य! हमारी हवि को तुम ग्रहण करो। आकाश में स्थित जलदेव वृष्टि के द्वारा इस भूमि को सिंचित करो-

शुनासीरेह स्म में जुषेथाम्।
यद् दिवि चक्थुः पयस्तेनेमामुपसिञ्चतम्।।

सृष्टि के आदि में प्रकट होकर जलों ने जगत् की रक्षा की। हिरण्यगर्भ से इन्होंने जगत् की रक्षा की। उन जलों के गर्भभूत प्रजापति को ये वैदिक ऋषि हविर्दान से संतुष्ट करते हैं-

आपो अग्रे विश्वभावन् गर्भं दधाना अमृता ऋतज्ञाः।
यासु देवीष्वधि देव आसीत् कस्मै देवाय हविषा विधेम।।


जल की महत्ता का वर्णन करता हुआ वैदिक ऋषि कहता है-हे राजन्! सविता देवता तुझे उसी प्रकार समृद्ध करे, जिस प्रकार तू अपने बंधुओं को समृद्ध करता है। हे रसयुक्त दिव्य जल! तू अपने तेज से इसका अभिषेक करे। सागर में टापू की भांति व्याघ्र तथा सिंह जैसे पराक्रमी पशुओं को जल की यह दिव्य धाराएं परम् सौभाग्य के निमित्त प्रेरित तथा विभूषित करती हैं-

अभित्वा वर्चसासिचन्नापो दिव्याः पयस्वती:।
यथासो मित्रवर्धनस्तथा त्वासविता करत्।।
एना व्याघ्रं परषस्वजानाः सिंह हविंति महते सोभगाय।
समुद्रै न सुभुवस्तस्थिवांसं ममृज्यंते द्वीपिनमप्स्वंतः।।


जिस जल के रस से औषधियों की उत्पत्ति होती है, मरुद्गण उस जल की वर्षा कराएं। जल की धाराएं पृथ्वी को समृद्ध करें तथा उससे विविध प्रकार की औषधियां उत्पन्न हों-

समीक्षयंतु तविषाः सुदानवोSयां
रसा ओषधीभिः सचन्ताम्।
वर्षस्य सर्गा महंतु भूमिंपृथग्
जायंतामोषधयो विश्वरूपाः।।


ऋषि शंताति दिव्य जलों का आह्वान करते हुए कहते हैं- उत्तम कार्यों को करने वाले हम गतिमान जल-धाराओं में निरंतर प्रवाहित दिव्य जलों का आह्वान करते हैं। चारों ओर संव्याप्त, निरंतर गतिमान जल की धाराएं क्रियाशक्ति उत्पन्न करके हमें इन अनर्थों से मुक्ति दिलाएं, जिससे हम श्रेय प्राप्त कर सकें। सभी मनुष्य अपने-अपने नियत लौकिक तथा पारलौकिक दोनों प्रकार के कार्य सविता देवता की प्रेरणा से संपन्न करें। कल्याणप्रद औषधियां और उनको पुष्टि प्रदान करने वाले जल हमारे निमित्त कल्याणकारी एवं पापनाशक हो। बर्फ से ढंकी हुई पर्वतों की पापनाशक जलधाराएं गमन करती हुई समुद्र में जाकर मिल जाती हैं। ये धाराएं हमारे हृदय की अग्नि को शांत करने वाली औषधियां प्रदान करें। हमारे चक्षुओं, एड़ियों और पांवों के अग्र भागों को जो-जो व्याधियां पीड़ित कर रही हैं, उन सब पीड़ाओं को वैद्य रूपी जल हमारे शरीर से निकाल बाहर करे। निरंतर बहती हे जलधाराओं! यह समुद्र तुम्हारा स्वामी और तुम इसकी पत्नियां हो। तुम रोगनिवारक औषधियां प्रदान करो, जिससे आरोग्य प्राप्त कर हम बल प्रदान करने वाले अन्नादि का उपभोग करने में समर्थ हों-

सस्त्रुषीस्तदपसो दिवा नक्तं च सस्मुषीः।
वरेण्यक्रतुरहमपो देवीरुपह्वये।।
ओता आपः कर्मण्या मुञ्चंवित प्रणीतये।
सद्यः कृण्यंन्त्वेतवे।।
देवस्य सवितुः सवे कर्म कृण्वंतु मानुषाः।
शं नो भवन्त्वप ओषधीः शिवाः।।
हिमवतः प्रस्त्रवंति सिंधौ सहम सङ्गमः।
आपो ह मह्यं तद् देवीर्ददन् हृदद्योत भेषजम्।।
यन्मे अक्ष्योरादिद्योत पाष्णयोः प्रपदोश्च यत्।
आपस्तत् तर्व निष्करन् भिषजां सुभिषक्तभाः।।
सिंधुपत्नीः सिंधुराज्ञीः सर्वा या नद्य स्थन।
दत्त नस्तस्य भेषजं तेना वो भुजजामहै।।


अथर्ववेद के ऋषि शंताति जल की स्तुति करते हुए कहते हैं- जल की दिव्यता अपने दिव्य स्रोत से भी सभी पापों का शोध करे। मातृरूप पोषक जल हमें पवित्र बनाए। घृतरूपी जल हमारी अशुद्धता का निवारण करे। इस जल के द्वारा हम पवित्र होकर ऊर्ध्वगामी हों-

आपो अस्मान् मातरः सूदयंतु धूतेन नो धृतष्व पुनंतु।
विश्वं हि रिप्रं प्रवहंति देवीरुदिदाभ्यः शुचिरा पूत एमि।।


जल रोगों को दूर करने वाला है। अथर्वा ऋषि कहते हैं-जल रोग-निवारक ही नहीं, बल्कि जल ही रोगों के मूल कारण का नाश करने वाला है। सभी के लिए यह जल एक हितकारी औषधि है। वह जल तेरे रोगों का भी शमन करे-

आप इद् वा उ भेषजीरापो अमीवचातनीः।
आपो विश्वस्य भेषजीस्तास्ते कृण्वंतु भेषजम्।।


वर्षा के जल की महिमा का वर्णन करते हुए भृगु ऋषि कहते हैं- वृक्ष के अग्र-भाग से हम पर गिरने वाली वर्षा के जल की बूंद वृक्ष के फल समान ही है। अंतरिक्ष से गिरी बूंद वायु के फल के समान है। शरीर के अंग पर अथवा पहने हुए वस्त्र पर उसका स्पर्श हुआ है, वह प्रक्षालनार्थ प्रयुक्त जल के समान पाव देवता को हमसे दूर करे-

यदि वृक्षादभ्यपप्तम् फलं तद्
यद्यंतरिक्षात् स उ वायुरेव।
यत्रास्पृक्षत् तन्वो यच्च वासस्,
आपो नुदंतु निर्ऋति पराचै।।


वह अमृत वर्षा उबटन, सुगंधित द्रव्य, चंदनादि सुवर्ण धारण तथा वर्चस की भांति समृद्धि रूप है। यह पवित्र करने वाली है। इस जल के स्पर्श मात्र से ही पाप देवता और शत्रु हमसे दूर-दूर रहें-

अभ्यञ्जनं सुरभि सा समृद्धिर्हिरण्यं वर्चस्तदु पूत्रिममेव।
सर्वा पवित्रा वितताध्यस्मत् तन्मातारोर्ऋतिमों अरातिः।।


वैदिक ऋषि जल से शक्ति की याचना करता हुआ कहता है-सूर्य के सान्निध्य में रहने वाला वाष्पीकृत जल यज्ञ की सफलतापूर्वक संपन्नता के निमित्त शक्ति प्रदान करे। ऋषि आगे कहता है-हम उस जल के अधिष्ठाता देवता का आह्वान करते हैं, जो समुद्र का पान करके, वृष्टिकर हवि प्रदान करता है और जहां बहने वाली जलपूर्ण नदियां और जलाशयों के जल का सेवन कर हमारी गौएं तृप्त होती हैं-

अमूर्या उप सूर्य याभिर्वा सूर्यः सह।
ता नो हिन्वन्त्त्वध्वरम्।।
अपो देवीरूप ध्वये यत्र गावः पिबंति नः।
सिंधुभ्यः कर्त्वं हविः।।


ऋषि बादल से प्रार्थना करता हुआ कहता है-अपने में जल को धारण करने और अकाल में नीचे न गिरने देने वाले हे पर्जन्य! सत्पुरुषों की रक्षा करने वाले हम तुझे नमन करते हैं। तू हमारे भीतर तप को एकत्रित करने वाला तथा पातकों पर वज्र से प्रहार करने वाला है। तू हमारे पुत्र-पौत्रादि को सुखी करता हुआ हमें भी सुख प्रदान करे। ऊपर से नीचे न गिरने देने वाले हे पर्जन्य! तुझ सहित हम तेरे वज्र को भी नमस्कार करते हैं। तू जिस हृदयरूपी गुहा में स्थित रहा है, वह हमें ज्ञात है। सागर में नाभि की भांति तू स्थित रहता है-

नमस्ते प्रवतो नपाद् यतस्तपः समूहसि।
मृउया नस्तनूभ्यो मयस्तोकेभ्यस्कृधि।।
प्रवतो नपान्नम एवास्तु तुभ्यं नमस्ते हेतये वपुषे च कृण्मः।
विदम् हे धाम परमं गुहा यत् समुद्रे अंतर्निहितासि नाभि।।


वैदिक ऋषि बादलों के विषय में कहता है- हे पर्जन्य देवता! गर्जनशील मरुद्गण तेरे स्तोता हों। बरसते हुए मेघों की धाराओं से तू पृथ्वी को भिगो दे। हे मरुद्गणों! सूर्य के ताप द्वारा मेघों को तुम समुद्र के ऊपर की ओर प्रेरित करो। बैलों के समान गर्जनशील जल के प्रवाह से तुम भूमि को तृप्त करो। हे गर्जनशील पर्जन्य देवता! तू औषधि रूप वनस्पतियों में गर्भ की स्थापना करता है। तेरे द्वारा प्रेरित मेघ जलपूर्ण वृष्टि को लाएं, तब अपनी रश्मियों को सूक्ष्म करता हुआ सूर्य लोप हो जाए-

गणास्त्वोप गायंतु मारुताः पर्जन्य घोषिणः पृथक्।
सर्गा वर्षस्य वर्षतो वर्षंतु पृथिवीमनु।।
उदीरयत मरुतः समुद्रतस्त्वेषो अर्को नभ उत्पातयाथ।
महऋषभस्य नदतो नभस्वतो वाश्रा आपः पृथिवी तर्पयंतु।।
अभिक्रंद स्तनयार्दयोदधिं भूमिं पर्जन्य पयसा समङ्धि।
त्वया सृष्टं बहुलमैतु वर्षमाशारैषी कृशगुरेत्वस्तम्।।


ऋषि कहता है- हे मनुष्यों! श्रेष्ठ दानकर्ता तुम्हें तृप्त करें। अजगर के समान मोटे जल-प्रवाह प्रकट हों तथा वायु के द्वारा प्रेरित मेघ पृथ्वी पर उत्तम प्रकार से बरसें। सभी दिशाओं में विद्युत चमके और वायु संचरण करे, तब वायु द्वारा प्रेरित मेघ-भूमि की ओर अनुकूलता से आगमन करें। हे उत्तम दानशील मरुतो! अजगर की भांति आकार वाला जल-प्रवाह विश्व को शांत (तृप्त) करे और तुम्हारे द्वारा प्रेरित मेघ भूमि की रक्षा करे-

सं वोSवंतु सुदानव उत्सा अजगरा उत।
मरुद्भिः प्रच्युता मेघा वर्षंतु पृथिवीमनु।।
आशामाशां वि द्योततां वाता वातुं दिशोदिशः।
मरुदभिः प्रच्युता मेघाः सं यंतु पृथिवीमनु।।
आपो विद्युदभ्रं वर्ष सं वोSवंतु सुदानव उत्सा अजगरा उत।
मरुद्भिः प्रच्युता मेघाः प्रावंतु पृथिवीमनु।।


प्रजापालक सूर्य! तू समुद्र के जल को प्रेरित करता हुआ समुद्र को गति प्रदान करे। उसके द्वारा अश्व की भांति गति वाले तथा बरसने वाले मेघों से जल की वृष्टि हो। हे पर्जन्यदेव! तू इन गर्जनशील मेघों सहित हमारे सम्मुख आगमन कर। वर्षा का जल लेकर सूर्य तिरछी वर्षा करता हुआ प्राणों को तृप्त करे। उस समय ध्वनि करने वाले जल-प्रवाह चले। हे वरुण! तू भी पृथ्वी पर आने वाले मेघों को जल से अलग कर। फिर तृणहीन भूमि पर श्वेत भुजा वाले मेंढक आकर शब्द करें। गुप्त अवस्था में रहने वाले व्रती-तपस्वियों के समान रहने वाले मंडुकगण पर्जन्य को प्रसन्न करने वाले वचनों का उच्चारण करें-

प्रजापतिः सलिलादा समुद्रादाय ईरयन्नुदधिमर्दयाति।
प्रप्यायतां वृष्णो अश्वस्य रेतोSर्वाङेतन स्तनयित्नुनेहि।।
अपो निषिञ्चन्नसुरः पिता नः श्वसंतु गर्गरा अपां वरुणाव।
नीचीरपः सृज वदंतु पृश्नबाहवो मंडूका इरिणानु।।
संवत्सरं शशयाना ब्राह्मणा व्रतचारिणः।
वाचं पर्जयजिंवतां प्र मंडूका अवादिषु।।


अपने जलरूपी महान कोष को मुक्त करने वाले हे पर्जन्य देव! तू उसे नीचे की ओर बहा, ताकि ये जल से परिपूर्ण नदियां बाधित न होती हुई पूर्व दिशा की ओर बहने लगें। द्यावापृथ्वी को तू जलराशि से युक्त कर, जिससे पशुओं को उत्तम पेय और हमें धान्यादि तथा औषधियां प्राप्त हों-

महांतं कोशमुदचाभि षिञ्च सविद्युतं भवतु वातु वातः
तन्वतां यज्ञं बहुधा विसृष्टा आनंदिनीरोषधयो भवंतु।।


नदी की स्तुति करता हुआ ऋषि कहता है- पारस्परिक भगिनी तुल्य स्नेह से जल को प्रवाहित करने वाली पवित्र नदियां अन्न और बलादि से मनुष्यों का कल्याण करती हैं-

एवा महान् बृहदि्दवोअथर्वावोचत् स्वां तंवमिंद्रमेव।
स्वसारौमातरिभ्वरी अरिप्रेहिन्वंति चैने शवसा वर्धयंति च।।


ऋषि ने केवल जल, पर्जन्य एवं नदी का ही वर्णन नहीं किया, अपितु उन्होंने बिजली के विषय में भी लिखा है- विद्युत (देवी) को, गड़गड़ाहट रूपी ध्वनि और अशनि को, गरजने वाले मेघों को हमारा नमन है। हे विद्युत देवी! तू दुःखी करने वाले दुर्जनों आदि को अपने वज्र के घातक प्रहार से दूर कर-

नमस्तेSस्तु विद्यते नमस्ते स्तनयित्नवे।
नमस्ते अस्त्वश्मने येन दूडाशे अस्यसि।।


आक्रमणकारियों का संहार करने के लिए इंद्र आदि समस्त देवताओं ने शक्तिशाली और दिव्य बाण के रूप में तेरी रचना की है। आकाश में चमकने और गर्जना करने वाली हे अशने! हम तुझे नमन करते हैं। तू हमें सुखी और भय-मुक्त कर-

यां त्वा देवा असृजंत विश्व
इषुं कृण्वाना असनाय धृष्णुम्।
सा नो मृउ विदथे गुणाना
तस्यै ते मृउ विदथे गुणाना
तस्यै ते नमो अस्तु देवि।।


उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि वैदिक ऋषियों ने पर्यावरणीय प्रकृति घटक जल में, वर्षा में, नदियों में, पर्जन्य में और बिजली एवं समुद्र में देवत्व की अवधारणा विकसित की है, क्योंकि देव तत्व मनुष्य के कल्याण के लिए हैं। यह जल अपने विभिन्न रूपों में जड़चेतन के कल्याण के लिए है। संपूर्ण प्रकृति समस्त प्राणियों के लिए है, वे अपने लिए नहीं है। उनकी पूजा का महत्व इसीलिए है। इसी देवत्व की भावना को विकसित करना तथा अपने मनोगत पर्यावरण की दूषित भावना को बदलना होगा।

पर्यावरण संरक्षण के संदर्भ में अथर्ववेद में दिए गए निर्देशों तथा इसी संदर्भ में वैज्ञानिक विचारों के अवलोकन से स्पष्ट होता है कि मानव ने न तो वैदिक निर्देशों का ही पालन किया और न वैज्ञानिक अध्ययन से प्राप्त निष्कर्ष को ही कभी गंभीरता से ग्रहण किया। वैदिक निर्देश केवल कर्मकांडों तक सिमटकर रह गए एवं वैज्ञानिक चिंतन तथा निष्कर्ष वाद-विवाद का मुद्दा भर बनकर रह गए। वैदिक निर्देशों के अनुसार जल की जीवनदायिनी शक्तियों की पूजा का विधान इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि हम जिसे पूजते हैं, उसके प्रति हमारी भावना आदर एवं सम्मान से युक्त होती है। उसे कलंकित व प्रदूषित करने के बारे में कोई सोच भी नहीं सकता।

इसी प्रकार वैज्ञानिकों ने भी सारी परिस्थितियों का गहन अध्ययन एवं विश्लेषण करने के उपरांत समय-समय पर चेतावनी दी है, परंतु विकास की तात्कालिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सब कुछ भुला दिया गया। वास्तविकता के धरातल पर देखा जाए तो असली समस्या की जड़ नीति-निर्धारण के स्तर से आरंभ होती है। नीति-निर्धारण राजनीतिज्ञों का कार्य होता है और राजनीतिज्ञों का लक्ष्य अपने छोटे से कार्यकाल, जो चार-पांच वर्ष का होता है, के सफलतापूर्वक पूर्ण करने का होता है। उसके बाद उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती। उनका सिर्फ उस सीमित कालखंड में अच्छे-से अच्छे परिणाम देने तक सिमटे रहते हैं।

आज मानव-सभ्यता उस बिंदु से आगे निकल चुकी है, जहां से वापस लौटना बेहद कठिन है। परंतु पिर भी हताश होकर बैठना उचित नहीं है। मानव-जाति सामूहिक रूप से स्थिति की गंभीरता को समझते हुए धर्म-पथ पर चलते हुए वैज्ञानिक चेतावनियों के आधार पर अपनी दिशा का निर्धारण करें। इसी में सबकी भलाई है और मानव का अस्तित्व भी इसी पर निर्भर है।

अंत में यही कहूंगा कि अग्नि, सूर्य, चंद्रमा, पृथ्वी, जल, अंतरिक्ष, स्वर्गलोक, दिशा-उपदिशा तथा ऋतु विभाव इस त्रिवृत्त के संयोग से हमें लक्ष्य (प्रदूषण-मुक्त पर्यावरण) तक पहुंचा दें-

अग्निः सूर्यश्चंद्रमा भूमिरापो
द्यौरंतरिक्षं प्रदिशो दिशश्च।
आर्तवा ऋतुभिः संविदाना
अनेन मा त्रिवृत्ता पाश्यंतु।।


संदर्भ


1. अथर्ववेद भाग-1 प्रस्तुति- आचार्य वेदांत तीर्थ, मनोज पब्लिकेशंस, 761 मेन रोड बुराड़ी, दिल्ली-11084, पृ. 35 संस्करण 2010
2. वही, पृ. 35-36
3. वही, पृ. 36
4. वही, पृ. 61
5. वही, पृ. 87-88
6. वही, पृ. 112
7. वही, पृ. 121
8. वही, पृ. 121
9. वही, पृ. 121
10. वही, पृ. 121
11. वही, पृ. 122
12. वही, पृ. 127
13. वही, पृ. 150
14. वही, पृ. 159
15. वही, पृ. 169
16. वही, पृ. 290-291
17 वही, पृ. 308
18. वही, पृ. 333
19. वही, पृ. 355
20. वही, पृ. 255
21. वही, पृ. 35
22. वही, पृ. 43-44
23. वही, पृ.169-170
24. वही, पृ. 170
25. वही, पृ. 171
26. वही, पृ. 171
27. वही, पृ. 214
28. वही, पृ. 43
29. वही, पृ. 43
30. वही, पृ. 266
प्राचार्य एस.एस. भगवान सिं महाविद्यालय पतार कलां, दुबार कलां, मिर्जापुर-231211

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