श्रीमद्भागवत महापुराण का एक रूपक है। एक बार राजा सगर ने अश्वमेध यज्ञ किया। यज्ञ के लिए छोड़े गए घोड़े को इन्द्र ने चुरा लिया। सागर के साठ हजार पुत्रों ने घोड़े की तलाश में सारी पृथ्वी छान मारी। घोड़े को ढूँढ़ने के लिए उन्होंने पृथ्वी को चारों ओर से खोद डाला। वे गड्ढे ही बाद में समुद्र बन गए। तलाश के क्रम में उन्हें पूर्वोत्तर कोने पर मुनि कपिल के आश्रम के पास अपना घोड़ा बँधा दिखा। इन्द्र ने राजकुमारों की बुद्धि हर ली थी। घोड़े पर नजर पड़ते ही वे कपिल के आश्रम की ओर यह चिल्लाते हुए दौड़े- ‘हमारे घोड़े को चुराने वाला चोर यही है। देखो तो, इसने कैसे आँखें मून्द रखी है। इसे मारोे, इसे मारो।’ उन सबों ने कपिल-जैसे मुनि का तिरस्कार किया। शोर सुन कर कपिल ने आँखें खोली। आँखों के खुलते ही राजकुमारों के शरीर में आग लग गई। क्षण भर में ही वे भष्म हो गए। इसके बाद राजा सगर की आज्ञा से उनका एक पौत्र, अंशुमन घोड़ा को ढूँढ़ने निकला। वह अपने चाचाओं के शरीर के भष्म के पास पहुँचा। उसे वहाँ घोड़ा बँधा हुआ दिखा। वहीं पर कपिल भी ध्यानरत थे।
अंशुमन ने मुनि कपिल को प्रणाम किया। उसने प्रार्थना करते हुए कहा- ‘आप तो अजन्मा ब्रह्म से एकाकार हैं। हमलोग उनके मन, शरीर और बुद्धि से होने वाली सृष्टि के क्रम में बने अज्ञानी जीव हैं। हम भला आपको कैसे समझ सकते हैं। यह संसार माया की कृति है। माया को ही सत्य समझ कर काम, लोभ, ईर्ष्या और मोह के प्रभाव में भटकने के लिए हम लोग विवश हैं। आज आपके दर्शन से मेरे मोह की वह दृढ़ फाँस कट गई, जो कामना, कर्म और इन्द्रियों को जीवन देती है।’ अंशुमन की प्रार्थना का कपिल पर अनुकूल प्रभाव पड़ा। उन्होंने अपनी आँखें खोली और कहा- ‘यह घोड़ा तो तुम्हारे पितामह का यज्ञ पशु है, पुत्र। तुम इसे ले जाओ। कपिल मुनि ने उसे बताया कि ‘तुम्हारे जले हुए चाचाओं का भी उद्धार सम्भव है। लेकिन, गंगा ही यह कर पाने में समर्थ है। उद्धार का दूसरा कोई उपाय नहीं है।’
अपने चाचाओं के उद्धार के लिए पहले अंशुमन, और बाद में उसके पुत्र दिलीप ने तपस्या की। इन दोनों को स्वर्ग से गंगा को उतार लाने में सफलता नहीं मिल सकी। इसके बाद दिलीप के पुत्र भागीरथ ने भीषण तपस्या की। भागीरथ की तपस्या से गंगा प्रसन्न हुईं। लेकिन उनके वेग को सह पाने में शिव के अलावा दूसरा कोई समर्थ नहीं था। गंगा को धारण करने के लिए भागीरथ ने उन्हें भी मना लिया। इस प्रकार गंगा पृथ्वी पर उतरीं और उनके पितरों का उद्धार किया।
यह रूपक गंगा रूपी प्रतीक के सहारे अभिव्यक्त अवधारणा का मानवीकृत रूप है। इसमें सृष्टि के स्वरूप को चर्चा का विषय बनाया गया है। राजा सगर और उनके साठ हजार पुत्र काम, ईर्ष्या, लोभ और मोह के प्रभाव में हैं। वे विशुद्ध चेतना से विमुख हैं। इनके अतिशय प्रभाव में सृष्टि का स्वरूप बिगड़ रहा है। परिणामत: विशुद्ध चेतना या परमसत्य के अप्रतिम साधक कपिलमुनि की आँखें खुलते ही राजा सगर के साठ हजार पुत्र जल कर राख हो गए। बाद में राजा सगर की अगली पीढ़ियाँ भी उस विशुद्ध चेतना का सम्मान करने लगीं। तब जा कर सृष्टि का कल्याण करने वाली गंगा की वेगवती धारा फूट पड़ी और उसके स्पर्श मात्र से सगर पुत्रों का उद्धार हो गया।
गंगा से जुड़े चिन्तन की शुरुआत ऋग्वेद से होती है। इसके नदी सूक्त में दी गई नदियों की सूची में पहला नाम गंगा का है। हालाँकि तब गंगा रूपी प्रतीक के सहारे से अभिव्यक्ति पाने वाली अवधारणा का आरम्भिक दौर था। तब प्रतीक के रूप में सिन्धु को अधिक महत्त्व प्राप्त था। ऋग्वेद की तुलना में शतपथ और ऐतरेय ब्राह्मण की रचना के वक्त तक गंगा का महत्त्व बहुत बढ़ा। पुराणों में इसी का मानवीकृत रूप उभर कर आया है। श्रीमद्भागवत महापुराण के अलावा अनेक पुराणों में गंगा की महिमा का वर्णन किया गया है। महाभारत और रामायण में भी गंगा अवतरण की कथा कही गई है।
कुछ पुराणों में तीन गंगाओं की चर्चा आई है। वे स्वर्ग की गंगा को मंदाकिनी, पृथ्वी की गंगा को भागीरथी तथा पाताल की गंगा को भोगवती कहते हैं। दरअसल ये ग्रन्थ सृष्टि को आत्मिक, दैविक और भौतिक कहे जाने वाले तीन आयामों में बँटा पाते हैं। वैदिक-पौराणिक चिन्तन की इस वैचारिक पृष्ठभूमि में गंगा के तात्त्विक स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक तीनों पक्षों पर चर्चा जरूरी है। वेद, उपनिषद और पुराणों ने अपनी अवधारणाओं को इन प्रतीकों और बिम्बों में अभिव्यक्ति दी है। इन प्रतीकों, बिम्बों और रूपकों को स्पष्ट किए बिना इनके वास्तविक अर्थ तक नहीं पहुँचा जा सकता।
गंगा अवतरण की उक्त कथा का आध्यात्मिक स्वरूप वैदिक देव-ब्रह्मवाद से गुंथा हुआ है। वैदिक समाज आरम्भ में मनुष्य के प्रत्येक कृत्य के मूल में दिव्यता को देखता था। उत्तर वैदिक काल में पाया गया कि दिव्यता तो सृजन प्रक्रिया के अगले पड़ाव पर पैदा होती है। तब माना गया कि परमता सृष्टि के मूल में है। वैदिक ऋचाएँ दिव्यता के विभिन्न आयामों को ही अलग-अलग देव प्रतीकों में देखती हैं। उनकी मान्यता है कि प्रत्येक भूत की क्रियाशीलता इसी पर निर्भर है। ऋक्, साम और यजुर्वेद की ऋचाएँ सृष्टि को तीन लोकों में बाँटती हैं। ऋचाएँ इन्हें द्यु, अन्तरिक्ष और पृथ्वी कह कर पुकारती हैं। द्युलोक के प्राण को आदित्य कहा जाता है। अन्तरिक्ष का प्राण वायु है। पृथ्वी के प्राण को अग्नि कहकर पुकारा जाता है। ऋचाएँ इन्हीं को क्रमश: आदित्य, रुद्र और वसु भी कहती हैं।
स्वच्छन्द विचरण करने वाले मेघ धरती रूपी शैय्या पर हलचल मचा कर जब रिक्त हो जाते, तब उस तेजोदिप्त जीवन-पुष्प को अपनी सरित्तंतुओं के सहारे नदियाँ धारण करती हैं। ये सरिताएँ ही पृथ्वी में जनन की शक्ति पैदा करती हैं। उसे गति प्रदान करती हैं। ये सरिताएँ माता पृथ्वी के शरीर में शिराओं का काम करती हैं। इन्हीं के सहारे जड़ और जंगम की सृष्टि निरन्तर होती और मिटती रहती है। और हवलदार त्रिपाठी सहृदय ने अपनी कृति ‘बिहार की नदियाँ’ में गंगा को इसी पृष्ठभूमि में भौतिक राष्ट्र की माता कहा है।
वैदिक ग्रन्थ परमता के प्रतीक के रूप में ब्रह्म को देखते हैं। उनका मानना है कि ब्रह्म की प्राणन क्रिया से ही सृष्टि उत्पन्न हुई। ऋग्वेद के दसवें मण्डल का नासदीय, पुरुष, ब्रह्मणस्पति और विश्वकर्मा का सूक्त सृजन की प्रक्रिया और उसके स्वरूप पर प्रकाश डालते हैं। नासदीय सूक्त कहता है कि सृष्टि के मूल में मन है। इसी को पुरुष, ब्रह्मणस्पति और विश्वकर्मा नाम से भी सम्बोधित किया जाता है। यजुर्वेद अपने शिव संकल्प सूत्र में मन की स्थिति को स्पष्ट करता है। वह कहता है कि मन प्रज्ञान जनक है। ज्ञान इसका धर्म है। यही ज्ञाता है। इसलिए यही केन्द्र है। यही सृष्टि का अधिष्ठाता है। यही पालनकर्त्ता है और यही प्रलय का कारण भी है। आगे चल कर त्रिदेववादी चिन्तन उक्त तीनों लोकों के प्राणों को ब्रह्मा, विष्णु और महेश या शिव कह कर सम्बोधित करता है। सूक्तों में अभिव्यक्त इसी अवधारणात्मक पृष्ठभूमि को गंगा अवतरण की उक्त कथा के मूल में पाया जा सकता है।पुराणों की उक्त कथा में मन की अलग-अलग अवस्थाओं को ही शिव, कपिल मुनि, सगर, उसके साठ हजार पुत्र, अंशुमन, दिलीप और भागीरथ नाम दिया गया हैं। इस कथा का राजा सगर मन है, जिसमें चक्रवर्ती होने की कामना का जन्म हुआ है। उसके साठ हजार पुत्र उनकी अन्नत कामनाएँ हैं, जो काम, लोभ, ईर्ष्या और मोह के अतिशय प्रभाव में हैं। सगर के अश्वमेध यज्ञ के घोड़े को चुराने वाला इन्द्र प्राण केन्द्र हैं। वहीं, मुनि कपिल विशुद्ध चेतना से युक्त मन के एक और रूप। विशुद्ध चेतना या परम-सत्य तिरस्कार के कारण वे साठ हजार कामनाएँ जलकर भष्म हो गर्इं। मगर पाप-बोध के रूप में उनका अस्तित्त्व बना रहा। फलत: वह पीड़ा झेलने के लिए विवश रहा। पीड़ा से मुक्ति के लिए वह छटपटाता रहा। मुक्ति के लिए भागीरथ रूपी मन ने घोर तपस्या की। अन्तत: मन से ही सृष्टि के कल्याण की भावना से ओतप्रोत गंगा की मुक्तिदायिनी धारा प्रवाहित हुई। जिसके वेग को सहने में कोई और समर्थ नहीं था। ज्ञान या प्रज्ञा के प्रतीक शिव ने उसे सहा। गंगा का यह प्रवाह मानसिक, वाचिक और कायिक, तीनों प्रकार के पापों से मुक्ति दिलाने वाला है।
धर्मसिन्धुसार (काशीनाथ उपाध्याय) के अनुसार इन तीनों श्रेणियों के पाप कुल दस हिस्सों में बँटे हैं। दूसरों के धन का लोभ, अनुचित बातों का चिन्तन तथा यथार्थ के प्रति दृढ़ प्रतिज्ञता, मानसिक पाप के तीन रूप हैं। भाषा की कटुता, झूठ या असत्य वाचन, चुगलखोरी, असम्बद्ध प्रलाप-जैसे चार रूपों में वाचिक पाप बँटे हैं। वहीं चोरी, अशास्त्रोक्त हिंसा, परस्त्री गमन कायिक पापों के तीन रूप हैं। सृष्टि के कल्याण की भावना (या गंगा का प्रवाह) इन सभी दस प्रकार के पापों से मुक्ति दिलाने वाली है। कल्याण के भाव के प्रवाह के फलस्वरूप मन रूपी राजा सगर को, पुत्र रूपी साठ हजार कामनाओं के भष्म हो जाने की पीड़ा से मुक्ति मिल पाई। पौराणिक ग्रन्थों ने गंगा से जुड़े आत्मिक विचारों को इन्हीं प्रतीक, बिम्ब और रूपकों में प्रस्तुत किया है।
पौराणिक साहित्य उक्त प्रतीकों और बिम्बों में संरक्षित गंगा के आधिदैविक स्वरूप को भी स्पष्ट करते हैं। महामोपाध्याय गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी ने ‘वैदिक विज्ञान और भारतीय संस्कृति’ शास्त्रों में मौजूद गंगा सम्बन्धी चिन्तन का आधिदैविक अर्थ प्रस्तुत किया है। उन्होंने बताया है कि वैदिक साहित्य जल की चार अवस्थाओं की चर्चा करता है। ऐतरेय ब्राह्मण बताता है कि आत्मा रूप मूल तत्त्व ने जिस अप-तत्त्व (जल) को उत्पन्न किया, वह चार अवस्थाओं में चार नाम से चार लोकों में व्याप्त है। उनके नाम हैं-अम्भ, मरीचि, भर और अप। सूर्य-मंडल से भी ऊपर के लोकों (मह: जन: आदि) में व्याप्त जल को अंभ: कहते हैं। अंतरिक्ष में यह मरीचि रूप में मौजूद है। पृथ्वी के निर्माण में जो जल लगता है, उसे भर् कहा जाता है। वहीं पृथ्वी पर प्रवाहित होने या पृथ्वी के अन्दर मौजूद जल को आप: कहा जाता है।
श्री चतुर्वेदी बताते हैं कि जल पर चर्चा की शुरुआत अम्भ से होती है। यही अन्य तत्त्वों के साथ मिल कर स्थूल अवस्था में जल में परिणत हुआ। ब्राह्मणग्रन्थों में जल की अवस्थाओं का वर्णन विस्तारपूर्वक किया गया है। विभिन्न मन्त्रों में तीन प्रकार के जल का वर्णन आया है। एक दिव्य, दूसरा अन्तरिक्ष का और तीसरा पृथ्वी का। ब्राह्मण, उपनिषद, पुराण आदि में सृष्टि के आरम्भ में अप् की उत्पत्ति की चर्चा की गई है। अप् जल को ही कहा जाता है। किन्तु इन चर्चाओं का तात्पर्य स्थूल जल से नहीं है। अप् या अम्भ का अर्थ रस रूपी द्रव है। स्थूल रूप ग्रहण करने पर उसी को जल कहा जाता है। यही दिव्य जल है। दोनों का प्रादुर्भाव एक ही तत्त्व से हुआ है। किन्तु अवस्था अलग-अलग है।
युद्धकर्त्ता राजा जैसे सेना के साथ जाता है, वैसे ही तुम अपनी सहगामिनी नदियों के साथ जाती हो। ...वह मधुवधर्क पुष्पों से आच्छादित है। ...वह सुखकर और सुन्दर अश्व वाले रथों को जोतती है। ...उस रथ से भर-भर कर वह अन्न दे।
वह बताते हैं कि यह भिन्नता उन्हें एक-दूसरे का विरोधी बना देती है। वह ब्रह्मांड में सर्वत्र व्याप्त है। मन्त्रों में कहा गया है कि चन्द्रमा अप् के भीतर दौड़ता है। सूर्य के साथ और सूर्य के समीप अप् विद्यमान है। सूर्य और अग्नि अप् में ही पैदा होते हैं। सूर्य जब उदयाचल पर आते, उनकी किरणों के संघर्ष से वह अपना स्थान छोड़ कर दूर हटता जाता है। रस-रूप होने के कारण तेज के साथ उसका स्वाभाविक विरोध है। जहाँ तक सूर्य की किरणें प्रखरता से फैलती हैं, उतने इलाके के अप् को दूर हटाती जाती है। ध्रुव- प्रदेश में जहाँ सूर्य की किरणें अति मन्द हो जाती हैं, वहाँ वह इकट्ठा होता जाता है। काफी इकट्ठा हो जाने के बाद वह घनीभूत हो कर स्थूल रूप ग्रहण करता है। गुरुत्व के कारण वायु में ठहर नहीं पाता। वह सुमेरु के शिखर पर गिर पड़ता है। इसी गिरती हुई धरा को गंगा कहा जाता है।श्री चतुर्वेदी कहते हैं कि पुराणों में सुमेरु के ऊपर गंगा का गिरना वर्णित है। वैदिक साहित्य के लिए ब्रह्माण्ड एक पारिभाषिक शब्द है। समझ यह है कि आकाश अन्नत है। उसका जितना भाग सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित हो उसे ब्रह्माण्ड कहा जाता है। अन्नत आकाश में संख्यातीत सूर्य और उतने ही ब्रह्माण्ड हैं। अप् तत्व सर्वत्र फैला है।
पुराणों में आयी चर्चा का उल्लेख करते हुए वह बताते हैं कि वामनावतार के चरण-प्रहार के फलस्वरूप ब्रह्माण्ड का जो ऊपरी गोला टूटा, वहाँ से जलधर भीतर प्रविष्ट हुई। आधिदैविक भाव में प्रात: काल के सूर्य को ही वामन कहा जाता है। उसके नख अर्थात किरणों के अग्रभाग ने जहाँ विवर बनाया वहीं से यह जलधारा गिरती है। सप्तर्षि-प्रदेश को विष्णुपद कहा जाता है। उस प्रदेश की गंगा को विष्णुपदी कहा जाता है। व्योमकेश अर्थात शिव के केश-कलाप इस आकाश में व्याप्त रहने के कारण गंगा को हर-जटाजूटवासिनी कहा गया है। आकाश में सूक्ष्मावस्था में हजारों वर्षों तक विचरण करने वाला अप् ही जल का आकार ग्रहण करता है। इसीलिए विष्णुपद और शिव की जटा में इसके हजारों वर्ष रहने का उल्लेख पुराण करते हैं। इसने उक्त अर्थों में इसे दिव्य जल घोषित किया था।
वैदिक-पौराणिक साहित्य इन दो आयामों की तरह ही आधिभौतिक स्तर पर भी गंगा के तात्त्विक स्वरूप को स्पष्ट करता है। यह गंगा जल के दिव्य गुणों और इसके प्रवाह मार्ग में बसे लोगों के लिए इसके महत्त्व पर प्रकाश डालता है। इसी क्रम में ऋग्वेद के दसवें मण्डल का नदी सूक्त सिन्धु के प्रतीक में दर्ज नदियों की गतिविधयों का वर्णन करता है। वह कहता है कि ...जिस समय तुम शस्यशाली प्रदेश की ओर चलीं, उस समय वरुण ने तुम्हारे गमण के लिए विस्तृत पथ का निर्माण किया। ...वह महावेग और दीप्त लहरों के साथ जाती है। ...युद्धकर्त्ता राजा जैसे सेना के साथ जाता है, वैसे ही तुम अपनी सहगामिनी नदियों के साथ जाती हो। ...वह मधुवधर्क पुष्पों से आच्छादित है। ...वह सुखकर और सुन्दर अश्व वाले रथों को जोतती है। ...उस रथ से भर-भर कर वह अन्न दे। गंगा से सम्बन्धित चिन्तन की इसी भौतिक पृष्ठभूमि में कालिदास रघुवंश में कहते हैं कि स्वच्छन्द विचरण करने वाले मेघ धरती रूपी शैय्या पर हलचल मचा कर जब रिक्त हो जाते, तब उस तेजोदिप्त जीवन-पुष्प को अपनी सरित्तंतुओं के सहारे नदियाँ धारण करती हैं। ये सरिताएँ ही पृथ्वी में जनन की शक्ति पैदा करती हैं। उसे गति प्रदान करती हैं। ये सरिताएँ माता पृथ्वी के शरीर में शिराओं का काम करती हैं। इन्हीं के सहारे जड़ और जंगम की सृष्टि निरन्तर होती और मिटती रहती है। और हवलदार त्रिपाठी सहृदय ने अपनी कृति ‘बिहार की नदियाँ’ में गंगा को इसी पृष्ठभूमि में भौतिक राष्ट्र की माता कहा है। गंगा इसी रूप में भारत की विशाल आबादी के भौतिक जीवन का आधार है।
गंगा रूपी प्रतीक के इन तीनों आयामों में व्यक्त विचार अलग-अलग नहीं हैं। वे एक-दूसरे से पूरी तरह सम्बद्ध हैं। तीनों के एकरेखीय होने के बाद ही गंगा का वास्तविक तात्त्विक स्वरूप उभर कर सामने आता है। इनकार नहीं किया जा सकता कि काम, लोभ, ईर्ष्या और मोह-रूपी प्रदूषण के अतिशय प्रभाव में मन से प्रवाहित होने वाली कल्याण रूपी गंगा की धारा आज बुरी तरह सूखी है। काम, लोभ, ईर्ष्या और मोह के प्रभाव में ही मनुष्य द्वारा किए जाने वाले कामों से दैविक गंगा प्रदूषित हो रही है। परिणाम प्राकृतिक असन्तुलन के रूप में सामने है। और इन दोनों के प्रदूषित होते जाने के कारण भौतिक जीवन की गंगा आज मृत्यु शैय्या पर पड़ी है। शेष दो आयामों में मौजूद गंगा की उपेक्षा का ही परिणाम है कि भौतिक जीवन की गंगा को मात्रा जल संसाधन के रूप में देखा जा रहा है। ऐसे में, आर्थिक, सामाजिक और नैतिक-तीनों स्तरों पर एक साथ किए जाने वाले किसी प्रयास से ही गंगा साफ हो सकती है।
गंगा को प्रदूषण मुक्त करने वाली सरकारी योजनाओं की विफलता का सबसे बड़ा कारण योजाना निर्माण और उनके कार्यान्वयन में इन तीनों आयामों के बीच समन्वय का अभाव है। गंगा इस राष्ट्र की माता है। वह माँ के रूप में ही पूज्य है। असंख्य जलचर, नभचर और थलचरों का जीवन उस पर निर्भर है। वह जल-संसाधन मात्र नहीं। भागवत पुराण की उक्त कथा में भी गंगा की वर्तमान दशा की ओर भी संकेत किया गया है। कथा कहती है कि भागीरथ की तपस्या से गंगा प्रसन्न तो हुईं, लेकिन उन्होंने पापियों के संसर्ग से खुद के प्रदूषित हो जाने की आशंका जाहिर की। अन्तत: भागीरथ के इस आश्वासन के बाद अवतरित होने के लिए वह तैयार हुईं कि ‘जिन्होंने लोक-परलोक, धन- सम्पत्ति और स्त्री-पुरुष की कामना का परित्याग कर दिया है, जिन्होंने सांसारिक प्रपंचों से खुद को विलग कर लिया है, जो बह्मनिष्ठ और परोपकारी हैं, वे अपने स्पर्श से तुम्हारे पापों को नष्ट करेंगे’। ऐसे में, गंगा के बारे में चिन्ता के क्रम में सबसे बड़ा सवाल आज यह है कि हमारा देश, और इसमें बसे लोग भागीरथ द्वारा गंगा को दिए गए इस आश्वासन को सम्मान देने के प्रति कितना प्रतिबद्ध हैं?
लेखक पेशे से पत्रकार और शोधार्थी हैं। शोधपरक वृत्त चित्र बनाने में इनकी विशेष रुचि हैं।
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