उत्तराखंडी मानस और सांस्कृतिक लोकतंत्र की चुनौतियां

हम पहाड़ के लिए कुछ कर नहीं पाए, हमको उसके लिए कुछ करना चाहिए। मेरा ये अनुभव है कि लोग यहां से जा रहे हैं और वहां जाकर एक अजीब सी टकराव की स्थिति का ये सामना कर रहे हैं। वहां के लोगों में वो स्वीकार नहीं है। ना ही अपने व्यवहार और दिनचर्या में, मानसिकता में वो इस स्थिति में हैं कि वहां उनको जो भी आधारिक संरचना उपलब्ध है, उसमें वो रह पाएं, क्योंकि पहाड़ी गावों का विकास लगभग नहीं के बराबर हुआ है। बल्कि पिछले कुछ वर्षों में उनकी स्थिति बदत्तर हुई है। जैसे कि पानी की बड़ी भारी समस्या पैदा हो चुकी हैं जिसके कारण किसी भी पहाड़ी गांव में रह पाना लगभग असंभव हो चुका है। ये ऐसा विषय है जिस पर बोलने में मैं थोड़ा सा कतरा रहा था। जिसके कई कारण थे- एक तो यह है कि मुझसे बहुत जल्दी में कहा गया और इस बीच मेरे पास समय थोड़ा कम था। थोड़ा बोलने की मुझे आदत नहीं है और न ही मेरे पास शेखर की तरह प्रचुर मात्रा के तथ्य ही उपलब्ध हैं। पर फिर भी मैं अपनी बात कहने की कोशिश करता हूं। मूलतः मैं न तो विद्वान हूं और न ही मैं यहां मौजूद अपने अन्य साथियों की तरह उत्तराखंड की समस्याओं से इतना अधिक जुड़ा ही हूं। तो मेरी एकमात्र योग्यता है जिसे आप कह सकते हैं कि मैं, उत्तरांचल से आया एक लेखक हूं और मैं उत्तरांचल में मान्य भाषा अर्थात हिन्दी में लिखता भी हूं। इसीलिए एक लेखक का अपने समाज से या संस्कृति से जो संबंध हो सकता है उसे देखने, समझने से ज्यादा उससे मेरा कुछ संबध नहीं है। इसीलिए मैं साफ बात यह कहना चाहता हूं कि मेरी कोई विशेषज्ञता नहीं है और जो भी मैं कहने जा रहा हूं वो कोई अंतिम बात भी नहीं है। इसलिए आप मेरी बातों को उसी रूप में देखें तो मुझे अच्छा लगेगा।

मेरे बच्चों ने पहाड़ को केवल देखा है वो वहां रहे नहीं हैं हालांकि मैं भी वहां ज्यादा नहीं रहा लेकिन आता-जाता रहता हूं। तो पिछले दिनों मैं अपने बच्चों को हुड़क्या बोल के बारे में बताने लगा कि वहां ऐसा डांस और ऐसे गीत होते हैं आदि। आजकल चूंकि उसका मौसम है तो मैं उन्हें बताने लगा कि एक ऐसा डांस होता है वहां या एक ऐसा गीत है जिसमें सारे गांव के लोग शामिल होते हैं और साथ में वो काम करते जाते हैं। उनके लिए अपने आप में यह आश्चर्य की बात थी। मैंने कहा यह धान की रोपाई के साथ चलता है, जिसमें लोग दो तरफ बंटे हुए होते हैं। वो गाते हुए चलते हैं और रोपाई करते जाते हैं। बीच में एक हुडका वाला होता था पर अब ये बात नहीं होती। सामूहिक रूप से यह बात होती थी पर अब यह खत्म हो चुका है। मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि जिस तरह की सामूहिकता पहाड़ के गांवों में आज तक थी या कहना यह चाहिए कि हम लोगों की पीढ़ी तक थी अर्थात जब तक हम लोग जवान थे तब तक वहां जिस भी प्रकार की सामूहिकता थी वह आज खत्म होती जा रही है।

इसी तरह की एक और बात थी जो खुद मेरे लिए काफी आन्नदपूर्ण थी, वह यह थी कि एक बार मैं गांव में था सामान्य तौर पर तो मैं मैदानों में रहा या पहाड़ी शहरों में रहता रहा। उस दिन मैंने गांव में देखा कि पास के गांव में किसी का देहांत हो गया था और हमारे सारे के सारे गांव के लोग एक-एक लकड़ी कन्धे पर रखकर जा रहे थे। उन्होंने कहा हम लकड़ी देने जा रहे हैं। तो जो सामूहिकता का जो रूप वहां था यह देखने की बात थी। यह बात अब वहां नहीं है। अब वहां मजबूरी के तहत कुछ ऐसा प्रबंध करते हैं। लेकिन पहले जिस तरह की सामूहिकता थी वह खत्म हो गई।

असल में सच बात तो यह है कि सामूहिकता जितनी ज्यादा होगी वो आदिम अवस्था या कहा जाए कि वह एक तरह से आधुनिक होने का एक मापदंड भी है। आज जो तकनीकी आधारित समाज हैं उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह हो गई है कि उन्होंने हमको समाज से मूलतः स्वाधीन कर दिया है या आप कह सकते हैं काट दिया है। आज इस तरह की चीजें उपस्थित हुई हैं चाहे वह सरकारी संस्था के रूप में हों या उसके भिन्न संस्थान के रूप में या तकनीकी के रूप में ही हों। जो चीजें उपलब्ध हैं वो आपको बहुत ज्यादा समुदाय या समाज से मुक्त कर देती हैं। जब हम अपनी संस्कृति की बात करते हैं तो सवाल यह है कि हम अपनी संस्कृति के किस रूप को बरकरार रखना चाहते हैं। क्योंकि जो टकराव पुराने समाजों में या आधुनिक मूल्यों में विज्ञान या तकनीकी के आने में हो रहा है उसको हम किस रूप में और किस हद तक सामना कर सकते हैं? मेरे ख्याल से जब हम किसी भी संस्कृति के बारे में बात करेंगे तो यह चुनौती होगी।

मैं अपने एक उपन्यास के बारे में थोड़ा सा जिक्र करने की इजाजत चाहूंगा। मेरा एक उपन्यास है जिसकी पृष्ठभूमि पहाड़ी गांव है। इसकी विषय-वस्तुु आधुनिकता और परम्परा के टकराव को लेकर है। उस टकराव में जो पूरी-पूरी समस्या है, मैं पूरे कथानक में नहीं जा रहा हूं। मेरे इस उपन्यास की लेखकीय संवेदना आधुनिकता के साथ जुड़ी हुई है।

असल में किसी भी समाज का जो अंतिम निर्णायक है, जो नियामक है, वो वहां की श्रम की परम्परा बनाती है और अगर हमें अपनी संस्कृति को बचाना है तो यह देखना जरूरी है कि हमारे श्रम सम्बंधों का विकास किस रूप मे हो रहा है। इसको अगर आप नहीं देखेंगे तो हमारे पहाड़ी समाज की जटिलता है और जो पूरा संकट इस बीच देखने को मिलता है वह मूलतः इसी से जुड़ा हुआ है। कम से कम मुझे ऐसा लगता है। आप देखेंगे कि पहाड़ में मध्यवर्ती जातियां लगभग गायब हो चुकी हैं। इसी के साथ ही साथ आप देखेंगेे कि पहाड़ में किसी तरह की भी जाति व्यवस्था नहीं रही। कम से कम वहां का जो सबसे बड़ा निवासी है, जिसमें हम लोग आते हैं, उनके पास तो कम से कम वह नहीं रहा है। खेती वहां जरूर है जैसे कि शेखर बात कर रहे थे।

आप देखेंगे कि पहले जो काम थे वो काम खत्म हो गए जैसे चमार का काम, चमड़े का काम, कुम्हार का काम, तेली का काम, ये बहुत सारे काम ऐसे हैं जो पिछले पचास सालों में पहाड़ों से बिल्कुल गायब हो गए हैं। अब कम से कम वहां के पहाड़ी लोग तो ये काम नहीं करते हैं। अब सवाल यही है कि हमको इन्हें किस तरह जानना चाहिए। अगर हमारा समाज अपने को ऊंची जाति की प्रक्रिया में ढालने के चक्कर में पूरे के पूरे श्रम से कट जाता है, तो वो कैसी संस्कृति बनायेगा, ये एक समस्या है।

मेरे ख्याल से जो सबसे बड़ी समस्या है वो पलायन से जुड़ी हुई है, वो इसी से जुड़ी समस्या है कि हम एक ऐसे समाज का हिस्सा हैं जो कई मामलों में पुराने रूप से जुड़ा रहना चाहता है। वो केवल उसी मामले में प्राचीन नहीं है जैसे कि शेखर बता रहे थे। मेरे ख्याल से एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि गंगा-जमुना के इतना निकट होने के बावजूद कुमाऊं और गढ़वाल का इलाका इतना टिपिकल है कि वो पूरी तरह गंगा और जमुना की संस्कृति से कटा हुआ है। और वह बहुत लंबे अरसे से अपनी एक अलग पहचान बनाए हुए है। उदाहरण स्वरूप वहां कभी भी मुस्लिम संस्कृति, इस्लाम के साथ कोई बातचीत नहीं हुई। नतीजा यह है कि हम लोगों ने एक खास तरह की शंकित प्रकृति को विकसित किया हुआ है। जैसा कि मैंने पहले बताया इसी कारण से हमारे बहुत से कारोबार खत्म हो गए हैं।

अब ऐसे में हम कौन सी संस्कृति को बचाना चाहते हैं। असल में हो ये रहा है, इस समय विश्वव्यापी झंझट ये है कि जो संस्कृति, तकनीकि और नया व्यापारिक या उपभोक्ता संस्कृति या उपभोक्ता पूंजीवाद के कारण विकसित हो रही है। वह दुनियां की किसी भी संस्कृति को बनाए रखने का मौका नहीं दे रही है।

आज तीसरी दुनिया का यानी दुनिया का एक बड़ा संकट ये है कि दो संस्कृतियां टकरा रही हैं। जो नई संस्कृति आ रही है वो तीसरी दुनियां के देशों की संस्कृतियों को अपने पैरों पर खड़े होने में संकट पैदा कर रही है और एक तरह से अपनी पहचान बचाने का संकट पैदा हुआ है। मेरे ख्याल से जो धार्मिक कट्टरता बार-बार पैदा हो रही है वो मूलतः उसी सांस्कृतिक साम्राज्यवाद को रोकने के लिए है या दूसरे अर्थों में आप ये कह सकते हैं कि वो एक तरह से हमारी आधुनिक चुनौतियां है या तकनीकी विकास के कारण जो चुनौतियां हमारे समाज के सामने खड़ी हुई हैं हम उनको स्वीकार करने और उसके अनुसार अपने को ढालने की स्थिति में नहीं है। अर्थात तकनीकी की दौड़ में कहीं भी तालमेल बैठाने की स्थिति में नहीं है। जो वो विकसित कर रहे हैं वही हमको स्वीकार करना है। जब यह हमारी बृहत्तर संस्कृति का हिस्सा है तो हमारी संस्कृति का क्या होगा, ये लगातार उठने वाले सवाल हैं जिनको हमें देखना है।

मुझे ऐसा लगता है कि अगर हम अपनी पहचान, अपनी संस्कृति को बचा सकते हैं तो शिक्षा उसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है लेकिन सबसे बड़ी जरूरत यह है कि जो शिक्षा हम दें वह बहुत अधिक वैज्ञानिक होनी चाहिए। जो ज्यादा विवेकी हो, जो हमारी मानसिकता को बदले, जो हमारी जड़ और कुंद हो चुकी उस मानसिकता के बदले जो अपनी जाति और परम्परा से बाहर सोचने की स्थिति में नहीं है। जब तक हम इस मानसिकता को नहीं बदल पाएंगे तब तक हम अपनी संस्कृति को नहीं बचा सकेंगे। दूसरे अर्थों में अगर हम छोटे स्तर पर, पहाड़ के स्तर पर अपनी संस्कृति को बचाना चाहते हैं - संस्कृति को बचाने का तात्पर्य यहां पर ये है कि जो हमारी जरूरते हैं और जो तकनीकी विकास है, यदि हम उनमें तालमेल नहीं बैठा सकते हैं।

अर्थात एक तो ये कि हम किस तरह की तकनीक को चुनते हैं और दूसरा, हम उस तकनीक को अपनी जरूरत के अनुसार किस तरह से विकसित करते हैं। तब तक ना तो वो संस्कृतियां बचेंगी, जिस बृहत्तर संस्कृति कि हम एक उपसंस्कृति हैं और ना ही हम बचेंगे। मतलब ऐसी दौड़ में जब आई.टी. और इलेक्ट्राॅनिक मीडिया का इतना जबरदस्त दबाव हो तो आप कल्पना कर सकते हैं कि किसी भी रूप में किसी का बच पाना संभव है या नहीं है।

मैं इसको अपने एक उपन्यास से जोड़ना चाहता हूं कि मैंने उसमें एक लक्षण के तौर पर एक घर को लिया है। घर या घराट जो भी आप कहें, उसमें बार-बार ये कहा गया है कि ये एक ऐसा यंत्र है, सिस्टम है जो लगभग दो हजार साल से यथावत चल रहा है। आप अपनी जहीनियत को देखिए, आप अपने ठहराव को देखिए कि आपने संभवतः पिछले दो हजार साल में उस घर में एक लकड़ी का टुकड़ा (भित) तक नया नहीं लगाया है। जो है, जैसा है आपने उसको चलाए रखा। यही मानसिकता सबसे बड़ी खतरनाक है।

कहना मैं ये चाहता हूं कि अगर हमें एक छोटी संस्कृति के रूप अपने लोकतांत्रिक अधिकार को बचाना है तो हमको देखना ये होगा कि हम किस तरह से अपनी बेहतर वैज्ञानिक और विवेकी शिक्षा-व्यवस्था वहां दे पाएं और दूसरा ये कि हमारी जो जरूरतें है, वो हमारे इतिहास, समाज और हमारी आर्थिक व सांस्कृतिक जरूरतों से वो कितना तालमेल बैठा सकती है। तभी बचने की संभावना है वरना शायद ही कोई चीज ऐसी है जो हमको बचा सके।

प्रवासी पहाड़ियों को लेकर भी इसी संदर्भ में एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। असल में बार-बार एक नई स्थिति पैदा हो रही है। इसकी जो प्रवासी पहाड़ी है और जो पहाड़ी वहां रहते हैं, उनके बीच में एक टकराव की स्थिति लगातार बढ़ रही है। असल में जो वहां के पहाड़ी हैं, जो वहां रह रहे हैं उनको ये लगता है कि वो चूंकि वहां रहकर उस सारे बोझ को, एक प्रतिकूल परिस्थिति में रहने का जो संकट है उसको झेलते हैं, खेती को बनाए रखे हैं, वहां की संस्कृति को बनाए रखे हैं। जबकि जो पहाड़ी वहां से बाहर चले गए हैं उन्होंने इस सबको छोड़ दिया है और वो बाहर जाकर आराम से खा-पी रहे हैं और यहां (पहाड़) देखने को तैयार नहीं है। एक तो ये स्थिति है। दूसरी स्थिति है, जो प्रवासी हैं वो एक तरह के अपराध बोध से पीड़ित हैं। वो लगातार ये महसूस करते हैं कि हमने पहाड़ छोड़ दिया है।

हम पहाड़ के लिए कुछ कर नहीं पाए, हमको उसके लिए कुछ करना चाहिए। मेरा ये अनुभव है कि लोग यहां से जा रहे हैं और वहां जाकर एक अजीब सी टकराव की स्थिति का ये सामना कर रहे हैं। वहां के लोगों में वो स्वीकार नहीं है। ना ही अपने व्यवहार और दिनचर्या में, मानसिकता में वो इस स्थिति में हैं कि वहां उनको जो भी आधारिक संरचना उपलब्ध है, उसमें वो रह पाएं, क्योंकि पहाड़ी गावों का विकास लगभग नहीं के बराबर हुआ है। बल्कि पिछले कुछ वर्षों में उनकी स्थिति बदत्तर हुई है। जैसे कि पानी की बड़ी भारी समस्या पैदा हो चुकी हैं जिसके कारण किसी भी पहाड़ी गांव में रह पाना लगभग असंभव हो चुका है। कुछ ही सौभाग्यशाली गांव होंगे जहां पानी आ रहा है, अन्यथा सब गांवों में भयानक संकट पैदा हो चुका है। ऐसे में किसी भी नए आदमी का या नए परिवार का आना एक नए संकट का आना है। तो ऐसे में उनका भी वहां पर कोई स्वागत नहीं है।

ये प्रवासी की जो समस्या है ये ऐसी है जिसका आज नहीं तो कल सामना करना पड़ेगा। और जैसे पलायन की जो समस्या है चूंकि पहाड़ की जो स्थितियां है और पहाड़ में जिस तरह के संसाधन उपलब्ध है, अगर हम उन्हीं संसाधनों पर निर्भर करें तो संभवतः वहां की जनसंख्या किसी भी तौर पर वहां रहने की स्थिति में है ही नहीं। तो जो वैकल्पिक संसाधन है वो संसाधन विकसित करने होंगे जो कि इन संसाधनों के अलावा नए तरीके निकाल पाएं।

जो बाते मैंने आपके सामने रखी हैं, मैं कह नहीं सकता कि कितना मैं अपने आपको प्रस्तुत कर पाया। लेकिन कुल मिलाकर मैं ये महसूस करता हूं कि इस विश्वव्यापी सांस्कृतिक संकट के दौर में छोटी संस्कृतियों के लिए ये जरूरी है कि वो ये देखें कि किस तरह से वो अपनी स्थानीय जरूरतों को बदली हुई स्थितियों में, जो नई तकनीकें आ रही है उनके साथ जोड़कर उनको विकसित कर पाती है। तभी संभवतः हम लोगों का भविष्य है, अन्यथा सारी संस्कृतियों का एकसार हो जाना सबको नजर आ रहा है।

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