उत्तराखंड त्रासदी से सही सीख लेने की जरूरत

पहाड़ के निचले इलाकों में उद्योग लगाने के लिए लाइसेंस जारी किए गए हैं। ये अच्छी बात है, क्योंकि इससे लोगों को रोज़गार मिलता है। इस प्रक्रिया को और ज्यादा प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, ताकि और ज्यादा लोगों को रोज़गार मिल सके। अभी जिस तरह की उत्तराखंड में खेती की जा रही है, वह ठीक नहीं है। उत्तराखंड को हिमाचल की तर्ज पर अपने आपको ढालना चाहिए। वहां फूलों, सब्जियों, बागवानी और औषधि की खेती पर जोर दिया जाना चाहिए। खाद्यान्न वह मैदानी इलाकों से मंगा सकता है। उत्तराखंड त्रासदी की यादें अब धीरे-धीरे धूमिल होने लगी हैं। लेकिन ये यादें पूरी तरह से खत्म हों, उससे पहले इससे सही सीख लेने की जरूरत है। इससे भयाक्रांत होकर किसी गलत नतीजे पर पहुंचने की जरूरत नहीं है। यह सचमुच एक प्राकृतिक आपदा थी,जिसे मानवीय भूलों ने और ज्यादा भयावह बना दिया। इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि केदारनाथ क्षेत्र में दो घटनाएँ एक साथ घटीं। भागीरथी के आसपास के इलाके में एक बड़ा बादल फटा, जिससे 330 एमएम पानी उस छोटे से संकरे इलाके में तेजी से नीचे आया। दूसरे उस समय केदारनाथ की ऊपरी पहाड़ियों पर बर्फबारी हुई, जिसके कारण केदारनाथ तीर्थ के पश्चिम में स्थित चोराबारी झील (गांधी सागर) में पानी ज्यादा हो गया और वह तेजी से किसी विशालकाय झरने की तरह बाढ़ की शक्ल में केदारनाथ की ओर आया। उसकी चपेट में जो भी मकान, होटल आया उसे वह बहाता और जमींदोज करता हुआ आगे बढ़ गया। इस भयानक हादसे की तस्वीर को करोड़ों लोगों ने टेलीविजन पर देखा है।

त्रासदी के बाद फौरन कहा जाने लगा कि पहाड़ पर जो बांध बन रहे हैं या पावर प्रोजेक्ट लग रहे हैं या खनन हो रहा है, यह सब उसी की देन है। पर सच में ये सब उसके लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार नहीं हैं। जंगलों के कटान की या तो इसमें मामूली भूमिका है या बिल्कुल भी नहीं है। इसी तरह से ओक के पेड़ों को काटकर चीड़ के पेड़ लगाने की बात भी हादसे के लिए जिम्मेदार नहीं है। क्योंकि केदारनाथ के ऊपर जहां से तबाही आई उस इलाके में पेड़ है ही नहीं। इसी तरह टिहरी बांध भी इसके लिए जिम्मेदार नहीं है। दरअसल जिस चीज ने इस त्रासदी में सबसे ज्यादा भूमिका निभाई, वह है अनियंत्रित चारधाम यात्रा। इस धार्मिक यात्रा के चलते नदियों के किनारे और उसके आसपास के इलाकों में अस्थिर किस्म का विकास हुआ है। चारधाम यात्रा करने वालों की तादाद लगातार बढ़ती रही है। केदारनाथ में रोज़ाना करीब 12 हजार लोग पहुंचने लगे थे, जबकि वहां मुश्किल से 12 सौ लोगों के रहने-ठहरने का ही उचित इंतज़ाम है। बाकी लोगों के ठहरने का इंतज़ाम बहुत ही चलताऊ ढंग से किया गया था। एक अनुमान के अनुसार, चारधाम यात्रियों की तादाद बढ़कर प्रति माह तेरह लाख हो गई थी। यात्रियों की तादाद बढ़ने के कारण वहां बिना किसी योजना के साधनों और सुविधाओं का विस्तार किया जाने लगा। वहां बहुमंजिली इमारतें आनन-फानन में खड़ी की जाने लगीं, बिना यह सोचे कि ये कितनी सुरक्षित हैं। गलत दिशा में सड़कें बनाई जाने लगीं। इसी तरह सड़कों को चौड़ाई भी बढ़ाई जाने लगी। नतीजा ये निकला कि भीड़ और ज्यादा बढ़ने लगी। इन्हें संभालने के लिए गधे, घोड़े, खच्चर, पालकी, टैक्सी और बसें सब दौड़ने लगीं।

मौसम पर नजर रखने वाले दफ्तर भी उस इलाके में कुछ ही हैं। वहां डापलर रडार सिस्टम नहीं लगाया गया। हालांकि यह बहुत उपयोगी तो नहीं है, फिर भी यह चेतावनी के मामले में तो उपयोगी हो ही सकता है। जब यह त्रासदी हुई तो पता चला कि राज्य और केंद्र, दोनों का ही आपदा प्रबंधन तंत्र ऐसे मामलों में निपटने के लिए तैयार नहीं हैं। ग्लेशियर वाली झीलों की हर सीजन में निगरानी नहीं का जा रही है, ताकि पता चल सके कि कौन-सी झील खतरनाक होने वाली है और उसका थोड़ा पानी निकाल कर उसे सुरक्षित स्थिति में लाया जाए। अब जरूरत तीन चरणों में आपदा प्रबंधन योजना बनाने की है। आपदा से पहले, आपदा के वक्त और आपदा के बाद।

यह पूरा का पूरा इलाक़ा भूकंपीय जोन वाला है। इसलिए यहां बांध बनाते वक्त ध्यान रखा गया है कि भूकंप की वजह से इनकी दीवारों को कोई नुकसान न पहुंचे। बाढ़ की स्थिति से निपटने के भी इसमें पूरे इंतज़ाम किए गए हैं। लेकिन जिस तरह इन सारी चीजों को ध्यान में रखकर बनाया गया है वैसे ही इस इलाके में जो मकान और सड़के बन रही हैं, उनमें भी इन सुरक्षा कारणों का ध्यान रखा जाना चाहिए। कुछ जल परियोजनाएं बन रही हैं। वे अपना मलबा सीधे नदियों में गिरा रही हैं। ये गलत काम तुरंत रोके जाने चाहिए। नदियों में पड़े मलबे को भी हटाना चाहिए ताकि उनका प्रवाह अबाध गति से बना रहे।ऐसे हादसों के बाद पुनर्वास के लिए तेजी से मकान और दूसरी सुविधाएँ बनाने की बात सोची जाती है। ऐसा करते समय योजना बनाकर काम नहीं हो पाता क्योंकि लोगों को राहत पहुंचाने की जल्दी होती है। ऐसे में सबसे पहले अस्थायी आश्रय स्थल बनाए जाने चाहिए ताकि पीड़ित उसमें रह सकें और फिर योजना बनाकर सारी सुविधाओं के साथ उनके रहने का स्थायी इंतज़ाम किया जाना चाहिए।

पहाड़ के निचले इलाकों में उद्योग लगाने के लिए लाइसेंस जारी किए गए हैं। ये अच्छी बात है, क्योंकि इससे लोगों को रोज़गार मिलता है। इस प्रक्रिया को और ज्यादा प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, ताकि और ज्यादा लोगों को रोज़गार मिल सके। अभी जिस तरह की उत्तराखंड में खेती की जा रही है, वह ठीक नहीं है। उत्तराखंड को हिमाचल की तर्ज पर अपने आपको ढालना चाहिए। वहां फूलों, सब्जियों, बागवानी और औषधि की खेती पर जोर दिया जाना चाहिए। खाद्यान्न वह मैदानी इलाकों से मंगा सकता है।

जो बिजली परियोजनाएं लगाई जा रही हैं, भविष्य में उनसे भी बहुत लाभ मिलेगा। ज्यादा बिजली उत्पादन होने पर निचले इलाकों में कोल्ड स्टोरेज बनाए जा सकते हैं, रोपवे और सड़कों के जरिए ऊंचाई पर पैदा हो रहे फलों और दूसरे उत्पादों को उन कोल्ड स्टोरेज तक पहुंचाया जा सकता है और वहां से उन्हें मंडियों तक भेजा सकता है। धार्मिक पर्यटन को भी नियंत्रित किया जाना चाहिए। उतने ही तीर्थयात्रियों को वहां पहुंचने की इजाज़त देनी चाहिए, जितने को रहने आदि की सुविधा हो। इससे प्राकृतिक आपदाओं के खतरे को काफी हद तक कम किया जा सकता है। उत्तराखंड में चारों तरफ खूबसूरत पहाड़ हैं। वहां ईकोटूरिज्म को बढ़ावा देना चाहिए। वहां ट्रेकिंग, राफ्टिंग, चिड़ियों को देखने आदि को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।

उत्तराखंड में जिन बिजली परियोजनाओं पर काम चल रहा है, उन्हें रोका नहीं जाना चाहिए, क्योंकि वे 2013 की त्रासदी के लिए जिम्मेदार नहीं हैं। हां, नदियों का बहाव लगातार जरूर बनाए रखना चाहिए। मछली पालने वाले तालाब बनाए जाने चाहिए और परियोजनाओं से जो रॉयल्टी मिल रही है, उसका एक फीसदी स्थानीय विकास पर हर हाल में खर्च किया जाना चाहिए। इसके अलावा बिजली परियोजनाओं को अपनी आय का कुछ हिस्सा कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी के तहत भी खर्च करना चाहिए। इससे इलाके का विकास होगा। स्थानीय लोग बिजली परियोजनाओं के खिलाफ नहीं हैं। विरोध करने वाले बाहरी लोग हैं।

प्रतिक्रिया


हकीक़त से दूर है श्री वर्गीज का लेख


अरुण तिवारी


मैं श्री बी. जी. वर्गीज हम सब के अग्रज और संजीदा पत्रकार के रूप में जानता हूं। नेशनल दुनिया अखबार में छपे उत्तराखंड त्रासदी से सीख संबंधी उनका लेख पढ़कर मैं हतप्रभ हूँ। मालूम नहीं उन्होंने क्यों और किन परिस्थितियों में यह लेख लिखा, लेकिन यह लेख जिस तरह गंगा पर बांध परियोजनाओं के खिलाफ अनशनरत जाने-माने बांध इंजीनियर प्रो. जी.डी. अग्रवाल द्वारा अपने अनशन के 101वें दिन जलत्याग की घोषणा के तुरंत बाद और पूरी तरह से उत्तराखंड की बांध परियोजनाओं के पक्ष में आया है; यह सवाल खड़े करता है।

जलविद्युत परियोजनाओं के संबंध अपनी आपत्तियों पर ध्यान न दिए जाने के कारण खफा और हाल ही में गंगा प्राधिकरण से इस्तीफ़ा देने वाले विशेषज्ञ सदस्य जलपुरुष राजेन्द्र सिंह, लोक विज्ञान संस्थान, देहरादून के वैज्ञानिक रवि चोपड़ा और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के पूर्व प्रो राशिद हयात सिद्दकी की बात छोड़ भी दें, तो देश के जाने-माने बांध विशेषज्ञ हिमांशु ठक्कर से लेकर भूगर्भ वैज्ञानिक डॉ. खड़गसिंह वाल्दिया तक ने पुख्ता वैज्ञानिक तथ्यों के साथ जलविद्युत बांध परियोजनाओं और उनके कुप्रंबधन पर उंगली उठाई है। उत्तराखंड त्रासदी में बांधों के कुप्रंबधन की भूमिका को देखते हुए उसकी समीक्षा किए जाने तक नए परियोजनाएं रोक देने के सुप्रीम कोर्ट के निर्देश को पर्यावरण विशेषज्ञों की सदस्यता वाले नेशनल ग्रीन ट्रिब्युनल ने आगे बढ़ाया है। कैग ने जलविद्युत परियोजनाओं के कुप्रबंधन व मनमानी को लेकर पहले ही सवाल उठाए थे। ऐसे में श्री वर्गीज ने अपने लेख में जंगल के कटान, खनन और जलविद्युत परियोजनाओं को जिस तरह दोषमुक्त करार दिया है, यह बेहद समझ से परे, गैरजिम्मेदाराना और पाठकों के बीच मे भ्रम पैदा करने वाला है। अस्सीगंगा, विष्णुप्रयाग, श्रीनगर गढ़वाल, फाटा ब्योंग, सिंगोली भटवारी, धौलीगंगा और मनेरी भाली परियोजना के कुप्रबंधन की वजह से जो नुकसान हुआ, मौके पर जाकर आकलन कर लिया, तो ही पता चल जाएगा कि इस विध्वंस को बढ़ाने में जलविद्युत की कितनी भूमिका है। जलविद्युत परियोजनाओं से कमाने और गँवाने की हकीक़त भी इतने से ही सामने आ जाएगी।जंगल कटान और खनन में पक्ष तर्क देते वक्त वह भूल गए कि त्रासदी सिर्फ केदारनाथ में ही नहीं आई, गढ़वाल से लेकर कुमाऊँ तक कई इलाके इस त्रासदी का शिकार बने; सबसे ज्यादा वे जहां ये परियोजनाएं हैं।

आपत्तिजनक यह लिखना भी है कि स्थानीय लोग बांधों के विरोधी नहीं हैं, विरोध करने वाले बाहरी हैं। अच्छा होता वह कभी जाकर मंदाकिनी और अलकनंदा घाटी में तबाह हुए गांववासियों से जाकर पूछ आते कि वे गाँवों के कितने पक्ष में हैं। शायद वह इस हकीक़त से भी अनभिज्ञ हैं कि उत्तराखंड में बांध विरोधी आंदोलनों में अगुवा भूमिका निभाते रहे सर्वश्री चंडीप्रसाद भट्ट, सुंदरलाल बहुगुणा, प्रख्यात गांधीवादी नेता बहन राधा भट्ट, गीतकार स्व. गिरीश तिवाड़ी ‘गिर्दा’, संपादक शेखर पाठक, चारु तिवारी, उत्तराखंड आंदोलन के अगुवा व जनसत्ता के पूर्व पत्रकार शमसेर सिंह बिष्ट, सुशीला भंडारी, लक्ष्मण सिंह नेगी, सुरेश भाई, बिहारी भाई स्थानीय ही हैं।

अरुण तिवारी
ईमेल : amethiarun@gmail.com
फोन नं. 9868793799


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