आज टिहरी डूबने के कगार पर है। तो डांडी-कांडी जो बम्बई के प्रवासी निकालते हैं, उन्होंने बहुत ही खूबसूरत अंक निकाला है। बल्कि पिछले संपादकीय में तो आश्चर्यचकित रहा कि किसी एक लेखक ने कुमाऊं और गढ़वाल की शब्दावली लिखी। इस बीच बहुत भाषा चल रही है। एक तो हमारी जातियों को लेकर देहरादून में बहुत शब्दावली चल रही है। दूसरा कुमाऊं और गढ़वाल पर बातें चल रही है। ऐसा नहीं है कि पत्रकारिता एकदम जन्मजात ही क्रांतिकारी होती हो। जब पहली बार 1867 में उत्तराखंड में प्रेस आई तो उसके माध्यम से ‘समय विनोद’ नामक अखबार निकला था फिर उसके दो साल बाद ‘अल्मोड़ा अखबार’ निकला था। वो बहुत ही स्थानीय किस्म का, सरकार प्रस्त, अंग्रेज प्रस्त अखबार था, क्योंकि उस समय सामाजिक चेतना उसी तरीके की थी और 50 साल बाद वही अल्मोड़ा अखबार इस आरोप में बंद कर दिया गया कि यह सरकार विरोधी हो गया है। उससे 6000 रुपए की जमानत मांगी गई, क्योंकि उसने अल्मोड़ा के जिलाधिकार के खिलाफ इतना खतरनाक संपादकीय लिखा। उस समय पौड़ी का जो मशहूर अखबार था; पुरुषार्थ। उसने टिप्पणी की कि एक फायर से तीन शिकार, कुली, मुर्गी और अल्मोड़ा अखबार।
क्योंकि जंगल के नियमों के खिलाफ वो जिलाधिकारी गर्मी के महीने में शिकार करने के लिए स्याही देवी के जंगल में गया। उसने मुर्गी भी मारी, बाद में जंगल में आग भी लग गई और इसी खबर को छापने के कारण अल्मोड़ा अखबार भी बंद हो गया। ये अल्मोड़ा अखबार पूरे 48 साल चलने के बाद बंद हुआ और इस आरोप में बंद हुआ जो कि उसके जन्म के समय उसके प्रारंभिक एजेंडे में कहीं भी नहीं था।
उसके बाद शक्ति का उदय हुआ। 1898 में जब अल्मोड़े में शक्ति का उदय हुआ तब से लेकर 1948 तक शक्ति की एक जबरदस्त राष्ट्रवादी भूमिका रही। शक्ति केवल एक साप्ताहिक अखबार नहीं था बल्कि एक तरह की खिड़की थी, जहां से उत्तराखंड के लोग न सिर्फ अपने अंचलों में ही झांकते थे बल्कि उसका एक दूसरा दरवाजा देश की तरफ खुलता था और पूरे देश के हालात भी वहां पता चलते थे। गांव में अगर ‘शक्ति’ का एक अंक जा रहा है या माना ‘गढ़वाली’ का तो पर्याप्त होता था। अखबार को ‘बांट’ करके लोगों को सुनाने की परम्परा थी। एक गांव में एक अखबार आ रहा है तो एक आदमी पढ़ रहा है बाकी लोग सुन रहे हैं। जैसा गोविंद अपने बचपन के जमाने का संस्मरण सुना रहे थे।
पिथौरागढ़ का एकमात्र अखबार उत्तराखंड ज्योति अगर प्राइमरी स्कूल में जाता था तो ‘हेडमास्टर साहब’ सभी को सुनाते थे और वो सबके लिए बहुत बड़ी बात होती थी। हालांकि बहुत सामान्य अखबार था लेकिन अकेला अखबार था। दिल्ली का अखबार पांचवे-सातवे दिन पहुंचता था। उस जमाने में तो हमारी खबरें ही, कि तवाघाट में 1977 में अगर 45 लोग मरे तो उसकी खबर 15 दिन बाद तब आई जब हमारे बहुत से साथी वहां से लौट के आए। ‘अज्ञेय’ जी नवभारत टाइम्स के संपादक थे तो वो 15 दिन पुरानी खबर को नवभारत टाइम्स की हेडलाइन में ले आए। उन्होंने कहा कि 15 दिन बाद भी ये खबर अर्थवान है, न नेता गया, न प्रशासन गया, आदि-आदि।
1930 में मोहन जोशी ने ‘स्वाधीन प्रजा‘ के नाम से एक मशहूर अखबार निकाला था। 15-20 अंकों के बाद ही उससे जमानत मांग ली गई और वो बंद हो गया। शक्ति का तो हर संपादक जेल में गया। बद्री दत्त पांडे, मोहन जोशी, पूरनचंद तिवारी उसके बाद देवीदत्त पंत उसके बाद कोई और ये सब के सब गिरफ्तार हुए थे। क्योंकि ये सबके सब राष्ट्रवादी नेता भी थे। राम सिंह धौनी गिरफ्तार तो नहीं हुए लेकिन उनसे दो बार जमानत मांग ली गई। उसके बाद वो बम्बई चले गए।
स्वाधीन प्रजा का एक संपादकीय था कि गवर्नर जो उत्तर प्रदेश का लार्ड था, जिसको उस समय लेफ्टिनेंट गवर्नर कहते थे, वो पिंडारी की यात्रा में गया, उस पर मोहन जोशी ने ‘पिंडारी की सैर’ करके एक संपादकीय लिखा और अगले ही अंक में जमानत मांग ली गई। अखबार बंद हो गया। फिर एक दो साल चला फिर बंद हो गया। ऐसे ही जाग्रति जनता नाम अखबार निकला। फिर 42 से 45 तक उत्तराखंड का हर साप्ताहिक अखबार बंद हो गया।
आजादी के बाद परिदृश्य बदल गया। जिनको प्रतिपक्ष का खेल अदा करना था वो सब सरकार में आ गए। तो अखबारों की जो पुरानी परम्परा थी वो बहुत सालों तक धूमिल रही। लेकिन फिर भी अपने वक्तव्य में सुरेश ने जिन अखबारों का जिक्र किया है वह आजादी के बाद भी अपनी भूमिका अदा करते रहे। जैसे-कर्मभूमि। भरत धूलिया ने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया कि मैं उस पार्टी में रहकर स्वतंत्र अखबार नहीं चला सकता। जबकि बाद में वो एम.एल.ए. भी बने तो स्वतंत्र बने। तो उस जमाने में उनमें इतनी बड़ी स्वायत्तता की भावना। युगवाणी जो टिहरी का प्रमुख पत्र था, सन 1948 से लेकर आज तक निरंतर चला आ रहा है और वहां के मुद्दों को उठाता रहा है। और आज बहुत सारे और अखबार जिनमें नैनीताल समाचार से लेकर पौड़ी तक के अखबारों की चर्चा है वो बखूबी रोल अदा कर रहे हैं।
लेकिन जिन गोविंद ने अखबारों को तीन वर्गों में बांटकर विश्लेषण किया क्योंकि वहां राष्ट्रीय अखबारों का कोई श्रेय ही नहीं रह गया। नैनीताल में जिस ‘जनसत्ता अखबार को हम सबसे अच्छा अखबार मानते हैं उसकी काॅपियां घटते-घटते 20-25 में आ गई है। नवभारत टाइम्स, हिन्दुस्तान की संख्या भी बहुत ज्यादा नहीं है, अमर उजाला और जागरण ये दो अखबार जबरदस्त तरीके से छाए हुए हैं। क्योंकि उसमें आपके भतीजे, आपके चाचा, नेताजी के ये-वो-फलाना, सब खबरें आती है।
उत्तराखंड आंदोलन की भी जब खबरें आती थी तो मुद्दे नहीं आते थे कि आज के जुलूस में क्या निकला, क्या कहा गया, बल्कि उसमें लगभग 132 नाम होते थे वहां भी आपके नामों का सिलसिला चलेगा और दूसरे दिन ये भी होगा कि फलां-फलां का नाम नहीं आया। एक ऐसी परम्परा शुरू कर दी थी जिससे मुद्दे उजागर नहीं होते थे बल्कि नाम उजागर होते थे। देहरादून में तो अनेक बार मार-पीट हो जाती थी कि मेरा नाम नहीं आया, क्योंकि देहरादून में बहुत बड़े जुलूस निकलते थे। दिल्ली में भी इस तरीके की बात उस समय हुई।
फिलहाल, ऐसा नहीं है कि पूरी की पूरी पत्रकारिता तिरोहित हो गई हो। बहुत सारे अखबारों में जो न सिर्फ उत्तराखंड के पत्रकार थे, बल्कि दिल्ली के पत्रकारों ने भी, जो अंग्रेजी में भी लिखने वाले थे बहुत ही संतुलित और बहुत ही अच्छे लेख लिखे। उन्होंने बहुत आलोचना पूर्ण तरीके से भी लिखा। जिस समय हरीश खरे वहां आए, उसके बाद निखिल चक्रवर्ती, प्रेस इंस्टीट्यूट आॅफ इंडिया के भट्टाचार्य जी वहां आए उनके लेख बहुत ही तर्क पूर्ण थे। उन्होंने बहुत आम लोगों से मिलकर अपने विचार दिए थे। दूसरी ओर उत्तराखंड आंदोलन की जो कमियां थी उनको उजागर करने में हमारे अपने पत्रकार कभी नहीं कतराए। कुंवर प्रसून हमारे गढ़वाल के साथी हैं वे बहुत सारे अखबारों में लिखते रहे।
उस दौर में जब उत्तराखंड आंदोलन की आलोचना में लोग कतराते थे उन्होंने लिखा। तो ऐसा नहीं है कि कलम के धनी वहां नहीं है। संकट इतना ही है कि ऐसा अखबार जो आपकी दिनचर्या का हिस्सा बन जाए ऐसा अखबार हम अपने समाज को नहीं दे सके हैं। जो ये अखबार आ रहे हैं ये सिर्फ आपको सूचनाएं दे रहे हैं। शिक्षित नहीं कर रहे। वो सूचनाएं जिनको आप नहीं लेना चाहते हैं - फलाने की लॉटरी खुल गई, फलाने का ये, साबुन, शैम्पू आदि के बारे में जानकारी दे रहे हैं। परसों एक दिन अमर उजाला में फ्रंट पेज पर बालों का इतना बड़ा गुच्छा रखा हुआ था, हमने सोचा कि आज फ्रंट पेज पर क्या हो गया, पहले लगा कि कोई फोटो काट कर चिपका दिया गया है।
फिर उसमें लिखा था कि शेष फलां पन्ने में देखिए। तो उसमें शैम्पू का विज्ञापन था वो। अमर उजाला के फ्रंट और लास्ट में कोई न्यूज ही नहीं थी, जब हमने उसका पहला पेज पलटा तब उसका असली पेज शुरू हुआ। यानी कि विज्ञापन के लिए वो कुछ भी कर सकते हैं। अखबार का जो संडे अंक है, उसमें कोई रिव्यू नहीं आता है। फिल्म बहुत आएंगी। अब रोज फिल्म देख ही रहे हैं। अखबारों में कब तक आप फिल्म एक्टरों को देखेंगे, उन पन्नों में हमारे विषय आ जाते। चलो महिला पन्ने में आप हर बार जलेबी बनाने की विधि के बदले जीवन की बहुत सी समस्याओं को देते। इसलिए एक वैकल्पिक मीडिया की गुंजाइश बनी हुई है। जो स्वायत्त हो, स्वतंत्र हो, जो किसी की भी गड़बड़ी इंगित कर सकता हो, ऐसे अखबार की हमें जरूरत है। ऐसा अखबार जो अपने आप की आलोचना करता हो।
मैं जब ‘शक्ति’ की या ‘गढ़वाली’ की फाइलें देख रहा था तो मुझे अनेक बार आश्चर्य होता था कि उस जमाने में हमारे जो पूर्वज थे, वो बहुत जबरदस्त संपादकीय लिखते थे कि मैं आपको एक बार की बात सुनाता हूं कि गढ़वाली को एक अंक आता था उसमें तारादत्त गैरोला भी संपादकों की सूची में आते थे, तो 1909 या 1910 के अंक में सरौड़ा सभा ब्राह्मणों की एक सभा थी जो कहते थे कि ब्राह्मणों में शिक्षा बहुत कम हो रही है, हमें कुछ करना चाहिए। तारादत्त गैरोला उस सभा के अध्यक्ष थे, वे बड़े वकील, विधायक होने के साथ-साथ 1918 से 20 तक एम.एल.ए. के लिए चुने गए। न्यायिक फैसले पर उनकी एक किताब भी है।
दूसरी ओर उसी में हमारे सत्य सरण रतूड़ी जी थे जो कि गढ़वाली के एक कवि थे। जब उन्होंने सरोड़ा सभा बनाई तो रतूड़ी जी को बिल्कुल नहीं जंची। उन्होंने कहा ये क्या है? मतलब राष्ट्रवाद आ रहा है, देश जग रहा है, लोग समुद्र पार कर रहे हैं - जिसके लिए अल्मोड़ा में जापान आंदोलन हुआ था कि ब्राह्मण ने समुद्र लांघ लिया है, इसलिए उसको जाति से निकाल दिया गया। मशहूर राष्ट्रवादी कवि गौरदा के भाई को। तो वही उत्तराखंड अब जाग्रति की ओर आ रहा था। तो सत्य सरण रतूड़ी जी ने उस अखबार में संपादकीय लिखा, जिसके मुख्य संपादक तारादत्त गैरोला थे।
उसका शीर्षक था ‘सरौला सरके दादुर की टर-टर में’ ये शीर्षक मैं कभी नहीं भूलता हूं। सरौला माने वो ब्राह्मणों का ग्रुप था। सर माने तालाब, दादुर माने मेढक की टर-टर। यानी कि उन्होंने अपने मुख्य संपादक रायबहादुर तारादत्त गैरोला को मेढ़क कह कर पुकारा कि तुम 1910 में आज उस आदिम जमाने की मानसिकता में रह रहे हो। इतनी स्वायत्तता उस अखबार के भीतर थी। यानी कि उस अखबार के तीन संपादकीय अपने-अपने तरीके से अपने मंतव्य अखबार को देते थे।
शक्ति में बद्रीदत्त पांडे को यदि कोई संपादकीय पसंद नहीं आता था तो राम सिंह धौनी और मोहन जोशी कहते थे कि हम इसमें कोई संशोधन नहीं करेंगे। हम यही संपादकीय छापेंगे, चाहे अखबार बंद हो जाए। और उसके बाद बहुत बार अखबार बंद होने की नौबत भी आ गई। ये उस स्वायत्तता का प्रदर्शन करते हैं जो पत्रकार अपने जोखिम पर लेते हैं। आपको आश्चर्य होगा कि अल्मोड़े का ‘शक्ति’ उस जमाने में टिहरी रियासत तक जाता था और देहरादून का ‘गढ़वाली’ पिथौरागढ़ तक जाता था, बहुत से गांवों में हमें उसकी फाइलें मिली। ये सब इस बात का संकेत है कि एक-एक अखबार उस जमाने में कितनी बड़ी भूमिका निभाता रहा।
आजादी के बाद भी वो क्रम चला। लेकिन फिर जो ये इस तरीके के अखबार आए उन्होंने उसको तोड़ दिया। और ये इस बात का भी प्रतीक है कि हमारे समाज में हर एक का अपना अखबार है। जापान की तरह पिता का अलग, पुत्र का अलग अखबार तो नहीं हुआ। हमारे यहां एक अखबार से काम चलाते हैं। लेकिन हमारे यहां उस तरह का अखबार नहीं आया जो लोगों को शिक्षा के स्तर पर भी आगे लाता हो, अन्य चीजों के लिए आगे लाता हो। पूरे समाज को आलोचनात्मक दृष्टि से देखता हो।
उत्तराखंड में तीन मुख्यमंत्रियों के बन जाने के बावजूद किसी अखबार ने एक आलोचनात्मक संपादकीय लिखने का साहस नहीं उठाया। उत्तराखंड की सरकार ने जो पहला वन पंचायत अधिनियम बनाया उस पर किसी अखबार ने कोई संपादकीय नहीं लिखा, क्योंकि वो वन पंचायतों और उन एक्टों के बारे में जानते ही नहीं हैं कि जो नया एक्ट आया है वह कितना जघन्य है। उत्तराखंड सरकार की नई पर्यटन नीति बनी उसके बारे में किसी ने कुछ नहीं कहा।
उत्तराखंड की सरकार ने कुछ बड़े लोगों को नन्दादेवी सेंचूरी के भीतर जाने का अधिकार दिया जबकि वहां बगल के रहने वाले ‘लाता’ और ‘रैणी’ के लोगों को नहीं दिया, तो ये सब संपादकीय के विषय नहीं बने। बल्कि जिन अखबारों से हममें से बहुत सारे लोग जुड़े हुए हैं उन अखबारों ने भी ये प्रतिभा नहीं दिखाई कि हम एक-एक मुद्दे को इस तरह उठा सकें। आपको आश्चर्य होगा कि आज से 10 साल पहले हमारे साधनहीन साथी कहीं पर भी कोई प्राकृतिक आपदा हो वहां दूसरे दिन पहुंचने वाले लोगों में होते थे। वहां इन्द्रमणि बडोनी, कमलाराम नौटियाल, सुंदरलाल बहुगुणा, चंडीप्रसाद भट्ट आदि सभी मिल जाएंगे और सभी अपने-अपने स्तर, अपने-अपने साधनों से वहां पहुंच जाएंगे। 20-25 किलो राशन सहित और अपने साथ कुछ हजार दो हजार रुपए लेकर भी आएंगे।
जब से राज्य आया है पूरा का पूरा ठेका सरकार को दे दिया है। तब से ये प्रवृत्ति भी खत्म हो गई है। 1978 में जब गढ़वाल में अलकनंदा की बाढ़ आई थी तो नैनीताल समाचार में उसकी रिपोर्टिंग देखने लायक थी। हर 15 दिन के बाद नया साथी जाता था और वहां की नवीनतम रिपोर्टिंग लाता था। उसका दूसरा फीडबैक फिर दिनमान में देते थे क्योंकि ‘दिनमान’ के रघुवीर सहाय इस तरह के मुद्दों के लिए बड़े समर्पित थे। वात्स्यायन जी नवभारत टाइम्स के सम्पादक थे तो वहां तक खबर जाती थी। ऐसे सारे बरेली और मुरादाबाद के अखबारों का वर्चस्व नहीं था। अब स्थिति ये है कि इस बार खेत में लैंड स्लाइड आया। तवाघाट के ऊपर करीबन 10-12 लोग मारे गए, जहां जाने वालों में जिला मुख्यालय के वो पत्रकार भी नहीं थे जो जिलाधिकारी या एम.एल.ए. के साथ गांव जाने में बड़ा गौरव समझते थे, वो लोग इस मानवीय हितों के लिए जो कि पत्रकार की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए, लेकिन वो नहीं गए।
ये इस बात का संकेत देता है कि मीडिया की हमारे यहां जो भूमिका होनी चाहिए, वैकल्पिक मीडिया जिस तरह से हमारे यहां प्रस्तुत होना चाहिए, वह हमारे यहां है नहीं। वैकल्पिक मीडिया की राष्ट्रीय स्तर पर भी जरूरत है। ‘दिनमान’ का कोई विकल्प नहीं बना। टाइम्स आॅफ इंडिया वालों ने सबसे पहले ज्ञानपीठ पुरस्कार शुरू किया, सबसे पहले ज्ञानोदय जैसी पत्रिका बंद की। दिनमान बंद की, फिर उसके बाद धर्मयुग बंद हुआ। आपके पास कोई पत्रिका नहीं हैं। आपके पास अब इंडिया टुडे, जिसका नाम हिन्दी में भी इंडिया टुडे है और आउट लुक भी हिन्दी में शायद उसी नाम से आ रहा है। हो सकता है इनमें से कुछ खोजी पत्रकारिता भी हो। अनेक बार न भी हो, क्योंकि राष्ट्र के स्तर पर जब अखबार निकल रहे हैं तो आपके मुद्दे बहुत गौण हो जाते है। वैसे मुद्दे देश में बहुत सारे होंगे।
इसलिए आपको क्षेत्रीय स्तर पर एक अच्छे अखबार की जरूरत है, जिसके लिए बार-बार बात होती है कि किसी व्यक्ति को उस पर पहल करनी चाहिए। निकलने को देहरादून से ‘दून दर्पण’ हल्द्वानी से उत्तर उजाला निकाल रहे हैं। लेकिन इनमें नए राज्य के लिए, वहां की गड़बड़ राजनीति के लिए, वहां के उदास जन आंदोलनों के लिए जिस तरीके की पहल होनी चाहिए वह इनसे नहीं आ पा रही। मेरे ख्याल में वह आनी चाहिए।
मुझे ऐसा लगता है कि जो बहुराष्ट्रीय होंगे वो मीडिया में आएंगे। क्योंकि वो उनके लिए धंधा है, व्यवसाय है। कल खबर थी कि टाटा फिल्म बना रहे हैं। प्रेस में तो वह पहले से थे ही। फिलहाल जो हैं वो अच्छी खासी हिन्दी और अंग्रेजी में अखबार चलाते हैं। हम साढ़े तीन रुपए में अखबार खरीदते हैं, दिल्ली के अखबार दो रुपए में मिल जाते हैं। पन्ने भी बहुत होते हैं। रद्दी भी जब बेचते हैं तो उसकी मात्रा बहुत होती है। अब उसका एक काॅलम कट गया है फिर भी सप्ताह भर में कुल पेज बहुत हो जाते हैं। लेकिन आज भी हमारे यहां इंडियन एक्सप्रेस तथा हिन्दी को पढ़ने वाले लोग बहुत से लोग हैं।
आज भी बहुत जगह पर स्टेट्समैन का इंतजार होता है। आज भी हमारे यहां जनसत्ता का इंतजार करने वाले लोग बचे हुए हैं। आज भी सहारा के हस्तक्षेप का बड़ा इंतजार होता है। लोग बड़ी केयर से उसको रखते हैं। उस अखबार को फेंकते नहीं हैं जैसे और अखबारों को फेंक देते है। इसलिए ऐसा नहीं है कि पाठक भी पूरा का पूरा रूपांतरित हो गया है।
अगर आप पाठक को विकल्प देंगे तो वह आपके साथ आएगा। जो सवाल उठे हैं उनमें से तीन बातें उठती है। एक तो यह कि जो भी सरकार होती है, जो भी सत्ता होती है, उसके अपने अच्छे और बुरे प्रसार माध्यम होते हैं। कभी-कभी अच्छे भी, जैसे इंग्लैंड में बी.बी.सी. राजा और रानी की बात नहीं मानता है। हालांकि सरकार से बहुत सघन रिश्तेदारी हैं, पैसा मिलता है। उसके बावजूद उसने अपनी स्वायत्तता को बरकरार रखा है। हमारे यहां स्वायत्तता की कल्पना मंत्री से लेकर नीचे तक कोई कर ही नहीं पाता है। अगर स्वायत्तता हमारे यहां दे दें तो हमारे यहां भी कलात्मक लोग हैं जो उसको पूरे तरीके से आगे ला सकते हैं।
बहुराष्ट्रीय आएंगे उनका अपना मीडिया रहेगा, पूंजीपतियों के घराने अखबारों में छाए रहेंगे क्योंकि वो उनके लिए उद्योग वगैरह है। इसके साथ ही अगर हम इस जनतंत्र में वैकल्पिक मीडिया विकसित नहीं करेगें तो वह सबसे ज्यादा दिक्कत पैदा करेगा। यहां वैकल्पिक मीडिया की बात अच्छे तरीके से उभरकर आई। अगर उत्तरांचल पत्रिका निकल रही है तो मैं उसको वैकल्पिक मीडिया का भाग मानता हूं। वो उत्तरांचल की सरकार के खिलाफ अच्छा संपादकीय लिख सकते हैं। उसको छापने में भयभीत नहीं होते। विज्ञापन नहीं मिलेगा कोई बात नहीं। या उत्तराखंड प्रभात लिख सकता है या कोई और अखबार लिख सकता है। या कभी-कभी युगवाणी लिखेगा और कुछ अखबार लिखेंगे।
उस स्वायत्तता के लिए जिस तरह की न्यूनतम बरकत चाहिए, वैकल्पिक मीडिया के लिए चाहिए, वो हमारे पत्रकार में या उनकी टीम में होनी चाहिए। मैं जब तुलना करता हूं कि हमारे छोटे-छोटे अखबारों से बड़ी-बड़ी चीजें निकली हैं। दिनेश जोशी आज अपनी प्रतिष्ठित, रंगीन पत्रिका से वह काम नहीं कर पा रहे हैं जो एक जमाने में पिथौरागढ़ से निकलने वाले एक छोटे से अखबार से करते थे। यानी कि एक वचनबद्ध पत्रकारिता थी जो बिल्कुल लोगों से छन के आती थी। अब आप बड़े हो गए, रंगीन हो गए, लेकिन उसका कोई असर नहीं है।
1978 में जब गढ़वाल में अलकनंदा की बाढ़ आई थी तो नैनीताल समाचार में उसकी रिपोर्टिंग देखने लायक थी। हर 15 दिन के बाद नया साथी जाता था और वहां की नवीनतम रिपोर्टिंग लाता था। उसका दूसरा फीडबैक फिर दिनमान में देते थे क्योंकि ‘दिनमान’ के रघुवीर सहाय इस तरह के मुद्दों के लिए बड़े समर्पित थे। वात्स्यायन जी नवभारत टाइम्स के सम्पादक थे तो वहां तक खबर जाती थी।युगवाणी इतनी रंगीन होने के बाद भी वो असर नहीं कर पाती जैसा युगवाणी ने पिछले पचास साल के इतिहास में अपने मामूली आठ पन्ने के अखबारों से टिहरी को लेकर तहलका मचा दिया था। इसी तरीके की कर्मभूमि की बात है, और इसी तरीके से कुछ और अखबारों की बात है। मुझे जंगल के दावेदार याद आ रहे हैं, जिसके बहुत सारे अंक पी.सी. ने अल्मोड़े से संपादित किए। आज किसी के पास हों तो... वैसे संभालने की तो हम लोगों में से किसी को तमीज नहीं है। हो सकता है बचे हों, लेकिन जैसी मेरी आशा है पूरी फाइल इनके पास भी नहीं होगी। लेकिन उस अखबार के भी आप संपादकीय पढ़ेंगे तो वो बहुत वस्तुपरक थी। आपने आपकी आलोचना करने की क्षमता थी। अगर यह अखबार में नहीं है तो वैकल्पिक मीडिया नहीं कह सकते। लेकिन वैकल्पिक मीडिया सिर्फ अखबार तक नहीं है। जो विजय भाई ने भी सहयोग दिया, इन्होंने भी किया।
आपके घर में टेलीविजन घुसा हुआ है। सोलर ऊर्जा लग जाएगी तो उसका पहला उपयोग बच्चों के पढ़ने के लिए होगा कि नहीं होगा? लेकिन महाभारत से लेकर, किसी फिल्म से लेकर कुछ और के साथ चैनल आपके घर में घुस जाएगा। अगर विकल्प मौजूद हैं। बाहर गिल्ली-डंडा हो रहा है, कबड्डी हो रही है, रामलीला हो रही है, नाटक हो रहा है, स्लाइड शो हो रहा है, फिल्म क्लब बने हुए हैं। एक बात मुझे लगती है कि यदि नैनीताल के बच्चे टेलीविजन से बचे हुए हैं तो वो इसलिए कि वहां 365 दिन में से 300 दिन भी उस फील्ड में, फ्लैट्स में खेल होता है। उस खेल में बच्चे फिदा होते हैं और वहां आते हैं।
इससे उनके उतने ही घंटे बच जाते हैं। हम शायद इस संस्कृति को अल्मोड़ा में विकसित नहीं कर पाए, चमोली में नहीं कर पाए हैं। पिथौरागढ़ में अभी फुटबाल की बहुत संस्कृति है जहां दस-दस हजार लोग फुटबाल को देखते हैं। तो यदि आप विकल्प देंगे तो चुपचाप जो हमारे बैठक के कमरे में या भगवान के कमरे में भी, एक कोने में भगवान जी हैं और दूसरे कोने में टेलीविजन हैं, जो उस अर्थ में पूरे का पूरे भगवान विरोधी है। उसे रोकने में आप कामयाब हो सकते हैं।
अगर शुरू में हम स्लाइड शो लाते हैं, अगर हम इस तरह की सी.डी. बनाते हैं शिक्षाप्रद, यहां तक कि हम बच्चों की फिल्म सोसायटी बनाते हैं। अगर आप टेलीविजन का सर्वे करें तो बच्चों के कितने कार्यक्रम आते हैं? पुरानी सांस्कृतिक फिल्मों में से जो हमें दिखानी चाहिए वो कितनी आती हैं? आप ऐसी फिल्म लाते हैं जिसके दस मिनट बाद आप विज्ञापन का कर लगा देंगे और पांच मिनट फदीदा मचेगा उसका फिर फिल्म शुरू हो जाएगी। बहुत लोग बंद भी कर देते हैं। अच्छे लोग टी.वी. नहीं भी देखते हैं।
अगर आप बहुत घरों में जाएंगे तो वहां टी.वी. तक बंद रहने लगा है। बहुत सारे लोग देखते भी नहीं हैं। तो वैकल्पिक मीडिया बहुत तरीके से फैला है, स्लाइड्स में फैला हैं सी.डी. में फैला है। वैकल्पिक फिल्मों में फैला हुआ है। नर्मदा पर एक फिल्म बनकर आई थी, आप उन्हें जगह-जगह दिखाइए। आपको एक वैकल्पिक मीडिया मिलता है सच्चाई भी सामने आती है। तो वैकल्पिक मीडिया प्रिंट में भी और इलेक्ट्राॅनिक मीडिया में भी संभव है। सी.डी. के जरिए और वेबसाइट के जरिए जैसे गोविंद ने बनाई है, उसके जरिए हम बहुत कार्यान्वयन कर सकते हैं।
अमरीका में एक रावत जी हैं वे बहुत सक्रिय हैं। वह डब्ल्यू.टी.ओ. विरोधी जुलूस में भी गए थे। उन्होंने उत्तराखंड की एक बहुत बढ़िया वेबसाइट बनाई है। जो भी नया आता है उसमें जोड़ देते है। संगीत आता है, खबर आती है, कुछ नया दस्तावेज आता है उसके भीतर डाल देते हैं और पूरी प्रवासियों के लिए वह रिफरेन्सिव चीज बनी हुई है। क्योंकि वहां कम्प्यूटर का जमाना है। ई-मेल का जमाना है। बिना कम्प्यूटर खोले, बिना ई-मेल खोले आपका काम नहीं चलता है। आपको रिजर्वेशन कराना है, गैस मंगानी है, रेलवे का टिकट मंगाना है, यान का टिकट लेना, सब कुछ है उसमें। तो इन सब में हमें फैलने की जरूरत है और दूसरा मेरा यह कहना है कि टेलीविजन की जितनी विविध धाराएं हैं, जो भी प्रतिभाशाली है - वहां भी इस चीज को उजागर करें। जैसे मैं राजीव से कहता हूं कि भई अमर उजाला में लिखना चाहिए क्योंकि उसके पाठक तो हमारे हैं। मालिक से तुम्हारी न बनती हो, संवाददाताओं से न बनती हो, पढ़ने वाले तो सब हमारे लोग हैं।
अगर वहां काॅलम लिखोगे तो हमारे उतने हजार लोगों तक जाएगा। जहां तक नैनीताल समाचार नहीं जाता है। अगर नवभारत टाइम्स में लिखोगे, जनसत्ता में लिखोगे तो पढ़ने वाले तो वही हैं। वहां पर आप यह क्यों सोचते हैं कि इसका मालिक कौन है, इसका सम्पादक कौन है या इसका संवाददाता कौन है। अगर आपके लेख में दम है तो वह छपेगा, आप उसे बहुत काट नहीं पाएंगे। वहां छपेगा तो हमारे लोगों तक जाएगा। इसलिए इन अखबारों के काॅलम्स का भी, टेलीविजनों के चैनल्स को भी जितना आपके हाथ आता है उतना आप जनहित में इस्तेमाल कीजिए। ऐसा बहुत बार किया गया है।
उन दिनों मैं धस्माना जी को नहीं जानता था। बहुत बार ये दूरदर्शन में ऐसी-ऐसी खबरें लाते थे कि हम चौंक जाते थे। एक बार हम अरूणांचल से आए तो इन्होंने एक जबरदस्त खबर लगाई। मैं नैनीताल वापस गया तो पता चला कि कल टेलीविजन में खबर आई और वहां की 1898,1951 की बाढ़ की खबर दो या तीन मिनट की थी। तो अपने आप में यह बहुत बड़ी बात होती है। यदि कोई भी सकारात्मक आदमी किसी भी पद्धति या मल्टीनैशनल में चला जाता है तो वह कुछ न कुछ कर सकता है।
आज कल विकल्प भी बहुत हैं। सी.डी., डब्ल्यू. डब्ल्यू. डब्ल्यू., या वीडियो फिल्म के जरिए बहुत से काम किए जा सकते हैं। वो लोगों के बीच में जाए। तो नई पीढ़ी को यदि हम-आप विकल्प देंगे, जैसे थियेटर कहीं विकसित हो रहा हो, जैसे रामलीला कहीं बची हुई हो और हमारी सांस्कृतिक गतिविधियां चल रही हों, तो आप उनका बहुत सारे समय को सदुपयोग में ले आते हैं। इसलिए वैकल्पिक मीडिया की पूरी गुंजाईश है।
सत्ता के मीडिया बने रहेंगे। बहुराष्ट्रीय के मीडिया उद्योग के रूप में आएंगे लेकिन इनसे टक्कर लेने के लिए इलेक्ट्राॅनिक से लेकर यहां तक हमें अपना विकल्प बनाना होगा और उसमें बहुत गुंजाइश है। तीसरी बात जो मैं कहना चाह रहा हूं कि फिल्म भी अपने-आप में एक बहुत बड़ा मीडिया है। ये ठीक है कि आपके यहां ऐसी फिल्में बनती रहेंगी जैसी मुम्बई से बन रही हैं। लेकिन आपके बहुत सारे लोग ऐसी फिल्में बना रहे हैं जो हमारे जीवन के साथ बड़ा ताल्लुक रखती हैं। जो आमतौर से मुम्बई में बनने वाली फिल्मों की तुलना में बहुत रोचक न लगती हों, जो पर्दे में नहीं होता, अनेक बार पर्दे में वो आप चाहते हैं। मोटोटाॅनी है, हीनता है, कटे हुए हैं, प्रवास में हैं आप अपना मनोरंजन करते हैं। जैसे राही मासूम रजा कहते थे कि उन्हें जासूसी उपन्यास में बड़ा मजा आता है। आम लोगों को भी लगता है ये बहुत सारे मानव मनोविज्ञान के विषय हैं। लेकिन अगर हम विकल्प लाएंगे तो उस विकल्प में बहुत सारी गुंजाईश बनती है।
आप यह भी देखिए कि टी.वी. के तमाम चैनल बेईमान क्यों न हों आज भी डिस्कवरी से, नेशनल जियोग्राफिक से हमें बहुत कुछ सीखने को मिलता है। यह ठीक है कि उसके बीच में विज्ञापन फिट हैं। क्योंकि वह व्यवसायिक धंधा तो है ही लेकिन फिर भी उसमें बहुत सारी चीजें हैं। जिसको हमारे छोटे-छोटे बच्चे जानने लगे हैं और बहुत सारे बच्चे उसमें बहुत दिलचस्पी लेते हैं।
हम अपने देश में ऐसा कोई चैनल नहीं बना पाए हैं जो कि अधिक से अधिक लोगों के लिए उपयोगी हो। हमने आस्था नामक चैनल बना दिया अधिकतर बुजुर्ग लोग ही पसंद करते हैं। लेकिन एजूकेटिव चैनल बहुत उपयोगी हो सकते है। महिलाओं का एक पूरा चैनल आ सकता है। किशोरों के एक चैनल की पूरी गुंजाईश है। खेल के लिए एक पूरे चैनल की गुंजाईश है, जिसकी घोषणा भी हुई थी लेकिन वो कहीं दिखता नहीं है। जैसे खेल के बारे में मैं कहता हूं कि क्रिकेट को, फुटबाॅल को सीखने के लिए यह अपना टेलीविजन अद्भुत है। क्योंकि जो खेलने वाला है यदि उसको शिक्षित करना है तो वह पूरे के पूरे दृष्टिकोण समझ सकता है। क्योंकि टी.वी. के अलावा उसको आप उस तरीके से नहीं समझ सकते हैं। यह भी उस टेक्नोलाॅजी के पक्ष में है। अब उसे आप कितना सकारात्मक और जनहितार्थ इस्तेमाल कर सकते हैं यह देखने की बात है।
दो और बातें आई थी। एक यह थी कि आज भी कोई दमदार लिख रहा है तो उसका अर्थ है। चाहे वो पम्पलेट के रूप में ही क्यों न निकलता हो, चाहे वो मामूली अखबार के रूप में ही क्यों न निकलता हो, उसके आप रिप्रिंट करते हैं। मुझे याद है अनिल सद्गोपाल ने जब ‘जन आंदोलनों में विज्ञान की भूमिका’ लिखी थी, दिनमान ने पूरा विशेषांक निकाल दिया। उसके बाद देश भर में कोई ऐसा समूह नहीं था जिसने उसको रिप्रिंट न किया हो, क्योंकि सबको लगा कि हमें उसकी जरूरत है। हम लोगों ने शराब पर एक पुस्तिका निकाली। पन्द्रह साल निकल गए। आंकड़े पूरे बदल गए। हम कहते हैं कि हमारे पास नए आंकड़े भी हैं उनको इस्तेमाल करो।
आज भी वो समझते हैं कि वह पुस्तिका हमारे लिए प्रासंगिक हैं। शराब का कोई प्रश्न आएगा, ‘नशा नहीं - रोजगार दो’ के समय हमारे मित्रों ने मिलकर एक पुस्तिका बनाई थी ‘नशा एक षड्यंत्र है’। वह आज भी हर जगह पूरी की पूरी कोट कर दी जाती है। एक ने हमारे यहां उत्तराखंड आंदोलन के समय जितने सम्पादकीय, जितने अग्रलेख लिखे गए उनका संकलन कोट द्वार से निकाला। आप देख सकते हैं, उसमें से बहुत सारे लेख बहुत दमदार हैं, बहुत आब्जेक्टिव हैं। उन्होंने बहुत आलोचनात्मक रूप से उत्तराखंड आंदोलन को देखने की कोशिश की है। तो ऐसे शब्दों की या ऐसी फिल्मों की महत्ता बनी रहेगी। मनु निश्चिंत नाम के देहरादून में हमारे एक पत्रकार मित्र थे। जिनकी मृत्यु का हममें से किसी ने नोटिस ही नहीं लिया।
उनके सम्पादकीय आप ‘दून दर्पण’ में देखिए, बहुत ही बेहतरीन लिखे हैं। कभी-कभी आपको लगता होगा कि दिल्ली के अखबारों में बहुत सारे अच्छे-अच्छे संपादकीय आते थे। वहां हमारी मित्र मंडली थी, आज बहुत सारे अखबारों में अच्छे-अच्छे लोग हैं। न केवल उत्तराखंड का मुद्दा, वो कहीं का भी मुद्दा हो, नर्मदा का मुद्दा हो, गुजरात का ही मुद्दा क्यों न हो, उन सबको उन्होंने आलोचनात्मक रूप से सामने रखने का प्रयास किया है। अंत में मैं यह कहना चाहूंगा कि जो हम प्रवास में हैं, उनकी भी भूमिका हैं प्रवास की कुछ पत्रिकाओं ने जैसे दो पत्रिकाओं की तो चर्चा अभी हो गई है।
एक पत्रिका डांडी-कांठी करके बम्बई से निकल रही है, और बहुत अच्छी निकाली है। आप लोगों को आश्चर्य होगा कि हम लोग पिछले दो साल से टिहरी पर कोई विशेषांक नहीं निकाल रहे हैं और आज टिहरी डूब गई है। ‘कुछ मकान तो पता नहीं वह दिखेंगे कि नहीं दिखेंगे। बिजली बने न बने। वो इस फिराक में है कि पानी बढ़े तो लोग भागेंगे। लोगों की पराजय होगी उनका आंदोलन खत्म होगा। लोगों का पुनर्वास होगा कि नहीं होगा उनकी चिंता का विषय नहीं है। लेकिन टिहरी पर कुछ और लोग अंक निकाल रहे थे, नहीं हुआ। कोई डाक्यूमेंटरी बनाएंगे, नहीं था। वहां का आर्कीटेक्चर हम डाक्यूमेंट करेंगे नहीं था। यहां रामतीर्थ रहे, यहां विवेकानन्द रहे, यहां फलाना रहे, यहां पर जन आंदोलन हुआ, यहां उस समय के हमारे क्रांतिकारियों के मृत शरीर आए।
सकलानी और उसकी उस पुल से, जहां से राजा को नहीं आने दिया। वो डाक्यूमेंटेशन किया किसी ने, नहीं किया? नंदा जात में तो बहुत सारे लोग डाक्यूमेंटेशन के लिए पहुंचे, यहां नहीं पहुंचे। आज टिहरी डूबने के कगार पर है। तो डांडी-कांडी जो बम्बई के प्रवासी निकालते हैं, उन्होंने बहुत ही खूबसूरत अंक निकाला है। बल्कि पिछले संपादकीय में तो आश्चर्यचकित रहा कि किसी एक लेखक ने कुमाऊं और गढ़वाल की शब्दावली लिखी। इस बीच बहुत भाषा चल रही है। एक तो हमारी जातियों को लेकर देहरादून में बहुत शब्दावली चल रही है। दूसरा कुमाऊं और गढ़वाल पर बातें चल रही है। कुमाऊं और गढ़वाल की भाषा वहां के नेताओं में, विधान सभा में, ब्यूरोक्रेसी में सब जगह चल रही है।
जो लोग वहां जाते है, दुखी होकर आते हैं। परसों नरेन्द्र नेगी से फोन पर बात हो रही थी, उन्होंने कहा एक जीप आई तो वहां जो सेक्रेटेरिएट है, वहां कुमाऊं-गढ़वाल की शब्दावली हो गई कि जीप कुमाऊं जानी चाहिए कि गढ़वाल जानी चाहिए। तो वह कह रहा था कि संयोग से हम दोनों सूचना अधिकारी घनिष्ट मित्र थे। हमने आपस में तय कर लिया कि यार इस बार तू ले ले, मैं अगली बार ले लूंगा। लेकिन दफ्तर के लोग वही शब्दावली इस्तेमाल कर रहे थे।
कोई एक जीप आ रही है तो चर्चा यह हो रही है कि यह कुमाऊं जानी चाहिए या गढ़वाल में जानी चाहिए। यह नहीं है कि जहां जरूरत है, वहां जाए। यह नहीं है कि पिथौरागढ़ जैसे जिले में सूचना विभाग का अधिकारी धारचूला की तरफ तो जाता ही नहीं है। तो इस तरह की चीजें जो चल रही हैं इस तरीके की शब्दावली जो आ रही है इसके पत्रकारिता किस तरीके से तोड़ सकती है, ध्वस्त कर सकती है ये डांडी-कांडी-बम्बई वाले पत्रकार ने लिखा है।
उसने वो कोट किया है जो किसी उत्तराखंड के पत्रकार ने लिखा था जिसमें यही सब घटिया किस्म की शब्दावली थी। मुद्दे नहीं थे, अब हम नारायण दत्त तिवारी को कुमाऊं का कैसे मानें, नित्यानन्द स्वामी को हम गढ़वाल का कैसे मानें। मुख्यमंत्री तो अपनी पार्टी के हैं वो, लोगों के कहां है? भगत सिंह कोश्यारी को किस बात के लिए मानू मैं वहां का, उनका जन्म हुआ होगा। वो तो एक पार्टी को रिप्रजेंट कर रहे हैं। तो उस बम्बई के प्रवासी अखबार ने उसको इतना आलोचनात्मक रूप से दिया और उसने कहा कि यह जो उधाहरण है, यह हमारे उत्तराखंड के किसी प्रबुद्ध लेखक का है लेकिन वास्तविकता कुछ और है इस पर पूरे दो पन्ने का संपादकीय लिखा है, तो प्रवास की एक जोड़ने वाली भूमिका हो सकती है।
सौभाग्य से प्रवास से कुछ अखबार निकल रहे हैं। वह पहाड़ में आते हैं। जो तोड़ने वाले हैं वो तो बहुत संगठित हैं। जोड़ने वाले बहुत कम हैं। लेकिन जोड़ने वाले हैं। यह बहुत महत्व की बात है। तो प्रवास की जो पत्रकारिता है वह भी अभी बहुत बड़ा काम कर सकती है। और विकल्प के रूप में जन आंदोलन तो हैं ही, जब जिस तरीके की जरूरत आएगी, समाज उस तरह से बोलेगा। हम सब चुप हो सकते हैं, पराजित हो सकते हैं, लेकिन हमारा समाज पराजित नहीं होगा। वह कल नए रूप में आएगा, नए तरीके से लड़ाई लड़ेगा और झक मारकर फिर हमको उनके पीछे जाना पड़ेगा।
क्योंकि जंगल के नियमों के खिलाफ वो जिलाधिकारी गर्मी के महीने में शिकार करने के लिए स्याही देवी के जंगल में गया। उसने मुर्गी भी मारी, बाद में जंगल में आग भी लग गई और इसी खबर को छापने के कारण अल्मोड़ा अखबार भी बंद हो गया। ये अल्मोड़ा अखबार पूरे 48 साल चलने के बाद बंद हुआ और इस आरोप में बंद हुआ जो कि उसके जन्म के समय उसके प्रारंभिक एजेंडे में कहीं भी नहीं था।
उसके बाद शक्ति का उदय हुआ। 1898 में जब अल्मोड़े में शक्ति का उदय हुआ तब से लेकर 1948 तक शक्ति की एक जबरदस्त राष्ट्रवादी भूमिका रही। शक्ति केवल एक साप्ताहिक अखबार नहीं था बल्कि एक तरह की खिड़की थी, जहां से उत्तराखंड के लोग न सिर्फ अपने अंचलों में ही झांकते थे बल्कि उसका एक दूसरा दरवाजा देश की तरफ खुलता था और पूरे देश के हालात भी वहां पता चलते थे। गांव में अगर ‘शक्ति’ का एक अंक जा रहा है या माना ‘गढ़वाली’ का तो पर्याप्त होता था। अखबार को ‘बांट’ करके लोगों को सुनाने की परम्परा थी। एक गांव में एक अखबार आ रहा है तो एक आदमी पढ़ रहा है बाकी लोग सुन रहे हैं। जैसा गोविंद अपने बचपन के जमाने का संस्मरण सुना रहे थे।
पिथौरागढ़ का एकमात्र अखबार उत्तराखंड ज्योति अगर प्राइमरी स्कूल में जाता था तो ‘हेडमास्टर साहब’ सभी को सुनाते थे और वो सबके लिए बहुत बड़ी बात होती थी। हालांकि बहुत सामान्य अखबार था लेकिन अकेला अखबार था। दिल्ली का अखबार पांचवे-सातवे दिन पहुंचता था। उस जमाने में तो हमारी खबरें ही, कि तवाघाट में 1977 में अगर 45 लोग मरे तो उसकी खबर 15 दिन बाद तब आई जब हमारे बहुत से साथी वहां से लौट के आए। ‘अज्ञेय’ जी नवभारत टाइम्स के संपादक थे तो वो 15 दिन पुरानी खबर को नवभारत टाइम्स की हेडलाइन में ले आए। उन्होंने कहा कि 15 दिन बाद भी ये खबर अर्थवान है, न नेता गया, न प्रशासन गया, आदि-आदि।
1930 में मोहन जोशी ने ‘स्वाधीन प्रजा‘ के नाम से एक मशहूर अखबार निकाला था। 15-20 अंकों के बाद ही उससे जमानत मांग ली गई और वो बंद हो गया। शक्ति का तो हर संपादक जेल में गया। बद्री दत्त पांडे, मोहन जोशी, पूरनचंद तिवारी उसके बाद देवीदत्त पंत उसके बाद कोई और ये सब के सब गिरफ्तार हुए थे। क्योंकि ये सबके सब राष्ट्रवादी नेता भी थे। राम सिंह धौनी गिरफ्तार तो नहीं हुए लेकिन उनसे दो बार जमानत मांग ली गई। उसके बाद वो बम्बई चले गए।
स्वाधीन प्रजा का एक संपादकीय था कि गवर्नर जो उत्तर प्रदेश का लार्ड था, जिसको उस समय लेफ्टिनेंट गवर्नर कहते थे, वो पिंडारी की यात्रा में गया, उस पर मोहन जोशी ने ‘पिंडारी की सैर’ करके एक संपादकीय लिखा और अगले ही अंक में जमानत मांग ली गई। अखबार बंद हो गया। फिर एक दो साल चला फिर बंद हो गया। ऐसे ही जाग्रति जनता नाम अखबार निकला। फिर 42 से 45 तक उत्तराखंड का हर साप्ताहिक अखबार बंद हो गया।
आजादी के बाद परिदृश्य बदल गया। जिनको प्रतिपक्ष का खेल अदा करना था वो सब सरकार में आ गए। तो अखबारों की जो पुरानी परम्परा थी वो बहुत सालों तक धूमिल रही। लेकिन फिर भी अपने वक्तव्य में सुरेश ने जिन अखबारों का जिक्र किया है वह आजादी के बाद भी अपनी भूमिका अदा करते रहे। जैसे-कर्मभूमि। भरत धूलिया ने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया कि मैं उस पार्टी में रहकर स्वतंत्र अखबार नहीं चला सकता। जबकि बाद में वो एम.एल.ए. भी बने तो स्वतंत्र बने। तो उस जमाने में उनमें इतनी बड़ी स्वायत्तता की भावना। युगवाणी जो टिहरी का प्रमुख पत्र था, सन 1948 से लेकर आज तक निरंतर चला आ रहा है और वहां के मुद्दों को उठाता रहा है। और आज बहुत सारे और अखबार जिनमें नैनीताल समाचार से लेकर पौड़ी तक के अखबारों की चर्चा है वो बखूबी रोल अदा कर रहे हैं।
लेकिन जिन गोविंद ने अखबारों को तीन वर्गों में बांटकर विश्लेषण किया क्योंकि वहां राष्ट्रीय अखबारों का कोई श्रेय ही नहीं रह गया। नैनीताल में जिस ‘जनसत्ता अखबार को हम सबसे अच्छा अखबार मानते हैं उसकी काॅपियां घटते-घटते 20-25 में आ गई है। नवभारत टाइम्स, हिन्दुस्तान की संख्या भी बहुत ज्यादा नहीं है, अमर उजाला और जागरण ये दो अखबार जबरदस्त तरीके से छाए हुए हैं। क्योंकि उसमें आपके भतीजे, आपके चाचा, नेताजी के ये-वो-फलाना, सब खबरें आती है।
उत्तराखंड आंदोलन की भी जब खबरें आती थी तो मुद्दे नहीं आते थे कि आज के जुलूस में क्या निकला, क्या कहा गया, बल्कि उसमें लगभग 132 नाम होते थे वहां भी आपके नामों का सिलसिला चलेगा और दूसरे दिन ये भी होगा कि फलां-फलां का नाम नहीं आया। एक ऐसी परम्परा शुरू कर दी थी जिससे मुद्दे उजागर नहीं होते थे बल्कि नाम उजागर होते थे। देहरादून में तो अनेक बार मार-पीट हो जाती थी कि मेरा नाम नहीं आया, क्योंकि देहरादून में बहुत बड़े जुलूस निकलते थे। दिल्ली में भी इस तरीके की बात उस समय हुई।
फिलहाल, ऐसा नहीं है कि पूरी की पूरी पत्रकारिता तिरोहित हो गई हो। बहुत सारे अखबारों में जो न सिर्फ उत्तराखंड के पत्रकार थे, बल्कि दिल्ली के पत्रकारों ने भी, जो अंग्रेजी में भी लिखने वाले थे बहुत ही संतुलित और बहुत ही अच्छे लेख लिखे। उन्होंने बहुत आलोचना पूर्ण तरीके से भी लिखा। जिस समय हरीश खरे वहां आए, उसके बाद निखिल चक्रवर्ती, प्रेस इंस्टीट्यूट आॅफ इंडिया के भट्टाचार्य जी वहां आए उनके लेख बहुत ही तर्क पूर्ण थे। उन्होंने बहुत आम लोगों से मिलकर अपने विचार दिए थे। दूसरी ओर उत्तराखंड आंदोलन की जो कमियां थी उनको उजागर करने में हमारे अपने पत्रकार कभी नहीं कतराए। कुंवर प्रसून हमारे गढ़वाल के साथी हैं वे बहुत सारे अखबारों में लिखते रहे।
उस दौर में जब उत्तराखंड आंदोलन की आलोचना में लोग कतराते थे उन्होंने लिखा। तो ऐसा नहीं है कि कलम के धनी वहां नहीं है। संकट इतना ही है कि ऐसा अखबार जो आपकी दिनचर्या का हिस्सा बन जाए ऐसा अखबार हम अपने समाज को नहीं दे सके हैं। जो ये अखबार आ रहे हैं ये सिर्फ आपको सूचनाएं दे रहे हैं। शिक्षित नहीं कर रहे। वो सूचनाएं जिनको आप नहीं लेना चाहते हैं - फलाने की लॉटरी खुल गई, फलाने का ये, साबुन, शैम्पू आदि के बारे में जानकारी दे रहे हैं। परसों एक दिन अमर उजाला में फ्रंट पेज पर बालों का इतना बड़ा गुच्छा रखा हुआ था, हमने सोचा कि आज फ्रंट पेज पर क्या हो गया, पहले लगा कि कोई फोटो काट कर चिपका दिया गया है।
फिर उसमें लिखा था कि शेष फलां पन्ने में देखिए। तो उसमें शैम्पू का विज्ञापन था वो। अमर उजाला के फ्रंट और लास्ट में कोई न्यूज ही नहीं थी, जब हमने उसका पहला पेज पलटा तब उसका असली पेज शुरू हुआ। यानी कि विज्ञापन के लिए वो कुछ भी कर सकते हैं। अखबार का जो संडे अंक है, उसमें कोई रिव्यू नहीं आता है। फिल्म बहुत आएंगी। अब रोज फिल्म देख ही रहे हैं। अखबारों में कब तक आप फिल्म एक्टरों को देखेंगे, उन पन्नों में हमारे विषय आ जाते। चलो महिला पन्ने में आप हर बार जलेबी बनाने की विधि के बदले जीवन की बहुत सी समस्याओं को देते। इसलिए एक वैकल्पिक मीडिया की गुंजाइश बनी हुई है। जो स्वायत्त हो, स्वतंत्र हो, जो किसी की भी गड़बड़ी इंगित कर सकता हो, ऐसे अखबार की हमें जरूरत है। ऐसा अखबार जो अपने आप की आलोचना करता हो।
मैं जब ‘शक्ति’ की या ‘गढ़वाली’ की फाइलें देख रहा था तो मुझे अनेक बार आश्चर्य होता था कि उस जमाने में हमारे जो पूर्वज थे, वो बहुत जबरदस्त संपादकीय लिखते थे कि मैं आपको एक बार की बात सुनाता हूं कि गढ़वाली को एक अंक आता था उसमें तारादत्त गैरोला भी संपादकों की सूची में आते थे, तो 1909 या 1910 के अंक में सरौड़ा सभा ब्राह्मणों की एक सभा थी जो कहते थे कि ब्राह्मणों में शिक्षा बहुत कम हो रही है, हमें कुछ करना चाहिए। तारादत्त गैरोला उस सभा के अध्यक्ष थे, वे बड़े वकील, विधायक होने के साथ-साथ 1918 से 20 तक एम.एल.ए. के लिए चुने गए। न्यायिक फैसले पर उनकी एक किताब भी है।
दूसरी ओर उसी में हमारे सत्य सरण रतूड़ी जी थे जो कि गढ़वाली के एक कवि थे। जब उन्होंने सरोड़ा सभा बनाई तो रतूड़ी जी को बिल्कुल नहीं जंची। उन्होंने कहा ये क्या है? मतलब राष्ट्रवाद आ रहा है, देश जग रहा है, लोग समुद्र पार कर रहे हैं - जिसके लिए अल्मोड़ा में जापान आंदोलन हुआ था कि ब्राह्मण ने समुद्र लांघ लिया है, इसलिए उसको जाति से निकाल दिया गया। मशहूर राष्ट्रवादी कवि गौरदा के भाई को। तो वही उत्तराखंड अब जाग्रति की ओर आ रहा था। तो सत्य सरण रतूड़ी जी ने उस अखबार में संपादकीय लिखा, जिसके मुख्य संपादक तारादत्त गैरोला थे।
उसका शीर्षक था ‘सरौला सरके दादुर की टर-टर में’ ये शीर्षक मैं कभी नहीं भूलता हूं। सरौला माने वो ब्राह्मणों का ग्रुप था। सर माने तालाब, दादुर माने मेढक की टर-टर। यानी कि उन्होंने अपने मुख्य संपादक रायबहादुर तारादत्त गैरोला को मेढ़क कह कर पुकारा कि तुम 1910 में आज उस आदिम जमाने की मानसिकता में रह रहे हो। इतनी स्वायत्तता उस अखबार के भीतर थी। यानी कि उस अखबार के तीन संपादकीय अपने-अपने तरीके से अपने मंतव्य अखबार को देते थे।
शक्ति में बद्रीदत्त पांडे को यदि कोई संपादकीय पसंद नहीं आता था तो राम सिंह धौनी और मोहन जोशी कहते थे कि हम इसमें कोई संशोधन नहीं करेंगे। हम यही संपादकीय छापेंगे, चाहे अखबार बंद हो जाए। और उसके बाद बहुत बार अखबार बंद होने की नौबत भी आ गई। ये उस स्वायत्तता का प्रदर्शन करते हैं जो पत्रकार अपने जोखिम पर लेते हैं। आपको आश्चर्य होगा कि अल्मोड़े का ‘शक्ति’ उस जमाने में टिहरी रियासत तक जाता था और देहरादून का ‘गढ़वाली’ पिथौरागढ़ तक जाता था, बहुत से गांवों में हमें उसकी फाइलें मिली। ये सब इस बात का संकेत है कि एक-एक अखबार उस जमाने में कितनी बड़ी भूमिका निभाता रहा।
आजादी के बाद भी वो क्रम चला। लेकिन फिर जो ये इस तरीके के अखबार आए उन्होंने उसको तोड़ दिया। और ये इस बात का भी प्रतीक है कि हमारे समाज में हर एक का अपना अखबार है। जापान की तरह पिता का अलग, पुत्र का अलग अखबार तो नहीं हुआ। हमारे यहां एक अखबार से काम चलाते हैं। लेकिन हमारे यहां उस तरह का अखबार नहीं आया जो लोगों को शिक्षा के स्तर पर भी आगे लाता हो, अन्य चीजों के लिए आगे लाता हो। पूरे समाज को आलोचनात्मक दृष्टि से देखता हो।
उत्तराखंड में तीन मुख्यमंत्रियों के बन जाने के बावजूद किसी अखबार ने एक आलोचनात्मक संपादकीय लिखने का साहस नहीं उठाया। उत्तराखंड की सरकार ने जो पहला वन पंचायत अधिनियम बनाया उस पर किसी अखबार ने कोई संपादकीय नहीं लिखा, क्योंकि वो वन पंचायतों और उन एक्टों के बारे में जानते ही नहीं हैं कि जो नया एक्ट आया है वह कितना जघन्य है। उत्तराखंड सरकार की नई पर्यटन नीति बनी उसके बारे में किसी ने कुछ नहीं कहा।
उत्तराखंड की सरकार ने कुछ बड़े लोगों को नन्दादेवी सेंचूरी के भीतर जाने का अधिकार दिया जबकि वहां बगल के रहने वाले ‘लाता’ और ‘रैणी’ के लोगों को नहीं दिया, तो ये सब संपादकीय के विषय नहीं बने। बल्कि जिन अखबारों से हममें से बहुत सारे लोग जुड़े हुए हैं उन अखबारों ने भी ये प्रतिभा नहीं दिखाई कि हम एक-एक मुद्दे को इस तरह उठा सकें। आपको आश्चर्य होगा कि आज से 10 साल पहले हमारे साधनहीन साथी कहीं पर भी कोई प्राकृतिक आपदा हो वहां दूसरे दिन पहुंचने वाले लोगों में होते थे। वहां इन्द्रमणि बडोनी, कमलाराम नौटियाल, सुंदरलाल बहुगुणा, चंडीप्रसाद भट्ट आदि सभी मिल जाएंगे और सभी अपने-अपने स्तर, अपने-अपने साधनों से वहां पहुंच जाएंगे। 20-25 किलो राशन सहित और अपने साथ कुछ हजार दो हजार रुपए लेकर भी आएंगे।
जब से राज्य आया है पूरा का पूरा ठेका सरकार को दे दिया है। तब से ये प्रवृत्ति भी खत्म हो गई है। 1978 में जब गढ़वाल में अलकनंदा की बाढ़ आई थी तो नैनीताल समाचार में उसकी रिपोर्टिंग देखने लायक थी। हर 15 दिन के बाद नया साथी जाता था और वहां की नवीनतम रिपोर्टिंग लाता था। उसका दूसरा फीडबैक फिर दिनमान में देते थे क्योंकि ‘दिनमान’ के रघुवीर सहाय इस तरह के मुद्दों के लिए बड़े समर्पित थे। वात्स्यायन जी नवभारत टाइम्स के सम्पादक थे तो वहां तक खबर जाती थी। ऐसे सारे बरेली और मुरादाबाद के अखबारों का वर्चस्व नहीं था। अब स्थिति ये है कि इस बार खेत में लैंड स्लाइड आया। तवाघाट के ऊपर करीबन 10-12 लोग मारे गए, जहां जाने वालों में जिला मुख्यालय के वो पत्रकार भी नहीं थे जो जिलाधिकारी या एम.एल.ए. के साथ गांव जाने में बड़ा गौरव समझते थे, वो लोग इस मानवीय हितों के लिए जो कि पत्रकार की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए, लेकिन वो नहीं गए।
ये इस बात का संकेत देता है कि मीडिया की हमारे यहां जो भूमिका होनी चाहिए, वैकल्पिक मीडिया जिस तरह से हमारे यहां प्रस्तुत होना चाहिए, वह हमारे यहां है नहीं। वैकल्पिक मीडिया की राष्ट्रीय स्तर पर भी जरूरत है। ‘दिनमान’ का कोई विकल्प नहीं बना। टाइम्स आॅफ इंडिया वालों ने सबसे पहले ज्ञानपीठ पुरस्कार शुरू किया, सबसे पहले ज्ञानोदय जैसी पत्रिका बंद की। दिनमान बंद की, फिर उसके बाद धर्मयुग बंद हुआ। आपके पास कोई पत्रिका नहीं हैं। आपके पास अब इंडिया टुडे, जिसका नाम हिन्दी में भी इंडिया टुडे है और आउट लुक भी हिन्दी में शायद उसी नाम से आ रहा है। हो सकता है इनमें से कुछ खोजी पत्रकारिता भी हो। अनेक बार न भी हो, क्योंकि राष्ट्र के स्तर पर जब अखबार निकल रहे हैं तो आपके मुद्दे बहुत गौण हो जाते है। वैसे मुद्दे देश में बहुत सारे होंगे।
इसलिए आपको क्षेत्रीय स्तर पर एक अच्छे अखबार की जरूरत है, जिसके लिए बार-बार बात होती है कि किसी व्यक्ति को उस पर पहल करनी चाहिए। निकलने को देहरादून से ‘दून दर्पण’ हल्द्वानी से उत्तर उजाला निकाल रहे हैं। लेकिन इनमें नए राज्य के लिए, वहां की गड़बड़ राजनीति के लिए, वहां के उदास जन आंदोलनों के लिए जिस तरीके की पहल होनी चाहिए वह इनसे नहीं आ पा रही। मेरे ख्याल में वह आनी चाहिए।
मुझे ऐसा लगता है कि जो बहुराष्ट्रीय होंगे वो मीडिया में आएंगे। क्योंकि वो उनके लिए धंधा है, व्यवसाय है। कल खबर थी कि टाटा फिल्म बना रहे हैं। प्रेस में तो वह पहले से थे ही। फिलहाल जो हैं वो अच्छी खासी हिन्दी और अंग्रेजी में अखबार चलाते हैं। हम साढ़े तीन रुपए में अखबार खरीदते हैं, दिल्ली के अखबार दो रुपए में मिल जाते हैं। पन्ने भी बहुत होते हैं। रद्दी भी जब बेचते हैं तो उसकी मात्रा बहुत होती है। अब उसका एक काॅलम कट गया है फिर भी सप्ताह भर में कुल पेज बहुत हो जाते हैं। लेकिन आज भी हमारे यहां इंडियन एक्सप्रेस तथा हिन्दी को पढ़ने वाले लोग बहुत से लोग हैं।
आज भी बहुत जगह पर स्टेट्समैन का इंतजार होता है। आज भी हमारे यहां जनसत्ता का इंतजार करने वाले लोग बचे हुए हैं। आज भी सहारा के हस्तक्षेप का बड़ा इंतजार होता है। लोग बड़ी केयर से उसको रखते हैं। उस अखबार को फेंकते नहीं हैं जैसे और अखबारों को फेंक देते है। इसलिए ऐसा नहीं है कि पाठक भी पूरा का पूरा रूपांतरित हो गया है।
अगर आप पाठक को विकल्प देंगे तो वह आपके साथ आएगा। जो सवाल उठे हैं उनमें से तीन बातें उठती है। एक तो यह कि जो भी सरकार होती है, जो भी सत्ता होती है, उसके अपने अच्छे और बुरे प्रसार माध्यम होते हैं। कभी-कभी अच्छे भी, जैसे इंग्लैंड में बी.बी.सी. राजा और रानी की बात नहीं मानता है। हालांकि सरकार से बहुत सघन रिश्तेदारी हैं, पैसा मिलता है। उसके बावजूद उसने अपनी स्वायत्तता को बरकरार रखा है। हमारे यहां स्वायत्तता की कल्पना मंत्री से लेकर नीचे तक कोई कर ही नहीं पाता है। अगर स्वायत्तता हमारे यहां दे दें तो हमारे यहां भी कलात्मक लोग हैं जो उसको पूरे तरीके से आगे ला सकते हैं।
बहुराष्ट्रीय आएंगे उनका अपना मीडिया रहेगा, पूंजीपतियों के घराने अखबारों में छाए रहेंगे क्योंकि वो उनके लिए उद्योग वगैरह है। इसके साथ ही अगर हम इस जनतंत्र में वैकल्पिक मीडिया विकसित नहीं करेगें तो वह सबसे ज्यादा दिक्कत पैदा करेगा। यहां वैकल्पिक मीडिया की बात अच्छे तरीके से उभरकर आई। अगर उत्तरांचल पत्रिका निकल रही है तो मैं उसको वैकल्पिक मीडिया का भाग मानता हूं। वो उत्तरांचल की सरकार के खिलाफ अच्छा संपादकीय लिख सकते हैं। उसको छापने में भयभीत नहीं होते। विज्ञापन नहीं मिलेगा कोई बात नहीं। या उत्तराखंड प्रभात लिख सकता है या कोई और अखबार लिख सकता है। या कभी-कभी युगवाणी लिखेगा और कुछ अखबार लिखेंगे।
उस स्वायत्तता के लिए जिस तरह की न्यूनतम बरकत चाहिए, वैकल्पिक मीडिया के लिए चाहिए, वो हमारे पत्रकार में या उनकी टीम में होनी चाहिए। मैं जब तुलना करता हूं कि हमारे छोटे-छोटे अखबारों से बड़ी-बड़ी चीजें निकली हैं। दिनेश जोशी आज अपनी प्रतिष्ठित, रंगीन पत्रिका से वह काम नहीं कर पा रहे हैं जो एक जमाने में पिथौरागढ़ से निकलने वाले एक छोटे से अखबार से करते थे। यानी कि एक वचनबद्ध पत्रकारिता थी जो बिल्कुल लोगों से छन के आती थी। अब आप बड़े हो गए, रंगीन हो गए, लेकिन उसका कोई असर नहीं है।
1978 में जब गढ़वाल में अलकनंदा की बाढ़ आई थी तो नैनीताल समाचार में उसकी रिपोर्टिंग देखने लायक थी। हर 15 दिन के बाद नया साथी जाता था और वहां की नवीनतम रिपोर्टिंग लाता था। उसका दूसरा फीडबैक फिर दिनमान में देते थे क्योंकि ‘दिनमान’ के रघुवीर सहाय इस तरह के मुद्दों के लिए बड़े समर्पित थे। वात्स्यायन जी नवभारत टाइम्स के सम्पादक थे तो वहां तक खबर जाती थी।युगवाणी इतनी रंगीन होने के बाद भी वो असर नहीं कर पाती जैसा युगवाणी ने पिछले पचास साल के इतिहास में अपने मामूली आठ पन्ने के अखबारों से टिहरी को लेकर तहलका मचा दिया था। इसी तरीके की कर्मभूमि की बात है, और इसी तरीके से कुछ और अखबारों की बात है। मुझे जंगल के दावेदार याद आ रहे हैं, जिसके बहुत सारे अंक पी.सी. ने अल्मोड़े से संपादित किए। आज किसी के पास हों तो... वैसे संभालने की तो हम लोगों में से किसी को तमीज नहीं है। हो सकता है बचे हों, लेकिन जैसी मेरी आशा है पूरी फाइल इनके पास भी नहीं होगी। लेकिन उस अखबार के भी आप संपादकीय पढ़ेंगे तो वो बहुत वस्तुपरक थी। आपने आपकी आलोचना करने की क्षमता थी। अगर यह अखबार में नहीं है तो वैकल्पिक मीडिया नहीं कह सकते। लेकिन वैकल्पिक मीडिया सिर्फ अखबार तक नहीं है। जो विजय भाई ने भी सहयोग दिया, इन्होंने भी किया।
आपके घर में टेलीविजन घुसा हुआ है। सोलर ऊर्जा लग जाएगी तो उसका पहला उपयोग बच्चों के पढ़ने के लिए होगा कि नहीं होगा? लेकिन महाभारत से लेकर, किसी फिल्म से लेकर कुछ और के साथ चैनल आपके घर में घुस जाएगा। अगर विकल्प मौजूद हैं। बाहर गिल्ली-डंडा हो रहा है, कबड्डी हो रही है, रामलीला हो रही है, नाटक हो रहा है, स्लाइड शो हो रहा है, फिल्म क्लब बने हुए हैं। एक बात मुझे लगती है कि यदि नैनीताल के बच्चे टेलीविजन से बचे हुए हैं तो वो इसलिए कि वहां 365 दिन में से 300 दिन भी उस फील्ड में, फ्लैट्स में खेल होता है। उस खेल में बच्चे फिदा होते हैं और वहां आते हैं।
इससे उनके उतने ही घंटे बच जाते हैं। हम शायद इस संस्कृति को अल्मोड़ा में विकसित नहीं कर पाए, चमोली में नहीं कर पाए हैं। पिथौरागढ़ में अभी फुटबाल की बहुत संस्कृति है जहां दस-दस हजार लोग फुटबाल को देखते हैं। तो यदि आप विकल्प देंगे तो चुपचाप जो हमारे बैठक के कमरे में या भगवान के कमरे में भी, एक कोने में भगवान जी हैं और दूसरे कोने में टेलीविजन हैं, जो उस अर्थ में पूरे का पूरे भगवान विरोधी है। उसे रोकने में आप कामयाब हो सकते हैं।
अगर शुरू में हम स्लाइड शो लाते हैं, अगर हम इस तरह की सी.डी. बनाते हैं शिक्षाप्रद, यहां तक कि हम बच्चों की फिल्म सोसायटी बनाते हैं। अगर आप टेलीविजन का सर्वे करें तो बच्चों के कितने कार्यक्रम आते हैं? पुरानी सांस्कृतिक फिल्मों में से जो हमें दिखानी चाहिए वो कितनी आती हैं? आप ऐसी फिल्म लाते हैं जिसके दस मिनट बाद आप विज्ञापन का कर लगा देंगे और पांच मिनट फदीदा मचेगा उसका फिर फिल्म शुरू हो जाएगी। बहुत लोग बंद भी कर देते हैं। अच्छे लोग टी.वी. नहीं भी देखते हैं।
अगर आप बहुत घरों में जाएंगे तो वहां टी.वी. तक बंद रहने लगा है। बहुत सारे लोग देखते भी नहीं हैं। तो वैकल्पिक मीडिया बहुत तरीके से फैला है, स्लाइड्स में फैला हैं सी.डी. में फैला है। वैकल्पिक फिल्मों में फैला हुआ है। नर्मदा पर एक फिल्म बनकर आई थी, आप उन्हें जगह-जगह दिखाइए। आपको एक वैकल्पिक मीडिया मिलता है सच्चाई भी सामने आती है। तो वैकल्पिक मीडिया प्रिंट में भी और इलेक्ट्राॅनिक मीडिया में भी संभव है। सी.डी. के जरिए और वेबसाइट के जरिए जैसे गोविंद ने बनाई है, उसके जरिए हम बहुत कार्यान्वयन कर सकते हैं।
अमरीका में एक रावत जी हैं वे बहुत सक्रिय हैं। वह डब्ल्यू.टी.ओ. विरोधी जुलूस में भी गए थे। उन्होंने उत्तराखंड की एक बहुत बढ़िया वेबसाइट बनाई है। जो भी नया आता है उसमें जोड़ देते है। संगीत आता है, खबर आती है, कुछ नया दस्तावेज आता है उसके भीतर डाल देते हैं और पूरी प्रवासियों के लिए वह रिफरेन्सिव चीज बनी हुई है। क्योंकि वहां कम्प्यूटर का जमाना है। ई-मेल का जमाना है। बिना कम्प्यूटर खोले, बिना ई-मेल खोले आपका काम नहीं चलता है। आपको रिजर्वेशन कराना है, गैस मंगानी है, रेलवे का टिकट मंगाना है, यान का टिकट लेना, सब कुछ है उसमें। तो इन सब में हमें फैलने की जरूरत है और दूसरा मेरा यह कहना है कि टेलीविजन की जितनी विविध धाराएं हैं, जो भी प्रतिभाशाली है - वहां भी इस चीज को उजागर करें। जैसे मैं राजीव से कहता हूं कि भई अमर उजाला में लिखना चाहिए क्योंकि उसके पाठक तो हमारे हैं। मालिक से तुम्हारी न बनती हो, संवाददाताओं से न बनती हो, पढ़ने वाले तो सब हमारे लोग हैं।
अगर वहां काॅलम लिखोगे तो हमारे उतने हजार लोगों तक जाएगा। जहां तक नैनीताल समाचार नहीं जाता है। अगर नवभारत टाइम्स में लिखोगे, जनसत्ता में लिखोगे तो पढ़ने वाले तो वही हैं। वहां पर आप यह क्यों सोचते हैं कि इसका मालिक कौन है, इसका सम्पादक कौन है या इसका संवाददाता कौन है। अगर आपके लेख में दम है तो वह छपेगा, आप उसे बहुत काट नहीं पाएंगे। वहां छपेगा तो हमारे लोगों तक जाएगा। इसलिए इन अखबारों के काॅलम्स का भी, टेलीविजनों के चैनल्स को भी जितना आपके हाथ आता है उतना आप जनहित में इस्तेमाल कीजिए। ऐसा बहुत बार किया गया है।
उन दिनों मैं धस्माना जी को नहीं जानता था। बहुत बार ये दूरदर्शन में ऐसी-ऐसी खबरें लाते थे कि हम चौंक जाते थे। एक बार हम अरूणांचल से आए तो इन्होंने एक जबरदस्त खबर लगाई। मैं नैनीताल वापस गया तो पता चला कि कल टेलीविजन में खबर आई और वहां की 1898,1951 की बाढ़ की खबर दो या तीन मिनट की थी। तो अपने आप में यह बहुत बड़ी बात होती है। यदि कोई भी सकारात्मक आदमी किसी भी पद्धति या मल्टीनैशनल में चला जाता है तो वह कुछ न कुछ कर सकता है।
आज कल विकल्प भी बहुत हैं। सी.डी., डब्ल्यू. डब्ल्यू. डब्ल्यू., या वीडियो फिल्म के जरिए बहुत से काम किए जा सकते हैं। वो लोगों के बीच में जाए। तो नई पीढ़ी को यदि हम-आप विकल्प देंगे, जैसे थियेटर कहीं विकसित हो रहा हो, जैसे रामलीला कहीं बची हुई हो और हमारी सांस्कृतिक गतिविधियां चल रही हों, तो आप उनका बहुत सारे समय को सदुपयोग में ले आते हैं। इसलिए वैकल्पिक मीडिया की पूरी गुंजाईश है।
सत्ता के मीडिया बने रहेंगे। बहुराष्ट्रीय के मीडिया उद्योग के रूप में आएंगे लेकिन इनसे टक्कर लेने के लिए इलेक्ट्राॅनिक से लेकर यहां तक हमें अपना विकल्प बनाना होगा और उसमें बहुत गुंजाइश है। तीसरी बात जो मैं कहना चाह रहा हूं कि फिल्म भी अपने-आप में एक बहुत बड़ा मीडिया है। ये ठीक है कि आपके यहां ऐसी फिल्में बनती रहेंगी जैसी मुम्बई से बन रही हैं। लेकिन आपके बहुत सारे लोग ऐसी फिल्में बना रहे हैं जो हमारे जीवन के साथ बड़ा ताल्लुक रखती हैं। जो आमतौर से मुम्बई में बनने वाली फिल्मों की तुलना में बहुत रोचक न लगती हों, जो पर्दे में नहीं होता, अनेक बार पर्दे में वो आप चाहते हैं। मोटोटाॅनी है, हीनता है, कटे हुए हैं, प्रवास में हैं आप अपना मनोरंजन करते हैं। जैसे राही मासूम रजा कहते थे कि उन्हें जासूसी उपन्यास में बड़ा मजा आता है। आम लोगों को भी लगता है ये बहुत सारे मानव मनोविज्ञान के विषय हैं। लेकिन अगर हम विकल्प लाएंगे तो उस विकल्प में बहुत सारी गुंजाईश बनती है।
आप यह भी देखिए कि टी.वी. के तमाम चैनल बेईमान क्यों न हों आज भी डिस्कवरी से, नेशनल जियोग्राफिक से हमें बहुत कुछ सीखने को मिलता है। यह ठीक है कि उसके बीच में विज्ञापन फिट हैं। क्योंकि वह व्यवसायिक धंधा तो है ही लेकिन फिर भी उसमें बहुत सारी चीजें हैं। जिसको हमारे छोटे-छोटे बच्चे जानने लगे हैं और बहुत सारे बच्चे उसमें बहुत दिलचस्पी लेते हैं।
हम अपने देश में ऐसा कोई चैनल नहीं बना पाए हैं जो कि अधिक से अधिक लोगों के लिए उपयोगी हो। हमने आस्था नामक चैनल बना दिया अधिकतर बुजुर्ग लोग ही पसंद करते हैं। लेकिन एजूकेटिव चैनल बहुत उपयोगी हो सकते है। महिलाओं का एक पूरा चैनल आ सकता है। किशोरों के एक चैनल की पूरी गुंजाईश है। खेल के लिए एक पूरे चैनल की गुंजाईश है, जिसकी घोषणा भी हुई थी लेकिन वो कहीं दिखता नहीं है। जैसे खेल के बारे में मैं कहता हूं कि क्रिकेट को, फुटबाॅल को सीखने के लिए यह अपना टेलीविजन अद्भुत है। क्योंकि जो खेलने वाला है यदि उसको शिक्षित करना है तो वह पूरे के पूरे दृष्टिकोण समझ सकता है। क्योंकि टी.वी. के अलावा उसको आप उस तरीके से नहीं समझ सकते हैं। यह भी उस टेक्नोलाॅजी के पक्ष में है। अब उसे आप कितना सकारात्मक और जनहितार्थ इस्तेमाल कर सकते हैं यह देखने की बात है।
दो और बातें आई थी। एक यह थी कि आज भी कोई दमदार लिख रहा है तो उसका अर्थ है। चाहे वो पम्पलेट के रूप में ही क्यों न निकलता हो, चाहे वो मामूली अखबार के रूप में ही क्यों न निकलता हो, उसके आप रिप्रिंट करते हैं। मुझे याद है अनिल सद्गोपाल ने जब ‘जन आंदोलनों में विज्ञान की भूमिका’ लिखी थी, दिनमान ने पूरा विशेषांक निकाल दिया। उसके बाद देश भर में कोई ऐसा समूह नहीं था जिसने उसको रिप्रिंट न किया हो, क्योंकि सबको लगा कि हमें उसकी जरूरत है। हम लोगों ने शराब पर एक पुस्तिका निकाली। पन्द्रह साल निकल गए। आंकड़े पूरे बदल गए। हम कहते हैं कि हमारे पास नए आंकड़े भी हैं उनको इस्तेमाल करो।
आज भी वो समझते हैं कि वह पुस्तिका हमारे लिए प्रासंगिक हैं। शराब का कोई प्रश्न आएगा, ‘नशा नहीं - रोजगार दो’ के समय हमारे मित्रों ने मिलकर एक पुस्तिका बनाई थी ‘नशा एक षड्यंत्र है’। वह आज भी हर जगह पूरी की पूरी कोट कर दी जाती है। एक ने हमारे यहां उत्तराखंड आंदोलन के समय जितने सम्पादकीय, जितने अग्रलेख लिखे गए उनका संकलन कोट द्वार से निकाला। आप देख सकते हैं, उसमें से बहुत सारे लेख बहुत दमदार हैं, बहुत आब्जेक्टिव हैं। उन्होंने बहुत आलोचनात्मक रूप से उत्तराखंड आंदोलन को देखने की कोशिश की है। तो ऐसे शब्दों की या ऐसी फिल्मों की महत्ता बनी रहेगी। मनु निश्चिंत नाम के देहरादून में हमारे एक पत्रकार मित्र थे। जिनकी मृत्यु का हममें से किसी ने नोटिस ही नहीं लिया।
उनके सम्पादकीय आप ‘दून दर्पण’ में देखिए, बहुत ही बेहतरीन लिखे हैं। कभी-कभी आपको लगता होगा कि दिल्ली के अखबारों में बहुत सारे अच्छे-अच्छे संपादकीय आते थे। वहां हमारी मित्र मंडली थी, आज बहुत सारे अखबारों में अच्छे-अच्छे लोग हैं। न केवल उत्तराखंड का मुद्दा, वो कहीं का भी मुद्दा हो, नर्मदा का मुद्दा हो, गुजरात का ही मुद्दा क्यों न हो, उन सबको उन्होंने आलोचनात्मक रूप से सामने रखने का प्रयास किया है। अंत में मैं यह कहना चाहूंगा कि जो हम प्रवास में हैं, उनकी भी भूमिका हैं प्रवास की कुछ पत्रिकाओं ने जैसे दो पत्रिकाओं की तो चर्चा अभी हो गई है।
एक पत्रिका डांडी-कांठी करके बम्बई से निकल रही है, और बहुत अच्छी निकाली है। आप लोगों को आश्चर्य होगा कि हम लोग पिछले दो साल से टिहरी पर कोई विशेषांक नहीं निकाल रहे हैं और आज टिहरी डूब गई है। ‘कुछ मकान तो पता नहीं वह दिखेंगे कि नहीं दिखेंगे। बिजली बने न बने। वो इस फिराक में है कि पानी बढ़े तो लोग भागेंगे। लोगों की पराजय होगी उनका आंदोलन खत्म होगा। लोगों का पुनर्वास होगा कि नहीं होगा उनकी चिंता का विषय नहीं है। लेकिन टिहरी पर कुछ और लोग अंक निकाल रहे थे, नहीं हुआ। कोई डाक्यूमेंटरी बनाएंगे, नहीं था। वहां का आर्कीटेक्चर हम डाक्यूमेंट करेंगे नहीं था। यहां रामतीर्थ रहे, यहां विवेकानन्द रहे, यहां फलाना रहे, यहां पर जन आंदोलन हुआ, यहां उस समय के हमारे क्रांतिकारियों के मृत शरीर आए।
सकलानी और उसकी उस पुल से, जहां से राजा को नहीं आने दिया। वो डाक्यूमेंटेशन किया किसी ने, नहीं किया? नंदा जात में तो बहुत सारे लोग डाक्यूमेंटेशन के लिए पहुंचे, यहां नहीं पहुंचे। आज टिहरी डूबने के कगार पर है। तो डांडी-कांडी जो बम्बई के प्रवासी निकालते हैं, उन्होंने बहुत ही खूबसूरत अंक निकाला है। बल्कि पिछले संपादकीय में तो आश्चर्यचकित रहा कि किसी एक लेखक ने कुमाऊं और गढ़वाल की शब्दावली लिखी। इस बीच बहुत भाषा चल रही है। एक तो हमारी जातियों को लेकर देहरादून में बहुत शब्दावली चल रही है। दूसरा कुमाऊं और गढ़वाल पर बातें चल रही है। कुमाऊं और गढ़वाल की भाषा वहां के नेताओं में, विधान सभा में, ब्यूरोक्रेसी में सब जगह चल रही है।
जो लोग वहां जाते है, दुखी होकर आते हैं। परसों नरेन्द्र नेगी से फोन पर बात हो रही थी, उन्होंने कहा एक जीप आई तो वहां जो सेक्रेटेरिएट है, वहां कुमाऊं-गढ़वाल की शब्दावली हो गई कि जीप कुमाऊं जानी चाहिए कि गढ़वाल जानी चाहिए। तो वह कह रहा था कि संयोग से हम दोनों सूचना अधिकारी घनिष्ट मित्र थे। हमने आपस में तय कर लिया कि यार इस बार तू ले ले, मैं अगली बार ले लूंगा। लेकिन दफ्तर के लोग वही शब्दावली इस्तेमाल कर रहे थे।
कोई एक जीप आ रही है तो चर्चा यह हो रही है कि यह कुमाऊं जानी चाहिए या गढ़वाल में जानी चाहिए। यह नहीं है कि जहां जरूरत है, वहां जाए। यह नहीं है कि पिथौरागढ़ जैसे जिले में सूचना विभाग का अधिकारी धारचूला की तरफ तो जाता ही नहीं है। तो इस तरह की चीजें जो चल रही हैं इस तरीके की शब्दावली जो आ रही है इसके पत्रकारिता किस तरीके से तोड़ सकती है, ध्वस्त कर सकती है ये डांडी-कांडी-बम्बई वाले पत्रकार ने लिखा है।
उसने वो कोट किया है जो किसी उत्तराखंड के पत्रकार ने लिखा था जिसमें यही सब घटिया किस्म की शब्दावली थी। मुद्दे नहीं थे, अब हम नारायण दत्त तिवारी को कुमाऊं का कैसे मानें, नित्यानन्द स्वामी को हम गढ़वाल का कैसे मानें। मुख्यमंत्री तो अपनी पार्टी के हैं वो, लोगों के कहां है? भगत सिंह कोश्यारी को किस बात के लिए मानू मैं वहां का, उनका जन्म हुआ होगा। वो तो एक पार्टी को रिप्रजेंट कर रहे हैं। तो उस बम्बई के प्रवासी अखबार ने उसको इतना आलोचनात्मक रूप से दिया और उसने कहा कि यह जो उधाहरण है, यह हमारे उत्तराखंड के किसी प्रबुद्ध लेखक का है लेकिन वास्तविकता कुछ और है इस पर पूरे दो पन्ने का संपादकीय लिखा है, तो प्रवास की एक जोड़ने वाली भूमिका हो सकती है।
सौभाग्य से प्रवास से कुछ अखबार निकल रहे हैं। वह पहाड़ में आते हैं। जो तोड़ने वाले हैं वो तो बहुत संगठित हैं। जोड़ने वाले बहुत कम हैं। लेकिन जोड़ने वाले हैं। यह बहुत महत्व की बात है। तो प्रवास की जो पत्रकारिता है वह भी अभी बहुत बड़ा काम कर सकती है। और विकल्प के रूप में जन आंदोलन तो हैं ही, जब जिस तरीके की जरूरत आएगी, समाज उस तरह से बोलेगा। हम सब चुप हो सकते हैं, पराजित हो सकते हैं, लेकिन हमारा समाज पराजित नहीं होगा। वह कल नए रूप में आएगा, नए तरीके से लड़ाई लड़ेगा और झक मारकर फिर हमको उनके पीछे जाना पड़ेगा।
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