आज उत्तराखंड राज्य को बने 15 बरस पूरे हो गए। जब 9 नवम्बर, 2000 को भारत के मानचित्र पर 27वें राज्य के रूप में उत्तराखंड का उदय हुआ था तो हर किसी के दिलोदिमाग में था कि अब हमारा और हमारे प्रदेश का एक सुंदर भविष्य होगा। पर उस समय यह कल्पना किसी ने भी नहीं की होगी कि उनका यह सपना सिर्फ सपना ही रहेगा, हकीकत में कभी नहीं तब्दील होगा। आम और खास हर किसी ने यही सोचा था कि अब अलग प्रदेश बनने के बाद यहाँ के लोगों का समुचित विकास हो सकेगा। किसी ने ये नहीं सोचा था कि राज्य का विकास राजनीति की उठापटक की भेंट चढ़ जाएगा। अलग उत्तराखंड राज्य की स्थापना हुये डेढ़ दशक से अधिक हो गया, परन्तु अब तक यहाँ नाम मात्र का विकास हुआ है।
उत्तराखंड के हमउम्र राज्य छत्तीसगढ़ और झारखंड ने आज विकास के मामले में कई पुराने राज्यों को भी पीछे छोड़ दिया है। परन्तु उत्तराखंड आज उनके मुकाबले में कोसों दूर है। उत्तराखंड के विकास में पीछे रहने और यहाँ के लोगों की तरक्की नहीं होने के कई कारण हैं। इन सब में यहाँ की राजनीतिक उठापटक सबसे बड़ा कारण रहा। महज 15 वर्षों में उत्तराखंड में 7 बार मुख्यमन्त्री का चेहरा बदला गया। लेकिन एकाध को छोड़कर कोई भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सका। सरकार गठन के लिये समय-समय पर बनते बिगड़ते समीकरणों में यहाँ की जनता पिस कर रह गई है। ऐसे में यहाँ के विकास की उम्मीद भला कैसे की जा सकती है। ऐसी बात नहीं है कि उत्तराखंड के विकास के लिये संसाधनों की कोई कमी है। परन्तु यहाँ की सरकारों में विकास करने वाली इच्छाशक्ति की कमी है, जिसके कारण आज भी यहाँ के लोगों की माली हालत है। सरकारों पर सरकारें बदलती रही हैं, लेकिन जनता की अपेक्षाएँ पूरी नहीं हो पाई हैं, जिसके कारण प्रदेश की हालत बदतर बनी हुई है।
स्थिति तो यहाँ तक पहुँच गई है कि अब आमजन कहने लगा है कि उत्तराखंड की वर्तमान स्थिति से अच्छा होता हम उत्तर-प्रदेश में ही होते। उत्तराखंड निर्माण के बाद जो अपेक्षित गतिविधियाँ बढ़नी चाहिये थीं, वह नहीं बढ़ पाईं। इतना ही नहीं प्रदेश में लगातार वित्तीय घाटा बढ़ता जा रहा है। विकास भी केवल तीन-चार जनपदों का हुआ है, जो मैदानी हैं या मैदानों से लगते हुये हैं। इसके लिये सरकार और नौकरशाह दोनों ही जिम्मेदार हैं, जो देहरादून, हरिद्वार, उधमसिंह नगर और नैनीताल छोड़कर ऊपर जाना ही नहीं चाहते। पहाड़ छोड़ने की गति और पहाड़ों से पलायन पृथक राज्य बनने के बाद भी कम नहीं हुआ है, जो अपने आप में किसी बड़ी पीड़ा से कम नहीं है। जिन लोगों को अपना घर छोड़ना पड़ता है, वे लोग बड़ी पीड़ा या मन मसोसकर अपना घर छोड़ते हैं, वरना कोई अपना घर नहीं छोड़ना चाहता।
हर राजनेता ने सुलभ और सुगम के चक्कर में मैदानी जनपदों को अपना केन्द्र बनाया है, जिसके कारण पहाड़ लगातार खाली होते जा रहे हैं। सीमांत क्षेत्र जो सामरिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होते हैं, आज वह खाली होते जा रहे हैं। इसका कारण वहाँ रोजी रोजगार का प्रबंधन न होना है। पृथक उत्तराखंड राज्य बनने से पहले एक नारा था कि पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी दोनों काम नहीं आती, लेकिन पृथक राज्य बनने के बाद भी इस मिथक ने अपना कारोबार नहीं छोड़ा और आज भी पलायन लगातार जारी है। स्कूल में मास्टर नहीं, अस्पताल में डाक्टर नहीं। पहाड़ के घरों में बुजुर्ग दंपति को छोड़कर कोई कमाने वाला नहीं मिलता, जिससे पर्वतीय राज्यों की दशा लगातार खराब होती जा रही है। इसके लिये दृढ़ इच्छाशक्ति की जरूरत है, जो वर्तमान उत्तराखंड सरकार में नहीं दिखती।
अलग राज्य बनने के बाद से अब तक प्रदेशवासियों को मूलभूत सुविधाओं से ही नहीं जोड़ा गया है, फिर विकास और रोजगार की बात करनी ही बेमानी है। प्रदेश उत्तराखंड के कुल 13 जिलों में से 3 जिले देहरादून, हरिद्वार और उधमसिंहनगर में ही सिमट कर रह गया है और बाकी 10 जिले वीरान होते जा रहे हैं। उत्तराखंड में चीन और नेपाल की सीमा होने के कारण बाकी जिलों का मानवविहीन होना उत्तराखंड ही नहीं, देश की सुरक्षा के लिये गम्भीर खतरा पैदा हो रहा है। हिमालयी राज्य उत्तराखंड में पर्यटन, कृषि, फलोत्पादन, जड़ी-बूटी, फूलोत्पदान, प्राकृतिक खेल, दुग्ध उत्पादन, भेड़ पालन, मधु-मक्खी पालन आदि की अपार सम्भावनाएँ हैं, जिनसे पलायन रोकने, रोजगार देने की अपार सम्भावनाएँ होने के बावजूद पहाड़ के पहाड़ खाली होते जा रहे हैं। कहीं न कहीं सरकार ठोस रणनीति बनाने में असफल है या यूँ कहें सरकार में बैठे लोगों में सोच का कहीं न कहीं घोर अभाव है। उत्तराखंड को पलायन मुक्त बनाने और हिमालय को बचाने के लिये कारगर और दूरगामी योजनाएँ बनानी होंगी तभी देवभूमि उत्तराखंड के अलग राज्य बनने की सार्थकता सिद्ध होगी। उत्तराखंड एक ऐसा राज्य है, जहाँ सत्ता सम्भालना एक कठिन चुनौती बन गया था।
दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र, विकास के रास्ते में जटिल बाधाएँ और प्राकृतिक आपदा की मार झेलता राज्य, लेकिन यदि देवभूमि को आपदा और सम्भावना के बीच सन्तुलित करना हो तो उसके लिये एक बेहद दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत होती है। समस्याओं से निकालकर राज्य को विकास के रास्ते पर ले आना कुशल नेतृत्व का ही परिणाम होता है और पिछले वर्षों में जिस तरह उत्तराखंड को भयंकर आपदा झेलनी पड़ी और उसे पुन: विकास की कतार में खड़ा कर देना राज्य नेतृत्व की सफलता का सूचक है। आपदा के पश्चात हरीश रावत का मुख्यमन्त्री बनना और उसके बाद राज्य में लगातार होती कांग्रेस की जीत, जबकि पार्टी अभी मुश्किल दौर में है, मुख्यमन्त्री की लोकप्रियता की ओर संकेत करता है। चारधाम यात्रा के लिये मुख्यमन्त्री ने खुद इसका जायजा लेकर तीर्थयात्रियों की सुरक्षा और सुविधा का जिम्मा उठाया है। पहाड़ी क्षेत्रों में प्रशासकों का बढ़ता रुझान राज्य सरकार की पहाड़ी क्षेत्रों के विकास के प्रति प्रतिबद्धता को व्यक्त करता है।
हमारे देश के पहाड़ी राज्य उत्तराखंड में पानी, पर्यावरण और पहाड़ों की जवानी का बिगड़ता सन्तुलन राज्य के विकास के लिये चिन्ता का सबब बन चुका है। एक व्यवस्थित नियोजन की आवश्यकता है ताकि राज्य में पानी और पर्यावरण को संरक्षित कर राज्य के विकास में बेहतर तरीके से इन संसाधनों का उपयोग किया जा सके और पर्वतीय क्षेत्रों के युवाओं को अपने ही क्षेत्र में रोजगार दिलाया जा सके। हालाँकि हरीश रावत के नेतृत्व में राज्य सरकार एक सुनियोजित तरीके से आगे बढ़ रही है, जोकि राज्य के लिये एक अच्छे संकेत हैं। उत्तराखंड एक अध्यात्म केन्द्रित अर्थव्यवस्था है, यहाँ बड़ी संख्या में तीर्थ यात्रियों का आगमन होता है। राज्य को इसी क्षेत्र में आगे बढ़ाने हेतु सरकार के द्वारा जूनियर हाई स्कूल तथा उच्च कक्षाओं में योग विषय को शामिल किया गया है तथा राज्य में योगाचार्यों की नियुक्ति के आदेश सरकार द्वारा दिये गये हैं।
सरकार के इन कदमों से निश्चित रूप से राज्य संस्कृति और रोजगार को बढ़ावा मिलेगा। चार धाम की यात्रा के सम्बन्ध में यदि मुख्यमन्त्री हरीश रावत द्वारा उठाये गये कदमों की बात की जाए तो इन्तजाम काफी कुछ बेहतर नजर आते हैं, जिसमें चार धाम तक के सभी प्रमुख राज मार्गों का दुरुस्तीकरण, उत्तराखंड पुलिस को अधिक सक्रिय बनाना, तीर्थ क्षेत्र में स्थित होटल व आवासीय क्षेत्रों को सुरक्षित यात्रा व व्यवस्था को लेकर एडवाइजरी जारी करना, मौसम विभाग द्वारा सैटेलाइट के द्वारा निगरानी को सुनिश्चित करने जैसे कई महत्त्वपूर्ण कदम उठाये गये हैं। राज्य मुख्यमन्त्री के प्रयासों को देखते हुये उत्तराखंड की तुलना जापान से करना अतिशियोक्ति नहीं होगी। जापान जिस तरह विकास-आपदा-विकास की स्थिति में रहता है, उसी तरह उत्तराखंड में भी कमोबेश यही स्थिति बनी रहती है।
जापान सरकार की दृढ़इच्छा शक्ति ने सुनामी के बाद भी जापान को खड़ा कर दिया। लगभग ऐसे ही हालात उत्तराखंड में भी बने, 2013 की आपदा के पश्चात राज्य का विकास और यात्रा को पुन: प्रारम्भ करना एक चुनौती बन गई थी, लेकिन सरकार के कुशल नेतृत्व में आज यात्रा बेहतर तरीके से प्रारम्भ कराई जा रही है। उत्तराखंड में विकास न सिर्फ राज्य बल्कि पूरे भारत के दृष्टिकोण से भी बेहद जरूरी है। उत्तराखंड नेपाल और चीन के साथ अंतरराष्ट्रीय सीमा भी साझा करता है, इसलिये दूरस्थ व सीमाई इलाके में विकास राज्य और देश की प्रथम आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त एक महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि विविधता पूर्ण संस्कृति में किसी क्षेत्र विशेष की पहचान को संरक्षित करना, सरकारों के प्रयास और विकास इस दृष्टिकोण से काफी महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं। उत्तराखंड के मुख्यमन्त्री का महात्मा गाँधी की तरह बेहद सहज व्यक्तित्व होना और उनका जन-जुड़ाव इस लिहाज से काफी महत्त्वपूर्ण है।
राज्य में सामुदायिक स्वास्थ्य का विकास और खेलों को बढ़ावा देना सरकार का एक प्राथमिक उद्देश्य और राज्य में सरकार द्वारा मुनि की रेती में स्टेडियम का निर्माण करना, राज्य में चिकित्सकों की भर्ती करने जैसे कदम उठाये गये हैं। कहा जा सकता है, मुख्यमन्त्री हरीश रावत के नेतृत्व में उत्तराखंड चुनौतियों के बावजूद भी विकास के रास्ते पर चल रहा है। यद्यपि मुख्यमन्त्री रावत कई विकास योजनाओं को लागू कर रहे हैं लेकिन उन्हें कई चुनौतियों का भी सामना करना पड़ रहा है, लेकिन उनका कदम बेहद सराहनीय है, जो पर्वतीय राज्य के लिये अच्छे संकेत हैं।
ईमेल :- rajeev1965jain@gmail.com
(लेखक उत्तराखंड सरकार में मीडिया समन्वयक हैं)
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