ऊसर मृदाएँ एवं उनका प्रबंधन


विश्व का बहुत बड़ा भूभाग ऊसर मृदाओं के रूप में पाया जाता है। कृषि खाद्य संगठन (FAO) के अनुसार विश्व में ऊसर मृदाओं का क्षेत्रफल लगभग 952 मिलियन हेक्टेयर है। वहीं भारत में इनका क्षेत्रफल लगभग 7.0 मिलियन हेक्टेयर है जो सन 1959 ई. के क्षेत्रफल से लगभग साढ़े तीन गुना अधिक है। इससे स्पष्ट होता है कि ऊसर सुधार के तमाम प्रयासों के बावजूद भी इन मृदाओं का क्षेत्रफल कम होने के बजाए बढ़ता ही जा रहा है, जो देश के कृषि के लिये एक गम्भीर समस्या है।

ऊसर संस्कृत के ‘ऊसर’ शब्द से विकसित हुआ है जिसका अर्थ होता है- अनुपयुक्त भूमि। ऊसर शब्द सभी प्रकार की लवणी, क्षारीय एवं लवणीय-क्षारीय मृदाओं के लिये प्रयोग किया जाता है। ऊसर मृदाओं को आम बोलचाल की भाषा में ‘रेह’ कहा जाता है। उत्तरी भारत में इन मृदाओं को कुछ अन्य नामों जैसे- लोना, शोरा, रेह, रेहटा, क्षार एवं खार के नाम से भी जाना जाता है। वहीं पंजाब एवं दिल्ली में लवणीय मृदाओं को ‘थर’ एवं क्षारीय मृदाओं को ‘रक्कर’ तथा ‘बारा या वारी’ के नाम से जाना जाता है। राजस्थान में लवणीय मृदाओं को रेह, खारी, कल्लर या नमकीन तथा क्षारीय मृदाओं को ऊसर तथा लवणीय-क्षारीय मृदाओं को रेह, खारी के नामों से पुकारा जाता है।

ऊसर भूमियों में घुलनशील लवणों या विनिमय सोडियम की अधिकता पायी जाती है। ये घुलनशील लवण वाष्पीकरण प्रक्रिया द्वारा धरातल पर एकत्र होते रहते हैं, परिणामस्वरूप मिट्टी की ऊपरी सतह सफेद दिखाई पड़ने लगती है। मृदा घोल में इन लवणों की सांद्रता बढ़ जाने के कारण पौधे मिट्टी से जल तथा पोषक तत्व सुगमता से नहीं ले पाते जिसका पौधों पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है। सोडियम की अधिकता से मृदा की भौतिक दशा अत्यंत खराब हो जाती है। साथ ही मृदा का पी एच भी काफी बढ़ जाता है जो पौधों के लिये जानलेवा साबित होता है। अत: ये मृदाएँ कृषि की दृष्टिकोण से अत्यंत निम्नकोटि की मानी जाती हैं।

भारत में ऊसर मृदाओं का अध्ययन : ऐतिहासिक पृष्ठभूमि


सन 1855 में सर्वप्रथम लवणीय मृदा के ऊपर हरियाणा के मुनाक गाँव में कार्य हुआ, वहाँ पर सिंचाई का कार्य पश्चिमी यमुना से निकली हुई नहर से किया जाता था। सन 1876 में उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जिले में नहरों द्वारा सिंचाई वाले क्षेत्रों में लवणों की उत्पत्ति के कारणों का पता लगाने, इनके वैज्ञानिक विश्लेषण एवं प्रायोगिक समाधान हेतु ‘भारतीय रेह समिति’ का गठन किया गया था जिसके निदेशक, प्रख्यात वनस्पति वैज्ञानिक राबर्ट्स बनाये गये। समिति ने अपने वर्षों के अध्ययन के आधार पर ऊसर मृदाओं के विकास का खुलासा किया कि ‘नहरों द्वारा सिंचाई एवं जल निकास के समुचित व्यवस्था का अभाव ही ऊसर मृदाओं के विकास का मुख्य कारण है।’ लवणीय एवं क्षारीय मृदाओं के समस्या पर सर्वप्रथम सन 1897 में बोएल्कर द्वारा वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अध्ययन का शुभारंभ हुआ। इम्पीरियल कृषि रसायनज्ञ जे. डब्लू. लीथर (भारतीय मृदा विज्ञान के पिता) ने इन मृदाओं का विस्तृत रूप से अध्ययन किया तथा इस नतीजे पर पहुँचे कि नहरों सिंचित एवं असिंचित दोनों क्षेत्रों में लवणीय मृदाओं के लक्षण समान हैं।

इस प्रकार उन्होंने पूर्व से चली आ रही धारणा कि ‘नहरों द्वारा सिंचाई करने से ही मिट्टी में लवणता उत्पन्न होती हैं’ को गलत बतलाया। उन्होंने मैनपुरी जिले (यूपी) में किये गये अध्ययन से स्पष्ट किया कि नलकूप से सिंचाई करने से मृदा में लवणता अतिशीघ्रता से ही आती है क्योंकि नलकूप के जलों में लवण की सान्द्रता अधिक होती है। साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि नलकूप जलों में गर्मियों में जाड़े की अपेक्षा इन लवणों की मात्रा अधिक होती है। सन 1963 में ऊसरीकरण की समस्या के निराकरण हेतु सरकार द्वारा एक समिति का गठन किया गया जिसके सुझावों के अनुसार इन मृदाओं के सुधार हेतु में सुधारार्थ जल निकास विधि को अपनाया गया परंतु कोई विशेष लाभ नहीं हुआ। इस अवधि के अगले दशक में रूसी वैज्ञानिक के.ई. गेदरायज के नेतृत्व में काफी शोध कार्य किये गये। गेदरायज ने ही मृदा के कललीय गुणों पर विनिमय सोडियम धनायन के प्रभाव को देखा और क्षारीय एवं लवणीय भूमि की उत्पत्ति के कारणों से अवगत कराया।

एक तरफ सरकार द्वारा असिंचित भूमि की सिंचाई के लिये नहरों का निर्माण कराया जा रहा था तो वहीं दूसरी तरफ नहर जल के समुचित तरीके से प्रयोग नहीं होने से समस्याएं उत्पन्न हो रही थी। इस प्रकार सिंचित कृषि, देश को समृद्ध बनाने के स्थान पर उपजाऊ भूमि का नाश करने लगी। इन्हीं समस्याओं को ध्यान में रखते हुए सन 1925 में पंजाब में ‘जलक्रांति जाँच समिति’ एवं ‘जलक्रांति परिषद’ की स्थापना की गई। वहीं लाहौर में ‘पंजाब सिंचाई अनुसंधान संस्थान’ तथा ‘चकनवाली सुधार कार्य’ की स्थापना की गई साथ ही दकन के काली कपास मिट्टी क्षेत्र में ‘वारामती प्रायोजित लवण क्षेत्र’ की स्थापना की गई। सन 1928 के करीब दकन क्षेत्र में इंजलिस एवं गोखले द्वारा जल निकास एवं सुधार के अनेक विधियाँ प्रस्तुत की गई। सन 1930 में वारामती फार्म के निकट तलाती द्वारा सफलतापूर्वक अनेक महत्त्वपूर्ण अनुसंधान कार्य किये गये जिनमें इन मृदाओं का सुधार एवं वर्गीकरण प्रमुख था।

इसी अवधि में डा. बी.एल. धर के नेतृत्व में इन मृदाओं एवं पौधों से संबंधित अनेक कार्य किये गये जिनका प्रयोग सिंधु गंगा जलोढ़ मृदाओं के सुधार हेतु आर.आर. अग्रवाल एवं साथियों द्वारा किया गया। सन 1963 में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली ने लवणीय एवं क्षारीय मृदाओं पर पहली किताब छापी। सन 1969 में यू.एस. एवं भारतीय समिति के संस्तुति पर भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद द्वारा हरियाणा के करनाल जिले में ‘केंद्रीय मृदा लवणता अनुसंधान संस्थान’ की आधारशिला रखी गई। आगे चलकर इसके तीन क्षेत्रीय अनुसंधान संस्थान आनन्द (गुजरात), लखनऊ (यूपी) एवं कनीक टाउन (प. बंगाल) में स्थापित किये गयें। वर्तमान में यह संस्थान भारतवर्ष में ऊसर मृदा के सुधार के लिये महत्त्वपूर्ण कार्य कर रहा है।

 

तालिका-1 : भारत में ऊसर मृदाओं का विवरण

राज्‍य

क्षेत्रफल (मिलियन हेक्‍टेयर)

उत्‍तर प्रदेश

1.295

गुजरात

1.214

पं. बंगाल

0.850

राजस्‍थान

0.728

पंजाब

0.688

महाराष्ट्र

0.534

हरियाणा

0.526

ओडि़सा

0.404

कर्नाटक

0.404

मध्‍य प्रदेश

0.224

आंध्र प्रदेश

0.042

अन्‍य राज्‍य

0.040

कुल

6.949

 
 

तालिका- 2 : ऊसर मृदाओं के भौतिक एवं रसायनिक गुण

मृदा के गुण

ऊसर मृदाएँ

लवणीय

लवणीय-क्षारीय

क्षारीय

पी. एच.

< 8.5

< 8.5

8.5-10

ई. सी. (डे.सी./मी.)

> 4

> 4

< 4

विनिमय सोडियम प्रतिशत

< 15

> 15

> 15

प्रबलता से पाये जाने वाले लवण

कैल्सियम के साथ सल्‍फेट, क्‍लोराइड एवं नाइट्रेट

-

सोडियम कार्बोनेट

सोडियम अवशोषण अनुपात

< 13

> 13

> 13

कुल घुलनशील लवण सान्‍द्रता (%)

> 1

> 1

< 1

श्रंग

सफेद

-

काला

भौतिक दशा

मृदा कण संगठित

सोडियम लवणों के आधार पर मृदा कण संगठित

असंगठित मृदा कण

 

भारत में ऊसर मृदाओं का वितरण


सन 1972 में केंद्रीय लवणीय मृदा अनुसंधान संस्थान करनाल ने ऊसर भूमि पर गहन अध्ययन किया और देश के विभिन्न प्रदेशों में ऊसर मृदाओं के क्षेत्रफल का अनुमानित आंकड़ा प्रस्तुत किया जो तालिका-1 में दी गई है।

ऊसर मृदाओं का वर्गीकरण


ऊसर मृदाओं को उनके भौतिक एवं रासायनिक गुणों के आधार पर मुख्यत: तीन वर्गों में विभाजित किया है जिसे तालिका-2 में प्रस्तुत किया गया है।

लवणीय मृदाएँ


लवणीय मृदाओं की उत्पत्ति उन स्थानों पर होती है जहाँ वर्षा के अपेक्षा वाष्पन अधिक होता है। वाष्पन अधिक होने के कारण लवण सतह पर एकत्र होते रहते हैं। इन्हीं घुलनशील उदासीन लवणों की उपस्थिति के कारण सफेद पपड़ी पाई जाती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि लवणों की उत्पत्ति एवं विकास की लवणीय मृदाओं का उत्पत्ति एवं विकास हैं जैसा कि तालिका-1 से स्पष्ट होता है कि लवणीय मृदा में क्लोराइड, सल्फेट एवं नाइट्रेट की अधिकता पायी जाती है। लवणों की उत्पत्ति का मुख्य कारण जल एवं वायुमंडल में पाई जाने वाली गैसों का जैविक क्रियाओं द्वारा चट्टानों का अपक्षय हैं। ‘उत्तर प्रदेश की कुछ लवणीय मृदाओं में बोरान की उपस्थिति भी देखी गई है। यद्यपि इन मृदाओं में इस आयन की मात्रा बहुत कम होती है। परंतु इसकी यह अल्पमात्रा भी अधिकांश फसलों को मारने के लिये पर्याप्त होती है।’ लवणीय मृदाओं को अन्य गुणों का तालिका 1 में चर्चा की गयी है। लवणीय मृदाओं के भौतिक दशा कैल्शियम की पर्याप्त मात्रा होने के कारण अच्छी रहती है किंतु जल में घुलनशील लवणों का अधि सांद्रता होने से पौधे जल एवं पौषक तत्वों का अवशोषण आसानी से नहीं कर पाते, अत: उनकी वृद्धि अवरुद्ध हो जाती है।

लवणीय-क्षारीय मृदाएँ


ये मृदाएँ अधिकांशत: उन सभी स्थानों पर पायी जाती है जहाँ भूमि की स्थालाकृति असमतल होती है। ऐसी मृदाओं का निर्माण केवल असमतल क्षेत्रों की निचले भागों में संभव होता है। गंगा सिंधु के मैदानी भागों से लवणों द्वारा प्रभावित मृदा समुदाय में सबसे अधिक लवणीय-क्षारीय मृदाएँ ही पायी जाती है। ये मृदाएँ खासकर निचली जगहों या खेत के उन भागों में, जो देखने में तस्तरीनुमा होते है, पायी जाती है। आम बोलचाल की भाषा में ये मृदाएँ लवणीय एवं क्षारीय दोनों मृदाओं की मध्य की होती हैं क्योंकि इनमें दोनों मृदाओं के गुण पाए जाते हैं। बाहर से ये लवणीय मुदाओं का गुण प्रदर्शित करती है परंतु आंतरिक संरचना में ये क्षारीय मृदाओं के समान प्रतीत होती है। इन मृदाओं के गुणों को तालिका-2 दिया गया है।

लवणीय-क्षारीय मृदाएँ, ऊसर मृदाओं का निर्माण का यह दूसरा चरण है, क्योंकि ये मृदाएँ लवणीय मृदाओं से ही विकसित होती है। अत: इन मृदाओं का उत्पत्ति एवं विकास लवणीय मृदाओं के समान ही होती है। घुलनशील लवणों की मात्रा अधिक होने के कारण ये लवणीय मृदाओं के समान दिखाई पड़ती है। लवणों की अधिकता में कारण ही इनका पी. एच. मान 8.5 से अधिक नहीं हो पाता तथा इन मृदाओं के कण सदा आपस में संगठित रहते हैं। यदि ये लवण किसी प्रकार निक्षालित होकर मृदा की निचली सतहों में चले जाते हैं तो मृदा के भौतिक गुण बदल जाते हैं तथा यह क्षारीय मृदा के समान गुण प्रदर्षित करने लगती है। रासायनिक दृष्टिकोण से लवणीय-क्षारीय मृदाओं को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है।

(क) कार्बोनेट टाइप : इस प्रकार की मृदा को प्रबल घुलनशील आयन सोडियम होता है जो कि सोडियम कार्बोनेट (Na2Co3) के रूप में रहता है इसके संतृप्त सोडियम की मात्रा 90-95 प्रतिशत तक पायी जाती है जिसके चलते मृदा गठन छिन्न-भिन्न हो जाता है, परिणामस्वरूप आंतरिक जल निकास अवरुद्ध हो जाता है इन मृदाओं में 50-60 सेमी की गहराई पर कंकड़ जैसी एक ठोस परत पायी जाती है। इनका रंग धूसर-भूरा से लेकर धूसर लिये हुए पीला होता है। इनमें चूने की पर्याप्त मात्रा पायी जाती है।

(ख) सल्फेट टाइप : ये मृदाएँ उत्तर प्रदेश के पूर्वी जिलों में कहीं-कहीं पायी जाती है। इनमें प्रबल सोडियम घनायन सोडियम सल्फेट के रूप में उपस्थित रहता है। इनका रंग सतह पर तो राख की तरह धूसर परंतु कुछ गहराई पर पीला होता है। ये मृदाएँ ठोस संरचना वाली होती है लेकिन सतह मुलायम होने के कारण धूल से आच्छादित रहती है।

क्षारीय मृदाएँ


क्षारीय मृदाओं में मुख्यत: क्लोरीन, सल्फेट, कार्बोनेट, बाई कार्बोनेट एवं कभी-कभी नाइट्रेट (NO3) आयन पाये जाते हैं। सोडियम संतृप्त कैल्सियम युक्तमृदाओं का कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) युक्त जल के साथ निक्षालन (leaching) कराने पर जो निक्षालित द्रव प्राप्त होता है उसमें सोडियम बाइकार्बोनेट (NaHCO3) की अधिकता होती है। इससे यह ज्ञात होता है कि कैल्सियम कार्बोनेट (CaCO3) एवं Na+ की संतृप्त मृदा में अन्योन्य क्रिया (Intraction) होती है। इसी के फलस्वरूप निष्कासित जल में NaHCO3 की मात्रा अधिक होती है। जल निष्कासन द्वारा प्राप्त यह जल भूमि की निचली जगहों में एकत्रित होता रहता है और जब यह वाष्पीकृत हो जाता है तो Na2CO3 की कुछ मात्रा मौलिक रूप में तथा कुछ NaHCO3 के रूप में संचित हो जाती है। अधिकांश क्षारीय मृदाओं में Na2CO3 एवं NaHCO3 का निर्माण संभवत: इसी विधि द्वारा होता है। इनकी प्रबल उपस्थिति ही क्षारीय मृदा के उत्पत्ति का मार्ग खोलती है। रूस के वैज्ञानिकों ने क्षारीय मृदाओं के निर्माण से मुख्यत: तीन बातों - बाह्य आकारकी, विनिमय सोडियम एवं घुलनशील लवणों की अनुपस्थिति या अत्यंत अल्प मात्रा पर बल दिया। कावदा (1939) ने क्षार विनिमय को अधिक महत्त्व देते हुए क्षारीय मृदाओं को निम्नलिखित पाँच अभिलक्षणों का प्रतिपादन किया जो निम्नलिखित है -

1. बी संस्तर में बाह्य आकारिकी संरचनाएं
2. बी संस्तर के निचले भागों में विनिमेय सोडियम (Na) की उपस्थिति
3. संस्तर में मृतिक का संचयन
4. सतही मृदा में घुलनशील लवणों की अनुपस्थिति
5. अवमृदा की निचली गहराईयों में टिनियम (Ti) आदि का संचालन

इसके लिये यह आवश्यक नहीं है कि एक ही स्थान की क्षारीय मृदाओं में लवणीयता निक्षालन की प्रक्रियाएं समान रही हो। यही कारण है कि एक ही स्थान की क्षारीय मृदाओं में न तो क्षारीयता का अंश समान होता है और न ही लक्षण। क्षारीय मृदाओं के निर्माण के लिये उत्तरदायी प्रमुख कारक निम्नलिखित है-

1. वनस्पति - क्षारीय मृदाओं के निर्माण में मृदा पर आने वाली वनस्पतियों का नि:संदेह योगदान है जिसका समर्थन केल्लाग (1934) एवं कुछ रूसी वैज्ञानिकों ने भी किया है। केंद्रीय लवणीय मृदा संस्थान करनाल (हरियाणा) के अनेक शोधकर्ताओं ने यह बताया कि क्षारीय मृदाओं में निक्षालन की क्रिया इस हद तक अपनाने पर कि उसमें कुछ पौधों की बढ़वार अग्रसर होने लगे हैं। पौधों के इस बढ़वार के कारण केवल बचे हुए लवण ही निक्षालित नहीं होते वरन मृदा के भौतिक एवं रासायनिक गुणों में भी परिवर्तन होने लगता है।

2. Na लवण के प्रकार - कावदा एवं इवानोवा ने क्षारीय मृदाओं के विकास के संबंध में लवणों से संबंधित निम्न 6 कारकों का उल्लेख किया है -
(क) संचित होने वाले सोडियम लवण के प्रकार
(ख) CaCO3 या NaSo4 की उपस्थिति अनुपस्थिति तथा मृदा परिच्छेदिका (Soil profile) में इनकी स्थिति।
(ग) घुलित Ca++ या Na- की अनुपात
(घ) संपूर्ण सांद्रण
(ड़) निक्षालन की मात्रा
(च) ऐसी मृदाओं में उगने वाली वनस्पतियाँ।

इनके अनुसार सोलोनेज (क्षारीय) मृदाओं का निर्माण क्लोराइड सल्फेट एवं कार्बोनेट के धारण करने वाली सोलनचक (लवणीय) मृदा के कारण हुआ है एवं सल्फ़ेट सोलनचक की अपेक्षा क्लोराइड सोलनचक से सोलोनेज मृदाओं का निर्माण शीघ्र होता है। क्लोराइड मृदाओं में यदि घुलनशील Ca++ तथा Na+ का अनुपात 1:9 हो तो सोलोनेज मृदाओं का निर्माण शीघ्र होता है। परंतु सल्फेट सोलनचक मृदाओं के उपस्थित होने पर Ca++ एवं Na+ का अनुपात 1:18 होना ही प्रभावकारी होता है।

मृदा में जैसे-जैसे विनिमय की सांद्रता बढ़ती जाती है घुलनशील लवणों की सांद्रता में कमी होती जाती है तथा पी एच बढ़ता जाता है। इसलिये इन मृदाओं में घुलनशील लवणों की अधिक मात्रा नहीं पाई जाती। साधारणतया यह मात्रा 0.3-0.5 प्रतिशत तक होती है परंतु कभी-कभी यह 1 प्रतिशत तक भी पहुँच जाती है। जाड़े एवं गर्मियों के मौसम में इन मृदाओं की सतह पर सफेद एवं कभी-कभी काले रंग की पपड़ी दिखाई पड़ती है। सतह पर काले रंग की यह पपड़ी मांटमोरिल्लोंनाइट खनिज के गहरे ह्यू (hue) के कारण होती है। इस तरह मृदा को यदि हाथ में लेकर पानी मिलाया जाय तो साबुन जैसा अनुभव होता है।

क्षारीय मृदा बनने के वर्तमान अवधारणा के अनुसार मृदा जल में सोडियम (Na), कैल्सियम (Ca), क्लोराइड (CI), सल्फेट (SO4), कार्बोनेट (CO3) तथा बाइ्रकार्बोनेट (HCO3) होते हैं जो मृदा कलिल के साथ साम्य बनाए रहते हैं। मृदा जल में इन लवणों के सांद्रण बढ़ने पर कैल्सियम कार्बोनेट, पहले अवक्षेपित हो जाता है क्योंकि इसकी घुलनशीलता सोडियम कार्बोनेट की अपेक्षा 100 कम होती है। अत: मृदा कलिल पर विनिमय सोडियम की अधिकता होने से मृदा का पी एच (>8.5) बढ़ जाता है तथा मृदा की भौतिक दशा अत्यंत खराब हो जाती है। परिणामस्वरूप फसलोत्पादन अच्छी नहीं होती है।

ऊसर मृदाओं में उगायी जाने वाली फसलें


ऊसर मृदाओं में बुवाई करने हेतु सही फसलों का चुनाव करना अतिमहत्त्वपूर्ण होता है। फसल चुनाव करते समय यह ध्यान देना चाहिए कि चुनी जाने वाली फसल लवण के प्रति सहनशील हो। आजकल फसलों के बहुत-सी लवणसहनशील किस्में विकसित की जा चुकी हैं जिनसे ऊसर भूमि में भी उचित प्रबंधन के साथ उत्पादन लिया जा सकता है। लवण सहनशीलता के आधार पर फसलों को तीन वर्गों में विभाजित किया गया है जो तालिका-4 में दिया गया है।

ऊसर मृदा सुधार


केली (1951) के अनुसार किसी भी सुधार प्रणाली को स्थायी रूप से अपनाने से पूर्व निम्नलिखित तीन बातों पर ध्यान देना चाहिए-

1. भूमि को लवणीय एवं क्षारीय होने से बचाना।
2. क्षतिग्रस्त मृदाओं का भली-भाँति सुधार करना।
3. जड़ों के आस-पास से लवणों तथा क्षारों को यथासंभव दूर कर देना।

लवणीय मृदाओं के सुधारार्थ प्रचलित विधियों में मेड़बंदी, समतलीकरण, निक्षालन एवं जल निकास प्रमुख है, जिनमें अच्छे गुणों वाले जल का प्रयोग कर इन मृदाओं का सुधार सुगमता पूर्वक किया जा सकता है।

 

तालिका-3 लवण सहनशील फसलें

उच्‍च सहनशील फसलें

मध्‍यम सहनशील फसलें

संवेदनशील फसलें

धान

गेहूँ

मटर

गन्‍ना

सरसों

चना

जौ

मक्‍का

सेम

जई

बाजरा

चना

मेंथी

ज्‍वार

मूंगफली

लहसुन

कपास

मूंग

ढैचा

अरण्‍डी

लेबिया

चुकंदर

बरसीम

 

स्रोत : उप्‍पल एवं साथी (1961), एबोल एवं फरमैन (1977)

 
अति क्षारीय मृदाओं का सुधार करने में किसी उपयुक्त सुधारक का प्रयोग करना अत्यंत आवश्यक होता है जो क्षार को उदासीन करने, विनिमय सोडियम को प्रतिस्थापित करने तथा मृत्तिका को संगठित करने के लिये घुलनशील Ca++ की पर्याप्त मात्रा उपलब्ध करा सके।

लवणीय मृदाओं की सुधार की विधि


मेड़बंदी : इस विधि के अंतर्गत खेत के चारों ओर मजबूत मेढ़ बनाये जाते हैं। तत्पश्चात उसमें पानी भर दिया जाता है अथवा वर्षा के पानी को एकत्र होने दिया जाता है जिससे घुलनशील लवण घुल मृदा के निचली सतहों में चले जाते हैं। यदि ऊसर भूमि का पी एच मान 8.5 से नीचे हो तो सिर्फ इस विधि के प्रयोग से ही उसे सुधारा जा सकता है। खेतों में मेड़बंदी का कार्य गर्मियों (अप्रैल से जून) में जब जल स्तर पर्याप्त गहराई पर चला जाता है तथा खेत परती (खाली) रहता है कर देना सुविधाजनक एवं लाभप्रद होता है।

समतलीकरण : समतलीकरण ऊसर भूमि के सुधार का एक महत्त्वपूर्ण विधि है। यदि जमीन समतल नहीं है या उबड़-खाबड़ है तो खनिज लवण या जैव पदार्थ कहीं-कहीं गड्ढों में एकत्रित हो जाते हैं। इस प्रकार एक उपजाऊ भूमि में जगह-जगह ऊसर भूमि बन जाती है जिसका सुधार बहुत कठिनाई से हो पाता है।

निक्षालन : इस विधि का प्रयोग लवणीय एवं क्षारीय दोनों प्रकार की मृदाओं में सुगमतापूर्वक किया जा सकता है। लवणीय मृदाओं में निक्षालन जल निकास का समुचित प्रबंध करने के तत्काल बाद ही किया जा सकता है, परंतु क्षारीय मृदाओं में निक्षालन के पूर्व किसी सुधार (जैसे जिप्सम या पाइराइट्स) का प्रयोग करना अति आवश्यक होता है। संयुक्त राज्य लवणीय प्रयोगशाला में किये गये अपने अध्ययनों से बोअर एवं फारमैन (1957) इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि जड़ों के आस-पास उपस्थित लवणों में से आधे लवणों को जड़ों से 30 सेमी. तक दूर करने के लिये लगभग 15 सेमी जल की आवश्यकता होती है। निक्षालन क्रिया से फसलों के लिये आवश्यक अधिकांश पोषक तत्व जैसे नाइट्रोजन, फास्फोरस एवं मैग्नीज की मृदा में कमी हो जाती है।

जल-निकास : जैसा कि हम जानते हैं मृदा में लवणों की उत्पत्ति में सबसे अधिक योगदान जल-निकास का अवरुद्ध होना है। अत: इन मृदाओं के सुधार एवं प्रबंध में जल निकास पर विशेष ध्यान देना चाहिए।

क्षारीय मृदाओं का सुधार


क्षारीय मृदाओं के सुधार में प्रयुक्त होने वाले रसायनों में मुख्यत: जिप्सम, लौह गंधक (Iron Sulphate), पाइराइट्स, कैल्सियम क्लोराइट (CaCl2), गंधक का अम्ल (H2SO4), गंधक (Sulphur) एवं अल्युमिनियम गंधक प्रमुख है। इसके अतिरिक्त बारीक चूना, पत्थर, चीनी मिलों से प्राप्त चूना आपंक (lime sluge), चूना, गंधक एवं लोहे के कारखानों से प्राप्त स्लैग या अम्ल भी प्रयोग में लाये जा सकते हैं।

1. जिप्सम : जिप्सम घुलनशील कैल्सियम का एक अत्यंत सस्ता स्रोत है। अत: इसका प्रयोग प्राय: सभी मृदाओं के लिये सुगमतापूर्वक किया जा सकता है। जिप्सम का प्रभाव भारी गठन, ऊँचे जल-स्तर तथा अधिक पी एच एवं विनिमेय सोडियम आयन वाली मृदाओं में सबसे अच्छा दिखता है। भारत में जिप्सम का प्रयोग सर्वप्रथम लीथर (भारतीय मृदा विज्ञान के पिता) ने सन 1897 में किया। भुंभला एवं साथियों (1971) के अनुसार औसतन 15-22.5 टन प्रति हेक्टेयर की दर से जिप्सम की प्रयोग, अधिकांश मृदाओं के लिये उत्तम होता है। अगर जिप्सम का प्रयोग 10 सेमी की गहराई पर किया जाय तो इसका प्रभाव अच्छा पड़ता है।

2. पाइराइट्स : निम्न कोटि के पाइराइट्स में लौह 39-40 प्रतिशत एवं गंधक (सल्फर) 43-44 प्रतिशत पाया जाता है। जिसको मृदा में डालने पर ऑक्सीकरन के कारण गंधक एवं लौह गंधक बनाते हैं जो हवा और पानी से क्रिया करके गंधक का अम्ल (सल्फ़्यूरिक अम्ल) बनाते हैं। फिर सल्फ़्यूरिक अम्ल मृदा में उपस्थित कैल्सियम कार्बोनेट से क्रिया कर कैल्सियम सल्फेट बनाता है जो मृत्तिका अधिशोषित सोडियम आयन को हटाने का काम करता है। कैल्सियम सल्फेट से कैल्सियम अलग होकर सोडियम का स्थान ग्रहण कर लेता है तथा विस्थापित सोडियम, सल्फेट के साथ मिलकर सोडियम सल्फेट बनाकर, पानी के साथ निक्षालित हो जाता है। इस प्रकार मृदा का सुधार हो जाता है। प्रो. संत सिंह के देखरेख में वाराणसी जिले के किसानों के खेत में किये गये प्रयोगों ने प्रमाणित कर दिया है कि जिस ऊसर भूमि में पहले बीज अंकुरित तक नहीं होता था वहाँ पाइराइट डालकर अच्छी फसल उगाई गयी। डा. मुंगला एवं डा. एब्राल के 1971-72 में किये गये परीक्षणों से साबित हुआ है कि धान की खेती में पाइराइट्स का प्रयोग करने से 35 प्रतिशत तक फसलोत्पादन में वृद्धि देखी गयी। इन्हीं खेतों में बिना पाइराइट्स के प्रयोग से गेहूँ की फसल में भी 50 प्रतिशत की वृद्धि हुई। पाइराइटस के प्रयोग हेतु मई के अंतिम सप्ताह या जून के प्रथम सप्ताह में (सितंबर के अंत या अक्टूबर के प्रथम सप्ताह में) खेत की एक जुताई करने के बाद उसे समतल करके, मजबूत मेढ़ बना देनी चाहिए। तत्पश्चात, पाइराइट्स को खेत में बराबर बिखेर कर 10 सेमी की गहराई तक मिट्टी में मिला देनी चाहिए और तुरंत 5-7 सेमी पानी भर देनी चाहिए। फिर जुलाई के प्रथम सप्ताह में धान की रोपाई करनी चाहिए। अक्टूबर के अंतिम सप्ताह या उसके बाद से गेहूँ की बुवाई करनी चाहिए।

कार्बनिक सुधारक


लवणों से प्रभावित मृदाओं का सुधार कार्बनिक सुधारकों के प्रयोग से भी किया जाता है। कार्बनिक सुधारकों में मुख्य रूप से हरी खाद, गोबर की खाद, प्रेसमड़ फसलों के अवशिष्ट, धान की भूसी, जलकुम्भी इत्यादि आते हैं। इन कार्बनिक सुधारकों का प्रयोग अकेले अथवा दूसरे कार्बनिक एवं अकार्बनिक सुधारकों के साथ, दोनों रूपों में किया जा सकता है। इन सुधारकों का प्रभाव फसलों की जाति एवं किस्म पर भी निर्भर करती है।

सावधानियाँ


1. ऊसर भूमि का सुधार करने के लिये खेत समतल होना चाहिए।

2. अगर संभव हो तो इनमें अम्लीय उर्वरकों का प्रयोग करना चाहिए।

3. धान की खेती के लिये हमेशा संस्तुत प्रजातियों जैसे- साकेत-4, ऊसर धान-1, सी.एस.आर-10, झोना-349, जया इत्यादि का चुनाव क्षारीय मृदाओं के लिये तथा सरजू-52, आई.आर.-8 और जया का चुनाव लवणीय मृदाओं के लिये करनी चाहिए।

4. धान की नर्सरी ऊसर भूमि में तैयार नहीं करनी चाहिए। नर्सरी हमेशा सामान्य अच्छी भूमि में तैयार करनी चाहिए।

5. पहले साल धान के खेत में कीचड़ नहीं करनी चाहिए अर्थात रोपाई के समय खेत में पानी भर कर देशी हल या कल्टीवेटर से जुताई करके बगैर पाटा लगाये 30 से 35 दिन के पौधों की रोपाई करनी चाहिए।

6. धान की रोपाई 3-4 सेमी की गहराई पर करना चाहिए।

7. चुनी गई प्रजातियों की रोपाई सही समय पर अर्थात ऊसर धान-1, एवं सीएसआर-10, की रोपाई 10 जुलाई, साकेत-4 की रोपाई 30 जुलाई तक अवश्य संपन्न करा लेनी चाहिए।

8. एक स्थान पर धान के 3-4 पौधे लगाना चाहिए। यदि किसी कारणवश किसी स्थान पर पौधे मर गये हो तो वहाँ उसी आयु के पौधों का पुन: रोपण करना चाहिए।

9. ऊसर मृदाओं में नत्रजन का प्रयोग सामान्य मात्रा से 15 से 25 प्रतिशत बढ़ाकर करनी चाहिए तथा पोटाश का प्रयोग रोपाई से पूर्व खेत में करनी चाहिए। इन मृदाओं में सुधार के प्रथम 2 से 3 सालों तक फास्फोरिक उर्वरकों की आवश्यकता नहीं होती परंतु मृदा में इसकी कमी हो तो संतुलित मात्रा में इनका भी प्रयोग करना चाहिए। ऊसर मृदाओं में जिंक की कमी होती है अत: रोपाई के समय 25 किग्रा जिंक सल्फेट प्रति हेक्टर की दर से प्रयोग करनी चाहिए। यदि इसके बाद भी खैरारोग का प्रकोप खेत में दिखायी दे तो 5 किग्रा जिंक सल्फेट तथा 20 किग्रा यूरिया 1000 लीटर पानी में घोल कर 10 से 15 दिनों के अंतराल पर 2 से 3 बार पौधों पर छिड़कना चाहिए।

10. धान में कटाई के तुरंत बाद खेत को रबी फसल के लिये तैयार करना चाहिए।

11. गेहूँ की फसल में सिंचाई की संख्या बढ़ा देनी चाहिए अर्थात हल्की सिंचाई कई बार करनी चाहिए।

12. सुधार की हुई भूमि परती नहीं छोड़नी चाहिए।

13. भूमि को सूखने से बचाना चाहिए।

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