हड़प्पाकालीन सरस्वती भले ही लुप्त हो गई हो, लेकिन उसके प्रति हमारे मन में आज भी कोई कमी नहीं आई है। हमारे मानस में और धार्मिक संस्कारों में वह आज भी जीवित है। आम जन से लेकर पुरातत्ववेत्ताओं की जिज्ञासा का केन्द्र रही सरस्वती के सम्बन्ध में प्रस्तुत है प्रसिद्ध विद्वान और विचारक रामविलास जी का एक शोधपूर्ण लेख
प्राचीन सभ्यताओं का समय निर्धारित करने के लिए विशेषज्ञ प्राचीन ग्रंथों से सहायता लेते हैं और जहाँ सुलभ होती हैं, वहाँ प्राचीन इमारतों या उनके अवशेषों से सहायता लेते हैं। ग्रन्थों का बहुत भरोसा न करके इन इमारतों और उनके अवशेषों का भरोसा करना चाहिए, यह मत प्रसिद्ध पुरातत्वज्ञ एच.डी. साँकलिया ने रामायण पर अपनी पुस्तक में प्रकट किया है। ‘द रामायण इन हिस्टौरिकल पर्सपेक्टिव’ की प्रस्तावना में उन्होंने लिखा है- “स्मारकों और ठिकानों का समय निश्चित करने के लिए अपने प्राचीन साहित्य का उपयोग न करना चाहिए वरन इससे ठीक उल्टा काम करना चाहिए। कारण बहुत स्पष्ट है कि साहित्य का समय निर्धारित करने की अपेक्षा अपने स्मारकों का समय निर्धारित करने की प्रमाण-सामग्री बहुत अच्छी है।” इमारतों आदि के रूप में ये स्मारक मनुष्य के बनाए हुए होंगे। किन्तु ऐसे स्मारक भी हो सकते हैं जो मनुष्य के बनाए हुए न हों, जो प्राकृतिक हों। ऐसा ही एक स्मारक प्राचीन सरस्वती का नदी तल है।
हड़प्पा सभ्यता जब पूरे उभार पर थी, तब यह सरस्वती जल से भरी हुई थी। बाद में पृथ्वी के अन्दर की हलचल से सरस्वती तथा कई और नदियों का जलमार्ग बदल गया और सरस्वती जलहीन हो गई। उन्नीसवीं सदी में ही ओल्ढम नाम के अंग्रेज अफसर ने इसी नदी तल का पता लगाना शुरू किया था। उन्होंने इस किंवदंती का उल्लेख भी किया था कि बीकानेर के आसपास बहुत लोग यह मानते हैं, पहले यहाँ रेगिस्तान नहीं था, वरन हरा-भरा जनपद था। बीसवीं सदी में आॅरेल स्टाइन ने ऋग्वेद का हवाला देते हुए सरस्वती के बारे में कहा था कि कम-से-कम तीन जगह एक नदी मार्ग का उल्लेख है जो वर्तमान सरस्वती और घग्घर के अनुरूप है। भारत के स्वाधीन होने के बाद सन् 1970 में यशपाल, बलदेव सहाय, आर. के. सूद और डी.पी. अग्रवाल इन पुरातत्वज्ञों ने मिलकर सरस्वती के मार्ग का अनुसंधान किया। उन्होंने लेख लिखा- ‘लुप्त सरस्वती की पहचान’। यह लेख पी.सी. लाल और एस.सी. गुप्त द्वारा सम्पादित ‘फ्रंटियर्स आॅफ दि इंडस सिविलाइजेशन-1984’ ग्रंथ में है। लैंड सैट इमेजरी की तकनीक का प्रयोग करते हुए इन पुरातत्वज्ञों ने यह निष्कर्ष निकाला था कि घग्घर अथवा सरस्वती की मुख्य सहायक नदी सतलज थी।
पटियाला के दक्षिण में उसका पाट अचानक चौड़ा हो जाता है। इसका कारण सतलज का उसमें मिल जाना था। उसके बाद की चौड़ाई छह से आठ कि.मी. तक है। उसी ग्रंथ में ही.एन. मिश्र का एक लेख है- “सिन्धु सभ्यता के अभ्युदय और ह्रास का उपकरण- जलवायु, राजस्थान और उसके परे की प्रमाण सामग्री।” इस लेख में ह्वी. एन. मिश्र ने बताया कि हकड़ा अथवा सरस्वती नदी का पाट 3 से 10 कि.मी. तक, कहीं कम तथा कहीं ज्यादा चौड़ा है। ऊपरवाले भाग में वह पूरब से पश्चिम की ओर बहती है, मध्य भाग में दक्षिण-पश्चिम की ओर, और निम्न भाग में दक्षिण की ओर बहती हुई वह कच्छ के रन में पहुँचती है। उत्तरी राजस्थान में बीकानेर के पास सिन्धु सभ्यता का एक ठिकाना कालीबंगा था। एक समय ऐसा आया कि सरस्वती नदी जलविहीन हो गई तथा सब लोग अपनी बस्ती छोड़कर अन्यत्र चले गए। इसके बारे में बी.के. थापड़ ने लिखा है- जिन कारणों से बाध्य होकर लोगों को वह स्थान त्यागना पड़ा, उनमें घग्घर नदी का सूख जाना था और उसके फलस्वरूप जल विभाजक क्षेत्र से अति परे जाने और वनों के उजड़ने से उस क्षेत्र का नंगा-बूचा हो जाना था। उनके मत से 1750 ईसा पूर्व के आस-पास पूर्व दिशा में गंगा नदी और सरस्वती का अपसरण हुआ।
जिस क्षेत्र में हड़प्पा सभ्यता का विकास हुआ, उसी में वैदिक सभ्यता का विकास हुआ। जिन नदियों ने हड़प्पा सभ्यता के क्षेत्र को सींचा था, उन्हीं ने वैदिक सभ्यता के क्षेत्र को भी सींचा था। 1750 ईसा पूर्व से पहले यजुर्वेद रचा गया। उससे पहले ऋग्वेद रचा गया। 1750 ईसा पूर्व हड़प्पा सभ्यता का ह्रास काल है। वैदिक सभ्यता या तो बड़प्पा सभ्यता की समकालीन हो सकती है या उससे पहले ही इसका विकास हो चुका था, ऐसा मानना चाहिए।ऋग्वेद में सरस्वती की पहली विशेषता यह है कि वह सिन्धुभिः पिन्वमाना, सहायक नदियों के मिलने से खूब संवर्धित, जलवाली हो जाती है। (6.52.6), दूसरी विशेषता यह है कि वह अपनी शक्तिशाली तीव्रगामी लहरों से अस्जत् सानुगिरीणां, गिरिश्रृंगों को ऐसे तोड़ देती है जैसे कोई कमल-नाल तोड़ता हो। (6.61.2), ऋग्वेद में सरस्वती अत्यंत शक्तिशाली नदी है। वह विशाल भू-भाग को सींचती है। एक तरफ गंगा है, दूसरी तरफ सिन्धु है। इनके बीच में वह पहाड़ों से निकलकर बहती हुई समुद्र तक जाती है। जिस विशाल भूखण्ड को वह ऋग्वेद में सींचती है वही हड़प्पा सभ्यता का क्षेत्र भी है। सरस्वती यजुर्वेद में जल से भरी हुई है। पंच नद्यः सरस्व्तीमपिंति सस्त्रोतसः, (34.11) ऋग्वेद की रचना 1750 ईसा पूर्व से बहुत पहले हो गई थी, किन्तु 1750 ईसा पूर्व के पहले यजुर्वेद की रचना भी हो गई थी। यजुर्वेद का 40 वाँ अध्याय ईशावास्य उपनिषद् है, ‘ऊँ खं ब्रह्म’ से उसकी समाप्ति होती है। उपनिषदों वाले अर्थ में ब्रह्म का प्रयोग ऋग्वेद में नहीं है। ब्रह्म ही अन्य सभी उपनिषदों का मूल प्रतिपादित विषय है। ईशावास्य उपनिषद् यजुर्वेद का अंग है और यजुर्वेद की रचना 1750 ईसा पूर्व से पहले हुई है। इसलिए यह मानना चाहिए कि कम-से-कम एक उपनिषद् 1750 ईसा पूर्व से पहले रचा गया था और जिस ब्रह्म और आत्मा का प्रतिपादन इस उपनिषद् में हुआ है, उसी ब्रह्म और आत्मा का प्रतिपादन अन्य उपनिषदों में हुआ है। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि दूसरी सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व में उपनिषदों की विचारधारा उत्तर भारत में फैली हुई थी।
जिस क्षेत्र में हड़प्पा सभ्यता का विकास हुआ, उसी में वैदिक सभ्यता का विकास हुआ। जिन नदियों ने हड़प्पा सभ्यता के क्षेत्र को सींचा था, उन्हीं ने वैदिक सभ्यता के क्षेत्र को भी सींचा था। 1750 ईसा पूर्व से पहले यजुर्वेद रचा गया। उससे पहले ऋग्वेद रचा गया। 1750 ईसा पूर्व हड़प्पा सभ्यता का ह्रास काल है। वैदिक सभ्यता या तो बड़प्पा सभ्यता की समकालीन हो सकती है या उससे पहले ही इसका विकास हो चुका था, ऐसा मानना चाहिए। एक ही क्षेत्र में आगे-पीछे विकसित होने वाली दो सभ्यताओं में आपस में सम्पर्क न रहा हो, यह बात असम्भव सी मालूम होती है।
हड़प्पा सभ्यता के नगरों पर ग्रेगरी पोसेल द्वारा सम्पादित एंशेंट सिटीज आॅफ दि इंडस नाम के ग्रंथ की भूमिका में हड़प्पा सभ्यता के ठिकानों का नक्शा दिया हुआ है। उल्लेखनीय है कि इनमें से 20 या इससे अधिक ठिकाने बीकानेर के पास हैं। सतलज, सरस्वती-दृषद्वती की घाटियों में ये ठिकाने बताए गए हैं। इसी तरह 25 या अधिक ठिकाने घग्घर, हकड़ा के सूखे नदी तल के आस पास बताए गए हैं। इस तरह हड़प्पा सभ्यता के 40-50 स्थान उसी क्षेत्र में हैं, जहाँ ऋग्वेद की सभ्यता का विकास हुआ था। सवाल यह है कि हड़प्पा सभ्यता का प्रसार पश्चिमी क्षेत्रों से पूर्व की ओर हुआ अथवा पूर्वी केन्द्रों से पश्चिम की ओर हुआ। भगवान सिंह का मत है कि- “वैदिक सभ्यता का आविर्भाव सारस्वत क्षेत्र में होता है, वहीं यह अपने विकास को प्राप्त करती है और बाद में इसका क्षेत्र-विस्तार होता है और इसी क्रम में वह मुख्यतः पश्चिम की ओर, और कुछ दूर तक पूर्व की ओर, बढ़ती है। (हड़प्पा सभ्यता और वैदिक साहित्य, खण्ड 2, पृष्ट-20-21) हड़प्पा सभ्यता विकसित सभ्यता के रूप में दिखाई देती है। सामाजिक विकास की आदिम मंजिलों से वह समृद्ध सभ्यता की मंजिल तक कैसे पहुँची, इसके चिह्न उसके भीतर कम ही मिलते हैं।
इसलिए यह प्रश्न और भी महत्त्वपूर्ण है कि सभ्यता का प्रसार पूर्व से पश्चिम की ओर हुआ या पश्चिम से पूर्व की ओर। कुछ विद्वानों नें कल्पना की है कि हड़प्पा सभ्यता का निर्माण बाहर से आने वालों ने किया था। इस सम्बन्ध में सुमेर का स्मरण किया गया है। सुमेरी सभ्यता विकसित थी और सुमेरियों ने आकर आपनी विकसित सभ्यता को मानो यहाँ पुनः स्थापित कर दिया। आश्चर्य की बात है कि लोग दूर देश के सम्बन्ध ढूँढ़ते हैं। लेकिन जिस क्षेत्र में एक सभ्यता पहले विकसित हुई हो, उससे हड़प्पा सभ्यता का सम्बन्ध जोड़ने की तरफ ध्यान नहीं देते। ऋग्वेद में सामाजिक विकास की जो मंजिले दिखाई देती हैं, उन्हीं की आगे की मंजिल हड़प्पा सभ्यता के भीतर विद्यमान है। ऋग्वेद में कृषि और कारीगरी का जैसा विकास दिखाई देता है, उससे व्यापार की प्रेरणा मिलना बिल्कुल स्वाभाविक था और व्यापार, यातायात के साधनों का विकास, ऋग्वेद में अनुपस्थित हो, ऐसा नहीं है।
बलूचिस्तान में एक स्थान है मेहरगढ़। अफगानिस्तान में मुंडीगाक तथा अनेक प्राचीन स्थान हैं। भगवान सिंह का कहना है कि उन बस्तियों पर विचार करने से पता चलता है कि उनमें ऐसे लक्षण हैं जिन्हें “हम परिपक्व हड़प्पा सभ्यता में देखते हैं। यदि इन स्थलों पर कुछ गौर किया जाए तो हम पाएँगे कि नागर लक्षणों के प्रसार की दिशा पूर्व से पश्चिम की ओर है, न कि इसके विपरीत।” वह मेहरगढ़ के बारे में उसके उत्खनक जैरिज का मत उद्धृत करते हैं। उनका कहना था कि इस समय हमें जो कुछ मालूम है, उससे यह सोचना कठिन है कि मेहरगढ़ और इससे सम्बन्धित स्थलों के कलाकार पाँचवी सहस्त्राब्दी तथा आरंभिक चौथी सहस्त्राब्दी में अपने समकालीन पश्चिमी एशिया के किसी भी अन्य स्थल के कलाकारों से कम दक्ष थे। फिर दक्षिणी अफगानिस्तान में मुंडीगाक के बारे में कहते हैं- उसके प्रथम आवास के जो सांस्कृतिक निक्षेप पाए गए हैं, वे मेहरगढ़ चरण तृतीय से पूर्ण सादृश्य प्रकट करते हैं। इससे उन्होंने निष्कर्ष निकाला है कि- “मुंडीगाक की स्थापना पूर्व से आने वाले व्यापारियों के अड्डे के रूप में हुई थीं।” और भी, “पूर्व-हड़प्पाकाल से लेकर हड़प्पाकाल तक विभिन्न लक्षणों को पूर्व से पश्चिम की ओर जाते ही देखा जा सकता है और पश्चिम का इसमें क्या योगदान रहा हो सकता है, यह अदृश्य ही रह जाता है।” (उपर्युक्त, पृष्ठ-191)
किसी समय पूर्व से पश्चिम की ओर सांस्कृतिक तत्वों के प्रसार को हिन्दू पुनरूत्थानवाद का चिह्न न माना जाता था। जैसे-जलप्रलय की कथा। सामान्यतः धारणा यह है कि इसका स्रोत सामी क्षेत्र है, किन्तु, मैकडनल ने इसका खण्डन करते हुए पहले शतपथ ब्राह्मण का उल्लेख किया था जहाँ यह कथा कुछ विस्तार से दी हुई है। उसके बाद उन्होंने अथर्ववेद (19,39,8) का उल्लेख किया था।
(पुस्तक भारतीय संस्कृति और हिन्दी-प्रदेश-1, संस्करण - 2012, लेखकः रामविलास शर्मा, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली से)
प्राचीन सभ्यताओं का समय निर्धारित करने के लिए विशेषज्ञ प्राचीन ग्रंथों से सहायता लेते हैं और जहाँ सुलभ होती हैं, वहाँ प्राचीन इमारतों या उनके अवशेषों से सहायता लेते हैं। ग्रन्थों का बहुत भरोसा न करके इन इमारतों और उनके अवशेषों का भरोसा करना चाहिए, यह मत प्रसिद्ध पुरातत्वज्ञ एच.डी. साँकलिया ने रामायण पर अपनी पुस्तक में प्रकट किया है। ‘द रामायण इन हिस्टौरिकल पर्सपेक्टिव’ की प्रस्तावना में उन्होंने लिखा है- “स्मारकों और ठिकानों का समय निश्चित करने के लिए अपने प्राचीन साहित्य का उपयोग न करना चाहिए वरन इससे ठीक उल्टा काम करना चाहिए। कारण बहुत स्पष्ट है कि साहित्य का समय निर्धारित करने की अपेक्षा अपने स्मारकों का समय निर्धारित करने की प्रमाण-सामग्री बहुत अच्छी है।” इमारतों आदि के रूप में ये स्मारक मनुष्य के बनाए हुए होंगे। किन्तु ऐसे स्मारक भी हो सकते हैं जो मनुष्य के बनाए हुए न हों, जो प्राकृतिक हों। ऐसा ही एक स्मारक प्राचीन सरस्वती का नदी तल है।
हड़प्पा सभ्यता जब पूरे उभार पर थी, तब यह सरस्वती जल से भरी हुई थी। बाद में पृथ्वी के अन्दर की हलचल से सरस्वती तथा कई और नदियों का जलमार्ग बदल गया और सरस्वती जलहीन हो गई। उन्नीसवीं सदी में ही ओल्ढम नाम के अंग्रेज अफसर ने इसी नदी तल का पता लगाना शुरू किया था। उन्होंने इस किंवदंती का उल्लेख भी किया था कि बीकानेर के आसपास बहुत लोग यह मानते हैं, पहले यहाँ रेगिस्तान नहीं था, वरन हरा-भरा जनपद था। बीसवीं सदी में आॅरेल स्टाइन ने ऋग्वेद का हवाला देते हुए सरस्वती के बारे में कहा था कि कम-से-कम तीन जगह एक नदी मार्ग का उल्लेख है जो वर्तमान सरस्वती और घग्घर के अनुरूप है। भारत के स्वाधीन होने के बाद सन् 1970 में यशपाल, बलदेव सहाय, आर. के. सूद और डी.पी. अग्रवाल इन पुरातत्वज्ञों ने मिलकर सरस्वती के मार्ग का अनुसंधान किया। उन्होंने लेख लिखा- ‘लुप्त सरस्वती की पहचान’। यह लेख पी.सी. लाल और एस.सी. गुप्त द्वारा सम्पादित ‘फ्रंटियर्स आॅफ दि इंडस सिविलाइजेशन-1984’ ग्रंथ में है। लैंड सैट इमेजरी की तकनीक का प्रयोग करते हुए इन पुरातत्वज्ञों ने यह निष्कर्ष निकाला था कि घग्घर अथवा सरस्वती की मुख्य सहायक नदी सतलज थी।
पटियाला के दक्षिण में उसका पाट अचानक चौड़ा हो जाता है। इसका कारण सतलज का उसमें मिल जाना था। उसके बाद की चौड़ाई छह से आठ कि.मी. तक है। उसी ग्रंथ में ही.एन. मिश्र का एक लेख है- “सिन्धु सभ्यता के अभ्युदय और ह्रास का उपकरण- जलवायु, राजस्थान और उसके परे की प्रमाण सामग्री।” इस लेख में ह्वी. एन. मिश्र ने बताया कि हकड़ा अथवा सरस्वती नदी का पाट 3 से 10 कि.मी. तक, कहीं कम तथा कहीं ज्यादा चौड़ा है। ऊपरवाले भाग में वह पूरब से पश्चिम की ओर बहती है, मध्य भाग में दक्षिण-पश्चिम की ओर, और निम्न भाग में दक्षिण की ओर बहती हुई वह कच्छ के रन में पहुँचती है। उत्तरी राजस्थान में बीकानेर के पास सिन्धु सभ्यता का एक ठिकाना कालीबंगा था। एक समय ऐसा आया कि सरस्वती नदी जलविहीन हो गई तथा सब लोग अपनी बस्ती छोड़कर अन्यत्र चले गए। इसके बारे में बी.के. थापड़ ने लिखा है- जिन कारणों से बाध्य होकर लोगों को वह स्थान त्यागना पड़ा, उनमें घग्घर नदी का सूख जाना था और उसके फलस्वरूप जल विभाजक क्षेत्र से अति परे जाने और वनों के उजड़ने से उस क्षेत्र का नंगा-बूचा हो जाना था। उनके मत से 1750 ईसा पूर्व के आस-पास पूर्व दिशा में गंगा नदी और सरस्वती का अपसरण हुआ।
जिस क्षेत्र में हड़प्पा सभ्यता का विकास हुआ, उसी में वैदिक सभ्यता का विकास हुआ। जिन नदियों ने हड़प्पा सभ्यता के क्षेत्र को सींचा था, उन्हीं ने वैदिक सभ्यता के क्षेत्र को भी सींचा था। 1750 ईसा पूर्व से पहले यजुर्वेद रचा गया। उससे पहले ऋग्वेद रचा गया। 1750 ईसा पूर्व हड़प्पा सभ्यता का ह्रास काल है। वैदिक सभ्यता या तो बड़प्पा सभ्यता की समकालीन हो सकती है या उससे पहले ही इसका विकास हो चुका था, ऐसा मानना चाहिए।ऋग्वेद में सरस्वती की पहली विशेषता यह है कि वह सिन्धुभिः पिन्वमाना, सहायक नदियों के मिलने से खूब संवर्धित, जलवाली हो जाती है। (6.52.6), दूसरी विशेषता यह है कि वह अपनी शक्तिशाली तीव्रगामी लहरों से अस्जत् सानुगिरीणां, गिरिश्रृंगों को ऐसे तोड़ देती है जैसे कोई कमल-नाल तोड़ता हो। (6.61.2), ऋग्वेद में सरस्वती अत्यंत शक्तिशाली नदी है। वह विशाल भू-भाग को सींचती है। एक तरफ गंगा है, दूसरी तरफ सिन्धु है। इनके बीच में वह पहाड़ों से निकलकर बहती हुई समुद्र तक जाती है। जिस विशाल भूखण्ड को वह ऋग्वेद में सींचती है वही हड़प्पा सभ्यता का क्षेत्र भी है। सरस्वती यजुर्वेद में जल से भरी हुई है। पंच नद्यः सरस्व्तीमपिंति सस्त्रोतसः, (34.11) ऋग्वेद की रचना 1750 ईसा पूर्व से बहुत पहले हो गई थी, किन्तु 1750 ईसा पूर्व के पहले यजुर्वेद की रचना भी हो गई थी। यजुर्वेद का 40 वाँ अध्याय ईशावास्य उपनिषद् है, ‘ऊँ खं ब्रह्म’ से उसकी समाप्ति होती है। उपनिषदों वाले अर्थ में ब्रह्म का प्रयोग ऋग्वेद में नहीं है। ब्रह्म ही अन्य सभी उपनिषदों का मूल प्रतिपादित विषय है। ईशावास्य उपनिषद् यजुर्वेद का अंग है और यजुर्वेद की रचना 1750 ईसा पूर्व से पहले हुई है। इसलिए यह मानना चाहिए कि कम-से-कम एक उपनिषद् 1750 ईसा पूर्व से पहले रचा गया था और जिस ब्रह्म और आत्मा का प्रतिपादन इस उपनिषद् में हुआ है, उसी ब्रह्म और आत्मा का प्रतिपादन अन्य उपनिषदों में हुआ है। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि दूसरी सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व में उपनिषदों की विचारधारा उत्तर भारत में फैली हुई थी।
जिस क्षेत्र में हड़प्पा सभ्यता का विकास हुआ, उसी में वैदिक सभ्यता का विकास हुआ। जिन नदियों ने हड़प्पा सभ्यता के क्षेत्र को सींचा था, उन्हीं ने वैदिक सभ्यता के क्षेत्र को भी सींचा था। 1750 ईसा पूर्व से पहले यजुर्वेद रचा गया। उससे पहले ऋग्वेद रचा गया। 1750 ईसा पूर्व हड़प्पा सभ्यता का ह्रास काल है। वैदिक सभ्यता या तो बड़प्पा सभ्यता की समकालीन हो सकती है या उससे पहले ही इसका विकास हो चुका था, ऐसा मानना चाहिए। एक ही क्षेत्र में आगे-पीछे विकसित होने वाली दो सभ्यताओं में आपस में सम्पर्क न रहा हो, यह बात असम्भव सी मालूम होती है।
हड़प्पा सभ्यता के नगरों पर ग्रेगरी पोसेल द्वारा सम्पादित एंशेंट सिटीज आॅफ दि इंडस नाम के ग्रंथ की भूमिका में हड़प्पा सभ्यता के ठिकानों का नक्शा दिया हुआ है। उल्लेखनीय है कि इनमें से 20 या इससे अधिक ठिकाने बीकानेर के पास हैं। सतलज, सरस्वती-दृषद्वती की घाटियों में ये ठिकाने बताए गए हैं। इसी तरह 25 या अधिक ठिकाने घग्घर, हकड़ा के सूखे नदी तल के आस पास बताए गए हैं। इस तरह हड़प्पा सभ्यता के 40-50 स्थान उसी क्षेत्र में हैं, जहाँ ऋग्वेद की सभ्यता का विकास हुआ था। सवाल यह है कि हड़प्पा सभ्यता का प्रसार पश्चिमी क्षेत्रों से पूर्व की ओर हुआ अथवा पूर्वी केन्द्रों से पश्चिम की ओर हुआ। भगवान सिंह का मत है कि- “वैदिक सभ्यता का आविर्भाव सारस्वत क्षेत्र में होता है, वहीं यह अपने विकास को प्राप्त करती है और बाद में इसका क्षेत्र-विस्तार होता है और इसी क्रम में वह मुख्यतः पश्चिम की ओर, और कुछ दूर तक पूर्व की ओर, बढ़ती है। (हड़प्पा सभ्यता और वैदिक साहित्य, खण्ड 2, पृष्ट-20-21) हड़प्पा सभ्यता विकसित सभ्यता के रूप में दिखाई देती है। सामाजिक विकास की आदिम मंजिलों से वह समृद्ध सभ्यता की मंजिल तक कैसे पहुँची, इसके चिह्न उसके भीतर कम ही मिलते हैं।
इसलिए यह प्रश्न और भी महत्त्वपूर्ण है कि सभ्यता का प्रसार पूर्व से पश्चिम की ओर हुआ या पश्चिम से पूर्व की ओर। कुछ विद्वानों नें कल्पना की है कि हड़प्पा सभ्यता का निर्माण बाहर से आने वालों ने किया था। इस सम्बन्ध में सुमेर का स्मरण किया गया है। सुमेरी सभ्यता विकसित थी और सुमेरियों ने आकर आपनी विकसित सभ्यता को मानो यहाँ पुनः स्थापित कर दिया। आश्चर्य की बात है कि लोग दूर देश के सम्बन्ध ढूँढ़ते हैं। लेकिन जिस क्षेत्र में एक सभ्यता पहले विकसित हुई हो, उससे हड़प्पा सभ्यता का सम्बन्ध जोड़ने की तरफ ध्यान नहीं देते। ऋग्वेद में सामाजिक विकास की जो मंजिले दिखाई देती हैं, उन्हीं की आगे की मंजिल हड़प्पा सभ्यता के भीतर विद्यमान है। ऋग्वेद में कृषि और कारीगरी का जैसा विकास दिखाई देता है, उससे व्यापार की प्रेरणा मिलना बिल्कुल स्वाभाविक था और व्यापार, यातायात के साधनों का विकास, ऋग्वेद में अनुपस्थित हो, ऐसा नहीं है।
बलूचिस्तान में एक स्थान है मेहरगढ़। अफगानिस्तान में मुंडीगाक तथा अनेक प्राचीन स्थान हैं। भगवान सिंह का कहना है कि उन बस्तियों पर विचार करने से पता चलता है कि उनमें ऐसे लक्षण हैं जिन्हें “हम परिपक्व हड़प्पा सभ्यता में देखते हैं। यदि इन स्थलों पर कुछ गौर किया जाए तो हम पाएँगे कि नागर लक्षणों के प्रसार की दिशा पूर्व से पश्चिम की ओर है, न कि इसके विपरीत।” वह मेहरगढ़ के बारे में उसके उत्खनक जैरिज का मत उद्धृत करते हैं। उनका कहना था कि इस समय हमें जो कुछ मालूम है, उससे यह सोचना कठिन है कि मेहरगढ़ और इससे सम्बन्धित स्थलों के कलाकार पाँचवी सहस्त्राब्दी तथा आरंभिक चौथी सहस्त्राब्दी में अपने समकालीन पश्चिमी एशिया के किसी भी अन्य स्थल के कलाकारों से कम दक्ष थे। फिर दक्षिणी अफगानिस्तान में मुंडीगाक के बारे में कहते हैं- उसके प्रथम आवास के जो सांस्कृतिक निक्षेप पाए गए हैं, वे मेहरगढ़ चरण तृतीय से पूर्ण सादृश्य प्रकट करते हैं। इससे उन्होंने निष्कर्ष निकाला है कि- “मुंडीगाक की स्थापना पूर्व से आने वाले व्यापारियों के अड्डे के रूप में हुई थीं।” और भी, “पूर्व-हड़प्पाकाल से लेकर हड़प्पाकाल तक विभिन्न लक्षणों को पूर्व से पश्चिम की ओर जाते ही देखा जा सकता है और पश्चिम का इसमें क्या योगदान रहा हो सकता है, यह अदृश्य ही रह जाता है।” (उपर्युक्त, पृष्ठ-191)
किसी समय पूर्व से पश्चिम की ओर सांस्कृतिक तत्वों के प्रसार को हिन्दू पुनरूत्थानवाद का चिह्न न माना जाता था। जैसे-जलप्रलय की कथा। सामान्यतः धारणा यह है कि इसका स्रोत सामी क्षेत्र है, किन्तु, मैकडनल ने इसका खण्डन करते हुए पहले शतपथ ब्राह्मण का उल्लेख किया था जहाँ यह कथा कुछ विस्तार से दी हुई है। उसके बाद उन्होंने अथर्ववेद (19,39,8) का उल्लेख किया था।
(पुस्तक भारतीय संस्कृति और हिन्दी-प्रदेश-1, संस्करण - 2012, लेखकः रामविलास शर्मा, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली से)
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