उर्वर प्रदेश में जलकुंभियां


कई बार हम अपने प्रतीकों को चुनते हुए इस बात से बेखबर होते हैं कि हमारे अभिप्राय से अलग उनके सर्वथा भिन्न अर्थ और पृथक व्यंजनाएं भी हो सकती हैं। कवि को यह छूट नहीं दी जाती कि उसके लिखे को उसी अर्थ और प्रसंग के साथ पढ़ा जाए, जिसे वह स्थापित करना चाहता है।

कविता में हम कैसे प्रतीक चुनते हैं, यह कई बार हमारा पक्ष भी तय करता हुआ दिखता है। कई बार हम अपने प्रतीकों को चुनते हुए इस बात से बेखबर होते हैं कि हमारे अभिप्राय से अलग उनके सर्वथा भिन्न अर्थ और पृथक व्यंजनाएं भी हो सकती हैं। कवि को यह छूट नहीं दी जाती कि उसके लिखे को उसी अर्थ और प्रसंग के साथ पढ़ा जाए, जिसे वह स्थापित करना चाहता है। लिखे जाने और प्रकाशित होने के बाद कविता स्वतंत्र व्याख्या के लिये खुली होती है। कवि वहाँ अपने बचाव में निहत्था हो जाया करता है। अरुण कमल की कविता उर्वर प्रदेश में आखिरी कुछ पंक्तियाँ इस तरह आती हैं-

फैला है सामने निर्जन प्रांत का उर्वर प्रदेश
सामने है पोखर अपनी छाती पर
जलकुंभियों का घना संसार भरे...।


उर्वर भूमि का इस बात से कोई लेना-देना नहीं होता कि उसमें क्या बोया जाएगा और कितना फलेगा। यह किसान के विवेक पर निर्भर करता है कि उर्वर भूमि में वह क्या बोएगा। यह उसकी समग्र जीवन स्थितियों से भी काफी हद तक निर्देशित होता है कि उसे कौन-सी फसल चाहिए। दृश्य में दो चीजें हैं- पोखर और जलकुंभियां। पोखर की अपनी एक पारिस्थितिकी है। आप इसे इको सिस्टम भी कह सकते हैं। पोखर का जैविक संसार उसके जल में होता है। उसमें मछलियाँ होती हैं। उसमें शैवाल भी होते हैं। विज्ञान का छात्र इन जैविक उपादानों को फाइटोप्लैंकटन और जूप्लैंकटन के नाम से जानते हैं।

ये बड़ी संख्या में पोखर में पाए जाते हैं और अपने जीवन व्यवहार द्वारा पोखर की जैविकी को संतुलित रखते हैं। आप यह जानकर हैरान हो सकते हैं कि पृथ्वी के सतह पर जितनी जैव विविधता देखते हैं, उससे कई गुना अधिक वह जल में पाई जाती है। समुद्र, नदियाँ, झील, सरोवर आदि इसके अलग-अलग संस्करण हैं। पोखर एक बहुत ही छोटा संसार है जल की पारिस्थितिकी का। निश्चित रूप से जहाँ जीवन है वहाँ उर्वरता का होना स्वाभाविक है। पोखर की छाती पर जलकुंभियों का घना संसार देखते हुए कवि अरुण कमल जिस तथ्य को रेखांकित करते हैं, वह है पोखर की उर्वरा शक्ति। जल की सतह पर घनी हरियाली से कवि को जीवन के होने का आभास मिलता है।

कविता दृश्य के स्तर पर आकर्षक, किन्तु दृष्टि के स्तर पर खतरनाक हो उठती है इन अंतिम पंक्तियों में। एक जलकुंभी का पनपना पोखर के भीतर स्वाभाविक जीवन जीने वाले सैकड़ों जीवों के लिये मौत का फरमान है। कवि इस खतरे को नहीं भाँप रहा है। वह सतह की दृश्य उर्वरता पर मुग्ध होता है। पोखर और जलकुंभी के द्वंद्वपूर्ण रिश्ते को समझने से पहले आइए वह कविता देखें जिसका नाम है उर्वर प्रदेश। कविता आकार में छोटी ही है और कुछ इस तरह है-

मैं जब लौटा तो देखा
पोटली में बंधे हुए बूंटों ने
फेंके हैं अंकुर
दो दिनों के बाद आज लौटा हूँ वापस
अजीब गंध है घर में
किताबें कपड़ों और निर्जन हवा की फेंटी हुई गंध
पड़ी है चारों ओर धूल की एक परत
और जकड़ा है जल में बासी जल
जीवन की कितनी यात्राएँ करता रहा यह निर्जन मकान
मेरे साथ
तट की तरह स्थिर पर गतियों से भरा
सहता जल का समस्त कोलाहल
सूख गए हैं नीम के दातौन
और पोटली में बंधे हुए बूंटों ने फेंके हैं अंकुर
निर्जन घर में जीवन की जड़ों को पोसते रहे हैं ये अंकुर
खोलता हूँ खिड़की और चारों ओर से दौड़ती है हवा
मानो इसी इंतजार में खड़ी थी पल्लों से सट के
पूरे घर को जल भरी तसल्ली सा सहलाती
मुझसे बाहर मुझसे अनजान
जारी है अनवरत जीवन की यात्रा
बदल रहा है संसार
आज मैं लौटा हूँ अपने घर
दो दिनों के बाद आज घूमती पृथ्वी के अक्ष पर
फैला है सामने निर्जन प्रांत का उर्वर प्रदेश
सामने है पोखर अपनी छाती पर
जलकुंभियों का घना संसार भरे।


जीवन की यात्रा को कवि घर के भीतर और बाहर चिन्हित करते हुए एक तरफ पोटली में बंधे चनों के अंकुरित होने का दृश्य लेकर आता है तो दूसरी ओर पोखर की छाती पर फैली जलकुंभियों को अपने पाठक के सामने रखता है। जीवन निश्चित रूप से दोनों ओर है। किन्तु दोनों ओर का जीवन एक जैसा नहीं है। बीज के अंकुरण में जीवन की सम्भावना है। जलकुंभियों के विस्तार में जीवन के लिये गम्भीर खतरे हैं। पोखर के भीतर के समाज के लिये सतह की जलकुंभियां साम्राज्यवादी आग्रासन की तरह हैं, जैसे जमीन पर हरी दिखने वाली पर्थेनियम घास। तथ्य है कि जलकुंभियों का पोखर की छाती पर पनपता घना संसार पानी में सीधे तौर पर बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड को प्रभावित करता है।

पानी के भीतर रहने वाले विविध जीव प्राणवायु ऑक्सीजन के अभाव में मरने लगते हैं, जो अन्यथा पर्याप्त मात्रा में पोखर के जल में स्वाभाविक रूप से घुला होता है। इन जलीय प्राणियों के ऑक्सीजन के अभाव में मरने का प्रत्यक्ष और गम्भीर परिणाम यह होता है कि इस छोटे से पारिस्थितिकी में ऑर्गेनिक मैटर या जैव पदार्थ प्रचुर मात्रा में बढ़ जाते हैं। इसका एक अर्थ यह भी है कि अब पोखर का पानी सड़ने लगता है। इसे विज्ञान की शब्दावली में यूट्रोफिकेशन कहते हैं। धीरे-धीरे तालाब की मौत हो जाती है। इसलिए कवि के लिये दृश्य से अधिक महत्त्व दृष्टि का होता है। उर्वर प्रदेश अन्यथा जीवन की सहज उपस्थिति की एक कविता होते-होते रह जाती है। अपने उठान पर यह कविता पूरी तरह लड़खड़ा जाती है। हालाँकि इसे अरुण कमल की कुछ चर्चित कविताओं में शुमार किया जाता है। दूब और बेहया जैसी दूसरी सदाबहार वनस्पतियों से जलकुंभियां इस मामले में भिन्न हैं और ये महज जिजीविषा के लिये नहीं जानी जातीं।

ईमेल - neel.kamal1710@gmail.com

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