उपसंहार


राजस्थान में जल की भीषण स्थिति को देखते हुए भविष्य में जल विरासत को सहेज कर रखना अति आवश्यक है। जल संरक्षण की परम्परा के ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को हाड़ौती के संदर्भ में देखने पर ज्ञात होता है कि मालवा के पठार की उपत्यका से बहकर आने वाली जल राशि एवं वर्षाजल को संरक्षित करने की दिशा में रियासत के समय से ही वहाँ के शासकों ने कदम उठाये हैं।

जल सृष्टि का स्रोत है, जल प्रकृति की अलभ्य, अनुपम और एक ऐसी संजीवनी सम्पदा है जिसके हर कण में प्राणदायिनी शक्ति है। जहाँ जल है वहाँ जीवन है, प्राण है, स्पन्दन है, गति है, सृष्टि है और जल जीवन का मूलाधार है। जहाँ जल नहीं है वहाँ जीवन भी नहीं है, सब निष्प्राण और निश्चेष्ट है। जल प्रकृति का अलौकिक वरदान स्वरूप मानव, प्राणी तथा वनस्पति सभी के लिये अनिवार्य होने के साथ-साथ अपरिहार्य है। आधुनिक विज्ञान भी यह मानता है कि मानव शरीर में सर्वाधिक मात्रा यदि किसी तत्व की है तो वह जल है। आयुर्वेद के अनुसार भी हमारे शरीर में रस रक्त मांस, भेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र ये सात धातुएँ है जो शरीर को धारण करती हैं। इनमें जल का अंश कुल मिलाकर 70 प्रतिशत है। पाँच तत्वों पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश में ही प्राण और आत्मा सुरक्षित है। प्राण निकलते ही वे विघटित होने लगते हैं और शरीर के पाँचों तत्व पंचतन्त्र में मिल जाते हैं। इसी को पंचतत्व को प्राप्त होना कहते हैं इसलिये शरीर के लिये सबसे महत्त्वपूर्ण तत्व जल है।

मानव ने अपने जीवन के प्रादुर्भाव के साथ ही जल का महत्व और उसकी आवश्यकता को समझ लिया था। यही कारण रहा कि उसने अपने रहने का ठिकाना वहीं बनाया, जहाँ जल उपलब्ध हुआ। विश्व की सभी प्राचीन सभ्यताएँ नदियों अथवा इनकी घाटियों में बसी हुई थीं। जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ बस्तियों के नदी किनारों से दूर बसने के साथ ही मानव ने जल प्राप्ति के अन्य तरीके भी खोजना शुरू कर दिया, साथ ही जल के संचयन संरक्षण एवं संग्रहण की विधियाँ भी विकसित की जाने लगी। सभ्य जीवन में जब मानव प्राकृतिक रूप से बने जलाशय से दूर गाँव कस्बे व नगर बसाकर समूह में रहने लगा तब उसने जल की उपलब्धता भी सुनिश्चित की और उसी के अनुरूप मानव जन्य जलाशयों का निर्माण कर, जल प्रबन्धन के बेहतर तरीके अपनाकर जलाशयों से खेतों की सिंचाई, पीने का पानी और जीवन की अन्य आवश्यकताओं को पूरा किया।

आज विश्व में पर्यावरण असंतुलन के कारण जलवायु और जल दोनों की समस्याएँ अत्यंत गम्भीर रूप धारण करने लगी हैं। सम्पूर्ण विश्व में पीने योग्य जल को लेकर चिन्ताएँ बढ़ती चली जा रही हैं। आज आधा विश्व जिसमें भारत भी शामिल है जल की मांग बढ़ने और जल भण्डार कम हो जाने के फलस्वरूप भावी जल संकट की विभीषिका से जूझ रहा है। कुछ वर्षों बाद जलाभाव की भीषण स्थिति आने वाली है। जब तक जल मानव मात्र को सुलभ है हम उसके महत्त्व, उसकी अपूर्व देन से अनजान रहते हैं। जब वे दुलर्भ होने लगती हैं तो उनकी महत्ता समझ में आती है। हमारे जीवन में जल और वायु जैसे पदार्थ हमें प्रकृति ने मुक्त हस्त दे रखे हैं। अतः हम इनकी अमूल्यता से अपरिचित हैं। किन्तु कल्पना करें कि ये थोड़े समय के लिये भी दुर्लभ हो जाये तो मानव व प्राणी जीवन की इस धरती पर क्या स्थिति होगी ! आज सारा देश जल की दुर्लभता की भावी स्थितियों के परिप्रेक्ष्य में जिस चिन्तन में लगा है, जिसे लेकर बड़े स्तर पर अनुसंधान कार्य किया जा रहा है। उससे जल की महिमा हमारे मानस पटल पर छाने लगी है।

मनुष्य के जीवन में जल का महत्त्व जीवन दान तक ही नहीं है अपितु इतिहास संस्कृति यहाँ तक की जन जीवन के सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक एवं राजनैतिक पक्ष भी जल से प्रभावित रहे हैं। देवताओं के हम जिन षोडस उपचारों की पूजा करते हैं उनमें से अधिकांश जल से ही सम्पन्न होने हैं। मानव के व्यैक्तिक एवं सामाजिक कार्याें में जल अनिवार्य है। जल से भरे कुम्भ का दान, प्याऊ लगवाकर प्यासे को जल पिलवाना, कुएँ बावड़ी खुदवाना, पशुओं के लिये खेली बनवाना एवं पक्षियों के लिये पेड़ों पर परिण्डे बँधवाना सदियों से पुण्य कार्य माने जाते रहे हैं। हमारे जीवन के सोलह संस्कारों में जन्म से मरण तक जल ही इन्हें आकार देता है। हमारे महत्त्वपूर्ण चारों धाम व तीर्थ नदी किनारे ही प्रतिष्ठित हैं। आज तक के इतिहास को देखने से मालूम होता है कि इस पानी के लिये समय-समय पर विकट युद्ध हुए हैं। जहाँ विजयी देश ने पानी का भरपूर उपयोग कर अपने आप को शक्तिमान बनाया वहीं पानी के अभाव में जलद्रोह आदि विपत्तियों का सामना करते हुए कई देश सत्ता से वंचित हुए हैं। इसी पानी के कारण कई बंजर भूमियाँ हरी-भरी हो गईं और पानी के अभाव में हरे-भरे प्रदेश शुष्क मरुस्थल में बदल गये।

देश में जल संरक्षण व संग्रहण की स्थिति चिन्तनीय है। विगत दशकों में गाँवों, कस्बों व शहरों में स्थित जलस्रोतों बावड़ियों, कुण्डों व ताल तालाबों को बेरहमी से कचरे व मिट्टी से भरा गया है। देश के बहुत कम इलाके हैं जहाँ जल संसाधनों की यथोचित देख-रेख होती हो। अब हमें पारम्परिक जल स्रोतों पर गम्भीरता से ध्यान देने की आवश्यकता है ताकि बारिश के पानी का संचय किया जा सके।

राजस्थान में जल प्रबन्धन की परम्परा अति प्राचीन काल से प्रचलित रही है। यहाँ कूप सरोवर व वापी निर्माण के कार्य को शासकों का सामाजिक एवं धार्मिक दायित्व माना जाता था। विभिन्न स्थानोंं पर वर्षा के जल का संग्रहण वहाँ की भौगोलिक स्थिति, जलवायु, वार्षिक औसत वर्षा, भूजल की गहराई के आधार पर अलग-अलग पारम्परिक तरीकों से जल संचरण संरचनाओं में किया जाता था। वर्षा से सीधे मिलने वाले पालर का पानी जो सीधे धरातल पर बहता है नदी व तालाब में संचित किया जाता था। दूर पाताल के पानी को कुएँ बनाकर निकाला जाता था। इसके अलावा वर्षा की बूँदों का संग्रह करने के लिये गाँव व घरों में कुण्डी, टांका, नाड़ी, जोहड़ या टोबा, खड़ीन झालरा बावड़ी आदि बनाकर उसका वर्ष भर के लिये उपयोग में लिया जाता था। इन परम्परागत जलस्रोतों के निर्माण के पीछे पुण्यार्थ एवं कुल शौर्य प्रर्दशन की भावना का एक बड़ा योगदान था। इस कर्म को चिरस्थायी रखने की प्रबल इच्छा के कारण बावड़ियों पर लेख उत्कीर्ण कराने की परम्परा प्रारम्भ हुई। इनमें अंकित प्रशस्तियों में तिथि माह, सम्वत या अन्य जानकारियाँ उपलब्ध हैं, जिनके अध्ययन से काल निर्धारण के साथ-साथ तात्कालिक समय की राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, ऐतिहासिक, कलात्मक व साहित्यिक स्थिति की अनुपम सामग्री प्राप्त होती है।

आज राजस्थान देश का सर्वाधिक सूखा प्रांत होने के साथ-साथ क्षेत्रफल की दृष्टि से सबसे बड़ा राज्य है जिसका क्षेत्रफल देश के क्षेत्रफल का 10.4 प्रतिशत है परन्तु सतही जल की उपलब्ध मात्रा 1.16 प्रतिशत है एवं भूजल उपलब्धता भी 1.7 प्रतिशत है। वर्षा का राष्ट्रीय औसत मात्र 531 मिलीमीटर है। वर्षा अनिश्चित, असमान व अल्प है। पिछले 50 वर्षाें में 43 बार राज्य में कहीं-न-कहीं अकाल पड़ा है। राजस्थान मरुस्थलीय प्रदेश होने के कारण सदा से ही पानी की कमी से जूझता रहा है। भीषण गर्मी, बदलती जीवनशैली, सतही जल की कमी, औद्योगिक विकास व शहरीकरण, मानसून के दौरान कम वर्षा होने के कारण माँग और आपूर्ति में बहुत बड़ा अंतर आ गया है। यह अंतर निरंतर बढ़ता जा रहा है और गम्भीर जल संकट के रूप में आज हमारे सामने आ खड़ा हुआ है। ऐसी स्थिति में जल की दृष्टि से राजस्थान की कुण्डली मांगलिक ही रही है।

राजस्थान में जल की भीषण स्थिति को देखते हुए भविष्य में जल विरासत को सहेज कर रखना अति आवश्यक है। जल संरक्षण की परम्परा के ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को हाड़ौती के संदर्भ में देखने पर ज्ञात होता है कि मालवा के पठार की उपत्यका से बहकर आने वाली जल राशि एवं वर्षाजल को संरक्षित करने की दिशा में रियासत के समय से ही वहाँ के शासकों ने कदम उठाये हैं। पानी के बहाव को नियंत्रित कर उसका संरक्षण हो एवं राज्य की जनता को सदियों तक पानी उपलब्ध रहे, इसके लिये समय-समय पर तालाबों, बावड़ियों, कुण्डों का निर्माण कराकर वर्षों पूर्व उस समय में जल संरक्षण का संदेश दिया जो वर्तमान समय की महती आवश्यकता है। ये पारम्परिक जलस्रोत वर्षा की अनिश्चितता एवं अनावृष्टि की स्थिति में संरक्षण प्रदान करते हैं और जिन वर्षों में भरपूर पानी बरसता है उस समय ये स्रोत भरकर बाढ़ की संभावनाओं को कम करते हैं और आमजन को जल उपलब्ध कराते हैं। हाड़ौती के बून्दी, कोटा, झालावाड़, बारा जिलों में ऐसे स्रोत बहुतायत में हैं।

हाड़ौती क्षेत्र नदियों की दृष्टि से बहुत भाग्यशाली रहा है यहाँ पर वर्षपर्यन्त बहने वाली चम्बल नदी है। जिस पर सिंचाई एवं विद्युत परियोजना हेतु बाँधों का निर्माण किया गया है एवं अन्य तकली व बालापुरा जैसी छोटी योजनाएँ सिंचाई हेतु निर्माणाधीन हैं। परन्तु वहाँ अब भी नदियों का जल आँख मिचौली खेल रहा है इसलिये हाड़ौती की नदियों को सदानीरा बनाने का प्रयास भी सरकार द्वारा किया जा रहा है। नदियों को पुनर्जीवित करने की राज्य सरकार की योजनाओं ने कालिसिन्ध, अरू, उजाड, परवन, अमझार, पार्वती एवं आहू नदी को सरसब्ज किया है। इन सूखी नदियों पर एनीकट बनाए गये हैं एवं एनीकटों की ऊँचाई बढ़ाकर उनकी भराव क्षमता में वृद्धि की गयी है। इन भागीरथ प्रयासों के माध्यम से डार्क जोन में आ चुकी पंचायतों को जहाँ एक ओर खतरे से बाहर निकाला जा रहा है वहीं लुप्त हो रही नदियों को सदानीरा बनाकर भूजल स्तर को ऊँचा लाने एवं वर्षा जल के पुनर्भरण और संरक्षण का प्रयास भी किया जा रहा है। इन नदियों पर एनीकटों के निर्माण से खेती और पीने के लिये जल उपलब्ध कराने की कोशिश की जा रही है। इन एनीकटों के आस-पास की भूमि में पानी के रिसाव वाले स्थानों पर कुएँ खोदकर इनको सिंचाई का माध्यम बनाया जा सकता है। इन जल संरक्षण कार्यों में जन भागीदारी एवं निजी संस्थाओं का सहयोग भी भरपूर मिला है जो भविष्य के लिये शुभ संकेत है।

राजस्थान का हाड़ौती प्रदेश प्रारम्भ से ही जल विरासत का क्षेत्र रहा है। हाड़ौती के कर्मठ शासकों व लोगों ने कभी प्रकृति के इस अभिशाप और भाग्य को नहीं कोसा अपितु इस अभिशाप को एक वरदान मानकर इस चुनौती का सामना किया और वर्षा के इन अमृत कणों को सहेजकर रखने की भव्य परम्परा विकसित की। छोटी काशी के नाम से प्राचीन काल से ही विख्यात रहा बून्दी शहर अपनी कलात्मक बावड़ियों, कुण्डों तालाबों की वजह से बावड़ियों का नगर कहा जाता है। भौगोलिक कारकों जैसे अनियमित व कम वर्षा, नदियों में अपर्याप्त पानी व वर्षभर बहने वाली नदियों का अभाव भी इनके निर्माण का एक प्रमुख कारण है।

हाड़ौती के लोगों ने ‘‘जलस्थ जीवनम’’ के सिद्धान्त को चरितार्थ करते हुये जल की उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए जल संचय अथवा जल संग्रहण के ऐसे अनेक स्रोतों का निर्माण किया है। जिनमें जलापूर्ति की समस्याओं को निराकरण किया जा सके। यहाँ वहाँ की बून्दों का संग्रह करने के लिये कुण्ड, टांका व बावड़ी आदि बनाकर उस जल का उपयोग बड़े जतन के साथ वर्ष भर और उससे भी अधिक समय के लिये किया जाता है। तालाबों का निर्माण पानी के प्राकृतिक प्रवाह तथा जलसंग्रहण स्रोतों को ध्यान में रखकर पूर्व वैज्ञानिक दृष्टि से इस प्रकार कराया गया है कि पठार से बहकर आने वाला पानी इन तालाबों में संरक्षित होता रहे और धीरे-धीरे उसका वेग कम होता रहे। पठार से आने वाले पानी के तेज बहाव से कोटा की रक्षा कवच बने ये तालाब उस समय की लोक व सांस्कृतिक चेतना के स्थल भी हैं। नगर निर्माण की प्राथमिक आवश्यकता जल पर दृष्टि डालने पर हम पाते हैं कि नगरों का निर्माण नदियों के समीप किये जाने को पर्याप्त महत्त्व दिया गया था। हाड़ौती के बहुत से नगरों का निर्माण नदियों के किनारे पर किया गया है। झालरापाटन की पौराणिक नगरी चन्द्रावती का निर्माण राजा दुर्गगण द्वारा चन्द्रभागा नदी के किनारे करवाया गया था। हाड़ौती के अन्य नगर कृष्णाविलास (विलासी नदी), मनोहर थाना, भीमगढ़, शेरगढ़ (परवन नदी), अटरू, (पार्वती नदी), आसलपुर (वर्णी नदी), अकेलगढ़ (चम्बल नदी), गंगधार (कालिसिन्ध नदी) किनारे बसे होना जल के महत्त्व को दर्शाता है।

जल संचयन की परम्परागत उच्च स्तरीय तकनीकों के विकास में हाड़ौती की सांस्कृतिक व धार्मिक मान्यताओं का प्रमुख योगदान है। अधिकतर जलस्रोत मन्दिर या धार्मिक स्थानोंं के पास बने हुए हैं जिनके जल का उपयोग पूजा अर्चना व श्रद्धालुओं के स्नान के लिये किया जाता था। कुछ बावड़ियाँ पुण्यार्थ बनायी गयी हैं जिससे धर्मशाला में रुकने वाले यात्रियों एवं राहगीरों को जल प्राप्त हो सके। किसी व्यक्ति की स्मृति में, विभिन्न अवसरों पर व युद्ध के समय पड़ाव डालने वाले सैनिकों की जलापूर्ति एवं इसके अलावा शिकार हेतु सुरक्षित स्थल शिकारगाह में भी इनका निर्माण करवाया गया है। इसके अलावा राजघरानों की सभी महारानियों को राजमाता का खिताब प्राप्त करने के बाद एक बावड़ी को बनवाने की मान्यता रही है। इन बावड़ियों के निर्माण को दयालुता एवं सामाजिक कल्याण के साथ जोड़कर देखा जाता रहा है। इसलिये ये प्रमाणिक है कि ये जलस्रोत सामाजिक गतिविधियों की महत्त्वपूर्ण कड़ी रहे हैं। हाड़ौती के दुर्ग स्थापत्य में भी जल प्रबन्धन विशेष रूप से देखने योग्य है। दुर्ग में कोई प्राकृतिक जलाशय नहीं होने के कारण वर्षा के पानी को एकत्रित करने के लिये विशाल जल कुण्ड (टांके) बनाये गये हैं जहाँ पर पत्थर के स्लॉट लगाए जाकर पानी को फिल्टर करने की व्यवस्था उन्हें आज की आधुनिक प्रणाली से जोड़ती है एवं निर्माणकर्ताओं की दूरदर्शी सोच को दर्शाती है। इन दुर्गों में बने जलाशय पर्दा प्रथा में रहने वाले रनिवास के लिये मनोरंजन का काम भी करते रहे हैं।

हाड़ौती में जलस्रोतों के निर्माण में राजा महाराजाओं, सेठ साहूकारों तथा समर्थ लोगों का योगदान रहा है एवं इनके द्वारा अपने कर्म को चिरस्थायी रखने की प्रबल इच्छा के कारण जलाशयों पर लेख उत्कीर्ण कराने की परम्परा देखने को मिलती है। इनमें अंकित प्रशस्तियों में तिथि, माह, संवत व अन्य जानकारियाँ उपलब्ध हैं जिनके अध्ययन से काल निर्धारण के साथ-साथ तत्कालीन समय की राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, ऐतिहासिक, कलात्मक व साहित्यिक स्थिति की अनुपम जानकारी प्राप्त होती है। इस सामग्री के आधार पर हम हमारे गौरवपूर्ण अतीत का स्वभाविक रूप से अनुमान लगा सकते हैं। वस्तुतः यह जल स्रोत ही हैं जो हमारी संस्कृति को वर्तमान में रूपायित कर भावी पीढ़ी में देश प्रेम की उत्कृष्ट भावना पैदा करते हैं। यह चूने, पत्थरों से निर्मित भौतिक समृद्धि के प्रतीक ही नहीं हैं अपितु तात्कालीन कलात्मक सौन्दर्य दृष्टि, वैज्ञानिक निर्माण कला एवं मानवीय संवेदनाओं की जीवन्तता को अपने में समाहित किए हुए हैं। परन्तु इनके रख-रखाव के अभाव में अब इनके अक्षर धुंधले पड़ गये हैं। असामाजिक तत्वों द्वारा या तो तोड़ दिये गये हैं या इन पर रंग रोगन कर दिया गया है। जिनके कारण इन पर किसी की नजर नहीं जाती है। जबकि ये हमारे पुरातत्व की अमूल्य निधि हैं।

इन जलाशयों के निर्माण की भी अनूठी तकनीक है यहाँ के जलस्रोत अपने कलात्मक कौशल व सांस्कृतिक वैभव को अपने में समेटे हुए हैं। ये हस्तनिर्मित बावड़ियाँ व कुण्ड स्थापत्य एवं निर्माण के विशिष्ट सौन्दर्य को प्रदर्शित करते हैं। यहाँ की बावड़ियाें व कुण्डों में सीढ़ियों का रेखांकन बहुस्तरीय है, जो कुण्ड के पानी तक पहुँच को सहज बनाता है। इसके अलावा वृहत प्रवेश द्वारों के ऊपर कलात्मक स्तम्भों पर टिकी अलंकरण युक्त छतरियों की शोभा देखते ही बनती है। इन पर बने तोरण, छज्जे, मेहराबों का प्रयोग, सीढ़ियों के छोटे खम्भे, गुम्बद व सजावटी तस्मों में हिन्दू, जैन व मुगल स्थापत्य के दर्शन होते हैं। इन जल स्रोतों को स्वच्छ रखने के लिये इनमें प्रकाश व हवा की व्यवस्था भी की गयी है एवं जलाशय की दिवारों में बने ताकों में विभिन्न मुद्राओं में बनी देवी देवताओं की प्रतिमाएँ कला की दृष्टि से उत्तम है। यहाँ की जनता कि यह अनूठी परम्परा है कि जब भी कोई व्यक्ति इन जलाशयों में पानी लेने जाता है तो विनम्रता से देवताओं के सामने प्रणाम कर बावड़ी में प्रवेश करता है।

किन्तु आज स्थिति यह है कि पवित्र समझे जाने वाले ये जलाशय समय की मार को सहते हुए नष्ट होने के कगार पर हैं। इनका जल स्तर भी दिनों दिन घटता जा रहा है। सदियों से आमजन की प्यास बुझाने वाले ये जल स्रोत जनता की उपेक्षा के कारण कचरे से भरे जाने लगे हैं। इन रियासत कालीन जलाशयों के चारों तरफ लोगों ने अतिक्रमण कर लिया है। नगर सौन्दर्यीकरण योजना के तहत इन कुण्डों के सौन्दर्य को बचाने का प्रयास प्रशासन द्वारा किया गया था, परन्तु संसाधनों एवं इच्छा शक्ति के अभाव में इन योजनाओं में प्रभावी कार्य नहीं हो पाया है। यदि इन प्राचीन धरोहरों की उचित देखरेख कर इसके पानी को उपयोगी बना दिया जावे तो आज की विशाल आबादी के लिये पानी की जरूरत को पूरा किया जा सकता है एवं पर्यटकों व स्थानीय जनता के लिये आकर्षण का केन्द्र बन सकते हैं।

रियासतकालीन यह जलस्रोत राजपरिवारों की जल प्रबंधन नीति को उजागर करते हैं लेकिन आधुनिक पीढ़ी की आराम तलब जिन्दगी के चलते इन तालाबों, कुण्डों व बावड़ियों के महत्त्व को नजर अन्दाज किया जा रहा है। हमारे पुरखों ने पानी के प्रबन्धन का जो लाजवाब तरीका निकाला था उसकी महत्ता आज भी शिद्दत से कायम है। समय आ गया है कि हम इन जलस्रोतों के महत्त्व को समझें व जन-जन को समझाएँ और पानी के साथ संस्कृति के इन रखवालों को भी बचाएँ। इसके लिये हमें कुछ मजबूत व कठोर कदम उठाने की आवश्यकता है।

सुझाव


निरन्तर अकाल एवं पेयजल के संकट से ग्रस्त रहे राजस्थान में आज जल विरासत की सुरक्षा, सतही एवं भू-जल प्रबन्धन और जल नियमन का कोई व्यापक कानून बनाने की अनिवार्यता महसूस की जा रही है वैसे देश व राज्य में आजादी के बाद दर्जनों कानून बने हैं लेकिन ये सब कानून सतही है। इन कानूनों की महत्ता का ज्ञान, इनका सक्रिय क्रियान्वयन और इनके प्रति जागरुकता आज के समय की सबसे बड़ी जरूरत है। जल संसाधनों के संरक्षण, उपयोग, प्रबन्धन, भागीदारी, जल संचारण से जुड़े कानूनी प्रावधानों की जानकारी आम आदमी को हो इसका कोई सरल तरीका निकालने की आवश्यकता है। इन कानूनों के अनुसार कार्यवाही हो रही है परन्तु इसकी समीक्षा की जाने के साथ ही उन्हें क्रियान्वित करने में आ रही कठिनाइयों का भी निराकरण किया जाना चाहिए।

पानी को लेकर अन्तरराष्ट्रीय, अन्तरराज्यीय और प्रादेशिक स्तर पर भी समझौते का प्रावधान है। यहाँ तक कि संविधान में राज्यों के लिये नीति निदेशक तत्वों में पानी, पर्यावरण, वन, झीलों नदियों के संरक्षण का उल्लेख है एवं पंचायती राज संस्थाओं नगर निकायों के यह दायित्व हैं कि वर्षा जल का पुनर्भरण कुआँ बावड़ियों, कुण्डों, तालाबों जैसे जलस्रोतों का संरक्षण एवं रख-रखाव करें इसमें स्थानीय प्रशासन को सक्रिय भूमिका निभाने की आवश्यकता है।

किसी भी वस्तु का खुलकर बिना नियंत्रण प्रयोग करते जाएँ तो वह वस्तु समय से पहले खत्म हो जायेगी यही हालत जल की है। पूर्व में जल के अथाह भण्डार थे क्योंकि जल को पारम्परिक संरचनाओं में संग्रहित कर उसको आवश्यकतानुसार उपयोग में लिया जाता था परन्तु अब जल संकट गहराने लगा है। यदि जल के प्रयोग को सीमित नहीं किया गया, वर्षा के पानी को संरक्षित नहीं किया गया, सूख चुके जल स्रोतों का जीर्णोद्धार नहीं किया गया, बूँद-बूँद पानी को नहीं बचाया गया तो आने वाले समय में हम जल के लिये तरसने लगेंगे क्योंकि स्वतंत्रता के पश्चात जलस्रोतों की सुरक्षा एवं रख-रखाव पर जितना ध्यान केन्द्रित करना चाहिए उतना नहीं किया गया है इसलिये ये जल स्रोत जर्जर अवस्था में हैं। लोगों द्वारा इन पर अतिक्रमण कर इन पर निर्माण किया जा रहा है, ऐतिहासिक मूर्ति कला को नुकसान पहुँचाया जा रहा है। ऐसे स्थलों की सुरक्षा के लिये पुरातात्विक विभाग के प्रशासनिक ढाँचे में परिवर्तन कर उन्हें इतना उत्तरदायी एवं संवेदनशील बनाने की आवश्यकता है ताकि वे सुरक्षा हेतु स्वीकृत धनराशि का सदुपयोग कर सकें तथा वे इन स्मारकों की एक सैनिक की तरह सुरक्षा कर सकें।

हमारी युवा पीढ़ी आज भी हमारी जल विरासत को लेकर उदासीन है इसलिये हमारी स्कूली शिक्षा, महाविद्यालय शिक्षा के पाठ्यक्रम में भी इतिहास एवं भूगोल विषय में एक अध्याय ऐसे स्थलों के महत्त्व एवं सुरक्षा के बारे में जोड़ा जाना चाहिए जिससे देश के भावी नागरिक जल संरक्षण एवं राष्ट्रीय धरोहर के इन जल स्रोतों की उपयोगिता को समझकर समर्पित रूप से इनकी सुरक्षा में अपनी भागीदारी निभा सके।

जल संरक्षण हेतु क्षेत्रीय एवं सामाजिक स्तर पर जनजागृति व जनचेतना फैलाने के लिये भी सक्रिय प्रयास होने चाहिए। इस हेतु जल उपभोक्ता समितियों व स्वयंसेवी संस्थानोंं का गठन किया जा सकता है जिससे कि जल के उपयोग, उसके संरक्षण व तौर तरीकों पर आम आदमी की आम राय बनायी जा सके। जल संरक्षण का काम स्थानीय काम है जिसके लिये किसी सरकार पर निर्भर रहने की जरूरत नहीं है। कुछ स्थानीय जागरूक लोग जलयोद्धा बनकर इस कार्य को अन्जाम दे सकते हैं। यदि गाँव कस्बों में स्थित इन पारम्परिक जलाशयों को स्थानीय नागरिकों द्वारा गोद लेकर संरक्षण किया जाए, इनकी सफाई की जाकर सुरक्षा दी जाए और वर्षा के जल को तालाबों, कुण्डों, सरोवरों में संग्रहीत कर लिया जाए और हर गाँव अपना पानी बचा ले तो सूखा तो इतिहास हो जाएगा।

वर्ष 2006 में राज्य में जल के अभाव के तहत राज्य सरकार द्वारा घोषित जल अभियान विरासत संरक्षण योजना एवं Adopt a monument योजना का क्रियान्वयन किया गया जिसके तहत बून्दी जिले के परम्परागत जल स्रोतों तथा कुएँ, बावड़ियों, तालाबों एवं कुण्डों का सर्वे कराया गया। इस योजना का उद्देश्य जल के ऐतिहासिक स्थलों की विशेषताओं को ज्ञात कर, उनकी वास्तविक स्थिति, संरचना व रख-रखाव के बारे में जानकारी कर उनके नियोजन की योजना बनाना था परन्तु इस योजना की आगे क्रियान्विति नहीं हुई। इन जल स्रोतों का मास्टर प्लान बनाया जाकर योजनाबद्ध विकास किये जाने की आवश्यकता है। राजस्थान की पर्यावरण नीति जल, भूमि, वायु वन, सम्पदाओं के संरक्षण व संवर्धन पर आधारित है एवं विशेष रूप से जल प्रबन्धन को इसके केन्द्र में रखा गया है। इसी प्रकार जल विकास और संरक्षण मिशन में भी तालाबों के जलग्रहण के अवरोधों को हटाकर उनके पुनर्भरण की योजना है। यदि इन सरकारी योजनाओं के साथ हमारी इन जल विरासतों को जोड़ दिया जाए तो इनके परिणाम सकारात्मक ही होंगे।

हाड़ौती की जल विरासत को पर्यटन की दृष्टि से विकसित कर विश्व के नक्शे पर लाकर इस अमूल्य धरोहर के बारे में अवगत कराया जा सकता है जिससे कि भव्यता एवं कलात्मकता लिये हुए हमारे ये जल स्रोत पर्यटन स्थल बनकर पर्यटकों को प्रेरणा दे सकें और राजस्व जुटाकर एक और सरकार के लिये आय का साधन बन सकें वही दूसरी ओर स्थानीय नागरिकों को रोजगार जुटाने में सहायक हो सकें। जब तक ऐसे चहुँमुखी प्रयास नहीं होंगे तब तक कुछ भी संभव नहीं है और यदि आजादी के इतने वर्षों बाद भी हमारे स्वर्णिम भूतकाल के प्रतीक जल स्रोतों की सुरक्षा एवं महत्ता को कायम नहीं रख सके तो स्वाधीनता की मूल भावना को ही हम कमजोर कर देंगे। हमें हमारे निहित स्वार्थों से उपर उठकर इस बारे में चिन्तन करना होगा तभी हमारे पूज्य पूर्वजों के हम योग्य उत्तराधिकारी सिद्ध होंगे।

 

राजस्थान के हाड़ौती क्षेत्र में जल विरासत - 12वीं सदी से 18वीं सदी तक

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।)

1

हाड़ौती का भूगोल एवं इतिहास (Geography and history of Hadoti)

2

हाड़ौती क्षेत्र में जल का इतिहास एवं महत्त्व (History and significance of water in the Hadoti region)

3

हाड़ौती क्षेत्र में जल के ऐतिहासिक स्रोत (Historical sources of water in the Hadoti region)

4

हाड़ौती के प्रमुख जल संसाधन (Major water resources of Hadoti)

5

हाड़ौती के जलाशय निर्माण एवं तकनीक (Reservoir Construction & Techniques in the Hadoti region)

6

उपसंहार

 

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