उपज घटाती, बंजर बनाती अधिक सिंचाई

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पानी ज्यादा समय तक खेत में टिका रहने से मिट्टी की ऊपरी परत कड़ी होने लगती है। सख्त परत में पौधे की जड़ें पूरी तरह फैल नहीं पाती। परिणामस्वरूप, पौधे का विकास नहीं होता और उपज कम हो जाती है। यूं भी जलभराव होने पर मिट्टी की निचली परतों में मौजूद नमक ऊपरी परत में आ जाता है। यह नमक चाहे घुलनशील सोडियम के रूप में हो, चाहे विनिमेयशील सोडियम के रूप में... खेत को बंजर ही बनाता है। कई बार किसान आलू जैसी फसल की अधिक उपज लेने के लिए नमक का छिड़काव करते देखे गये हैं। आंकड़े कहते हैं कि भारत में मीठे जल का सबसे ज्यादा उपयोग खेती के लिए होता है। तोहमत यह भी है कि पानी की सबसे ज्यादा बर्बादी भी खेती में ही होती है। क्या हमें बहस आंकड़ों की सत्यता पर करने की बजाए, इस बात पर नहीं चाहिए कि यह बर्बादी कैसे रुके? यह भ्रम कैसे टूटे कि अधिक सिंचाई से उत्पादन अधिक होता है? इस भ्रम को तोड़ना भी बेहद जरूरी है कि नदी की सतह पर और धरती की नसों में अकूत पानी है; जितना चाहे, निकाल लो। रहट, चड़स, पुर, ट्युबवेल, बोरवेल, समर्सिबल और पानी ज्यादा गहरे उतर जाए तो जेटपम्प क्या जोर ज्यादा गहरे से पानी निकालने की तकनीक ईजाद करने से ज्यादा इस बात पर नहीं होना चाहिए कि कम से कम पानी में अच्छी से अच्छी सिंचाई कैसे हो?

हकीकत यह है कि यह सिर्फ भ्रम ही है कि अधिक सिंचाई से फसल अच्छी होती है। इस भ्रम के चलते कई किसान रात में नहर की नाली खोलकर सुबह ही खेत देखने जाते हैं। “सींचो चाहे कितना भी, सिंचान तो वही जाना है’’ -इस धारणा के चलते भी कई किसान यह ध्यान नहीं देते कि उनकी फसल को वाकई कितने पानी की और कब जरूरत है।

सच्चाई यह है कि कम चाई की तुलना में अधिक सिंचाई के नुकसान ज्यादा हैं। जरूरत से कम सिंचाई और जरूरत से ज्यादा सिंचाई... दोनों ही स्थिति में ज्यादातर फसलों की उपज घट जाती है। खेत में पानी ज्यादा समय तक टिका रहने से फसल में कीड़ा लगने की संभावना बढ़ जाती है।

अधिक सिंचाई का सबसे बड़ा नुकसान यह है कि इससे उपज ही नहीं, खेत का उपजाऊपन भी घटने लगता है। लंबे समय तक ऐसा किया जाए तो नतीजा, तीन फसली खेत के दो फसली और दो फसली खेत के एक फसली अथवा ऊसर-बंजर में तब्दील होने के रूप में सामने आता है।

दरअसल, पानी ज्यादा समय तक खेत में टिका रहने से मिट्टी की ऊपरी परत कड़ी होने लगती है। सख्त परत में पौधे की जड़ें पूरी तरह फैल नहीं पाती। परिणामस्वरूप, पौधे का विकास नहीं होता और उपज कम हो जाती है। यूं भी जलभराव होने पर मिट्टी की निचली परतों में मौजूद नमक ऊपरी परत में आ जाता है। यह नमक चाहे घुलनशील सोडियम के रूप में हो, चाहे विनिमेयशील सोडियम के रूप में... खेत को बंजर ही बनाता है। कई बार किसान आलू जैसी फसल की अधिक उपज लेने के लिए नमक का छिड़काव करते देखे गये हैं। वे भूल जाते हैं कि इससे तात्कालिक फसल का उत्पादन भले ही ज्यादा हो जाए, अंततः खेत की उत्पादन क्षमता घटने ही वाली है। ऐसा आलू सड़ता भी जल्दी है।

सड़कों और नहरी क्षेत्रों के किनारे की लाखों एकड़ भूमि के बंजर में तब्दील होने का एक कारण जलभराव के कारण ऊपर आया ही है। अधिक सिंचाई के नुकसान को इस उदाहरण से भी समझा जा सकता है। मथुरा, अलीगढ़, हाथरस, टुंडला से लेकर फर्रूखाबाद आलू उत्पादन का विशेष क्षेत्र माना जाता है।

यदि आप यहां के आलू किसानों से बात करें तो वे बताएंगे कि जिन खेतों में वे आज सिर्फ आलू, मोटा अनाज अथवा गेहूं का ही अच्छा उत्पादन ले पाते हैं, उन्हीं खेतों में कभी इलाके के मौसम व मिट्टी के अनुसार हर फसल का अच्छा उत्पादन होता था; अरहर, चना, गन्ना, धान.. सभी कुछ। अब ऐसा नहीं है।

सादाबाद, हाथरस के बुजुर्ग किसान लहरीशंकर ने मुझे स्वयं बताया कि एक समय उनके इलाके का चित्र ठीक ऐसा ही था। खेत भी तीन फसली थे और उनकी धरती के नीचे का पानी भी खूब था। नहर में भी पानी खूब आता था। कहते हैं- “पैले हम रौंद के पानी लगावते। गन्ना-फन्ना.. सब बोए हमन ने। अब तो धरती कोई पानी नीचे उतरगो और संग-संग हमारो भी। अब तीन फसल लेनो इत्तो आसान नाय। यूरिया-डाइ झोंक के चाहे जो ले ले। अब तो भैया, आलू अकेले की फसल अच्छी है जाय, मंडी में दाम सही रहें।’’ बस! किसान की सारी आशा याही पे आय के टिक गई है।’’

यदि इस चित्र को बदलना है; बंजर जमीन को वापस तीन फसली बनाना है, तो धरती और पानी के ज्यादा से ज्यादा दोहन करने की बजाए अनुशासित सिंचाई और वैज्ञानिक खेती की डगर अपनानी होगी। इससे पानी भी बचेगा, मिट्टी की गुणवत्ता भी किसान के गाढ़े पसीने का पैसा भी; मुनाफा बढ़ेगा, सो अलग।

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