ऊंट कमाल का पशु है, जो विषम परिस्थितियों में भी जीने का हौंसला रखता है। चाहे वो कड़ाके की ठंड हो या फिर भीषण गर्मी, ऊंट अपना जीवन आसानी से बसर कर लेता है। बदलते हालातों में इसने अपने आपको इस तरह ढाला कि रेतीली आंधी व सूरज की तेज किरणे भी इस पर बेअसर होती हैं। अजीब-सा दिखने वाला यह पालतू पशु बिना पानी पीये कई दिनों तक जीवित रह सकता है। यह रेत के धोरों में तेज धावक की तरह बिना रुके थके लम्बी दोड़ लगा लेता है। इसीलिए इसे रेतीले रेगिस्तान का जहाज भी कहा जाता है। राजस्थान में ऊंट को राज्य पशु का दर्जा हासिल है। इसलिए इसे मारना, कत्ल करना, सताना या फिर अवैध रूप से इसका निर्यात करना पूर्णतया वर्जित है।
भारत में गरीब लोगों के लिए ऊंट दैनिक आमदनी का बेहतर जरिया है। इस भोले-भाले पशु की उपयोगिता न केवल कृषि व सिंचाई क्षेत्रों में है बल्कि इसका उपयोग माल ढोने, निर्माण तथा मनोरंजन, सवारी व सफारी में भी किया जाता है। इसके अतिरिक्त सीमा पर देश की सुरक्षा में भी इनका उपयोग किया जाता है। इसीलिए ऊंट बहुउपयोगी पशुओं की श्रेणी में शुमार है। इनके बालों व खाल की व्यापक उपयोगिता होने से पशुपालक इन्हें बाजार में ऊँचे दामों में बेचकर काफी मुनाफा कमा लेतें हैं। ऊंट के दूध में औषधीय गुण होते हैं, जो सेहत के लिए काफी फायदेमंद होता है। औषधीय गुणों के कारण इसके दूध की बाजार में बिक्री भी जल्द हो जाती है। वैज्ञानिक अनुसंधानों से पता चलता है कि ऊंटनी के दूध में न केवल भरपूर पौषक तत्व बल्कि उच्च कोटि के एंटीओक्सिडेंट्स भी पाए जातें हैं। इसका उपयोग पीलिया, टीबी, हृदय रोग, उच्च रक्त चाप, दूध से एलर्जी जैसे रोगों के उपचार में भी किया जाता है। यद्यपि इसके दूध में वसा कम होती है लेकिन प्रोटीन, लोहा, जस्ता, कोपर जैसे खनिज और विटामिन बी व सी तथा आवश्यक वसीय अम्ल पर्याप्त मात्रा में मौजूद होते हैं। ऊंटनी का दूध जल्दी से खराब भी नहीं होता है तथा इससे खीर, गुलाब जामुन, कुल्फी, आइसक्रीम जैसे खाद्यय पदार्थ तैयार किये जा सकते हैं, जो स्वादिष्ट व सुपाचक होते हैं। बाजार में इनकी अच्छी मांग होने से पशुपालक को इनके अच्छे दाम मिल जातें हैं।
देश में ऊंट की लगभग 9 से अधिक प्रमुख प्रजातियाँ है।राजस्थान में बीकानेरी, मारवाड़ी, जालोरी, जैसलमेरी व मेवाड़ी प्रमुख है तो गुजरात की कच्छी और खरई वहीं मध्यप्रदेश की मालवी व हरियाणा की मेवाती नस्ल मौजूद है, लेकिन व्यावासाहिक स्तर पर पालन हेतु बीकानेरी व जैसलमेरी नस्ल ज्यादा उपयुक्त मानी गई हैं क्योंकि इनमें शुष्क पर्यावरण में जीने की जबरदस्त क्षमता होती है। ऊँटों का वर्षों से निर्यात होने से तथा इनके मांस हेतु इनकी कटाई से इनकी संख्या में निरंतर घिरावट आ रही है। 2012 में की गई गणना के अनुसार भारत में इनकी तादाद 4 लाख के करीब थी जो घटकर 2019 में सिर्फ 2.5 लाख रह गई है। राजस्थान में इनकी संख्या ज्यादा होती है, लेकिन यहाँ भी इनकी संख्या 3.26 लाख से घटकर अब 2.13 लाख रह गयी है। इसी तरह गुजरात, हरियाणा, मध्यप्रदेश व उतरप्रदेश में भी इनकी तादाद में भारी कमी आई है। ऊंट की ये नस्लें आने वाले सालों में भारत से कहीं विलुप्त न हो जाय इसका खतरा दिनों-दिन और गहराने लगा है। यद्यपि सरकार ने इनके निर्यात पर सख्त प्रतिबन्ध लगा रखा है वहीं दूसरी ओर इनके पालन को प्रोत्साहित भी कर रही है।
ऊंट पालन से इसके संरक्षण में अपेक्षित मदद मिलती है, वहीं दूसरी ओर लोगों के लिए यह सतत आविजिका का बेहतर व्यवसाय भी है। व्यावसायिक स्तर पर इनके पालन से न केवल ग्रामीण अर्थव्यवस्था मजबूत होती है बल्कि ग्रामीण युवाओं के लिए रोजगार के अवसर भी मिलते हैं। इस व्यवसाय को सरकार आर्थिक मदद भी करती है, वहीं बैंक से आसानी से ऋण भी मुहैया हो जाता है। परंतु इन पशुओं का सरकारी पंजीकरण व बीमा करवाना जरुरी होता है।
ऊँटों के घूमने-फिरने व रहने की लिए पर्याप्त जमीन, भरपूर भोजन व चारागाह उपलब्ध होने पर ऊंट का पालन व्यावसायिक स्तर पर बेझिझक किया जा सकता है, लेकिन इसके पहले इस पशु के व्यवहार, खान-पान, रख-रखाव के तौर-तरीके, उपयुक्त स्थान, ऊँटों की नस्लों की उपलब्धता, इनमें होने वाली संक्रामक व संक्रमणकारी मौसमी बीमारियां, टीकाकरण, प्रजनन, विपणन, प्रशिक्षण सम्बंधित जानकारियाँ लेना व जानना जरुरी होता है। इस व्यवसाय में पशु वैज्ञानिक को भी नियुक्त किया जा सकता है, जो अधिक फायदेमंद होता है। इससे आर्थिक नुकसान होने के अवसर काफी कम हो जातें हैं। वहीं आमदनी बढ़ने की संभावना भी अधिक रहती है। ऊँट पालन का कुशल प्रशिक्षण, बेहतर प्रबंधन व इससे सम्बंधित अन्य जानकारियाँ राजस्थान के बीकानेर में स्थित राष्ट्रीय उष्ट्र अनुसंधान केंद्र (दूरभाष 0151 2230183 व Email: nrccamel@nic.in) से ली जा सकती है।
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