22 मार्च: अंतर्राष्ट्रीय जल दिवस पर विशेष
अभी हाल ही में यूनिसेफ और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपनी ताजा रिपोर्ट में भारत की पीठ ठोकी है कि उसने सुरक्षित जल तक लोगों की पहुंच बनाने के लिए 2015 के लिए रखा लक्ष्य अभी ही हासिल कर लिया है। हमारे कुओं-तालाबों का पानी पीने योग्य नहीं है। स्थानीय डाक्टरों के जरिए विश्व स्वास्थ्य संगठन की पिलाई इस घुट्टी ने पहले इंडिया मार्का हैंडपंप लगवाये। उन्होंने हमारे कुओं-तालाबों को सुखाया। अब पानी और उसमें से ठोस व धातु तत्व छानने की मशीने आकर हमारे शरीरों की प्रतिरोधक क्षमता को सुखा रही हैं।
आज विश्व जल दिवस है। कल विश्व वानिकी दिवस था। पांच जून को अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण दिवस होगा। कहना न होगा कि इन अंतर्राष्ट्रीय दिवसों का ठेका जिन राष्ट्रों के पास है, वे उपनी सुविधा, परिस्थिति और जरूरत के अनुसार इनकी तारीखें तय करते हैं। करनी भी चाहिए। किंतु भारत का सरकारी अमला तथा इन दिवसों के नाम पर पैसा पा रही संस्थायें ऐसी तारीखों का अनुकरण जिस श्रद्धा और अनुशासन के साथ करती है, वह मेरी समझ में आज तक नहीं आया। आखिरकार हम विविध भूगोल वाले राष्ट्र हैं। हमारे अपने मौसम हैं। स्थिति-परिस्थिति है। सच यह है कि इन तारीखों पर भारत सिर्फ सेमिनार, कार्यशाला, रैली, दौड़ आदि आयोजित कर खानापूर्ति कर सकता है। सामान्यतया इन अंतर्राष्ट्रीय दिवसों का भारतीय कर्मयोग से कोई योग नहीं। किंतु आज हम प्रकृति संरक्षण के भारतीय पारंपरिक तौर-तरीकों को भूलकर अंतर्राष्ट्रीय ताकतों की सोच, रहन-सहन, संस्कृति, प्रौद्योगिकी आदि को अपनी अनुकूलता जांचे बगैर बड़े आकर्षण के साथ स्वीकार करने लगे हैं। अनुकूलता न होने पर भी महज रस्म अदायगी क्यों? हमे गौर करने की जरूरत है कि उनकी वैश्विक चिंता सिर्फ कागजी है।दुनिया के दूसरे देशों के प्रति उनका असल व्यवहार व संस्कार तो उनका बाजार है। दूसरे की कीमत पर आगे बढ़ना उनका स्वभाव है। किसी के संसाधन लूटकर खुद को समृद्ध करना उनके लिए गौरव की बात है। भारतीय सभ्यता की नींव ऐसे सिद्धांतों पर नहीं टिकी है। भारत की संस्कृति इसकी अनुमति भी नहीं देती। ऐसे दायित्वों को याद करने का हमारा तरीका श्रम निष्ठ रहा है। हम इन्हें पर्वों का नाम देकर क्रियान्वित करते रहे हैं। भारत में जो दूसरे का छीनकर अपने को समृद्ध करता है। महापंडित होने के बावजूद यहां ऐसे रावण को भी एक दिन राक्षस का दर्जा दे दिया जाता है। अपने को नष्ट कर सभी के शुभ के लिए तत्पर रहने वाले को मुहर्रम की सी याद मिलती है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश - भारत के लिए ये महज कोई भौतिक तत्व नहीं हैं। ये जीवन देने वाले देवतत्व हैं। भारत इन पंचतत्वों की पूजा करता हैं। चींटी, कुत्ता, मगरमच्छ से लेकर हाथी, शेर तक सभी को किसी न किसी रूप में पूजा जाता है। तुलसी, नीम, धरती, नदी व हमारा संतोष.. हमारी मातायें हैं। सूर्य-हमारा पिता और मकर सक्रान्ति व छठ-हमारे सूर्यपर्व हैं। गंगावतरण-हमारा गंगा दशहरा है।... हमारा नदी पर्व! बसंत पंचमी-सबसे सुन्दर ऋतु का स्वागत पर्व!! लोहड़ी-होली पर व्यापक अग्निदहन तापमान परिवर्तन के वाहक हैं। शीतलाष्टमी-तुलसी विवाह आदि वनस्पति पूजन की तिथियां हैं, तो दैनिक हवन व यज्ञ वायु को शुद्ध करने के नित्य आयोजित अवसर।
ऋतु बदलाव के दिनों में शारीरिक संयम और मानसिक अनुशासन के लिए शारदीय नवरात्र हैं। रोजे का पाक महीना तथा गुड फ्राइडे का पवित्र पखवाड़ा भी यही अनुशासन लेकर आते हैं। उधर जब चौमासी बारिश में बादल सूर्य को ढक लेता है। हमारा सूर्य से संपर्क कम हो जाता है। वैज्ञानिक तथ्य है कि इसके परिणामस्वरूप इस काल में हमारी जठराग्नि मंद पड़ जाती है। हमने इसे शिव को छोड़कर अन्य समस्त देवताओं के सो जाने का काल माना। चैमासा कहा। आमजन ने शिव आराधना की कांवड़ उठाकर साधना की। धर्मगुरूओं का प्रवास कराकर उनके उपदेश सुने। शिव को चढ़ने वाले बेलपत्र समेत ऐसे तत्वों को आहार माना, जो मंद जठराग्नि को जागृत करते हैं। भारत के हर पर्व का एक विज्ञान है। अनुकूलता है। मकसद है। यह बात और है कि इन्हें मनाने के बदले हुए तौर-तरीके हमें असल मकसद से दूर ले जा रहे हैं।
खैर! उनके अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण दिवस बात करें, तो वह जून के ऐसे मौसम में आता है, जब भारत के बड़े हिस्से में लू का प्रकोप होता है। ऐसे में हम पर्यावरण बचाने के नाम पर वृक्षारोपण भी तो नहीं कर सकते। मिट्टी भी कठोर हो चुकी होती है। हमारे यहां आषाढ़-सावन और पौष-माघ वृक्षारोपण के लिए अनुकूल होते हैं। इसी तरह पानी पर सिर्फ बात करनी हो,तो कोई भी दिन ठीक है। 22 मार्च भी ठीक। बातें तो सरकार भी खूब करती है। लेकिन पानी का काम समाज के श्रमदान के बिना नहीं हो सकता। यूं भी पानी का काम शुभ होता है। शुभ काम के लिए मुहुर्त भी शुभ ही होना चाहिए। कार्तिक में देवउठनी ग्यारस और बैसाख में आखा तीज अबूझ मुहुर्त माने गये हैं। इन दो तारीखों को कोई भी शुभ कार्य बिना पंडित से पूछे भी किया जा सकता हैं। ये हमारे जल दिवस हैं। समझना चाहिए कि क्यों?
हमारा पहला जल दिवस-देवउठनी ग्यारस....देवोत्थान एकादशी! चतुर्मास पूर्ण होने की तारीख। जब देवता जागृत होते हैं। यह तिथि कार्तिक मास में आती है। यह वर्षा के बाद का वह समय होता है, जब मिट्टी नर्म होती है। उसे खोदना आसान होता है। नई जल संरचनाओं के निर्माण के लिए इससे अनुकूल समय और कोई नहीं। खेत भी खाली होते हैं और खेतिहर भी। तालाब, बावड़ियां, नौला, धौरा, पोखर, पाईन, जाबो, कूलम, आपतानी-देशभर में विभिन्न नामकरण वाली जल संचयन की इन तमाम नई संरचनाओं की रचना का काम इसी दिन से शुरू किया जाता था। राजस्थान का पारंपरिक समाज आज भी देवउठनी ग्यारस को ही अपने जोहड़, कुण्ड और झालरे बनाने का श्रीगणेश करता है।
दूसरा जल दिवस है-आखा तीज! यानी बैसाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि। यह तिथिपानी के पुराने ढांचों की साफ-सफाई तथा गाद निकासी का काम की शुरूआत के लिए एकदम अनुकूल समय पर आती है। बैसाख आते-आते तालाबों में पानी कम हो जाता है। खेती का काम निपट चुका होता है। बारिश से पहले पानी भरने के बर्तनों को झाड़-पोछकर साफ रखना जरूरी होता है। हर वर्ष तालों से गाद निकालना और टूटी-फूटी पालों को दुरुस्त करना। इसके जरिए ही हम जलसंचयन ढांचों की पूरी जलग्रहण क्षमता को बनाये रख सकते हैं। ताल की मिट्टी निकाल कर पाल पर डाल देने का यह पारंपरिक काम अब नहीं हो रहा। नतीजा? इसी अभाव में हमारी जल संरचनाओं का सीमांकन भी कहीं खो गया है और इसी के साथ हमारे तालाब भी।
बैसाख-जेठ में प्याऊ-पौशाला लगाना पानी का पुण्य हैं। खासकर बैसाख में प्याऊ लगाने से अच्छा पुण्य कार्य कोई नहीं माना गया। इसे शुरू करने की शुभ तिथि भी आखातीज ही है। लेकिन अब तो पानी का शुभ भी व्यापार के लाभ से अलग हो गया है। भारत में पानी अब पुण्य कमाने का देवतत्व नहीं, बल्कि पैसा कमाने की वस्तु बन गया है। 50-60 फीसदी प्रतिवर्ष की तेजी से बढ़ता कई हजार करोड़ का बोतलबंद पानी व्यापार! शुद्धता के नाम पर महज एक छलावा मात्र!! इसी बाजार के बढ़ने को लेकर अभी हाल ही में यूनिसेफ और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपनी ताजा रिपोर्ट में भारत की पीठ ठोकी है कि उसने सुरक्षित जल तक लोगों की पहुंच बनाने के लिए 2015 के लिए रखा लक्ष्य अभी ही हासिल कर लिया है।
हमारे कुओं-तालाबों का पानी पीने योग्य नहीं है। स्थानीय डाक्टरों के जरिए विश्व स्वास्थ्य संगठन की पिलाई इस घुट्टी ने पहले इंडिया मार्का हैंडपंप लगवाये। उन्होंने हमारे कुओं-तालाबों को सुखाया। अब पानी और उसमें से ठोस व धातु तत्व छानने की मशीने आकर हमारे शरीरों की प्रतिरोधक क्षमता को सुखा रही हैं। जैसलमेर के जिन कुण्डों का पानी पीकर राजस्थानी लोग रेगिस्तान की लू से लोहा लेते हैं; विश्व बैंक, यूरोपीयन कमीशन व विश्व स्वास्थ्य संगठन की चले तो वे उन कुण्डों में भी आर ओ लगा दें। समझना होगा कि स्वास्थ्य के प्रति सतर्कता के नाम पर भारत में दवा, इंजेक्शन, पैथोलॅाजिकल जांच व कचरा सफाई मशीनों के बड़े व्यापार का बाजार किस तरह विकसित किया जा रहा है।
भारत की नदियां पहले से ही तथाकथित दान व कर्जदाता एजेंसियों के सदस्य देशों के निशाने पर हैं। नदीजोड़ परियोजना के नाम पर नदियों को जोड़ना कुदरत के खिलाफ कार्य को कर्ज तले भारत की जनता को दबाने की तैयारी उन्होंने कर ही ली है। नदियां मां न होकर, कचरा ढोने की मालगाड़ी बना ही दी गईं हैं। निसंदेह! भारत के पानी पर लगी अंतर्राष्ट्रीय निगाहों और उनके नजरिए को भारत के नीति-निर्माताओं की शासकीय सहमति के नतीजे खतरनाक हैं। किंतु इससे भी खतरनाक बात तो यह है कि जलसंचयन संरचनाओं के निर्माण व रखरखाव को अपना दायित्व मानने की बजाय अब समाज भी हर काम के लिए सरकारी परियोजनाओं और राजनैतिक आकाओं की ओर ताकने लगा है। हमारी इस सामुदायिक अकर्मण्यता का ही नतीजा है कि सदियों से जिस पानी का इंतजाम भारत का समाज अपने श्रम व देशी समझ से करता रहा, आज उसके लिए विदेशी कर्ज व विदेशी सलाह लेने में भी हमारी सरकारों को शर्म नहीं आती। इस जलदिवस पर मैं इतना ही कह सकता हूं कि संयोग अच्छा है। आज चैत्र मास की अमावस्या है। स्नान, दान और श्राद्ध का दिन। कल प्रतिपदा होगी। नवरात्र का पहला दिन। आइये! आज अपनी तंद्रा त्यागे। अपने पानी के इंतजाम के लिए दूसरों का पानी छीनने या दूसरों का इंतजार करने की प्रवृति का श्राद्ध, त्याग, तर्पण जो कुछ करना हो, आज ही कर डालें। ताकि जब आखा तीज आये, तो आपके हाथों में फावड़ा हो और अगले बैसाख में भी आपके ताल में पानी।
नवरात्र, नवजागरण व संयम के नौ दिन हैं। कल सुबह उठें, तो संकल्प लें - मैं बोतलबंद पानी खरीदकर नहीं पिऊंगा। अपने लिए पानी के न्यूनतम व अनुशासित उपयोग का संयम सिद्ध करुंगा। दूसरों के लिए प्याऊ लगाऊंगा। और हां! नवरात्र में मातृशक्तियों का पूजन का प्रावधान हैं। भूलें नहीं कि एक मां गंगा भी है।’’ हम उस देश के वासी हैं, जिस देश में गंगा बहती है।....’’ कभी यह भारत का गौरवगान था। क्या आज गा सकते हैं? नहीं! आज हमने गंगा को इस गौरव के लायक छोड़ा ही नहीं। हमारी स्थानीय नदियां ही मिलकर गंगा में गंगत्व लाती हैं। अतः संकल्प लें कि मैं किसी भी नदी में अपना मल-मूत्र-कचरा नहीं डालूंगा। नदियों के शोषण-प्रदूषण-अतिक्रमण के खिलाफ कहीं भी आवाज उठेगी या रचना होगी, तो उसके समर्थन में उठा एक हाथ मेरा भी होगा। दुनिया को बताना जरूरी है कि जल दिवस मनायेंगे जरूर, लेकिन उनके नहीं, अपने। वह भी भारत का पानी अंतर्राष्ट्रीय हाथों में देने के लिए नहीं, बल्कि उसकी हकदारी और जवाबदारी दोनों अपने हाथों में लेने के लिए।
याद रहे कि संकल्प का कोई विकल्प नहीं होता।
..और पानी के पवित्र संकल्पों के बगैर जलदिवस मनाने का कोई औचित्य नहीं।
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