उम्मीदों का प्रदेश, चुनौतियों का पहाड़


औसत विकास दर और प्रति व्यक्ति अनुमानित आय से राज्य की अच्छी तस्वीर बनती है, लेकिन यहां गरीबी के साथ-साथ क्षेत्रीय विषमताएं भी कायम हैं, जो भारी चिंता के विषय है, विभिन्न जिलों के जनसँख्या घनत्व में कायम अंतर को भी जल्द से जल्द पाटने की जरूरत है।

चुनौतियों का पहाड़भारत संघ के 27वें राज्य के रूप में नौ नवम्बर, 2000 को उत्तराखंड राज्य अस्तित्व में आया था। एक अलग राज्य के रूप में इसके गठन का मुख्य तर्क इस क्षेत्र की कथित उपेक्षा, इसकी-भू भौतिक सामरिक स्थिति और इस क्षेत्र के लोगों की आकांक्षाए थीं। राज्य के गठन से पहले यहां के लोगों में अनदेखी का अहसास बढ़ रहा था, खासकर विकास के क्षेत्र में। हालांकि तत्कालीन राज्य उत्तर प्रदेश में भी इस क्षेत्र के लिए एक अलग योजना की व्यवस्था थी, लेकिन पहाड़ी उप-योजना के बावजूद क्षेत्र की विकास दर निराशाजनक थी। वर्ष 1993-94 से 1999-2000 के बीच जब उत्तराखंड का क्षेत्र उत्तर प्रदेश का हिस्सा था, इसकी विकास दर 2.9 फीसदी थी, जबकि वार्षिक राष्ट्रीय विकास दर 6.6 फीसदी थी। उसी समय पड़ोसी पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश की विकास दर सात फीसदी थी। यह विरोधाभास भी एक अलग पहाड़ी राज्य के लिए पहाड़ी आन्दोलन का प्रमुख कारक था।

बाधाओं के बावजूद सधी शुरुआत


नए राज्य ने कुछ बाधाओं के साथ शुरुआत की। अविभाजित उत्तर प्रदेश की संपत्ति और देनदारियों का बंटवारा उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड के बीच जनसँख्या अनुपात (करीब 95:5) के आधार पर हुआ, लेकिन उत्तराखंड पर कर्मचारियों का जो बोझ डाला गया, वह बहुत ज्यादा था। दूसरी बात, उत्तराखंड ने नकारात्मक नगदी पूँजी के साथ शुरुआत की थी और वर्ष 2000-01 में इसके ऊपर 2733 करोड़ की कर्ज देनदारियां थीं। उत्तर प्रदेश की राजकोषीय स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं थी, नतीजतन उत्तराखंड को पूर्ववर्ती राज्य से पर्याप्त वित्तीय सहायता नहीं मिली। बाद के वर्षों में कर्ज का बोझ बढ़ता ही गया, क्योंकि ग्यारहवें वित्त आयोग की सिफारिशों को उत्तर प्रदेश के दिनों में ही लागू कर दिया गया था। और बहुत कम राजस्व घाटा अनुदान उत्तराखंड को मिला था। इसका परिणाम यह हुआ कि अतिरिक्त कर्ज और उधार के जरिये तदर्थ योजना सहायता से आंशिक तौर पर राजस्व जमा को पूरा किया गया। इसके अलावा ज्यादातर संगठनों एवं संस्थानों में क्षमता की कमी भी एक महत्वपूर्ण मुद्दा थी। इन तमाम बाधाओं के बावजूद राज्य ने एक उम्मीद के साथ शुरुआत की, जिसका सुबूत शुरूआती वर्षों की उच्च विकास दर से मिलता है। हालांकि राज्य एक स्वस्थ विकास दर से विकास कर रहा था, लेकिन अर्थव्यवस्था के ढांचे में अनुवर्ती बदलाव वहां भी हुआ। उत्तराखण्ड अपेक्षाकृत कृषि पर ज्यादा निर्भर था, जिसकी राज्य के सकल घरेलु उत्पाद (जीएसडीपी) में करीब 32 फीसदी की हिस्सेदारी थी। लेकिन जीएसडीपी में कृषि की हिस्सेदारी घटकर अब 14 फीसद रह गई है। जबकि विनिर्माण क्षेत्र की हिस्सेदारी करीब 18 फीसदी से बढ़कर 35 फीसदी हो गयी है। सेवा क्षेत्र का योगदान लगभग 50 फीसद पर स्थिर है। यह राज्य वर्ष 2009-10 में 18 फीसदी की उच्च विकास दर हासिल करने में सक्षम था, लेकिन बाद में इसमें कमी आती गई। हालांकि आधार वर्ष में बदलाव कर उसे 2004-05 किया गया और 2010-11 में राज्य की विकास दर 10.02 फीसदी थी और वर्ष 2013-14 के लिए अग्रिम अनुमान 10 फीसदी से नीचे रखा गया।

प्रदेश की बदलती अर्थव्यवस्था


उत्तराखण्ड के विकास का रुझान प्रदेश की बदलती अर्थव्यवस्था को दर्शाता है, जो कृषि से औद्योगिक क्षेत्र की तरफ बढ़ रहा है, जबकि सेवा क्षेत्र पहले की तरह है, लेकिन इससे कुछ महत्वपूर्ण बिंदु उभरे हैं। कृषि क्षेत्र की जिस पर बहुसंख्यक आबादी जीवनयापन और रोजगार के लिए निर्भर है, विकास दर बहुत कम है। वास्तव में कुछ वर्षों से कृषि क्षेत्र की विकास दर नकारात्मक रही है। चूंकि कृषि के साथ एक बड़ी आबादी जुड़ी हुई है, इसलिए इस क्षेत्र पर तत्काल ध्यान दिए जाने की जरूरत है। उत्तराखण्ड के सन्दर्भ में कृषि में बागवानी, फूलों की खेती, जड़ी-बूटी और बागवानी की विभिन्न फसलों का शामिल किया जायेगा।

चुनौतियों का पहाड़चुनौतियों का पहाड़प्राथमिक क्षेत्र यानि कृषि और उससे जुडी गतिविधियों की संयुक्त वार्षिक विकास दर 2.84 फीसदी के निराशाजनक स्तर पर रही है। इस निम्न दर की मुख्य वजह यह है कि खेती का एक बड़ा हिस्सा लघु एवं सीमांत जोत का है। इसके अलावा सिंचाई सुविधाओं का अभाव एक बड़ी चुनौती है। कम आय के साथ-साथ जोत के विखंडन के चलते ग्रामीण इलाकों से शहरी क्षेत्रों एवं अन्य राज्यों में पलायन बढ़ा है। लघु सिंचाई, पानी का कुशल उपयोग, फसल पद्धति में बदलाव के माध्यम से उच्च उत्पादकता के लिए समय पर उचित प्रद्योगिकी के साथ अन्य चीजों के निवेश के लिए योजना बनानी होगी। बेहद छोटे-छोटे स्तर पर छोटी योजनाओं के साथ विपणन और उचित मूल्य परिवर्धन के उपाय करने होंगे। सभी सब्सिडी की समीक्षा करने की जरूरत है, ताकि यह उच्च उत्पादन और उच्च लाभ को प्रोत्साहित करें। विकृत प्रोत्साहन वाली पुरानी सब्सिडी को ख़त्म करना होगा।

औद्योगिक निवेश में कमी


उचित मूल्य परिवर्धन के उपाय एवं विपणन के प्रभावी प्रक्रिया के साथ अगर हम क्षेत्रवार विकास पर नजर डालें, तो जिन क्षेत्रों ने उत्तराखण्ड के विकास में खासा योगदान किया है, उनमें विनिर्माण और व्यापार, होटल एवं परिवहन, पर्यटन एवं संचार शामिल हैं। पिछले कुछ वर्षों में जो उच्च विकास दर देखने को मिली, वह रियायती औद्योगिक पैकेज का परिणाम थी, जिसके तहत राज्य को विभिन्न सब्सिडी के साथ टैक्स रियायत मिली थी। जब वह रियायती औद्योगिक पैकेज हटा लिया गया तो प्रारंभिक उत्साह मर गया और औद्योगिक निवेश में गिरावट आई। विनिर्माण क्षेत्र में विकास उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीआईपी) के चलते हुआ था, लेकिन जून 2013 की प्राकृतिक आपदा के कारण पर्यटन एवं सेवा जैसे क्षेत्रों के विकास में संरचनात्मक रूकावट आई। हालाकि प्रारंभिक विकास ने आशावाद का संकेत दिया, लेकिन इसका दूसरा पहलू बढ़ते क्षेत्रीय असंतुलन और राज्य की असमानता को दर्शाने वाला था।

आबादी में क्षेत्रीय असमानता


ऐसे कई क्षेत्र हैं, जहां विभिन्न जिलों के बीच शहरीकरण के स्तर, जनसँख्या घनत्व, साक्षरता दर, आय सूचकांक अन्य मानव विकास सूचकांक जैसे मामलों में स्पष्ट असमानता है। हालांकि औसत विकास दर और प्रति व्यक्ति अनुमानित आय से राज्य की अच्छी तस्वीर बनती है, लेकिन राज्य में भारी गरीबी के साथ-साथ क्षेत्रीय विषमतायें भारी चिंता के विषय हैं। राज्य के विभिन्न जिलों के जनसंख्या घनत्व में भी भारी अंतर है। उत्तरकाशी जिले का जनसंख्या घनत्व जहां सबसे कम 41 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है, वहीं हरिद्वार जिले में यह आकंडा 801 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, राज्य के दो जिले अल्मोड़ा और पौड़ी गढ़वाल तो एक दशक में ऋणात्मक विकास दर दर्शाते हैं। राज्य की लगभग आधी आबादी मात्र तीन जिलों- हरिद्वार, ऊधमसिंह नगर और देहरादून में केन्द्रित है। आबादी में ऋणात्मक और कम विकास का एक कारण संभवतः पहाड़ी इलाकों के ग्रामीण क्षेत्रों से लोगों का हल्द्वानी, रामनगर, कोटद्वार, ऋषिकेश, हरिद्वार, देहरादून, विकासनगर आदि शहरी मैदानी इलाकों में पलायन हो सकता है।

आर्थिक बदलाव से राज्य की कर राजस्व क्षमता में वृद्धि हुई, जो राजस्व प्राप्ति में बढ़ोत्तरी से परिलक्षित होता है। हालाकि बुजुर्गों और बच्चों की निर्भरता के अनुपात के साथ-साथ क्षेत्रीय असमानता का सीधा असर सेवाएं उपलब्ध करने की जरूरत और उनकी लागत, दोनों पर पड़ता है। वर्ष 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, राज्य में शून्य से 19 वर्ष के बच्चों की निर्भरता का अनुपात 113 फीसदी था, जबकि साठ वर्ष से ज्यादा उम्र के बुजुर्गों की निर्भरता का अनुपात 21 फीसदी, जो कुल मिलकर निर्भरता के अनुपात को 135 फीसदी के ऊंचे स्तर पर ले जाता है। यदि 20 से 59 वर्ष के आयु वर्ग को कार्यबल मानें, तो सामान्य तौर पर इसका मतलब है कि सौ कमाने वाले लोगों को 134 लोगों की देखभाल करनी पड़ती है। उच्च निर्भरता के आंकड़ों और उसके प्रभावों को क्षेत्रीय विषमताओं के साथ देखें, तो राज्य सरकार को पिछड़े इलाकों में बुनियादी संरचनाओं के निर्माण के साथ-साथ लोगों को शिक्षा एवं स्वास्थ्य सुविधाएँ उपलब्ध कराने के लिए भारी खर्च करने की जरूरत है। इनमें से ज्यादातर इलाके पहाड़ी क्षेत्रों में हैं और दुर्गम है और इसलिए वे शिक्षा व् स्वास्थ्य के क्षेत्र में पर्याप्त निजी निवेश आकर्षित नहीं कर पाते हैं।

राज्य की वित्तीय चुनौतियां


बारहवें और तेरहवें वित्त आयोग की सिफारिशों के आधार पर मिली रकम से राज्य की वित्तीय स्थिति में सुधार हुआ था। लेकिन योजना आयोग के उन्मूलन और केन्द्रीय सहायता की समाप्ति के साथ चौदहवें वित्त आयोग द्वारा आवंटित राशि ने राज्य की वित्तीय स्थिति पर विपरीत असर डाला है। हालांकि खबरों के मुताबिक, विशेष दर्जा वाले राज्यों के संबंध में पुनर्विचार हो रहा है और चौदहवें वित्त आयोग की सिफारिशों के आधार पर दी गई रकम के अतिरिक्त कुछ बजटीय सहायता भी दी जा सकती है। लेकिन आने वाले वर्षों में राज्य को काफी सावधानी बरतनी होगी।

.हालांकि चौदहवें वित्त आयोग ने कुल केन्द्रीय कर प्राप्ति में से राज्यों का हिस्सा 32.5 फीसदी से बढाकर 42.5 फीसदी कर दिया है, जिससे राज्य की कर हिस्सेदारी में 1300 करोड़ रुपये वृद्धि होने का अनुमान है। लेकिन सामान्य व विशेष केन्द्रीय सहायता में कटौती होने से संभवतः राज्य को करीब 2800 करोड़ रुपये का नुकसान होगा। इसका साफ मतलब है कि राज्य को शुद्ध रूप से करीब 1500 करोड़ रुपये का नुकसान होगा। आसन्न सातवें वेतन आयोग के साथ-साथ वित्तीय संसाधन का यह नुकसान राज्य की तस्वीर को बदहाल ही करने वाला है। करीब एक करोड़ की सीमित आबादी वाले इस राज्य की कर क्षमता भी सीमित है, वन संसाधनों के दोहन एवं पनबिजली आदि से जो राजस्व अर्जित किया जा सकता था, वह भी पर्यावरणीय मजबूरियों के चलते नहीं आने वाला है। योजना आयोग की एक समिति ने पर्यावरणीय मजबूरियों के चलते राज्य का विकास बाधित होने के कारण मुआवजा दिए जाने की सिफारिश की थी, लेकिन उस पर अब तक कोई ठोस कार्यवाही नहीं हुई है। उच्च विकास दर हासिल करना तथा इसे और समावेशी बनाना अगले दशक में राज्य की प्रमुख चुनौती होगा, जिसमें अन्य बातों के अलावा लाभ का सामान प्रसार शामिल होगा।

उत्तराखंड के बजट पर एक दृष्टि (करोड़ रुपये में)

क्रम संख्या

विवरण

2012-2013

(वास्तविक)

2013-14

(पुनरीक्षित अनुमान )

2014-15

बजट प्रस्ताव

1.

राजस्व प्राप्ति

15747.21

20549.43

24474.46

2.

राजस्व व्यय

13960.22

19001.06

23792.03

3.

बचत

1786.99

1548.37

682.43

4.

पूंजीगत परिव्यय

3542.10

3266.47

4591.37

5.

कुल राजस्व तथा पूँजी व्यय (2+4)

17502.32

22267.53

28383.4

6.

(क) लोक ऋण प्राप्तियां

3411.02

6039.59

5350.70

 

(ख) ऋणों की अदायगी

1487.37

2114.79

1757.79

 

(ग) शुद्ध ऋण (क-ख)

1923.65

3924.80

3592.91

7.

उधार एवं अग्रिम

   
 

(क) संवितरण

   (ऋण एवं अग्रिम)

272.57

616.41

212.59

 

(ख) वसूलियां

428.44

739.59

45.7

 

(ग) शेष (ख-क)

155.87

123.18

-166.83

 

एक सफल विकास माडल में सार्वजानिक निवेश के लिए वित्तीय संसाधन, एक जबाबदेह कुशल क्रियान्वयन मशीनरी, सार्वजनिक एवं निजी निवेश, दोनों को सुविधाजनक बनाने के लिए एक संस्थागत ढांचा और प्रभावी निगरानी मूल्यांकन के लिए संस्थागत व्यवस्था सुनिश्चित करना और सेवाओं की पहुँच व गुणवत्ता में सुधार शामिल होगा। चूँकि केंद्र सरकार के साथ ‘मजदूरी समता’ के सिद्धांत को अतीत में स्वीकार किया जा चुका है, इसलिए वर्तमान या भविष्य में ‘मजदूरी पर अंकुश लगाने’ की कोई सम्भावना नहीं है। यहीं पर राज्य को विभिन्न विभागों की पुनर्संरचना और पुनर्गठन करते हुए नौकरशाही का आकार घटाने के लिए प्रभावी मानदंडों एवं मानकों के अनुसार अतिरिक्त कर्मियों की छंटनी के साथ नई भर्ती पर नियंत्रण के सन्दर्भ में सोचना होगा। विभिन्न विभागों के बीच अधिकारों के बंटवारे का मुद्दा और श्रेणीबद्ध द्रष्टिकोण संसाधनों के अपेक्षाकृत कम उपयोग की तरफ ले जायेगा और आने वाले वर्षों में कन्जर्वेशन की जरूरत मुख्य चिंता का विषय होगा। यह जल प्रबंधन, पर्यावरण सम्बन्धी मुद्दे, पर्यटन एवं शिक्षा, कौशल विकास, कृषि व वानिकी एवं सम्बंधित गतिविधियों के लिए महत्वपूर्ण है।

दरअसल इस राज्य में विकास का सही -सही श्री गणेश होना बाकी है। इस राज्य के विकास से केवल इस राज्य का ही नहीं, बल्कि पूरे राष्ट्र का हित जुड़ा हुआ है। इसकी सीमाओं पर नजर डालें, तो यह उत्तर में चीन, पूर्व में नेपाल, दक्षिण में उत्तर प्रदेश व उत्तर- पश्चिम में हिमांचल प्रदेश से घिरा है। यदि चीन को अपनी अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं को महत्त्व देने की प्रणाली पर ध्यान दिया जाये, तो यह जरूरी हो जाता है कि उत्तराखंड की चीन से लगी सीमा को एक समस्त सुविधा संपन्न क्षेत्र में तब्दील कर दिया जाये। इसका सामरिक महत्त्व तो है ही, मगर आर्थिक मोर्चे पर इससे जो विकास की बयार बहेगी, उससे ‘मनीऑर्डर अर्थव्यवस्था’ का तमगा दूर करने में काफी मदद मिलेगी।

पहाड़ी इलाकों को सड़कों से जोड़ना राज्य की अन्य प्राथमिकता होगा, क्योंकि इसी से ग्रामीण क्षेत्रों की विभिन्न सेवाओं और बाजार तक पहुँच होगी और यह पर्यटन एवं अन्य आर्थिक गतिविधियों के लिए नए द्वार खोलेगा। सुशासन के नजरिये से देखें, तो वितरण प्रणाली की दक्षता में सुधार सबसे बड़ी चुनौती बनने वाली है। राज्य की संस्थागत क्षमता कमजोर है और जहां तक क्षमता-उन्नयन एवं जबाबदेही सुनिश्चित करने का सवाल है, तो इसमें काफी चुनौतियां हैं।

राजकोषीय एवं सेवाओं की गुणवत्ता, दोनों की लेखा परीक्षा (आडिट) को मजबूत बनाने की जरूरत है।

एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि हम ढांचागत अंतर को पाटने के लिए परिसंपत्ति निर्माण पर जोर देते हैं। लेकिन परिसंपत्तियों की देखरेख एवं परिचालन को शीर्ष वरीयता देनी होगी, क्योंकि पिछले कई दशकों का अनुभव बताता है की हम निर्मित क्षमता का भी पूरी तरह उपयोग करने में विफल रहे हैं, और कुछ मामले में तो क्षमता का बिल्कुल ही उपयोग नहीं हो पाया है।

आने वाले वर्षों में विभिन्न योजनाओं के तहत हमें 50 हजार करोड़ रुपये खर्च करने होंगे, जिसके नतीजे का मूल्यांकन जरूरी होगा, ताकि सुधार के लिए जरूरी कदम उठाये जा सकें।

ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों की तरफ पलायन से शहरों व नगरों पर दबाव बढ़ता है और शहरों व उपनगरीय क्षेत्रों का विकास करना पड़ता है। शहर एवं देश के लिए योजना बनाने वाले संगठनो में क्षमता की निहायत कमी है। शहरी पर्यावरण का प्रबंधन अगले दशक में वास्तव में एक बड़ी चुनौती होगी।

इस क्षेत्र में शहरी नियोजन, उपयुक्त विनियामक कानून, सार्वजनिक भागीदारी और बाहर से विशेषज्ञों की सेवायें लेने के किए उपयुक्त नीतिगत हस्तक्षेप जरूरी है।

-राज्य की संस्थागत क्षमता कमजोर है और जहां तक उन्नयन एवं जबाबदेही सुनिश्चित करने का सवाल है, तो इसमें काफी चुनौतियां हैं।

विश्व बैंक के सुझाव


उत्तराखंड के आर्थिक आंकलन संबंधी अपनी मसौदा रिपोर्ट में वर्ल्ड बैंक ने भी कुछ उपाय सुझाये हैं। ताकि अगले दशक में यह उत्तर भारत का प्रमुख राज्य बन सके। उत्तराखंड का उददेश्य होना चाहिए-

1. कृषि, बागवानी और उद्योग के क्षेत्र में उच्च गुणवत्ता वाली वस्तुओं के उत्पादन के लिए निवेश करने के साथ-साथ अपने उत्पादों की ब्रांडिग के वैविध्यीकरण पर ध्यान केन्द्रित करना।

2. सेवाओं के प्रभावी वितरण एवं उपलब्धता में शुमार के माध्यम से अपने शिक्षित युवाओं और पेशेवरों (जिनके लिए भारत और वैश्विक बाजार में अवसर तेजी से बढ़ रहे हैं) को जिवंत बनाये रखना।

3. सहायक बुनियादे ढांचे और विकास के अनुकूल कानूनों के जरिये सुशासन।

4. बुनियादी ढांचों के विकास पर ध्यान देना।

5. राज्य को हरा-भरा बनाये रखना। विकास की चुनौतियों खासकर पनबिजली, सड़क निर्माण और अन्य बुनियादी ढांचों के निर्माण के सन्दर्भ में पर्यावरणीय चिंताओं का खास खयाल रखना।

राजनीतिक अर्थव्यवस्था के अवरोध को देखते हुए वित्तीय संसाधनों के बेहतर संगठन के लिए रणनीतिक सुधार, मानव एवं प्राकृतिक संसाधनों के अधिकतम उपयोग का लक्ष्य रखना चाहिए। अब देखने वाली बात ही कि राज्य सरकार इसमें कितनी सफल होती है।

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