पानी चाहिए, तो लेनदेन सुधारें उद्योग
भारत में ऐसे तमाम और संयंत्र, वर्षों से धकाधक पानी खींच रहे हैं। भूजल सूख रहा है। अपना कचरा सीधे धरती में डालकर लोगों को बीमार बना रहे हैं। प्राण ले रहे हैं। नदियां जहर बन रही हैं। धरती धसक रही है। एक्सप्रेस वे के नाम पर मशहूर एक समूह ने उत्तर प्रदेश में यमुना-गंगा को मारने से परहेज नहीं किया है। कई नामी समूह उनकी औद्योगिक जरूरत से ज्यादा जमीन हथिया कर भूमि हड़पो अभियान चला ही रहे हैं। पूरे भारत को व्यापार के कायदे सिखाने तथा अपनी जड़ों से जुड़ाव के लिए सम्मान से देखे जाने वाले मारवाड़ी समुदाय या शख्सियत का बयान आया कि इस मरूभूमि का तीर्थ इसके कुएं, जोहड़, बावड़ी, कुंड व झालरे हैं, न कि बढ़ते बीयर बार व दारू पार्लर?
आर्थिक विकास और समग्र विकास के बीच दूरियां बढ़ती ही जा रही हैं। कभी-कभी ऐसा लगता है कि उद्योग, व्यापार और समाज एक-दूसरे के लिए हैं ही नहीं। अब उद्योग व समाज अक्सर आमने-सामने खड़े दिखाई देते हैं। खासकर ग्रामसमाज। प्रचारित किया जाता है कि स्वयंसेवी संगठन विकास के दुश्मन हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। हकीकत में यह नतीजा है नीति व नीयत में समग्र विकास के प्राथमिकता में न होने का। नीतियों में सार्वजनिक से ज्यादा, निजी के प्रभाव का। कायदे से ज्यादा, फायदे के प्रति प्रतिबद्धता का। पानी के मामले में भी यही है। जल प्रबंधन, जलाधिकार, जल बंटवारे को लेकर किसी ठोस व सकारात्मक नीति के अभाव में पानी और विवाद का रिश्ता गहराता ही जा रहा है। दुआ कीजिए कि वर्ष-2012 में प्रस्तावित नई जलनीति इस अभाव को दूर करने वाली साबित हो। फिलवक्त तो नववर्ष के पहले पखवाड़े ने संदेश दे दिया है कि इस वर्ष का पूर्वाद्ध पानी पर संजीदगी से सोचने का समय है। सोचिये! प्रथम बार और प्रथम श्रेणी का प्रश्न फिक्की की तरफ से उछला है। फिक्की यानी फेडरेशन ऑफ चेंबर ऑफ कामर्स एंड इंडस्ट्रीज। फिक्की पूछ रहा है कि उद्योगों को जितना पानी चाहिए, वह कहां से आयेगा? फिक्की के मंच से उद्योग और व्यापार जगत ने संभवतः पहली बार पानी की कमी चिंता जताई है।इस चिंता का आधार वह सर्वेक्षण है, जिसमें 60 फीसदी कंपनियां पानी-पानी चिल्ला रही हैं। कंपनियां कह रही हैं कि उनका उत्पादन प्रभावित हो रहा है। खासकर बिजली, रसायन, सीमेंट, कपड़ा, कृषि, शराब, ठंडे पेय, खाद्य प्रसंस्करण तथा विनिर्माण कंपनियां। फिक्की ने प्रश्न पूछा है कि जब 2025 में कुल उपलब्ध मीठे जल में से उद्योगों को 8.5 फीसदी तथा 2050 में 10.1 फीसदी हिस्सेदारी चाहिए होगी; तब पानी कहां से आयेगा? एक क्षण को हम सोच सकते हैं कि यह सवाल पानी पर परेशानी और बेईमानी... दोनो बढ़ायेगा। किंतु यदि फिक्की के सदस्य इस सवाल का जवाब खुद के कामकाज के तौर-तरीके में तलाशें, तो नतीजे सकरात्मक हो सकते हैं। जितना गौर फायदे पर है उतना ही कायदे पर भी करें, तो सवाल पूछना ही नहीं पड़ेगा। फिलहाल तो उन्हें खुद से पूछना चाहिए कि पानी कहां गया? जो और जितना पानी उन्होंने धरती से निकाला या नदियों से उठाया.... वह क्या सिर्फ उनके हिस्से का ही था? क्या उन्हें सिर्फ पानी पीने का ही अधिकार है? संजोने का कर्तव्य निर्वाह क्या सिर्फ समाज व सरकार की ही जिम्मेदारी है? मन में सवाल उठना ही चाहिए कि यदि उद्योगों की जरूरत के पानी के मार्ग में यदाकदा अवरोध आ रहे हैं, तो क्यों? साथ ही यह भी कि जब कभी कंपनियों ने अपने सामाजिक-प्राकृतिक दायित्वों की पूर्ति नहीं की, तो ऐसे मौकों पर क्या खुद फिक्की ने उन कंपनियों पर सवाल उठाये? इन सवालों का हल तलाशने के लिए भारत के शीतल पेय उद्योग पर 90 फीसदी कब्जे वाली पेप्सी-कोक से लेकर शॉ वैलेस तथा जे पी जैसी नामचीन कंपनियों की कारस्तानी से सबक लेना ही काफी होगा।
फिक्की जानता ही होगा कि मेंहदीगंज, बनारस स्थित कोकाकोला संयंत्र पर जबरिया जमीन कब्जाने, पानी चोरी और जहरीले पानी को बिना शोधन बाहर निकालने के आरोप है। प्रबंधकों का बयान आया है कि आरोप बेबुनियाद हैं और उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा दिया गया ‘बेस्ट आर्गेनाइजेशन अवार्ड’ प्रमाणिक। जबकि ऐसी ही करतूतों के चलते प्लाचीमाडा में कोकाकोला का काम बंद हुआ। बलिया के सिंहाचौर प्लांट में भी कंपनी को ताला लगाना ही पड़ा। ठंडी बोतल में कीटनाशकों की उपस्थिति को लेकर विज्ञान पर्यावरण केंद्र ने रिपोर्ट जारी की; तो जवाब में मीडिया का मुंह बंद रखने के लिए कंपनी ने विज्ञापन बांटे। फाउंडेशन बनाकर सामाजिक कार्यकर्ताओं को अपने पक्ष में करने की बिसात बिछाई। वर्षा जल संचयन के नाम पर जेब भी ढीली की। सब कुछ किया, पर नीयत नहीं बदली। धरती से जितना पानी निकाला, उतना और वैसा लौटाने की जहमत नहीं उठाई। क्या तब फिक्की ने पूछा कि भाई क्या कर रहे हो?
राजस्थान सरकार के रिकार्ड में जयपुर के नजदीक स्थित कालाडेरा डार्क जोन है। यह रिकार्ड भी कोकाकोला के पश्चिम कालाडेरा स्थित संयंत्र को पानी पीने से नहीं रोक पा रहा है। कोकाकोला ने किसानों का पानी खींचकर बोतलों में बंद कर दिया है। नतीजा? किसानों के पास न बोतलें खरीदने के लिए पैसा हैं और धरती से पानी निकालने के इंतजाम करने का। डार्कजोन किसानों के लिए बैंक के पास भी पंपसेट और कुंए के लिए लोन देने की इजाजत नहीं है। अब ऐसे में किसान उसका विरोध करें, तो अवरोध तो आयेंगे नहीं। गहलोत साहब ने वर्ष-2000 में अलवर और जयपुर जिले में चीनी, शराब, ठंडे पेय आदि ज्यादा पानी पीने वाले उद्योगों पर रोक संबंधी नीतिगत निर्णय वाली अधिसूचना जारी की थी। उनके जाते ही उद्योगों ने जुगत लगाई। वसुंधरा सरकार ने रोक हटाई। जयपुर, अलवर, भरतपुर, सीकर, उदयपुर, झुंझनू और श्रीगंगानगर में 23 चीनी, शराब और शीतल पेय संयंत्रों को हठात् स्वीकृति दी। तरूण भारत संघ नामक संगठन ने मुकदमा किया। बांटे गये कई लाइसेंस रद्द भी हुए; किंतु क्या पूरे भारत को व्यापार के कायदे सिखाने तथा अपनी जड़ों से जुड़ाव के लिए सम्मान से देखे जाने वाले मारवाड़ी समुदाय या शख्सियत का बयान आया कि इस मरूभूमि का तीर्थ इसके कुएं, जोहड़, बावड़ी, कुंड व झालरे हैं, न कि बढ़ते बीयर बार व दारू पार्लर?
भारत में ऐसे तमाम और संयंत्र, वर्षों से धकाधक पानी खींच रहे हैं। भूजल सूख रहा है। अपना कचरा सीधे धरती में डालकर लोगों को बीमार बना रहे हैं। प्राण ले रहे हैं। नदियां जहर बन रही हैं। धरती धसक रही है। एक्सप्रेस वे के नाम पर मशहूर एक समूह ने उत्तर प्रदेश में यमुना-गंगा को मारने से परहेज नहीं किया है। कई नामी समूह उनकी औद्योगिक जरूरत से ज्यादा जमीन हथिया कर भूमि हड़पो अभियान चला ही रहे हैं। क्या फिक्की ने कभी किसी से कहा कि वे अपनी नीयत ठीक रखें? खेती और उद्योग दोनों को जिंदा रखना जरूरी है। पानी की उपलब्धता तो पानी के लेनदेन में संतुलन से ही बनेगी। कभी टोका कि कंपनियां अपनी लक्ष्मण रेखा न लांघें? जिम्मेदारी निभाये? अतः यदि आज जमीन के विवाद, पानी की कमी या प्रदूषण की अधिकता को लेकर ऐसे संयंत्रों पर तलवार लटकी है, तो क्या फिक्की ऐसी किसी दूसरी कंपनी के पक्ष में बोलने का हक रखती है?
उद्योगपतियों को सोचना होगा कि उद्योग लोगों के लिए हैं, न कि लोग उद्योगों के लिए। उद्योग जरूरी हैं, लेकिन लोगों की सांस उनसे भी ज्यादा जरूरी हैं। पानी मिलता रहे, इसलिए जरूरी है कि स्रोत बचा रहे। इतना दोहन कैसे जायज हो सकता है कि स्रोत ही नष्ट हो जाये? अरे महाजन यानी महान जन तो वह होता है, जो लागत पर सिर्फ दो टका कमाये। उसका भी दस फीसदी धर्मादे में लगाये। उतना नहीं, तो फिक्की कम से कम आज यह तो सुनिश्चित करे कि उसके सदस्य उद्योग जितना पानी धरती से निकालेंगे, उतना और वैसा ही पानी धरती को वापस लौटायेंगे। और नहीं तो कम से कम फिक्की के सदस्य पूरी ईमानदारी के साथ पानी के अनुशासित उपयोग वाली औद्योगिक व व्यापारिक जल सदुपयोग नीति बनाये। अपने उद्योग व व्यापार में उतनी ही ईमानदारी से उसकी पालन सुनिश्चित कर मिसाल पेश करें। तब 2050 में भी हमारे उद्योगों को पानी मिलता रहेगा और 3050 में भी। तो क्या फिक्की पहल को तैयार है? हम तैयार हैं।
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