कुछ तटबंध ऐसे हैं जिन्हें बचा कर रखा जा सकता है और ऐसे तटबन्धों में उन तटबन्धों की तादाद ज्यादा है जिन्हें पानी के बहाव का रास्ता देकर और उनकी रुकावट की क्षमता समाप्त करके प्रभावहीन बनाया जा सकता है। अगर कोई तटबंध बचा कर रखा जाता है तो उसे दो शर्तें पूरी करनी चाहिये, पहली यह कि एक सीमा तक की बाढ़ों को छोड़ कर यह तटबंध बाढ़ों की राह का रोड़ा नहीं बनेंगे और यह बात अलग-अलग मामलों में अलग-अलग रूप से निर्धारित की जायेगी तथा दूसरी यह कि भले ही कितनी ही अप्रत्याशित बाढ़ आये, ऐसे तटबंध कभी नहीं टूटेंगे।
बाढ़ समस्या का यह रूप केवल बिहार, पूर्णियाँ, कोसी या गंडक तक ही सीमित नहीं था, इस तरह के विकास की प्रक्रिया प्रायः पूरे देश के बाढ़ वाले क्षेत्रों में चल रही थी और ऐसे पूरे इलाकों में अंग्रेज अपनी करनी का फल भुगत रहे थे। रेलवे के बांध, सड़कों की शक्ल में बांध, और तटबंध, सभी कुछ तेजी से बन रहा था। कहीं-कहीं नहरें भी बन रही थीं। उधर बाढ़ें थीं कि कम होने का नाम ही नहीं ले रही थीं। उनकी जवानी पर तो और भी ज्यादा निखार आ रहा था और तब प्रशासन अपने गिरेबान में झांकने को मजबूर हुआ। उड़ीसा में 25 नवम्बर 1927 को एक बाढ़ कमिटी का गठन किया गया जिसके चार सदस्य थे जो कि सभी इंजीनियर थे। इस समिति से उम्मीद की गई थी कि यह समिति “...उड़ीसा की बाढ़ समस्या का अध्ययन करके बाढ़ के विभिन्न कारणों का महत्व निर्धारित करेगी और समस्या के निवारण के लिए सबसे लाभदायक तरीकों की दिशा तय करेगी और वह रास्ते सुझायेगी जिससे समस्या का निदान हो या भविष्य में समस्या के अध्ययन में मदद मिले।”समिति के सदस्यों ने जनवरी 1928 से अगस्त 1928 तक उड़ीसा के विभिन्न क्षेत्रों के दौरे किये और बहुत से अधिकारियों, राजनीतिज्ञों, समाज सेवकों और किसानों से बात की और इस नतीजे पर पहुंचे कि, ‘‘ उड़ीसा के लोगों ने यह अनुभव किया है कि तटबंधों की प्रणाली ही उनकी सारी बाढ़ समस्या की जड़ में है और आंशिक रूप से बाढ़ से सुरक्षित (जहां तटबंध बने हुये हैं पर नहरें नहीं हैं) और बाढ़ से असुरक्षित इलाकों के रहने वाले बाशिन्दों की यह पुरजोर मांग है कि नहर प्रणाली को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया जाये और बाढ़ सुरक्षित क्षेत्र (जहां नहरें और तटबंध दोनों हैं) से होकर पूरी तरह नदियों के ऊफनते पानी को बहने दिया जाये। उनका तर्क यह है कि इस तरह की बाढ़ सुरक्षा बाकी इलाकों में बाढ़ की स्थिति को और अधिक बदतर बनाती है और जैसा कि हमने पहले कहा है कि उनकी यह दलील एकदम वाजिब है मगर उनके द्वारा सुझाया गया समाधान इतना कठोर है कि हम इसका समर्थन नहीं कर सकते।’’ फिर भी समिति का मानना था कि, ‘‘ उड़ीसा में समस्या यह नहीं है कि बाढ़ से बचाव कैसे किया जाये, समस्या यह है कि बाढ़ के पानी को जल्दी से जल्दी समुद्र तक कैसे पहुंचाया जाये और इसका समाधान इसी में निहित है कि इन सारी रुकावटों को समाप्त कर दिया जाये जो कि इस उद्देश्य प्राप्ति के रास्ते में आती हैं। दुर्भाग्यवश इस डेल्टा में लोग बसे हुये हैं, जिसकी वजह से इस नीति का पूरी तरह पालन नहीं हो सकता, ज्यादा से ज्यादा यही हो सकता है कि लोगों के रख-रखाव का ध्यान रखते हुये जितना तेजी से इसका पालन हो सके उतना ही अच्छा है। जो हालात अभी चल रहे हैं अगर उन्हें बना रहने दिया गया तो हम अपने ऊपर एक ऐसा कर्ज चढ़ायेंगे जिसका भुगतान अन्त में तबाही और बर्बादी की शक्ल में ही अदा करना पडे़गा।”
जहाँ तक बाढ़ का सम्बन्ध है उड़ीसा की बदहाली की कहानी 1863 से शुरू होती है जब आर्थर कॉटन के मशविरे से वहाँ इन्डिया इरिगेशन ऐण्ड कैनाल कम्पनी ने काम करना शुरू किया। इस नहर प्रणाली की शुरुआत ही झूठ की बुनियाद पर रखी गई थी और जाहिर है, इससे होने वाले फायदे को कई गुना बढ़ा कर बताया गया था। नहर की लागत संभाल के बाहर थी। नहर कम्पनी ने भारत सरकार की चेतावनी के बावजूद 1868 तक जैसे-तैसे काम किया जब वह फेल हो गई और आधा- तीया काम करके चलती बनी। तब उसका जिम्मा सरकार ने अपने हाथ किया में लिया और लक्ष्य को काफी घटा कर उसे पूरा किया। यह छोटी नहर प्रणाली भी सरकार के गले की फांस बनी नही क्योंकि एक तो इसका लागत खर्च बहुत ज्यादा था और ऊपर से न तो यह अपने रख-रखाव का खर्च उठा पाती थी और न ही पूंजी पर ब्याज ही अदा कर पाने की स्थिति में थी। इन नहरों की मदद से बैतरणी और जिका तथा महानदी के बीच के क्षेत्रों में निचले इलाके में सिंचाई मिलती थी। इन सारे सिंचित क्षेत्रों में खेतों की बाढ़ से सुरक्षा के लिए नदियों पर तटबंध उन इलाकों में भी बनाये गये थे जहाँ नहरें नहीं थीं और इन तटबन्धों में से कुछ तो हर साल टूटते थे और कुछ ऐसे भी थे जो केवल गाहे-ब-गाहे टूटते थे। इसके अलावा वहाँ ऐसे भी इलाके थे जिन्हें सिंचाई या बाढ़-नियंत्रण जैसी कोई भी सुरक्षा प्राप्त नहीं थी।
तटबन्धों और नहरों का लगातार टूटते रहना, बाढ़ के लेवल का बढ़ना, जल-जमाव, अटके पानी की झीलें और बाढ़ नियंत्रण के नाम पर समस्या का एक स्थान से दूसरे स्थान तक विस्थापन आदि कितने ही ऐसे सवाल थे जिन्होंने जन-मानस को परेशान कर रखा था। लोग पानी के रास्ते की रुकावटों से परेशान थे और उनसे फुर्सत पाना चाहते थे। इन लोगों ने अपनी बात साफ तरीके से समिति के सामने रखी।
समिति का आगे कहना था कि “...यह सुझाव देने की हमारी कतई मंशा नहीं है कि उड़ीसा में सारे के सारे तटबन्धों को ध्वस्त कर दिया जाय और उनको एक साथ ध्वस्त कर दिया जाय, ऐसा तो एकदम नहीं। यह पूरी प्रक्रिया धीमी होगी और समुद्र की ओर से शुरू होगी और हर तटबंध पर उसके गुण-दोष के आधार पर विचार करना होगा। इनमें से कुछ को तो निश्चित रूप से मिट्टी में मिला देना होगा पर कुछ तटबंध ऐसे हैं जिन्हें बचा कर रखा जा सकता है और ऐसे तटबन्धों में उन तटबन्धों की तादाद ज्यादा है जिन्हें पानी के बहाव का रास्ता देकर और उनकी रुकावट की क्षमता समाप्त करके प्रभावहीन बनाया जा सकता है। अगर कोई तटबंध बचा कर रखा जाता है तो उसे दो शर्तें पूरी करनी चाहिये, पहली यह कि एक सीमा तक की बाढ़ों को छोड़ कर यह तटबंध बाढ़ों की राह का रोड़ा नहीं बनेंगे और यह बात अलग-अलग मामलों में अलग-अलग रूप से निर्धारित की जायेगी तथा दूसरी यह कि भले ही कितनी ही अप्रत्याशित बाढ़ आये, ऐसे तटबंध कभी नहीं टूटेंगे।”
अपनी सिफारिशों के अन्त में समिति कहती है- “...इस तरह की नीति का अगर पालन किया जाय, तो ऐसे मामलात को छोड़कर जिनमें स्थानीय जनता की सुरक्षा आड़े आती है, तब हमारा विश्वास है कि जो बदहाली आज हो रही है उससे बचाव हो सकता है और सारे देश में टिकाऊ स्थितियाँ बनेंगी। यह काम तेजी से और अगर जरूरत पड़े तो सख़्ती से होना चाहिये।”
उड़ीसा बाढ़ समिति की रिपोर्ट ने इंजीनियरों की इस विचारधारा को मजबूत किया कि जिस समस्या को बाढ़ की समस्या कहा जाता है वह वास्तव में बाढ़ न हो कर जल-निकासों का अवरोध है। अगर इलाके में फैला हुआ बाढ़ का पानी तेजी से निकल जाये तो आम जनता को बाढ़ की कोई तकलीफ मालूम नहीं होगी। इसके अलावा बिना किसी पानी की निकासी का इन्तजाम किये बगैर अगर तटबंध, नहर, सड़क या रेल लाइन का निर्माण किया जायेगा तो इन संरचनाओं को तोड़ देने से भी परहेज नहीं करना चाहिये।
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