भारतीय संस्कृति की आधार स्तंभ गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के बजाय राजनीति हो रही है। गंगा नदी भारतीय संस्कृति की वाहक है इस पर देश के कई प्रदेशों की आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था निर्भर है। ऐसी स्थिति में गंगा में बढ़ रही गंदगी नदी को ही नहीं बल्कि गंगा द्वारा उपजे संस्कृति को भी नष्ट कर देगा। गंगा को अविरल निर्मल बनाने के अभियान में पिछले 25 सालों में अरबों रुपए पानी की तरह बह गए लेकिन गंगा साफ नहीं हो पाई क्योंकि गंगा को लेकर सरकारों की नीयत और हमारे दिलो-दिमाग में पनप रही बेपरवाही का मैला कहीं न कहीं महफूज है। जिस गंगा के दर्शन या आचमन मात्र से सारे बीमारियां खत्म हो जाते थे आज उसी गंगा के किनारे रहने वालों को गंगाजल बीमारियां बांट रहा है और अब तो अपने उद्गम गोमुख से ही गंगा गंदी हो रही है।
गंगा का पानी अमृत के समान माना जाता था। लेकिन यह अब मान्यता भर बनकर रह गयी है। प्रदूषण के कारण इसका पानी विषैला हो गया है। गंगा के किनारे निवास करने और इसमें डुबकी लगाने मात्र से सभी रोग खत्म हो जाते थे। वहीं अब गंगा के किनारे रहने से स्वस्थ व्यक्ति भी रोगी हो जाते हैं। गंगा में प्रदूषण की बात देशभर में की जा रही है। कभी हरिद्वार में प्रदूषित गंगा की बात होती है तो कभी इलाहाबाद-बनारस और पटना में। कहने को सरकारी विभाग, विशेषज्ञ सभी गंगा को मैदान में उतरने के बाद प्रदूषित होने की बात करते हैं लेकिन ऐसा नहीं है। गंगा अपने उद्गम से ही मैली हो रही है। गोमुख से गंगा के निकलते ही लोगों के क्रिया कलाप और आदत की वजह से इसमें गंदगी और प्रदूषण घुलने लगते हैं। जिससे अमृतजल अपना गुण खोने लगा है और जीवनदायिनी गंगा दम तोड़ने लगी है।
करीब एक माह पूर्व उत्तराखंड की चारधाम यात्रा शुरू हुई है। इस चारधाम यात्रा में लाखों श्रद्धालु पहुंच रहे हैं। भक्ति भाव में विभोर श्रद्धालु गंगोत्री में गंगा में डुबकी लगाकर अपनी यात्रा सफल मान लेते हैं। जबकि गंगा अपने उद्गम स्थल गोमुख से निकलने के बाद मात्र अठारह किलोमीटर (गंगोत्री) तक पहुंचते-पहुंचते इतनी मैली हो जाती है कि इसकी निर्मलता कहीं नजर नहीं आती। गंगा को बचाने के लिए पिछले एक दशक से सरकारी और गैर सरकारी प्रयास जारी हैं। कोई अविरल गंगा बहाने की बात करता है, कोई 'गंगा रक्षा मंच' से निर्मल गंगा बनाने का दावा करता है तो किसी ने गंगा बचाओ अभियान चला रखा है। सरकारी विभागों के सैकड़ों फाइलों में गंगा को प्रदूषणमुक्त करने की योजना धूल फांक रही है। वहीं देशभर में हजारों गैर सरकारी संगठन गंगा के नाम पर काम कर रही हैं। फिर भी गंगा का प्रदूषण दूर होता नहीं दिख रहा है, बल्कि प्रदूषण बढ़ता ही जा रहा है। सरकारी एवं गैर सरकारी प्रयास कब रंग लायेगा इसका जवाब किसी के पास नहीं है। गंगा गोमुख से कैसे मैली हो रही है, इसकी जानकारी होने के बावजूद सभी अनभिज्ञ बने हुए हैं।
हिन्दू धर्म के मतानुसार गंगा गोमुख से निकलती है। मान्यता है कि इक्ष्वाकु वंश के प्रतापी राजा भगीरथ के पूर्वज शाप ग्रस्त थे। अपने पूर्वजों को शाप मुक्त करने के लिए भगीरथ गंगा को स्वर्ग से धरती पर लेकर आए। गंगा का धरती पर पहला कदम गोमुख पर पड़ा। इसलिए इसे ही गंगा का उद्गम माना गया। क्योंकि गंगा को धरती पर राजा भगीरथ लेकर आए थे इसलिए गोमुख से निकलने वाली गंगा को भागीरथी भी कहते हैं। हिन्दू धर्मग्रंथ के अनुसार राजा भगीरथ ने धरती पर लाने से पहले गंगा को वचन दिया था कि ऋषि-मुनि, संत और महापुरुष गंगा स्नान कर उसके पानी को पवित्र बनाए रखेंगे। राजा भगीरथ के साठ हजार पूर्वज गंगा के जरिए मोक्ष को प्राप्त हो गए लेकिन कलयुग आते-आते इंसानों का पाप और मैल ढोते-ढोते गंगा स्वयं मृतप्राय हो चुकी है।
गंगोत्री के कपाट खुलने पर रोजाना करीब एक हजार तीर्थयात्री गोमुख तक जाते हैं। मई से अगस्त तक यात्रियों की यही संख्या रहती है। ये यात्री गोमुख में साबुन से स्नान के साथ-साथ कपड़े भी साफ करते हैं। जिससे रसायन गोमुख से ही घुलना शुरू हो जाता है। गंगा किनारे पत्थरों पर बैठकर यात्री खाना खाते हैं। खाने का पैकेट, प्लास्टिक, जूठा खाना गंगा में डाल देते हैं। इतना ही नहीं ये लोग गंगा के तट पर ही मल-मूत्र त्यागते हैं। जिससे गंगा की पवित्रता प्रभावित हो रही है। तीर्थयात्री गोमुख में अपने पुराने कपड़े, जूते-चप्पल भी छोड़ते हैं। इससे भी गंगा पर प्रतिकूल असर पड़ता है। चारधाम यात्रा सीजन के अलावा सावन के महीने में यहां सबसे ज्यादा तीर्थ यात्री आते हैं। सावन में रोजाना पांच हजार कांवरियां यहां आते हैं। उस दौरान गंगा सबसे ज्यादा मैली होती है। कई गैर सरकारी संगठन गोमुख तक यात्रियों को जाने पर पाबंदी लगाने की मांग करती रही है। लेकिन अभी तक इस पर फैसला नहीं हो पाया है। हिमालय एवं हिम नदियां बचाओ अभियान दल के भारी विरोध के बाद हाईकोर्ट ने एक फैसला सुनाया। इस फैसले के बाद एक दिन में 150 से ज्यादा तीर्थयात्री गोमुख नहीं जा सकेंगे और 15 खच्चर को रोजाना जाने की अनुमति है। इस फैसले के बाद भी गोमुख तक प्रत्येक दिन कई सौ तीर्थयात्री जा रहे हैं। भ्रष्ट पुलिस प्रशासन के सामने अदालत का फैसला कोई मायने नहीं रखता। यह कैसे हो रहा है, इसे समझा जा सकता है। शासन-प्रशासन अदालत के इस फैसले को नजरअंदाज कर रहा है। यदि हमें यहां गंगा को बचाना है तो इस पर पूरी रोक लगानी होगी।
उत्तराखंड के चार धाम में गंगोत्री एक महत्वपूर्ण धाम है। गंगोत्री गोमुख से 18 किलोमीटर नीचे है। यहां सैकड़ों धर्मशालाएं यात्रियों के ठहरने के लिए बने हैं। इसके अलावा देश के कथित कई बड़े बाबाओं के आश्रम भी गंगोत्री में हैं। प्रायः ये आश्रम अतिक्रमण की जमीन पर गंगा किनारे बनाए गए हैं। यहां के धर्मशालाएं और आश्रम बड़े-बड़े होटल में तब्दील हो चुके हैं। इन आश्रमों एवं धर्मशालाओं का गंदा पानी, टॉयलेट आदि गंगा में ही बहाये जाते हैं। एक भी आश्रम में इसे ठिकाने लगाने के लिए व्यवस्था नहीं है। शंकर मठ, पंजाब सिंध क्षेत्र धर्मशाला सहित कई आश्रम का गंदा पानी सीधे गंगा में डाला जा रहा है।
यहां कई साल पहले सीवर लाइन बिछाने की योजना बनायी गयी और सीवर ट्रीटमेंट प्लांट के लिए चार करोड़ 30 लाख रुपये का बजट स्वीकृत भी किया गया। फिर भी अभी तक न सीवर बना है और न ही सीवर ट्रीटमेंट प्लांट का निर्माण पूरा किया जा सका है। सीवर लाइन और सीवर ट्रीटमेंट प्लांट बनने से पहले ही विवादों में घिर गये हैं। सीवर लाइन पवित्र भगीरथ शिला के ऊपर से बिछाई जा रही है। सीवर लिफ्ट करने के लिए सूर्यकुंड घाट के सामने पंपिंग स्टेशन बनाया जा रहा है। इसके अलावा ट्रीटमेंट प्लांट भी गंगा किनारे बनाया जा रहा है। सीवर लिफ्ट यानी सीवर टैंक सूर्यकुंड के ऊपर बनने से सूर्यकुंड का अस्तित्व खतरे में है। वहीं गंगा तट पर ट्रीटमेंट प्लांट लगाने से इसके खराब होने पर पूरी गंदगी गंगा में ही बहायी जायेगी। इससे सीवर ट्रीटमेंट प्लांट का कोई फायदा नजर नहीं आ रहा है। सीजन के दौरान 5 से 10 हजार तीर्थयात्री गंगोत्री आते हैं। इनके अलावा इस दौरान हजारों पंडे, पुजारियों के अलावा दुकानदार, पुलिसकर्मी सहित गंगोत्री में 25 से 30 हजार की भीड़ होती है। यह सीजन छह महीने का होता है। अर्थात प्रत्येक साल सीजन के दौरान करीब 30 हजार लोगों की गंदगी गंगा में रोजाना बहायी जाती है। प्लास्टिक, कूड़ा कचरा अलग। इस गंदगी को ट्रीटमेंट करने के लिए ही सीवर ट्रीटमेंट प्लान बनाने की योजना गंगोत्री में चल रही है। लेकिन मंदिर समिति सहित पुजारी इस का विरोध कर रहे हैं।
गंगोत्री मंदिर समिति के अध्यक्ष संजीव सेमवाल ने बताया कि सीवर लाइन प्लान नाटक है। सीवर लाइन बिछने के बाद भी स्थिति ज्यों की त्यों बनी रहेगी। हम इस समस्या का हल चाहते हैं। करोड़ों खर्च के बाद भी यदि स्थिति में सुधार न आए तो उसका क्या फायदा। सीवर ट्रीटमेंट प्लांट और टैंक गंगा तट से दूर बनाया जाना चाहिए। क्योंकि पंपिंग स्टेशन फेल होने पर गंदगी सीधे गंगा में जाएगी। समस्या यहीं खत्म नहीं होती। सीवर ट्रीटमेंट प्लांट के लिए 100 किलोवाट बिजली की जरूरत पड़ेगी। अभी गंगोत्री में 300 किलोवाट बिजली की मांग है। इस प्रकार ट्रीटमेंट प्लांट लगने पर 400 किलोवाट बिजली की यहां जरूरत पड़ेगी। जबकि वर्तमान में 100 किलोवाट वाली उरेडा लघु जलविद्युत परियोजना ही बनी है। इसे 50 किलोवाट विस्तारित करने के लिए अतिरिक्त टरबाइन लगायी जानी है। ऐसे में बिजली के अभाव में ट्रीटमेंट प्लांट की क्या स्थिति होगी, समझा जा सकता है। हिमालय एवं हिम नदियां बचाओ अभियान दल की नेत्री शांति ठाकुर कहती हैं, ' मेरे विचार से भैरोघाटी से आगे गाड़ी न जाए। यहां से 10 किलोमीटर श्रद्धालु गंगा का जयकार लगाकर पैदल ही जाएं। इससे प्रतिदिन 200 से ज्यादा गाड़ियों का प्रदूषण नहीं फैलेगा। गंगा के किनारे बसे सभी कस्बों और नगरों में प्लास्टिक के प्रयोग पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए। तभी गंगा को प्रदूषण मुक्त बना सकते हैं।'
हर्षिल गंगोत्री से 25 किलोमीटर नीचे है। जिला मुख्यालय उत्तरकाशी और गंगोत्री के बीच हर्षिल एक प्रमुख कस्बा है। यहां इंडियन आर्मी के घोड़ों का बहुत बड़ा अस्तबल है। यहां कई दर्जन घोड़ों को रखा जाता है। अस्तबल की गंदगी और घोड़ों के मल (लीद) को गंगा में बहा दिया जाता है। इंडियन आर्मी से ऐसी अपेक्षा नहीं की जाती लेकिन ऐसा हो रहा है। सेना घोड़ों के मल-मूत्र को नष्ट करने के बजाए उसे गंगा में बहा देती है। यही नहीं बल्कि इंडियन आर्मी के कैम्प की गंदगी को भी गंगा ही ढो रही है। इस कैम्प में सैकड़ों फौजी तैनात हैं और तीन से चार दर्जन के करीब घोड़े हैं। गंगोत्री धाम यात्रा का एक प्रमुख कस्बा होने के कारण हर्षिल की आबादी दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। आबादी बढ़ने से इसका दबाव गंगा पर ही पड़ता है। हर्षिल के किसी घर में गंदा पानी को जमा करने के लिए या जमीन के नीचे रिचार्ज के लिए सोखता या टैंक नहीं है। इन घरों की नालियों को रुख गंगा की ओर दी है। जिस तरह बूंद-बूंद से घड़ा भरता है ठीक उसी प्रकार थोड़ी-थोड़ी गंदगी से गंगा का पानी विषैला हो रहा है। हर्षिल की आबादी करीब 4 से 5 हजार है। यहां भी कई छोटे-बड़े होटल खुल चुके हैं। ढाबा और रेस्टोरेंट की रौनक भी बढ़ी है। छोटे-छोटे कस्बों में बढ़ रही रौनक विकास की गाथा हो सकती है लेकिन इस विकास गाथा में कई प्राकृतिक सम्पत्ति को हम मौत के घाट उतार रहे हैं। शहरीकरण की अंधी होड़ ने गंगा जैसी प्रकृति की अनमोल संपत्ति का अस्तित्व खतरे में डाल दिया है। अब गंगा का पानी पीने लायक नहीं रह गया है।
भटवाड़ी गोमुख से 70 किलोमीटर और हर्षिल से 45 किलोमीटर नीचे है। यहां गढ़वाल विकास निगम ने गंगा के किनारे गेस्ट हाउस बनाया है। उत्तराखंड सरकार का यह गेस्ट हाउस गंगा को भटवाड़ी में मैला कर रही है। गेस्ट हाउस की नाली सीधे गंगा में डाली गई है। सरकार जिस गंगा को पवित्र करने के लिए करोड़ों रुपये खर्च कर रही है, वहीं एक सरकारी भवन की गंदगी गंगा में प्रवाहित करना उसकी गंभीरता का सबूत है। सीजन के समय यह गेस्ट हाउस वीआईपी गेस्टों से भरा रहता है। ये वीआईपी गेस्ट किसी न किसी रूप में सरकारी योजनाओं में अपनी दखल रखते हैं। सार्वजनिक सभाओं में ये लोग (वीआईपी) भी गंगा को पवित्र बनाने के वादे करते रहे हैं लेकिन इसकी गंभीरता किसी से छुपी नहीं है।
उद्गम स्थल गोमुख से प्रदूषित गंगा का हाल मैदान में आते-आते और भी बदतर हो जाती है। उत्तराखंड पर्यावरण संरक्षण एवं प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार हरिद्वार में गंगा के जल में ई कोलीफार्म नामक बैक्टीरिया की मात्रा बहुत ज्यादा पाई गई है। यहां का पानी पीने योग्य तो दूर कृषि योग्य भी नहीं बचा है। गोमुख से हरिद्वार पहुंचते-पहुंचते गंगा में प्रतिदिन 89 मिलियन लीटर मल-मूत्र मिलता है। अकेले धर्मनगरी हरिद्वार में प्रतिदिन 37.36 मिलियन लीटर मल-मूत्र गंगा में बहाया जाता है। गोमुख, गंगोत्री का जिला मुख्यालय उत्तरकाशी है। यह गंगोत्री से करीब सौ किलोमीटर और गोमुख से 118 किलोमीटर पर है। शहर की गंदगी और मल-मूत्र सीवर लाइन से गंगा में बहाए जा रहे हैं। 25 हजार के करीब आबादी वाले इस शहर से रोजाना 10 मिलियन लीटर गंदगी गंगा में बहाई जाती है। शहर में स्थित होटलों, धर्मशालाओं, सरकारी विभागों सहित निवासियों के घर से निकलने वाली गंदगी को ठिकाने लगाने की कोई व्यवस्था नहीं की गई है। कुछ वर्ष पूर्व बने सीवर ट्रीटमेंट प्लांट के फेल होने के बाद एक बार फिर नया ट्रीटमेंट शहर से डेढ़ किलोमीटर दूर ज्ञानसू में बनाने की योजना है। अभी इसके बनने में वर्षों लगेंगे। बनने के बाद भी ट्रीटमेंट प्लांट चालू होगा या नहीं, इसके बारे में कोई नहीं बता सकता। क्योंकि जब एक प्लांट यहां फेल हो चुका है तो दूसरे प्लांट पर निश्चित तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता।
गंगा के किनारे 100 मीटर की दूरी तक किसी भी प्रकार के निर्माण पर पूर्ण रोक है। अदालत के इस फैसले को भी गंगोत्री से उत्तरकाशी तक धज्जियां उड़ाई जा रही है। गंगोत्री से उत्तरकाशी तक बसे अधिकतर कस्बों में गंगा के घाट का अतिक्रमण कर निर्माण कर दिया गया है। उत्तरकाशी शहर गंगा के किनारे-किनारे बसा है। गंगा तट से एक मीटर भी खाली जगह नहीं छोड़ी गई है। इसके बावजूद प्रशासन तमाशबीन बना हुआ है।
जिला मुख्यालय में शहरों की गंदगी के अलावा एक अन्य समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया है। वह है गंगा तट पर टॉयलेट करना। रोजना सुबह-सुबह करीब 300 लोग प्रति घंटा गंगा किनारे टॉयलेट करते हैं। उत्तरकाशी पॉलीटेक्निक कॉलेज में कार्यरत एसएस टरियाल ने इसके लिए 1986 में सिटी और शंख अभियान चलाया था। श्री टरियाल कुछ स्कूली छात्रों के साथ सुबह-सुबह गंगा किनारे सिटी बजाकर टॉयलेट करने वाले को रोकते थे। उसके बाद उन्हें गंगा की पवित्रता के बारे में समझाया जाता था। जिससे इनके प्रयास रंग लाने लगे, लेकिन यह अभी भी खत्म नहीं हो पाया है। श्री टरियाल बताते हैं कि इस अभियान को मैंने अकेले शुरू किया था। बाद में स्कूल के छात्रों को इससे जोड़ा गया। सिटी अभियान उत्तरकाशी सहित रुद्रप्रयाग, कर्णप्रयाग, गंगोत्री, यमुनोत्री, देवप्रयाग, ऋषिकेश, हरिद्वार में चलाया गया। वहीं शेष अभियान बनारस से गंगा सागर तक। इस अभियान से बहुत लाभ हुआ। लोगों ने गंगा तट पर टॉयलेट करना कम कर दिया था।
वर्ष 1988 में उत्तरकाशी के पांच इंजीनियर को यूरोपीय देशों में वहां की सीवर लाइन का अध्ययन के लिए भेजा गया था। इन्हें वहां इसलिए भेजा गया था ताकि वे लोग वहां के पर्वतीय इलाकों में बने सीवर लाइन का अध्ययन कर सकें। उसके बाद उसे अपने शहरों में जमीन पर उतारें। लेकिन दौरे से वापस आते ही सभी इंजीनियर उत्तरकाशी से अन्य शहरों में स्थानांतरित कर दिए गए। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर उन्हें लाखों खर्च कर क्यों विदेश भेजा गया और यदि भेजा गया तो उसका लाभ क्यों नहीं लिया गया। जिला मुख्यालय में सीवर ट्रीटमेंट प्लांट बनाने के लिए 1998 में 9 करोड़ 63 लाख रुपये निर्गत किए गए। इस पैसे से सीवर ट्रीटमेंट प्लांट बनाया तो गया लेकिन यह आज तक चालू नहीं हो पाया है। गंगा किनारे बने इस प्लांट का एक हिस्सा तोड़कर पंपिंग स्टेशन बना दिया गया है। करोड़ों रुपये की लागत से बना ट्रीटमेंट प्लांट फेल हो गया है। यह प्लांट शोभा की वस्तु बन कर रह गया।
भारतीय संस्कृति का आधार स्तंभ मानी जाने वाली गंगा पर राजनीति चरम पर है। दिन-रात गंगा की स्तुति में लीन रहने वाले इसके मानस पुत्र इसे प्रदूषण मुक्त बनाने के जमीनी प्रयास करने के बजाय 'गंगा बचाओ अभियान' में भी अपना स्वार्थ सिद्ध कर रहे हैं। हिन्दू धर्म एवं संस्कृति के कथित ठेकेदार और धर्मगुरु धर्म की आड़ में इसको (गंगा को) भोग-विलास, मनोरंजन, एवं व्यवसाय का केंद्र बनाकर भौतिकवाद में डूबे हुए हैं। पिछले आम चुनाव के पूर्व योगगुरु रामदेव, परमार्थ निकेतन ऋषिकेश के सर्वेसर्वा स्वामी चिदानंद मुनि एवं स्वामी हंसदास ने 'गंगा रक्षा मंच' बनाया। स्वामी रामदेव ने उस समय शपथ ली थी कि जिस प्रकार योग को पूरे भारत में लोकप्रिय बना दिया है, ठीक उसी प्रकार गंगा को मैला होने से रोकने के लिए क्रांति लायेंगे। इन लोगों के साथ हरिद्वार, ऋषिकेश के कई संतों ने भी गंगा को प्रदूषणमुक्त करने के लिए उनका सहयोग करने की कसम खाई थी। 'गंगा रक्षा मंच' बनने के कुछ समय बाद ही मंच की हकीकत सामने आ गई। संतों की आपसी राजनीति का शिकार 'गंगा बचाओ अभियान' हुआ। एक साल बाद भी गंगा की स्थिति में कोई सुधार नहीं आई, बल्कि इसमें प्रदूषण और बढ़ा ही है।
उद्गम स्थल गोमुख से प्रदूषित गंगा का हाल मैदान में आते-आते और भी बदतर हो जाती है। उत्तराखंड पर्यावरण संरक्षण एवं प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार हरिद्वार में गंगा के जल में ई कोलीफार्म नामक बैक्टीरिया की मात्रा बहुत ज्यादा पाई गई है। यहां का पानी पीने योग्य तो दूर कृषि योग्य भी नहीं बचा है। गोमुख से हरिद्वार पहुंचते-पहुंचते गंगा में प्रतिदिन 89 मिलियन लीटर मल-मूत्र मिलता है। अकेले धर्मनगरी हरिद्वार में प्रतिदिन 37.36 मिलियन लीटर मल-मूत्र गंगा में बहाया जाता है। अस्पतालों का कचरा, अधजले मानव शरीर, लेड, कैडमियम, क्रोमियम जैसी धातुओं और डीडीटी जैसे कीटनाशक के गंगा में मिलने से इसका पानी जहरीला बनता जा रहा है। सरकारी और गैरसरकारी स्तर पर इसे बचाने के लिए कई योजनाएं बनीं। लेकिन ये योजनाएं धरातल पर नहीं आ पाईं। अधिकतर योजनाओं को भ्रष्टाचार की काली छाया ने घेर लिया। 1984 में बने 'गंगा एक्शन प्लान' के तहत आज तक लगभग 1500 करोड़ रुपये गंगा शुद्ध करने में बहाए गए। लेकिन इसका कोई सफल नतीजा सामने नहीं आ पाया है। हां, इन योजना को कार्य रूप देने में लगे 'महानुभावों' के घर की रौनक जरूर बढ़ी गई।
गंगा का पानी अमृत के समान माना जाता था। लेकिन यह अब मान्यता भर बनकर रह गयी है। प्रदूषण के कारण इसका पानी विषैला हो गया है। गंगा के किनारे निवास करने और इसमें डुबकी लगाने मात्र से सभी रोग खत्म हो जाते थे। वहीं अब गंगा के किनारे रहने से स्वस्थ व्यक्ति भी रोगी हो जाते हैं। गंगा में प्रदूषण की बात देशभर में की जा रही है। कभी हरिद्वार में प्रदूषित गंगा की बात होती है तो कभी इलाहाबाद-बनारस और पटना में।
गंगा नदी संस्कृति की वाहक है। इस पर कई प्रदेशों की आर्थिक और सामाजिक चेतना निर्भर है। ऐसी स्थिति में गंगा में गंदगी का प्रवाह नदी को ही नहीं संस्कृति को भी नष्ट कर देगा। अंधाधुंध औद्योगीकरण और सामाजिक चेतना के अभाव ने गंगा के अमृत समान पानी को बेइंतहा गंदा कर दिया है। गंगा के किनारे 700 शहर एवं कस्बे बसे हैं। यह नदी देश की करीब 30 फीसदी आबादी की जीवनरेखा है। ऐसे में यदि गंगा के अस्तित्व को खतरा पहुंचता है तो इसके किनारे बसी आबादी को नष्ट होते देर नहीं लगेगी। अब तो गंगा अपने उद्गम स्थल (गोमुख) से ही प्रदूषित हो रही है। इसे मैला करने में आम लोग, सरकारी अमला सहित साधु-संन्यासी भी शामिल हैं। आश्रमों का गंदा पानी हो या शहर की गंदगी सभी को गंगा में ही प्रवाहित किया जाता है। जानवरों से लेकर इंसानों तक का मल-मूत्र भी इसी गंगा में बहाया जाता है। ऐसे में गंगा को बचाना नामुमकिन-सा लगता है। फिर भी विलासिता पूर्ण जीवन जीने के आदि हो चुके भारतीय समाज को इसकी कोई चिंता नहीं है। बढ़ते प्रदूषण के कारण गंगा संकट में है और संकट में है भारतीय सभ्यता।गंगा का पानी अमृत के समान माना जाता था। लेकिन यह अब मान्यता भर बनकर रह गयी है। प्रदूषण के कारण इसका पानी विषैला हो गया है। गंगा के किनारे निवास करने और इसमें डुबकी लगाने मात्र से सभी रोग खत्म हो जाते थे। वहीं अब गंगा के किनारे रहने से स्वस्थ व्यक्ति भी रोगी हो जाते हैं। गंगा में प्रदूषण की बात देशभर में की जा रही है। कभी हरिद्वार में प्रदूषित गंगा की बात होती है तो कभी इलाहाबाद-बनारस और पटना में। कहने को सरकारी विभाग, विशेषज्ञ सभी गंगा को मैदान में उतरने के बाद प्रदूषित होने की बात करते हैं लेकिन ऐसा नहीं है। गंगा अपने उद्गम से ही मैली हो रही है। गोमुख से गंगा के निकलते ही लोगों के क्रिया कलाप और आदत की वजह से इसमें गंदगी और प्रदूषण घुलने लगते हैं। जिससे अमृतजल अपना गुण खोने लगा है और जीवनदायिनी गंगा दम तोड़ने लगी है।
करीब एक माह पूर्व उत्तराखंड की चारधाम यात्रा शुरू हुई है। इस चारधाम यात्रा में लाखों श्रद्धालु पहुंच रहे हैं। भक्ति भाव में विभोर श्रद्धालु गंगोत्री में गंगा में डुबकी लगाकर अपनी यात्रा सफल मान लेते हैं। जबकि गंगा अपने उद्गम स्थल गोमुख से निकलने के बाद मात्र अठारह किलोमीटर (गंगोत्री) तक पहुंचते-पहुंचते इतनी मैली हो जाती है कि इसकी निर्मलता कहीं नजर नहीं आती। गंगा को बचाने के लिए पिछले एक दशक से सरकारी और गैर सरकारी प्रयास जारी हैं। कोई अविरल गंगा बहाने की बात करता है, कोई 'गंगा रक्षा मंच' से निर्मल गंगा बनाने का दावा करता है तो किसी ने गंगा बचाओ अभियान चला रखा है। सरकारी विभागों के सैकड़ों फाइलों में गंगा को प्रदूषणमुक्त करने की योजना धूल फांक रही है। वहीं देशभर में हजारों गैर सरकारी संगठन गंगा के नाम पर काम कर रही हैं। फिर भी गंगा का प्रदूषण दूर होता नहीं दिख रहा है, बल्कि प्रदूषण बढ़ता ही जा रहा है। सरकारी एवं गैर सरकारी प्रयास कब रंग लायेगा इसका जवाब किसी के पास नहीं है। गंगा गोमुख से कैसे मैली हो रही है, इसकी जानकारी होने के बावजूद सभी अनभिज्ञ बने हुए हैं।
गोमुख में घुलता मल-मूत्र
हिन्दू धर्म के मतानुसार गंगा गोमुख से निकलती है। मान्यता है कि इक्ष्वाकु वंश के प्रतापी राजा भगीरथ के पूर्वज शाप ग्रस्त थे। अपने पूर्वजों को शाप मुक्त करने के लिए भगीरथ गंगा को स्वर्ग से धरती पर लेकर आए। गंगा का धरती पर पहला कदम गोमुख पर पड़ा। इसलिए इसे ही गंगा का उद्गम माना गया। क्योंकि गंगा को धरती पर राजा भगीरथ लेकर आए थे इसलिए गोमुख से निकलने वाली गंगा को भागीरथी भी कहते हैं। हिन्दू धर्मग्रंथ के अनुसार राजा भगीरथ ने धरती पर लाने से पहले गंगा को वचन दिया था कि ऋषि-मुनि, संत और महापुरुष गंगा स्नान कर उसके पानी को पवित्र बनाए रखेंगे। राजा भगीरथ के साठ हजार पूर्वज गंगा के जरिए मोक्ष को प्राप्त हो गए लेकिन कलयुग आते-आते इंसानों का पाप और मैल ढोते-ढोते गंगा स्वयं मृतप्राय हो चुकी है।
गंगोत्री के कपाट खुलने पर रोजाना करीब एक हजार तीर्थयात्री गोमुख तक जाते हैं। मई से अगस्त तक यात्रियों की यही संख्या रहती है। ये यात्री गोमुख में साबुन से स्नान के साथ-साथ कपड़े भी साफ करते हैं। जिससे रसायन गोमुख से ही घुलना शुरू हो जाता है। गंगा किनारे पत्थरों पर बैठकर यात्री खाना खाते हैं। खाने का पैकेट, प्लास्टिक, जूठा खाना गंगा में डाल देते हैं। इतना ही नहीं ये लोग गंगा के तट पर ही मल-मूत्र त्यागते हैं। जिससे गंगा की पवित्रता प्रभावित हो रही है। तीर्थयात्री गोमुख में अपने पुराने कपड़े, जूते-चप्पल भी छोड़ते हैं। इससे भी गंगा पर प्रतिकूल असर पड़ता है। चारधाम यात्रा सीजन के अलावा सावन के महीने में यहां सबसे ज्यादा तीर्थ यात्री आते हैं। सावन में रोजाना पांच हजार कांवरियां यहां आते हैं। उस दौरान गंगा सबसे ज्यादा मैली होती है। कई गैर सरकारी संगठन गोमुख तक यात्रियों को जाने पर पाबंदी लगाने की मांग करती रही है। लेकिन अभी तक इस पर फैसला नहीं हो पाया है। हिमालय एवं हिम नदियां बचाओ अभियान दल के भारी विरोध के बाद हाईकोर्ट ने एक फैसला सुनाया। इस फैसले के बाद एक दिन में 150 से ज्यादा तीर्थयात्री गोमुख नहीं जा सकेंगे और 15 खच्चर को रोजाना जाने की अनुमति है। इस फैसले के बाद भी गोमुख तक प्रत्येक दिन कई सौ तीर्थयात्री जा रहे हैं। भ्रष्ट पुलिस प्रशासन के सामने अदालत का फैसला कोई मायने नहीं रखता। यह कैसे हो रहा है, इसे समझा जा सकता है। शासन-प्रशासन अदालत के इस फैसले को नजरअंदाज कर रहा है। यदि हमें यहां गंगा को बचाना है तो इस पर पूरी रोक लगानी होगी।
आश्रमों की गंदगी गंगोत्री की गंगा में
उत्तराखंड के चार धाम में गंगोत्री एक महत्वपूर्ण धाम है। गंगोत्री गोमुख से 18 किलोमीटर नीचे है। यहां सैकड़ों धर्मशालाएं यात्रियों के ठहरने के लिए बने हैं। इसके अलावा देश के कथित कई बड़े बाबाओं के आश्रम भी गंगोत्री में हैं। प्रायः ये आश्रम अतिक्रमण की जमीन पर गंगा किनारे बनाए गए हैं। यहां के धर्मशालाएं और आश्रम बड़े-बड़े होटल में तब्दील हो चुके हैं। इन आश्रमों एवं धर्मशालाओं का गंदा पानी, टॉयलेट आदि गंगा में ही बहाये जाते हैं। एक भी आश्रम में इसे ठिकाने लगाने के लिए व्यवस्था नहीं है। शंकर मठ, पंजाब सिंध क्षेत्र धर्मशाला सहित कई आश्रम का गंदा पानी सीधे गंगा में डाला जा रहा है।
यहां कई साल पहले सीवर लाइन बिछाने की योजना बनायी गयी और सीवर ट्रीटमेंट प्लांट के लिए चार करोड़ 30 लाख रुपये का बजट स्वीकृत भी किया गया। फिर भी अभी तक न सीवर बना है और न ही सीवर ट्रीटमेंट प्लांट का निर्माण पूरा किया जा सका है। सीवर लाइन और सीवर ट्रीटमेंट प्लांट बनने से पहले ही विवादों में घिर गये हैं। सीवर लाइन पवित्र भगीरथ शिला के ऊपर से बिछाई जा रही है। सीवर लिफ्ट करने के लिए सूर्यकुंड घाट के सामने पंपिंग स्टेशन बनाया जा रहा है। इसके अलावा ट्रीटमेंट प्लांट भी गंगा किनारे बनाया जा रहा है। सीवर लिफ्ट यानी सीवर टैंक सूर्यकुंड के ऊपर बनने से सूर्यकुंड का अस्तित्व खतरे में है। वहीं गंगा तट पर ट्रीटमेंट प्लांट लगाने से इसके खराब होने पर पूरी गंदगी गंगा में ही बहायी जायेगी। इससे सीवर ट्रीटमेंट प्लांट का कोई फायदा नजर नहीं आ रहा है। सीजन के दौरान 5 से 10 हजार तीर्थयात्री गंगोत्री आते हैं। इनके अलावा इस दौरान हजारों पंडे, पुजारियों के अलावा दुकानदार, पुलिसकर्मी सहित गंगोत्री में 25 से 30 हजार की भीड़ होती है। यह सीजन छह महीने का होता है। अर्थात प्रत्येक साल सीजन के दौरान करीब 30 हजार लोगों की गंदगी गंगा में रोजाना बहायी जाती है। प्लास्टिक, कूड़ा कचरा अलग। इस गंदगी को ट्रीटमेंट करने के लिए ही सीवर ट्रीटमेंट प्लान बनाने की योजना गंगोत्री में चल रही है। लेकिन मंदिर समिति सहित पुजारी इस का विरोध कर रहे हैं।
गंगोत्री मंदिर समिति के अध्यक्ष संजीव सेमवाल ने बताया कि सीवर लाइन प्लान नाटक है। सीवर लाइन बिछने के बाद भी स्थिति ज्यों की त्यों बनी रहेगी। हम इस समस्या का हल चाहते हैं। करोड़ों खर्च के बाद भी यदि स्थिति में सुधार न आए तो उसका क्या फायदा। सीवर ट्रीटमेंट प्लांट और टैंक गंगा तट से दूर बनाया जाना चाहिए। क्योंकि पंपिंग स्टेशन फेल होने पर गंदगी सीधे गंगा में जाएगी। समस्या यहीं खत्म नहीं होती। सीवर ट्रीटमेंट प्लांट के लिए 100 किलोवाट बिजली की जरूरत पड़ेगी। अभी गंगोत्री में 300 किलोवाट बिजली की मांग है। इस प्रकार ट्रीटमेंट प्लांट लगने पर 400 किलोवाट बिजली की यहां जरूरत पड़ेगी। जबकि वर्तमान में 100 किलोवाट वाली उरेडा लघु जलविद्युत परियोजना ही बनी है। इसे 50 किलोवाट विस्तारित करने के लिए अतिरिक्त टरबाइन लगायी जानी है। ऐसे में बिजली के अभाव में ट्रीटमेंट प्लांट की क्या स्थिति होगी, समझा जा सकता है। हिमालय एवं हिम नदियां बचाओ अभियान दल की नेत्री शांति ठाकुर कहती हैं, ' मेरे विचार से भैरोघाटी से आगे गाड़ी न जाए। यहां से 10 किलोमीटर श्रद्धालु गंगा का जयकार लगाकर पैदल ही जाएं। इससे प्रतिदिन 200 से ज्यादा गाड़ियों का प्रदूषण नहीं फैलेगा। गंगा के किनारे बसे सभी कस्बों और नगरों में प्लास्टिक के प्रयोग पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए। तभी गंगा को प्रदूषण मुक्त बना सकते हैं।'
हर्षिल में अस्तबल से गंदगी
हर्षिल गंगोत्री से 25 किलोमीटर नीचे है। जिला मुख्यालय उत्तरकाशी और गंगोत्री के बीच हर्षिल एक प्रमुख कस्बा है। यहां इंडियन आर्मी के घोड़ों का बहुत बड़ा अस्तबल है। यहां कई दर्जन घोड़ों को रखा जाता है। अस्तबल की गंदगी और घोड़ों के मल (लीद) को गंगा में बहा दिया जाता है। इंडियन आर्मी से ऐसी अपेक्षा नहीं की जाती लेकिन ऐसा हो रहा है। सेना घोड़ों के मल-मूत्र को नष्ट करने के बजाए उसे गंगा में बहा देती है। यही नहीं बल्कि इंडियन आर्मी के कैम्प की गंदगी को भी गंगा ही ढो रही है। इस कैम्प में सैकड़ों फौजी तैनात हैं और तीन से चार दर्जन के करीब घोड़े हैं। गंगोत्री धाम यात्रा का एक प्रमुख कस्बा होने के कारण हर्षिल की आबादी दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। आबादी बढ़ने से इसका दबाव गंगा पर ही पड़ता है। हर्षिल के किसी घर में गंदा पानी को जमा करने के लिए या जमीन के नीचे रिचार्ज के लिए सोखता या टैंक नहीं है। इन घरों की नालियों को रुख गंगा की ओर दी है। जिस तरह बूंद-बूंद से घड़ा भरता है ठीक उसी प्रकार थोड़ी-थोड़ी गंदगी से गंगा का पानी विषैला हो रहा है। हर्षिल की आबादी करीब 4 से 5 हजार है। यहां भी कई छोटे-बड़े होटल खुल चुके हैं। ढाबा और रेस्टोरेंट की रौनक भी बढ़ी है। छोटे-छोटे कस्बों में बढ़ रही रौनक विकास की गाथा हो सकती है लेकिन इस विकास गाथा में कई प्राकृतिक सम्पत्ति को हम मौत के घाट उतार रहे हैं। शहरीकरण की अंधी होड़ ने गंगा जैसी प्रकृति की अनमोल संपत्ति का अस्तित्व खतरे में डाल दिया है। अब गंगा का पानी पीने लायक नहीं रह गया है।
भटवाड़ी में सरकारी गंदगी
भटवाड़ी गोमुख से 70 किलोमीटर और हर्षिल से 45 किलोमीटर नीचे है। यहां गढ़वाल विकास निगम ने गंगा के किनारे गेस्ट हाउस बनाया है। उत्तराखंड सरकार का यह गेस्ट हाउस गंगा को भटवाड़ी में मैला कर रही है। गेस्ट हाउस की नाली सीधे गंगा में डाली गई है। सरकार जिस गंगा को पवित्र करने के लिए करोड़ों रुपये खर्च कर रही है, वहीं एक सरकारी भवन की गंदगी गंगा में प्रवाहित करना उसकी गंभीरता का सबूत है। सीजन के समय यह गेस्ट हाउस वीआईपी गेस्टों से भरा रहता है। ये वीआईपी गेस्ट किसी न किसी रूप में सरकारी योजनाओं में अपनी दखल रखते हैं। सार्वजनिक सभाओं में ये लोग (वीआईपी) भी गंगा को पवित्र बनाने के वादे करते रहे हैं लेकिन इसकी गंभीरता किसी से छुपी नहीं है।
जिला मुख्यालय का कचरा गंगा में
उद्गम स्थल गोमुख से प्रदूषित गंगा का हाल मैदान में आते-आते और भी बदतर हो जाती है। उत्तराखंड पर्यावरण संरक्षण एवं प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार हरिद्वार में गंगा के जल में ई कोलीफार्म नामक बैक्टीरिया की मात्रा बहुत ज्यादा पाई गई है। यहां का पानी पीने योग्य तो दूर कृषि योग्य भी नहीं बचा है। गोमुख से हरिद्वार पहुंचते-पहुंचते गंगा में प्रतिदिन 89 मिलियन लीटर मल-मूत्र मिलता है। अकेले धर्मनगरी हरिद्वार में प्रतिदिन 37.36 मिलियन लीटर मल-मूत्र गंगा में बहाया जाता है। गोमुख, गंगोत्री का जिला मुख्यालय उत्तरकाशी है। यह गंगोत्री से करीब सौ किलोमीटर और गोमुख से 118 किलोमीटर पर है। शहर की गंदगी और मल-मूत्र सीवर लाइन से गंगा में बहाए जा रहे हैं। 25 हजार के करीब आबादी वाले इस शहर से रोजाना 10 मिलियन लीटर गंदगी गंगा में बहाई जाती है। शहर में स्थित होटलों, धर्मशालाओं, सरकारी विभागों सहित निवासियों के घर से निकलने वाली गंदगी को ठिकाने लगाने की कोई व्यवस्था नहीं की गई है। कुछ वर्ष पूर्व बने सीवर ट्रीटमेंट प्लांट के फेल होने के बाद एक बार फिर नया ट्रीटमेंट शहर से डेढ़ किलोमीटर दूर ज्ञानसू में बनाने की योजना है। अभी इसके बनने में वर्षों लगेंगे। बनने के बाद भी ट्रीटमेंट प्लांट चालू होगा या नहीं, इसके बारे में कोई नहीं बता सकता। क्योंकि जब एक प्लांट यहां फेल हो चुका है तो दूसरे प्लांट पर निश्चित तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता।
गंगा के किनारे 100 मीटर की दूरी तक किसी भी प्रकार के निर्माण पर पूर्ण रोक है। अदालत के इस फैसले को भी गंगोत्री से उत्तरकाशी तक धज्जियां उड़ाई जा रही है। गंगोत्री से उत्तरकाशी तक बसे अधिकतर कस्बों में गंगा के घाट का अतिक्रमण कर निर्माण कर दिया गया है। उत्तरकाशी शहर गंगा के किनारे-किनारे बसा है। गंगा तट से एक मीटर भी खाली जगह नहीं छोड़ी गई है। इसके बावजूद प्रशासन तमाशबीन बना हुआ है।
जिला मुख्यालय में शहरों की गंदगी के अलावा एक अन्य समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया है। वह है गंगा तट पर टॉयलेट करना। रोजना सुबह-सुबह करीब 300 लोग प्रति घंटा गंगा किनारे टॉयलेट करते हैं। उत्तरकाशी पॉलीटेक्निक कॉलेज में कार्यरत एसएस टरियाल ने इसके लिए 1986 में सिटी और शंख अभियान चलाया था। श्री टरियाल कुछ स्कूली छात्रों के साथ सुबह-सुबह गंगा किनारे सिटी बजाकर टॉयलेट करने वाले को रोकते थे। उसके बाद उन्हें गंगा की पवित्रता के बारे में समझाया जाता था। जिससे इनके प्रयास रंग लाने लगे, लेकिन यह अभी भी खत्म नहीं हो पाया है। श्री टरियाल बताते हैं कि इस अभियान को मैंने अकेले शुरू किया था। बाद में स्कूल के छात्रों को इससे जोड़ा गया। सिटी अभियान उत्तरकाशी सहित रुद्रप्रयाग, कर्णप्रयाग, गंगोत्री, यमुनोत्री, देवप्रयाग, ऋषिकेश, हरिद्वार में चलाया गया। वहीं शेष अभियान बनारस से गंगा सागर तक। इस अभियान से बहुत लाभ हुआ। लोगों ने गंगा तट पर टॉयलेट करना कम कर दिया था।
वर्ष 1988 में उत्तरकाशी के पांच इंजीनियर को यूरोपीय देशों में वहां की सीवर लाइन का अध्ययन के लिए भेजा गया था। इन्हें वहां इसलिए भेजा गया था ताकि वे लोग वहां के पर्वतीय इलाकों में बने सीवर लाइन का अध्ययन कर सकें। उसके बाद उसे अपने शहरों में जमीन पर उतारें। लेकिन दौरे से वापस आते ही सभी इंजीनियर उत्तरकाशी से अन्य शहरों में स्थानांतरित कर दिए गए। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर उन्हें लाखों खर्च कर क्यों विदेश भेजा गया और यदि भेजा गया तो उसका लाभ क्यों नहीं लिया गया। जिला मुख्यालय में सीवर ट्रीटमेंट प्लांट बनाने के लिए 1998 में 9 करोड़ 63 लाख रुपये निर्गत किए गए। इस पैसे से सीवर ट्रीटमेंट प्लांट बनाया तो गया लेकिन यह आज तक चालू नहीं हो पाया है। गंगा किनारे बने इस प्लांट का एक हिस्सा तोड़कर पंपिंग स्टेशन बना दिया गया है। करोड़ों रुपये की लागत से बना ट्रीटमेंट प्लांट फेल हो गया है। यह प्लांट शोभा की वस्तु बन कर रह गया।
भारतीय संस्कृति का आधार स्तंभ मानी जाने वाली गंगा पर राजनीति चरम पर है। दिन-रात गंगा की स्तुति में लीन रहने वाले इसके मानस पुत्र इसे प्रदूषण मुक्त बनाने के जमीनी प्रयास करने के बजाय 'गंगा बचाओ अभियान' में भी अपना स्वार्थ सिद्ध कर रहे हैं। हिन्दू धर्म एवं संस्कृति के कथित ठेकेदार और धर्मगुरु धर्म की आड़ में इसको (गंगा को) भोग-विलास, मनोरंजन, एवं व्यवसाय का केंद्र बनाकर भौतिकवाद में डूबे हुए हैं। पिछले आम चुनाव के पूर्व योगगुरु रामदेव, परमार्थ निकेतन ऋषिकेश के सर्वेसर्वा स्वामी चिदानंद मुनि एवं स्वामी हंसदास ने 'गंगा रक्षा मंच' बनाया। स्वामी रामदेव ने उस समय शपथ ली थी कि जिस प्रकार योग को पूरे भारत में लोकप्रिय बना दिया है, ठीक उसी प्रकार गंगा को मैला होने से रोकने के लिए क्रांति लायेंगे। इन लोगों के साथ हरिद्वार, ऋषिकेश के कई संतों ने भी गंगा को प्रदूषणमुक्त करने के लिए उनका सहयोग करने की कसम खाई थी। 'गंगा रक्षा मंच' बनने के कुछ समय बाद ही मंच की हकीकत सामने आ गई। संतों की आपसी राजनीति का शिकार 'गंगा बचाओ अभियान' हुआ। एक साल बाद भी गंगा की स्थिति में कोई सुधार नहीं आई, बल्कि इसमें प्रदूषण और बढ़ा ही है।
उद्गम स्थल गोमुख से प्रदूषित गंगा का हाल मैदान में आते-आते और भी बदतर हो जाती है। उत्तराखंड पर्यावरण संरक्षण एवं प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार हरिद्वार में गंगा के जल में ई कोलीफार्म नामक बैक्टीरिया की मात्रा बहुत ज्यादा पाई गई है। यहां का पानी पीने योग्य तो दूर कृषि योग्य भी नहीं बचा है। गोमुख से हरिद्वार पहुंचते-पहुंचते गंगा में प्रतिदिन 89 मिलियन लीटर मल-मूत्र मिलता है। अकेले धर्मनगरी हरिद्वार में प्रतिदिन 37.36 मिलियन लीटर मल-मूत्र गंगा में बहाया जाता है। अस्पतालों का कचरा, अधजले मानव शरीर, लेड, कैडमियम, क्रोमियम जैसी धातुओं और डीडीटी जैसे कीटनाशक के गंगा में मिलने से इसका पानी जहरीला बनता जा रहा है। सरकारी और गैरसरकारी स्तर पर इसे बचाने के लिए कई योजनाएं बनीं। लेकिन ये योजनाएं धरातल पर नहीं आ पाईं। अधिकतर योजनाओं को भ्रष्टाचार की काली छाया ने घेर लिया। 1984 में बने 'गंगा एक्शन प्लान' के तहत आज तक लगभग 1500 करोड़ रुपये गंगा शुद्ध करने में बहाए गए। लेकिन इसका कोई सफल नतीजा सामने नहीं आ पाया है। हां, इन योजना को कार्य रूप देने में लगे 'महानुभावों' के घर की रौनक जरूर बढ़ी गई।
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