जलाभाव की त्रासदी  

जलाभाव की त्रासदी ,Pc-जल चेतना
जलाभाव की त्रासदी ,Pc-जल चेतना

जलाभाव की समस्या मात्र भारत की ही नहीं अपितु विश्व की सबसे जवलंत समस्या है जब 21वीं सदी के प्रारंभ में ही इस समस्या ने इतना विकराल रूप 'धारण कर लिया है तो आगे आने वाले वर्षों में इसका रूप कितना भयानक होगा यह सोचकर भी दिल दहल जाता है। जन जीवन का पर्याय है। जब पृथ्वी पर पीने योग्य जल ही नहीं होगा तो मानव जीवन की कल्पना करना ही व्यथ है।

भारतवर्ष में ही कुछ ऐसे स्थान हैं जहां लोग बूंद-बूंद पानी के लिए तरस रहे हैं। उन्हें पेयजल के लिए मीलों लम्बा रास्ता तय करना पड़ता है। तब कहीं जाकर उन्हें एक या दो बाल्टी पानी मिल पाता है। उस स्थान पर जाने और आने में उन्हें सुबह से शाम तक का समय लग जाता है। कुछ स्थान ऐसे भी हैं जहां पर लोग रात-रात भर पानी आने का इंतजार करते हैं। नसीब से उन्हें जितना पानी मिल जाता है उसी से वे अपना गुजारा करते हैं।

कर्नाटक  और महाराष्ट्र में जल संकट की स्थिति अत्यंत भयानक है। महाराष्ट्र के लातूर में स्त्रियां रात्रि के अंधकार में गहरे कुएं में उतरती हैं और वहां से गिलास या कटोरे की सहायता से गंदा जल भरने के लिए मजबूर होती हैं। यहां के लोगों का बूंद-बूंद पानी एकत्रित करना उनकी नियति बन चुका है। महाराष्ट्र के 36 में से 26 जिले तथा कर्नाटक के 10 में से 24 जिले भयंकर सूखे की चपेट में हैं। महाराष्ट्र के 12000 गांव पेयजल के लिए केवल टैंकरों पर ही निर्भर हैं। इन लोगों के लिए निकट भविष्य में जल संकट जीवन-संकट बन जाएगा। इसी प्रकार महाराष्ट्र के बांधों में अब मात्र 18.5 प्रतिशत पानी शेष बचा है। जल की समस्या से निपटने में सरकार तथा लोग पूरी तरह विफल हो गए हैं।

केरल के जलाशयों की स्थिति भी अत्यंत दयनीय है। यहां के जलाशयों में मात्र 50 प्रतिशत पानी ही शेष रह गया है। कहीं-कहीं पर स्त्रियां तथा बच्चे बूंद-बूंद रिसते हुए पानी को पत्तों तथा छोटे पात्रों की सहायता से एकत्रित करते हैं जिसमें उनका कई-कई घंटों का समय बर्बाद होता है। कभी-कभी स्त्रियों तथा पुरूषों में पानी के लिए आपस में झगड़े भी हो जाते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि पृथ्वी पर तृतीय विश्व युद्ध पानी को लिए ही लड़ा जाएगा।

भारत सरकार के मानकों के अनुसार शहरी क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति प्रति दिन 135 लीटर और ग्रामीण क्षेत्रों में 75 लीटर पानी मिलना चाहिए परन्तु यह आंकड़ा छू पाना अब दूर की कौड़ी नजर आती है। उत्तराखंड राज्य को ही ले लें। यह राज्य पानी का स्रोत है जहां पर देश की गंगा-यमुना जैसी बड़ी-बड़ी नदियां निकलती हैं तथा देश के अधिकांश भागों में जल आपूर्ति करती है परंतु यही राज्य पेयजल संकट से बुरी तरह जूझ रहा है। दूसरे शब्दों में यदि हम कहें तो दीपक तले अंधेरा जैसी स्थिति इस राज्य की हो गई। इस समस्या के कारण लोगों का यहां से पलायन जारी है। लोग अपने बसे बसाये घरों तथा खेतों को छोड़कर अन्यत्र बसने के लिए मजबूर हो गए हैं। जब हाई कोर्ट द्वारा सरकार से जवाब मांगा गया तो बताया गया कि राज्य में औसतन प्रति व्यक्ति प्रति दिन 40 लीटर पानी मुहैया कराया जा रहा है जबकि 15522 राजस्व गांवों तथा तोक गांवों में प्रति व्यक्ति प्रति दिन 20 लीटर ही पानी दिया जा रहा है और सबसे बड़ी विडंबना यह है कि 672 गांवों में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 5 लीटर से भी कम पानी लोगों को उपलब्ध हो पा रहा है। इन्हीं आंकड़ों से हम निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि यहां पेयजल की समस्या कितनी गंभीर है?

सबसे अहम बात यह है कि राज्य के प्राकृतिक स्रोतों का पुनरुद्धार करने के लिए सरकार द्वारा व्यापक कदम उठाए जाने चाहिए। इसके लिए सरकार द्वारा चलाई जा रही योजना 'नेशनल रूरल ड्रिंकिंग वाटर प्रोग्राम' (एन.आर.डी.डब्ल्यू.पी) को सक्रिय कार्य करने के लिए निर्देश दिए जाने चाहिए तथा पर्याप्त धन आवंटित किया जाना चाहिए ताकि लोगों को पेयजल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो सके।
जल समस्या में भारत की स्थिति विश्व पटल पर अत्यंत दयनीय है। विश्व की 60 प्रतिशत जनसंख्या मात्र 10 देशों की है जहां यह समस्या गंभीर चुनौती बनी हुई है।

जल से वंचित विश्व के विभिन्न देशों की आबादी

विश्व के विभिन्न देशों की आबादी
स्रोत:-  हिंदी समाचार पत्र 

उपर्युक्त आंकड़े बताते है कि विश्व के 10 देशों में भारत की स्थिति जल से वंचित आबादी वाले देशों में सबसे खराब है जो एक अत्यंत चिंताजनक बात है।
एक समय था जब हमारे देश में जल की कोई कमी नहीं थी। हमारे देश की नदियां जलाप्लावित रहती थी। जगह-जगह पर कुएं, बावड़ी, पाताल तोड़ कुएं तथा ट्यूबवेल हुआ करते थे जिनसे पीने का शुद्ध जल आसानी से प्राप्त हो जाता था। पशुओं तथा फसलों के लिए भी जल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो जाता था। भू-जल स्तर भी पर्याप्त ऊंचाई पर था हमारी प्राचीन सभ्यताएं भी नदियों के किनारे पर ही विकसित हुई क्योंकि प्राचीन काल में हमारे पूर्वजों ने अपने निवास स्थान अधिकतर नदियों के किनारे पर ही बनाए ताकि उन्हें पानी आसानी से उपलब्ध हो सके। जल की पवित्रता एवं शुद्धता के कारण ही नदियों को भारत में मां की तरह पूजा जाता है।

उस समय पानी की कमी न होने का प्रमुख कारण यह था कि वर्षा पर्याप्त मात्रा में हुआ करती थी जिससे पशुओं तथा फसलों के लिए जल आसानी से प्राप्त हो जाता था।
हमारी पृथ्वी पेड़ पौधों तथा विभिन्न प्रकार की वनस्पतियों से परिपूर्ण थी। हर जगह हरियाली थी जगह-जगह पर बाग-बगीचे लगाए जाते थे जिससे हमारा पर्यावरण भी शुद्ध रहता था तथा जनजीवन भी स्वस्थ एवं हृष्टपुष्ट रहता था ये ही पेड़-पौधे हमारे लिए वर्षा का कारण बनते थे। दस-दस पन्द्रह-पन्द्रह दिन तक लगातार बारिश हुआ करती थी। कभी मूसलाधार बारिश तो कभी रिमझिम रिमझिम वाली धीमी बारिश हुआ करती थी जिससे वर्षा का जल पृथ्वी के अंदर चला जाता था।

फलस्वरूप हमारी पृथ्वी का जल स्तर सदैव ऊंचा रहता था। कभी-कभी कुआं में पानी इतनी ऊंचाई तक आ जाता था कि उनसे हाथ से ही वाल्टी भरी जा सकती थी। सबसे प्रमुख बात यह थी कि उस समय जनसंख्या का दबाव आज की तुलना में बहुत कम था। आज मानव विकास की ओर द्रुत गति से अग्रसर हो रहा है। पृथ्वी पर जनसंख्या का भार दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है। जल संकट विशेषज्ञ कनाडा के माउधिक पालों के अनुसार सन् 2030 तक विश्व की जनसंख्या में लगभग 3 अरब की और वृद्धि हो जाएगी उस समय तक जल संकट की स्थिति और कितनी गहरा जाएगी इसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। आज निवास तथा पक्की सड़कों के लिए पेड़-पौधों को नष्ट किया जा रहा है, जंगल के जंगल साफ किए जा रहे हैं, उपजाऊ भूमि पर पक्के निवास तथा सड़कें बनाई जा रही हैं आज 21वीं सदी के प्रारंभ में ही आदमी इतना विकसित हो गया है कि जगह-जगह पर सड़कों, फ्लाईओवर, फोरलेन, सिक्सलेन रेलवे लाइनों तथा हवाई पट्टियों का जाल बिछ गया है। अतः वनस्पति का नष्ट होना स्वाभाविक है। फलस्वरूप वर्षा की मात्रा में भारी गिरावट आ गई है और यही जलाभाव की त्रासदी का मुख्य कारण है।

भूमिगत जल का संकट भी एक खतरनाक मोड़ पर आ गया है। भूमिगत जल का स्तर लगातार नीचे गिर रहा है। देश के कुछ हिस्सों में जल स्तर मीटर प्रतिवर्ष की दर से गिर रहा है। प्रथमतः तो आजकल वर्षा बहुत कम मात्रा में हो रही है। अतः भूमिगत जल का स्तर नीचे गिरना स्वाभाविक है। दूसरे जगह-जगह पर पक्की सड़कें, पक्की नालियां, पक्के मकान, गलियां यहां तक कि पक्के बंबे, नहरें एवं तालाब भी बन गए हैं। परिणाम स्वरूप जो वर्षा हो भी रही है उसका जल भी पृथ्वी में नीचे तक नहीं पहुंच पा रहा है। अतः धीरे-धीरे जल स्रोत समाप्त हो रहे हैं और भूमिगत जल भी लगभग समाप्ति की ओर बढ़ रहा है। शहरी इलाकों में हैंडपंप तो क्या समरसेविल भी काम नहीं कर रहे हैं। हिमालय से निकलने वाली नदियां तथा अन्य नदियां भी वर्ष के अधिकांश महीनों में जलविहीन रहती है। फलस्वरूप नहरों तथा बंबों में भी पानी नहीं पहुंच पाता। इसी कारण आसपास के इलाकों का भी जल स्तर नीचे जा रहा है।

संपूर्ण भारतवर्ष में भूि  जल की कमी भयावह रूप करती जा रही है। भारत के बेंगलुरू, चेन्नई और हैदराबाद कई शहरों में निकट भविष्य में की अत्यधिक कमी हो जाएगी। समय इन शहरों की जनता की सि क्या होगी? यह सोचकर ही रोगेटे हो जाते हैं। भूमिगत जल का स्तर गति से नीचे जा रहा है कि हम इन कल्पना भी नहीं कर सकते।  10 सालों में भूमिगत जल का लगभग 61 प्रतिशत कम हो चुका जल स्तर के कम होने का एक 
कारण यह भी है कि अधिकांश न जल विहीन हो गई हैं। पिछले 10 सालों में लगभग 50 प्रतिशत नदियों का जल समाप्त हो चुका है। वे वर्ष के अधिकांश महीनों में सूखी ही रहती हैं। फलस्वरूप इन नदियों के आस-पास निवास करने वाले लोगों का जीवन भी दूभर हो गया है। उन्हें भी पर्याप्त मात्रा में पानी नहीं मिल पा रहा है।

मैगसेसे पुरस्कार से विभूषित राजेंद्र सिंह जो विश्व में जल पुरुष' के नाम से विख्यात हैं, बताते हैं कि सम्पूर्ण भारतवर्ष में दस वर्ष पूर्व कुल पंद्रह हजार नदियां प्रवाहित हो रही थी जिसमें से तकरीबन 4500 नदियां जल विहीन हो गई हैं अर्थात अब उनमें जल प्रवाहित नहीं होता। वे अब मात्र वर्षा के पानी पर ही निर्भर हैं उन्हीं के मतानुसार 1947 से अब तक देशभर में दो तिहाई तालाब, झील, कुएं, झरने एवं पोखर पूर्णतः सूख चुके हैं। अब उनमें बिल्कुल भी पानी के दर्शन नहीं होते।

70 वर्ष पूर्व देश में 30 लाख कुएं, तालाब, झील एवं पोखर आदि थे। उस समय ये वर्ष के अधिकांश महीनों में पानी से लबालब भरे रहते थे जिनसे मनुष्य तथा पशुओं के लिए पानी की आपूर्ति सहज ही हो जाती थी परंतु जैसे-जैसे समय बीतता गया इनका पानी सूखता गया और इनकी संख्या में कमी होती गई। आज यह स्थिति है कि लगभग 20 लाख कुएं, तालाब, झील एवं पोखर पूर्ण रूप से समाप्त हो चुके हैं।

भारत एक कृषि प्रधान देश है। यहां की अधिकांश जनसंख्या कृषि पर निर्भर है। यहां कृषि को वर्षा जल के अतिरिक्त नदियों, नहरों तथा ट्यूबवेल के पानी की भी आवश्यकता होती है। अतः यदि आंकड़े उठा कर देखे जाएं तो भारत में पानी का सर्वाधिक इस्तेमाल कृषि में ही होता है। यहां कुल जल का 76% भाग खेतों की सिंचाई में खर्च होता है तथा 11% जल घरों में खाना बनाने, पीने तथा कपड़े धोने आदि में व्यय होता है। इसी प्रकार शेष 7% जल उद्योगों में तथा 6% जल अन्य कामों में खर्च होता है।

उपर्युक्त आंकड़ों के अनुसार जल का सर्वाधिक हिस्सा सिंचाई में खर्च होता है। इस पर सरकार को विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। इस जल को बचाने का कोई ठोस उपाय होना चाहिए। सिंचाई के लिए अन्य उपायों पर विचार मंथन किया जाना चाहिए। हर वर्ष देश के कई हिस्सों में भयंकर बाढ़ आती है। यह बाढ़ का पानी निरर्थक ही जाता है तथा इससे जन धन की भी अपार हानि होती है। इसके लिए नई-नई नहरें तथा बम्बे खुदवाने चाहिए तथा उनको नदियों एवं अन्य बड़ी नहरों से जोड़ना चाहिए ताकि बाढ़  के जल को उन इलाकों में पहुंचाने की व्यवस्था हो सके जहां सिंचाई के लिए पानी की कमी है। इस कार्य के लिए बहुत बड़े प्रोजेक्ट की आवश्यकता है। सरकार की ईमानदारी तथा सच्ची लग्नशीलता ही बाढ़ के पानी का सदुपयोग करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है और सिंचाई जल की समस्या को हल कर सकती है।

सच पूछा जाए तो हम वर्षा जल का समुचित उपयोग कर ही नहीं रहे हैं। उसको नालियों में बहने दिया जा रहा है। अगर हम वास्तव में एक जागरूक नागरिक बनना चाहते हैं तो हमें अपने आस-पास वषा जल को किसी टैंक में एकत्रित करना चाहिए ताकि उसका उपयोग कपड़े धोने तथा पशुओं आदि के लिए किया जा सके और कुछ जल गड्ढों तथा पोखरों में भी संग्रहीत करना चाहिए जिससे आस-पास का भूमिगत जल स्तर ऊंचा बना रह सके। जहां तक संभव हो वर्षा जल या अन्य उपयोग का जल निरर्थक बहने से रोकना चाहिए। भारत सरकार 'संचय जल, बेहतर कल' नाम का एक 'जन भागीदारी अभियान' चला रही है जिसके तहत लोगों को जल संचय करने के लिए प्रेरित किया जा रहा है  वैसे तो दुनिया में पानी की कोई कमी नहीं है। दुनिया का 70% हिस्सा पानी है जिसमें से पीने योग्य पानी मात्र 3% है। विश्व में 400 करोड़ लोग ऐसे हैं जो पानी की कमी से जूझ रहे हैं जिसमें से 100 करोड़ लोग भारत में ही हैं। नीति  आयोग के अनुसार भारत में 2030 तक 40% लोगों को पीने का पानी नहीं मिल पाएगा भारत में हर वर्ष लगभग दो लाख लोग पीने योग्य पानी की कमी के कारण मर जाते हैं। पानी की कमी के कारण लोगों को मरते हुए देखना कितना भयावह होता होगा। यह सोचकर भी दिल दहल जाता है।

जल संकट का एक प्रमुख कारण यह भी है कि नदियों का पानी अत्यंत प्रदूषित हो गया है। शहरों तथा कस्बों का कूड़ा-कचरा एवं मल आदि नाले नदियां में अंधाधुंध प्रवाहित किए जा रहे हैं। औद्योगिकरण के कारण बड़े-बड़े कारखानों एवं मिलों का विभिन्न रसायन युक्त प्रदूषित जल एवं कचरा नदियों  के तन में उड़ेला जा रहा है जिससे उनका पानी पीना तो दूर नहाने धोने के काविल भी नहीं रह गया है। नदियों के किनारे एवं नदियों के अंदर हजारों टन कूड़े के ढेर स्पष्ट देखे जा सकते हैं। जिन नदियों के पानी में हम नहा कर पवित्र एवं शुद्ध हुआ करते थे, वही नदियां अब स्वयं शुद्ध होने के लिए त्राहि-त्राहि कर रही हैं।आज उन सरिता माताओं का दुख-दर्द सुनने के लिए कोई तैयार नहीं है। 

प्रदूषित जल की स्थिति इतनी भयावह है कि विश्व के 80% लोग प्रदूषित जल पीने के लिए मजबूर हैं। जब इंसान का प्यास से गला सूखता है तो उस समय उसे कुछ दिखाई नहीं देता। जैसे भी जल मिल जाए वह पीने के लिए बाध्य होता है। कहीं-कहीं पर लोगों को गड्ढों का ठहरा हुआ गंदा जल मिलना भी मुश्किल हो रहा है। प्रदूषित पानी पीने से लोगों में भयंकर बीमारियां फैल जाती हैं जिनसे उनको बचाना बेहद मुश्किल हो जाता है। इन घातक एवं जानलेवा बीमारियों में कैंसर, हेपेटाइटिस, पीलिया, हैजा तथा लीवर का संक्रमण आदि शामिल हैं जिनसे अधिकतर लोग मृत्यु का शिकार हो जाते हैं। भारत में लगभग 70% जल प्रदूषित है। पानी की गुणवत्ता के सूचकांक में भारत 122 देशों में 120 वें स्थान पर है।
प्रदूषित पानी की भयंकर मार झेल रहे हमारे देश में कोई अपनी नैतिक जिम्मेदारी समझने के लिए तैयार नहीं है। सब एक दूसरे का मुंह ताकने में लगे हुए हैं। पानी को प्रदूषण से बचाने के लिए कोई आगे आकर पहल नहीं करना चाहता। वह सोचता है कि हमें क्या हमारे पास तो इतना पैसा है कि हम उससे जितना चाहें उतना पीने योग्य पानी खरीद सकते हैं। ऐसे लोग भूल जाते हैं कि एक न एक दिन उनको भी पानी की कमी से जूझना ही पड़ेगा। जब पृथ्वी पर पानी ही नहीं होगा तो वे खरीदेंगे कहां से? ऐसे लोग मानवीय दृष्टिकोण को तिलांजलि दे देते हैं। आदमी चाहे गरीब हो या अमीर उसे जल प्रदूषण मुक्ति एवं जल बचाने में पूर्ण सहयोग करना चाहिए जिससे हमारे साथ-साथ अन्य गरीब एवं असहाय लोग भी इस त्रासदी से बच सकें।

ऐसा नहीं है कि सभी लोगों की सोच एक सी है। कुछ लोग जल को प्रदूषित होने से बचाने के लिए नदियों तथा नहरों में जमा कचरे को साफ करने का भरसक प्रयत्न कर रहे हैं। जब एक आदमी पहल करता है तो उसके साथ-साथ अन्य लोग भी इस पुनीत कार्य में आगे बढ़कर हिस्सा लेते हैं और मनोयोग से मानवता की सेवा करते हैं। यह अभियान कई जगहों पर जागरूक लोगों द्वारा चलाया जा रहा है और उसके सार्थक परिणाम भी सामने आ रहे हैं। अब आवश्यक यह है कि हमारी सरकारों को भी इस कार्य में पूर्ण मदद करनी चाहिए. ऐसे समाजसेवी लोगों को आर्थिक मदद मुहैया कराई जानी चाहिए ताकि उन लोगों का उत्साह एवं साहस न टूटने पाए। इसके साथ-साथ सरकारों को नदियों तथा नहरों में कचरा फेंकने पर पूर्ण प्रतिबंध लगाना चाहिए और हो सके तो कचरा फेंकने वालों पर कड़ा जुर्माना भी लगाना चाहिए। एक योजना के तहत कचरा नष्ट करने का वैज्ञानिक उपाय सोचा जाना चाहिए और उस पर शीघ्रातिशीघ्र कार्य किया जाना चाहिए। फिर हम इस समस्या से काफी हद तक निजात पा सकते हैं।

आज हम इतने स्वार्थी हो गये हैं कि हम अपने उपयोग के पानी के अतिरिक्त काफी मात्रा में जल फिजूल बहाते हैं। समरसिबल तथा टंकियों का पेयजल जो घर-घर पहुंचाया जाता है वह कभी-कभी कई घंटों तक नालियों में बेकार बहता रहता है। लोग नलों तथा घर की टंकियों की टोंटी लम्बे समय तक खुली छोड़ देते हैं। ऐसी स्वार्थान्धता भी किस काम की कि उनको अपनी आगे आने वाली पीढ़ी के बारे में भी यह सोचने का होश न रहे कि वह एक दिन बूंद-बूंद पानी के लिए किस प्रकार तड़पेगी ?

हमारी सरकारों तथा हमारे द्वारा यदि अभी भी इस समस्या के निराकरण के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए तो पृथ्वी पर जीवन असंभव हो जाएगा। इसके लिए सर्वप्रथम तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या को रोकने तथा वनस्पति को नष्ट होने से बचाने का प्रयास नितांत आवश्यक है। इसके लिए हमें भी सरकारों की मदद करनी होगी। अधिक से अधिक वृक्षारोपण करके पानी की फिजूलखर्ची को रोककर तथा बूंद-बूंद पानी बचाकर हम इस समस्या से निजात पा सकते हैं।

सरकारों को भी इस कार्य में पूर्ण सजगता से कार्य करना होगा जल संरक्षण के उपाय करने होंगे तथा लोगों को भी जल संरक्षण के लिए प्रेरित करना होगा। ऐसी बात नहीं है कि हमारी सरकार इतनी ज्वलंत जल समस्या पर कोई ध्यान नहीं दे रही है। वह हर संभव प्रयास कर रही है कि समय रहते इस समस्या से कैसे निपटा जाए? जहां लोग जल की कमी से पीड़ित हैं वहां टैंकरों से लगातार पानी की आपूर्ति की जा रही है। विभिन्न राज्यों में रेलगाड़ियों से भी पानी भेजा जा रहा है। हमारा नीति आयोग बराबर जल समस्या के निराकरण तथा जल संरक्षण पर कार्य कर रहा है।

विद्वान लोग लगातार विचार मंथन करते रहते हैं कि "रेन वाटर हार्वेस्टिंग" के द्वारा किस तरह भूमिगत जल स्तर को बढ़ाया जाए तथा वर्षा जल को संरक्षित कैसे किया जाए सरकार इसी तरह की अन्य योजनाओं पर भी पैसा खर्च कर रही है। पानी की समस्या पर केंद्र सरकार का खर्च दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है। पिछले 10 सालों के आंकड़े दशाते हैं कि इस समस्या पर केंद्र सरकार का खर्च कितनी तेजी से बढ़ा है?

केंद्र सरकार द्वारा पानी पर किया जाने वाला खर्च 

केंद्र सरकार द्वारा पानी पर किया जाने वाला खर्च

केंद्र सरकार द्वारा पानी पर किया जाने वाला खर्च-2
स्रोत:-  हिंदी समाचार पत्र 

अंततोगत्वा हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि यदि हमें मानव सभ्यता को बचाए रखना है तो प्रकृति के साथ अधिक छेड़छाड़ न की जाए और जल की संरक्षित करने का भरसक प्रयास किया जाए। इस पुनीत कार्य में सभी को बराबर का हिस्सेदार बनना चाहिए और विश्व के देशों की सरकारों द्वारा इस ज्वलंत समस्या को हल करने के लिए इसे प्रथम वरीयता दी जानी चाहिए। तभी हम, हमारा जीवन तथा हमारी पृथ्वी जीवित रह सकती है।

बूंद बचेगी सृष्टि बचेगी इस बूंद से बचेगा बचपन ।

वरना देख तृषित होटों को रोएगा जन-जन अंतमन ।

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हरी शंकर शर्मा 'वदन' राजकीय इण्टर कॉलेज बन्नाखेड़ा विकास खण्ड बाजपुर जिला ऊधम सिंह नगर (उत्तराखंड)- 262 401
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स्रोत:-जल चेतना खण्ड 9 अंक 2 जुलाई 2020

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Post By: Shivendra
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