इंजीनियरों और अमला तंत्र की अंग्रेजी हुकूमत के जमाने की खुमारी उतरने का नाम ही नहीं ले रही थी और आम आदमी की बदसलूकी भी उनके गले नहीं उतरती थी। तब इन सब ने मिल कर भारत सेवक समाज को ठेकेदारी के खेल के उसूल सिखाने की कवायद शुरू की। सबसे पहले ठेकेदारों ने काम की दरें घटाने शुरू कीं और भारत सेवक समाज को मजबूर किया कि वह भी अपनी दरें घटाये।
भारत सेवक समाज ने केवल लोगों को ही संगठित नहीं किया उसने ठेकेदारों को भी उनकी औकात बता दी थी। जहाँ भारत सेवक समाज एक हजार घनफुट मिट्टी काटने और तटबन्ध पर डालने के लिए केवल 16 रुपये ले रहा था वहाँ ठेकेदारों की मांग थी कि उन्हें अट्ठाइस से तीस रुपये तक मिलें। भारत सेवक समाज मुनाफे के लिए काम नहीं कर रहा था इसलिए उसकी दरें कम थीं। ठेकेदार व्यावसायिक थे इसलिए उन्हें अपनी दरें घटा कर भारत सेवक समाज के स्तर पर लानी पड़ीं।यह जन-सहयोग के प्रयास और भारत सेवक समाज की ठेकेदारी पर जीत थी। योजनाओं के निर्माण कार्यों में ठेकेदारी की एक स्थापित व्यवस्था होती है जिसमें अमला तंत्र और इंजीनियरों की नियत और जानी-पहचानी भूमिका होती है और इन दोनों के स्वार्थ ठेकेदारों के स्वार्थ से जुड़े हुये होते हैं। अगर ठेकेदार तनाव ग्रस्त रहता है तो उसके तनाव की छाया इंजीनियरों और अमला तंत्र पर भी पड़ती है और यह कसमसाहट छिपाये नहीं छिपती और उन सारे कारणों को समाप्त करने की कोशिश करती है जहाँ से इनका जन्म होता है। भारत सेवक समाज ने ठेकेदारी पर जीत तो जरूर दर्ज की मगर उसके पलटवार के लिए वह कतई तैयार नहीं था। भारत सेवक समाज ने बिना कोई मुनाफा कमाये अच्छा और प्रशंसनीय काम जरूर किया मगर उससे व्यवस्था को कोई फायदा नहीं था। ‘‘ठीकेदारों को अपने 25-30 प्रतिशत मुनाफा के अलावे इंजीनियरों को भी कुछ प्रतिशत हिस्सा देना ही पड़ता था जबकि भारत सेवक समाज के सामने इसकी चर्चा करने की भी हिम्मत इंजीनियरों को नहीं होती। फलतः ठीकेदार बराबर ही द्वेष एवं कटुतापूर्ण दृष्टि से भारत सेवक समाज की ओर देखा करते।’’
आर्थिक दिक्कतों के अलावा अमला तंत्र और इंजीनियरों को भारत सेवक समाज से एक परेशानी और थी। उनके सामने एक आम ग्रामवासी बराबर में बैठ कर बातचीत करने की हिम्मत दिखाने लगा था जबकि ठेकेदार चाहे कितना ही बड़ा क्यों न हो ‘हुजूर’ के नीचे का सम्बोधन नहीं करता। इंजीनियरों और अमला तंत्र की अंग्रेजी हुकूमत के जमाने की खुमारी उतरने का नाम ही नहीं ले रही थी और आम आदमी की बदसलूकी भी उनके गले नहीं उतरती थी। तब इन सब ने मिल कर भारत सेवक समाज को ठेकेदारी के खेल के उसूल सिखाने की कवायद शुरू की। सबसे पहले ठेकेदारों ने काम की दरें घटाने शुरू कीं और भारत सेवक समाज को मजबूर किया कि वह भी अपनी दरें घटाये। वह काम की दरों को इतना नीचे ले गये कि भारत सेवक समाज के लिए काम करना मुश्किल हो गया। इस स्तर पर इंजीनियरों की मिली भगत से टेण्डर व्यवस्था को लागू करवाया गया और अधिकांश काम ठेकेदार हड़पने लगे।
इंजीनियरों के सहयोग से उन्हें घटी दरों पर भी नुकसान नहीं होने दिया जाता था और भारत सेवक समाज को अपनी साख बचा पाना मुश्किल हो रहा था। फिर इंजीनियरों ने एक और चाल चली। उन्होंने भारत सेवक समाज के काम की नाप-जोख जो कि पहले साप्ताहिक हुआ करती थी, उसमें टाल-मटोल करना शुरू कर दिया। तब साप्ताहिक रनिंग बिल बनता था और अग्रिम राशि काट कर भुगतान कर दिया जाता था जिससे भारत सेवक समाज को पूँजी की कमी कभी नहीं रहती थी और वह मजदूरों को भुगतान समय से और पूरा-पूरा कर देता था। अब यह काम इंजीनियरों ने दो से तीन महीने के बाद करना शुरू किया और ऐसे हालात पैदा कर दिये कि भारत सेवक समाज हथियार डालने पर मजबूर हो गया और उसके बाद ठेकेदारों अैर इंजीनियरों ने खुल कर अपना खेल खेला। स्पर्धा समाप्त होने के बाद ठेकेदारों ने काम की दरों को बढ़ाना शुरू किया। और यह सभी सम्बद्ध पक्षों के माफिक पड़ता था। यह बढ़ोतरी 60 से 100 प्रतिशत तक हुई। दिखाने के लिए एक बार फिर भारत सेवक समाज को बुलाया गया, वह काम करने के लिए तैयार भी था मगर बात आगे नहीं बढ़ पाई। ठेकेदारी एक बार फिर जीत गई यद्यपि किसी न किसी प्रकार से भारत सेवक समाज मैदान में डटा रहा।
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