35 साल के अनुभव का आकलन
दावा किया गया था कि तवा परियोजना से होशंगाबाद जिले की 2.47 लाख हेक्टेयर या 6.17 लाख एकड़ भूमि सिंचित होगी। इस भूमि के बड़े हिस्से में दो या तीन फसलों को तवा का पानी मिलेगा और कुछ मिलाकर 3.33 लाख हेक्टेयर या 8.32 लाख एकड़ फसलों की सिंचाई होगी। पिछले 35 वर्षों में एक बार भी यह लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सका है, बल्कि वास्तविक सिंचाई इससे काफी कम रही है। वर्ष 1985-86 तक यानी पहले दस वर्षों में सिंचित भूमि का सरकारी आंकड़ा 1 लाख हेक्टेयर की सीमा को भी हासिल नहीं कर पाया था। मध्य प्रदेश में होशंगाबाद जिले में सतपुड़ा के पहाड़ों के बीच से निकली तवा नदी पर यह बांध बना है। तवा नदी नर्मदा की सहायक नदी है, जो छिंदवाड़ा से निकलकर बैतूल जिले में होती हुई होशंगाबाद के पास नर्मदा में मिलती है। नर्मदा में मिलने से करीब 40 कि.मी. पहले तवा नदी पचमढ़ी से निकली देनवा नदी में मिलती है। तवा और देनवा के संगम पर ही यह बांध बना है। नर्मदा घाटी विकास योजना में जो 30 बड़े बांधों की योजना है, उनमें यह पहला बड़ा बांध था। यह 1967 में बनना शुरू हुआ, 1974 में बनकर पूरा हुआ और 1978 में नहर-निर्माण व अन्य काम भी पूरे हो गए। मुख्यतः सिंचाई के लिए बनी इस परियोजना में पहले बिजली उत्पादन की भी योजना थी, जिसे बाद में हटा दिया गया। भूमि के समतलीकरण, सिंचाई व निकास नालियों, निर्माण आदि का ‘कमांड क्षेत्र विकास कार्यक्रम’ भी बाद में जोड़ा गया।
लागत-लाभ का सरकारी आकलन
1958 में जब इस परियोजना को प्रशासकीय स्वीकृति मिली थी, तब इसकी लागत 13.95 करोड़ रु. आंकी गई थी। जब 1967 में काम शुरू हुआ, तो इसमें 34.14 करोड़ रु. खर्च होने का अनुमान लगाया गया था। आखिरकार इसमें कुल 172 करोड़ रु. खर्च होने की बात सरकारी दस्तावेजों में मिलती है। ध्यान देने की बात यह है कि यह महज मौद्रिक लागत है। कई सामाजिक, मानवीय और पर्यावरणीय लागतें इसमें शामिल नहीं है। विस्थापितों के पुनर्वास पर भी खर्च नहीं के बराबर किया गया।
इस परियोजना को बनाने और आगे बढ़ाने में विश्व बैंक तथा विदेशी एजेंसियों की भूमिका रही है। विलियम गार्डनर, वेस्ली होल्ट्ज, विलियम, विलियम कोलिन्स और लुई पुल्स नामक विदेशी सलाहकार इंजीनियरों की मदद इसमें ली गई। कमांड क्षेत्र में भूमि समतलीकरण के लिए जर्मनी ने पैसा उधार दिया। बाद में इसे विश्व बैंक के कर्ज से चलाए गए राष्ट्रीय जल प्रबंधन प्रोजेक्ट में भी शामिल किया गया।
यह दावा किया गया था कि इस परियोजना की सिंचाई से हर साल कृषि उत्पादन 28.25 लाख टन बढ़ जाएगा। इससे 1971 की कीमतों पर 57.14 करोड़ रु. प्रतिवर्ष का शुद्ध फायदा होगा। इस परियोजना का लाभ-लागत अनुपात 7.95 आंका गया था, यानी इसके फायदे इसकी लागत से करीब आठ गुने होंगे।
परियोजना के फायदों का यह हिसाब कितना गलत और अतिरंजित था, इसे स्वयं परियोजना के आंकड़ों से देखा जा सकता है। इस परियोजना से 2.47 लाख हेक्टेयर भूमि में सिंचाई का लक्ष्य रखा गया था। वास्तविक सिंचाई इससे बहुत कम रही। किंतु यदि यह लक्ष्य पूरा होता, तो भी क्या योजनाकार प्रति हेक्टेयर 10 टन (100 क्विंटल) या प्रति एकड़ 40 क्विंटल से ज्यादा उत्पादन बढ़ने की उम्मीद कर रहे थे? परियोजना के फायदों को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर दिखाना और नुकसानों व लागतों को कम करके बताना व नजरअंदाज करना- यह लगभग हर बड़े बांध की प्रोजेक्ट रिपोर्ट का नियम-सा बना हुआ है। इससे उन्हें आसानी से मंजूरी मिल जाती है। तवा परियोजना भी इसका अपवाद नहीं है, बल्कि इसका एक भौंडा, दुखद व बड़ा उदाहरण है।
आधी अधूरी सिंचाई
यह दावा किया गया था कि तवा परियोजना से होशंगाबाद जिले (बाद में हरदा अलग जिला बनने से दो जिले हो गए) की 2.47 लाख हेक्टेयर या 6.17 लाख एकड़ भूमि सिंचित होगी। इस भूमि के बड़े हिस्से में दो या तीन फसलों को तवा का पानी मिलेगा और कुछ मिलाकर 3.33 लाख हेक्टेयर या 8.32 लाख एकड़ फसलों की सिंचाई होगी। पिछले 35 वर्षों में एक बार भी यह लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सका है, बल्कि वास्तविक सिंचाई इससे काफी कम रही है। वर्ष 1985-86 तक यानी पहले दस वर्षों में सिंचित भूमि का सरकारी आंकड़ा 1 लाख हेक्टेयर की सीमा को भी हासिल नहीं कर पाया था। 1991-92 से सिंचित भूमि का क्षेत्रफल 1.69 से 1.85 लाख हेक्टेयर के बीच स्थिर हो गया है। उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक अभी तक अधिकतम 1.85 लाख हेक्टेयर भूमि को तवा का पानी मिल पाया है। (देखें तालिका-1)
सिंचित फसलों के कुल क्षेत्रफल के मामले में यह असफलता और ज्यादा बड़ी है। कुल 3.33 लाख हेक्टेयर फसल-सिंचाई के लक्ष्य के मुकाबले अभी तक अधिकतम 1.87 लाख हेक्टेयर फसलों की सिंचाई ही हो पाई है। यह वर्ष 1992-93 में हुई थी। उसके बाद से तो खरीफ फसलों या गर्मी की फसलों में तवा सिंचाई पूरी तरह बंद है। एकाध अपवाद को छोड़कर, सिर्फ रबी की फसल में तवा नहरों से पानी मिलता है। दरअसल तवा परियोजना के निर्माताओं ने मान लिया था कि कमांड क्षेत्र के किसान खरीफ में धान की फसल लेंगे जिसमें नहरों से पानी मिलेगा। किंतु तवा परियोजना के निर्माण के साथ-साथ इस क्षेत्र में सोयाबीन की खेती शुरू हुई, जो जल्दी ही चारों ओर छा गई। यह फसल बरसात के पानी से ही हो जाती है और इसमें आमतौर पर सिंचाई की जरूरत नहीं होती है। किंतु यदि किसान धान की खेती भी करते तो क्या इतना पानी तवा जलाशय में होता? वर्तमान में रबी की फसलों के लिए ही पानी की कमी रहती है। इधर कुछ सालों से तवा कमांड क्षेत्र में धान की खेती बढ़ रही है, किंतु उसकी पूरी सिंचाई ट्यूबवेलों व अन्य स्रोतों से हो रही है, नहरों से नहीं।
तवा परियोजना से सिंचाई की दुर्दशा की पूरी तस्वीर इन आंकड़ों से स्पष्ट नहीं होती। दोनों जिलों में बहुत बड़े इलाके में, खासतौर पर टेल (नहरों के अंतिम छोर वाले) क्षेत्रों में, पानी नहीं मिलता है (या समय पर नहीं मिलता है) और हर साल पानी के लिए किसानों के आंदोलन होते हैं। पानी को लेकर झगड़ों व खूनी संघर्षों की खबरें भी बीच-बीच में निकलती हैं।
तवा की सिंचाई की अपर्याप्तता, अनिश्चितता और असफलता इस बात से भी जाहिर है कि कमांड क्षेत्र में कुओं और ट्यूबवेलों की तादाद तेजी से बढ़ रही है। तवा परियोजना के रजत जयंती समारोह में 1998 में निकाले गए फोल्डर में भी बताया गया था परियोजना से पहले उस क्षेत्र में 1236 कुएं और 84 ट्यूबवेल थे, जो 1998 तक कई गुना बढ़कर क्रमशः 25122 और 1605 हो गए। मजे की बात यह है कि इस फोल्डर में इसे परियोजनाओं की उपलब्धियों में गिनाया गया है। हाल के वर्षों में ट्यूबवेलों की संख्या के बढ़ने का एक कारण खरीफ में सोयाबीन की जगह धान की आधुनिक खेती की ओर किसानों का बढ़ता हुआ रुझान है, जो भी हो, एक ही इलाके में बड़े बांध की नहरों और ट्यूबवेलों दोनों की मौजूदगी पानी, बिजली/डीजल और धन के सामाजिक व निजी संसाधनों के दुहराव, फिजूल खर्च और बर्बादी को दर्शाती है।
सिंचाई का सामाजिक पहलू
तवा बांध की सिंचाई का एक सामाजिक पहलू और भी है। इस की दोनों मुख्य नहरें (बायीं मुख्य नहर तथा दायीं मुख्य नहर) इस तरह से बनी हैं कि सारी शाखाएं और उपनहरें उत्तर की दिशा में निकली है, क्योंकि उस तरफ (नर्मदा नदी की दिशा में) ढलान है। किंतु दोनों मुख्य नहरों के दक्षिण में अनेक आदिवासी गांव है जो मुख्य नहर के पास होते हुए भी सिंचाई के लाभ से वंचित रह गए हैं। योजनाकारों ने इस बात पर कोई ध्यान नहीं दिया कि इन मुख्य नहरों को मामूली दक्षिण में निकालकर, या जहां संभव हो वहां कुछ शाखाएं दक्षिण की ओर निकालकर, या कहीं-कहीं पानी लिफ्ट करके आदिवासियों के खेतों में भी पानी पहुंचाया जाए, चाहे इसमें कुछ अतिरिक्त धनराशि ही खर्च करना पड़े। बीच-बीच में आदिवासियों ने इसकी मांग भी की, किंतु सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया। इस तरह तवा परियोजना से आदिवासी ही उजड़े और जो आदिवासी लाभान्वित हो सकते थे, वे भी नहीं हो पाए।
मूल परियोजना दस्तावेजों में तवा नहरों से दस लिफ्ट सिंचाई योजनाओं का जिक्र मिलता है। किंतु अफसोस है कि उनमें से मात्र एक जमानी गांव के पास ही बन पाई। वह भी शायद इसीलिए कि इस गांव का पूर्व मालगुजार ब्राह्मण परिवार राजनैतिक रूप से प्रभावशाली है और इसका फायदा भी ज्यादातर उन्हीं की जमीन को मिलता है, गरीब आदिवासियों को नहीं।
तवा परियोजना का कमांड क्षेत्र नर्मदा का कछार है। इसके बड़े हिस्से में काली चिकनी मिट्टी है, जिसमें पानी का रिसाव कम होता है और थोड़ा भी पानी ज्यादा होने पर वह दलदल में बदल जाती है। फिर कुछ इलाकों में भूजल पहले से काफी ऊपर था। यह जिला प्रदेश के सबसे ज्यादा वर्षा वाले जिलों में भी है। कई जगहों पर नहरें फूट जाती है। इन सबका मिला-जुला नतीजा यह हुआ कि कई गांवों में लगातार पानी भरा रहता है, दलदल बन गई है, फसलें नहीं हो पा रही हैं।
तवा परियोजना की सिंचाई की उपलब्धियों का जिक्र इस तरह किया जाता है मानों तवा बांध नहीं बनता तो यह पूरा इलाका सूखा और असिंचित रह जाता। सच तो यह है कि तवा परियोजना का कमांड क्षेत्र नर्मदा की घाटी का वह कछार क्षेत्र है जहां जमीन में पर्याप्त पानी उपलब्ध है। यदि यह परियोजना नहीं बनती, तो भी यहां कुओं, ट्यूबवेलों, तालाबों और छोटी सिंचाई योजनाओं से सिंचाई का विकास होता ही, जैसा कि प्रदेश व देश के अन्य इलाकों में हुआ। बल्कि, जैसा कि आगे देखेंगे, इस क्षेत्र के कुछ हिस्सों में तो पानी की अधिकता और दलदलीकरण की समस्या पैदा हो गई है। दूसरी ओर होशंगाबाद व हरदा जिले के आदिवासी-बहुल पठारी व पहाड़ी इलाकों तथा बगल के बैतूल जिले में (जहां का पानी बहकर तवा नदी में आता है) भू-जल की कमी है और वे सूखाग्रस्त रहते हैं, वहां इस परियोजना का कोई फायदा नहीं मिला है, बल्कि उसी ने विस्थापन की मार भी झेली है। एक तरह से तवा परियोजना ने पानी के उपयोग और लाभों को बड़े पैमाने पर पहले से अभावग्रस्त इलाके से अपेक्षाकृत साधन, समृद्ध इलाकों को हस्तांतरित करने का काम किया है। शायद बड़े बांधों की प्रकृति और भौगोलिक बनावट में यह अंतर्नीहित है। जलाशय ऊपर बनेगा, डूबेंगे ऊपर के पहाड़ों –पठारों में रहने वाले लोग। दूसरी तरफ नहरों में पानी नीचे बहकर जाएगा और जो भी फायदा होगा वह नीचे घाटी या मैदानी इलाके में रहने वालों को मिलेगा।जल रिसाव और दलदलीकरण : पानी, मिट्टी, धन की बर्बादी
तवा परियोजना का कमांड क्षेत्र नर्मदा का कछार है। इसके बड़े हिस्से में काली चिकनी मिट्टी है, जिसमें पानी का रिसाव कम होता है और थोड़ा भी पानी ज्यादा होने पर वह दलदल में बदल जाती है। फिर कुछ इलाकों में भूजल पहले से काफी ऊपर था। यह जिला प्रदेश के सबसे ज्यादा वर्षा वाले जिलों में भी है। कई जगहों पर नहरें फूट जाती है। इन सबका मिला-जुला नतीजा यह हुआ कि कई गांवों में लगातार पानी भरा रहता है, दलदल बन गई है, फसलें नहीं हो पा रही हैं। प्रभावित किसानों को किसी तरह का मुआवजा भी नहीं दिया जाता है। सत्तर-अस्सी के दशक में इस समस्या के चलते ‘मिट्टी बचाओ अभियान’ अस्तित्व में आया। इस अभियान के प्रयासों से 1978 में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के उपमहानिदेशक सिंचाई एवं मिट्टी विशेषज्ञ डॉ. डी.आर. भूमला ने इस क्षेत्र का दौरा किया और इस समस्या की गंभीरता को स्वीकार किया। अपनी रपट में उन्होंने कहा-
“सिंचाई का काम शुरू हुए अभी दो ही वर्ष बीते हैं, फिर भी कई गांव दलदल के शिकार हो गए हैं। वास्तव में यह जमीन जो असिंचित अवस्था में उपजाऊ है, निचले भाग में स्थित होने के कारण ज्यादा प्रभावित हुई है। जब भविष्य में ज्यादा सिंचाई होने लगेगी तब तो हालत और भी बिगड़ जाएगी।................नहरों से पानी बहुत अधिक मात्रा में रिसता है। परियोजना अधिकारियों ने करीब 30 प्रतिशत रिसन की संभावना मानी थी, लेकिन मेरा अपना अंदाज 60 प्रतिशत रिसन से कम नहीं है। इस हालत में जब हम अधिक वर्षा और गहरी काली चिकनी मिट्टी की बात जोड़ लें तो इसके दलदल की भयानक समस्या उठ खड़ी होने की संभावना साफ दिखाई देती है।”
श्री भूमला ने यह भी चेताया कि वर्षाकाल में खरीफ के लिए नहरों में पानी न छोड़ा जाए और सारी नहरों को पक्का किया जाए। (तवा की मात्र 6 कि.मी. नहरें पक्की की गई थी।) चाहे इससे परियोजना की लागत बढ़ जाए। श्री भूमला की सिफारिश तवा परियोजना की मूल संकल्पना के ही खिलाफ थी, जिसमें बड़ी मात्रा में खरीफ फसलों की सिंचाई की योजना थी और उसी आधार पर लागत-लाभ का हिसाब किया गया था। जाहिर है कि योजनाकारों ने इस क्षेत्र की मिट्टी, भूजल, बारिश आदि की भौगोलिक परिस्थितियों को ध्यान में नहीं रखा या जानबूझकर उनको नजरअंदाज किया। बड़े-बड़े विशेषज्ञों, वैज्ञानिकों व इंजीनियरों द्वारा अक्सर ऐसी महा भूलें हो जाती है।
बीच में, पानी अधिकता वाले क्षेत्रों में 700 नलकूप लगाकर भूजल को निकालने का कार्यक्रम बना। इसका मतलब हुआ कि पहले पानी लबालब भरो और फिर उलीचने के लिए खर्च करो। बड़ी परियोनजाओं की विसंगतियों, बर्बादी व कुप्रबंधन का यह एक और उदाहरण है। दलदलीकरण एक तरह से पानी, मिट्टी व धन की बर्बादी है।
तवा परियोजना के अधिकारियों का कहना है कि दलदलीकरण की समस्या को बढ़ा-चढ़ाकर बताया जाता है। उनके मुताबिक मात्र 25 गांवों की कुल 335 हेक्टेयर भूमि ही दलदल बनी है, जो कुल कमांड क्षेत्र का मात्र 0.12 प्रतिशत है। अधिकारियों द्वारा यह सच्चाई से मुंह मोड़ने की कोशिश है और वास्तविक समस्या ज्यादा व्यापक व गंभीर है। देश के लगभग हर बड़े बांध की परियोजना में दलदलीकरण और लवणीकरण की समस्या उभर कर आई है। जो भी हो, तवा कमांड क्षेत्र में इस समस्या का ईमानदारी से समुचित आकलन व उपचार होना चाहिए। तवा परियोजना के नफा-नुकसान की गिनती में भी इसे शामिल किया जाना चाहिए।
विवादों से घिरा समतलीकरण
नहरों से सिंचाई के लिए कमांड क्षेत्र को समतल करने, सिंचाई की नालियां और पानी निकासी की नालियां बनाने के लिए एक महत्वाकांक्षी कार्यक्रम बनाया गया, जो काफी विवादास्पद हो गया। बड़े पैमाने पर बुलडोजर, खुदाई मशीनें और अन्य आयातित मशीनें खरीदकर इस काम में लगाई गई। इस काम की लागत किसानों से कर्ज के रूप में किश्तों में वसूला जाना था। लागत 800 रु. से लेकर 2000 रु. प्रति एकड़ तक आई। किसान इसकी किश्तें नहीं दे पाए और ब्याज मिलाकर बढ़ते हुए ये कर्ज विकराल बन गए। इस कर्ज को माफ करने की मांग कई बार उठी, तथा करीब 20 वर्ष बाद बकाया कर्ज माफ किए गए।
भूमि समतलीकरण या समरुपण के कारण एक और दिक्कत हुई। ऊपर की उपजाऊ मिट्टी नीचे चली गई और कुछ सालों तक पैदावार भी प्रभावित हुई। कई जगहों पर किसानों ने विरोध किया और समतलीकऱण नहीं होने दिया। योजना तो करीब पूरे कमांड क्षेत्र (2.4 लाख हेक्टेयर) में समतलीकरण करने की थी, किंतु विरोध तथा विपरीत परिणामों के कारण सिर्फ बांयी मुख्य नहर के क्षेत्र में 44 हजार हेक्टेयर यानी 20 प्रतिशत क्षेत्र में ही यह हो पाया। करीब 1.90 लाख हेक्टेयर में या 76 प्रतिशत कमांड क्षेत्र में सिंचाई की नालियों का निर्माण किया गया।
सामाजिक सरोकार रखने वाले मुंबाई के नामी इंजीनियर श्री के. आर. दाते ने एक बार व्यक्तिगत बातचीत में मुझे बताया था कि उन्होंने तवा कमांड क्षेत्र में ट्रेक्टरों व बैलों की मदद से सीमित समतलीकरण की एक वैकल्पिक योजना मध्य प्रदेश सरकार के सामने पेश की थी। एक-दो जगह करके भी दिखाया। इसमें बुलडोजरों की जरुरत नहीं पड़ती और लागत भी कम आती। किंतु सरकार ने कोई रुचि नहीं दिखाई। शायद इससे नीहित स्वार्थ प्रभावित होते, जो वित्तीय बचत, विवेक और जनहित से ज्यादा भारी साबित हुए।
खेती-पशुपान पद्धति में परिवर्तन
नहरी सिंचाई आने के साथ ही होशंगाबाद एवं हरदा जिलों की खेती में बड़ा बदलाव आया। फसलों का ढांचा पूरी तरह बदल गया। पहले इस इलाके में ज्वार, मक्का, कोंदो, कुटकी, समा, बाजरा, देशी धान, देशी गेहूं, तुअर, तिवड़ा, चना, मसूर, मूंग, उड़द, तिल, अलसी आदि कई तरह की फसलें ली जाती थी। तवा कमांड क्षेत्र में इन विविध फसलों की जगह सोयाबीन (खरीफ) और गेहूं (रबी) की एकल खेती ने ले ली। पुरानी फसलों में से कई के बीच अब खोजने पर भी नहीं मिलेंगे। स्वयं तवा परियोजना में कल्पना की गई थी कि सिंचित क्षेत्र में गन्ने, कपास, संकर धान, दालों, संकर ज्वार, मूंगफली, गेहूं, चने, बरसीम, सब्जियों आदि की फसलें ली जाएंगी। किंतु वास्तव में सोयाबीन और गेहूं (कुछ चना) ही चारों ओर छा गए। इन फसलों की भी चुनिंदा संकर किस्मों की ही खेती होती है। फसलों की जैविक विविधता के इस नाश को भी हिसाब में लेना चाहिए।
सिंचाई के साथ ही संकर बीजों, रासायनिक खाद, कीटनाशक-नींदानाशक दवाईयों और मशीनों का उपयोग तेजी से बढ़ा। ये बदलाव बाकी प्रदेश व देश में भी आए, किंतु यहां तेजी से व्यापक बदलाव हुआ क्योंकि आधुनिक कृषि तकनीक का गहरा संबंध सिंचाई की उपलब्धता से है। इन बदलावों में सरकारी प्रोत्साहन व सक्रियता की बड़ी भूमिका रही। तवा परियोजना प्रारंभ होते ही होशंगाबाद-इटारसी के बीच पवारखेड़ा गांव में 200 एकड़ भूमि में जवाहरलाल नेहरु कृषि विश्वविद्यालय, जबलपुर का एक बड़ा केंद्र खोला गया जो नए बीजों और नई तकनीक के प्रसार का माध्यम बना। इसी तरह, होशंगाबाद से 10 कि.मी. दूर बुधनी में कृषिमशीनों के प्रसार व प्रशिक्षण का बड़ा केंद्र खोला गया, जो स्थानीयस्तर पर ‘ट्रेक्टर स्कीम’ के नाम से जाना जाता है।
तवा परियोजना की प्रारंभिक कल्पना में मामूली बिजली उत्पादन की योजना भी थी, जिसे बाद में महंगी मानकर हटा दिया गया था। किंतु करीब 15 वर्ष पहले एचईजी नामक एक कंपनी को बांयी मुख्य नहर के मुंह पर 6.5x2 मेगावाट का मिनी बिजली संयंत्र लगाने की इजाजत दी गई। इससे उत्पादित बिजली को कंपनी यहां पर ग्रिड में देती है और बदले में मण्डीदीप स्थित अपने कारखाने में ग्रिड से 80 प्रतिशत बिजली ले लेती है। यह मान लिया जाता है कि 20 प्रतिशत बिजली रास्ते में नुकसान हो जाती है। इस कंपनी से 10 पैसे प्रति यूनिट की दर से बहुत कम रायल्टी ली जाती है।तवा परियोजना के क्षेत्र में खेती में इन बड़े बदलावों से काफी प्रगति और समृद्धि का अहसास होता है। किंतु इस समृद्धि के साथ कई तरह की दिक्कतें भी आई है। गेहूं-सोयाबीन की पैदावार वृद्धि में अब ठहराव आ गया है। दूसरी तरफ खाद, बीज, दवाई, डीजल, बिजली, मशीनों आदि की लागतें लगातार बढ़ती जा रही हैं। एकल खेती व कमजोर बीजों ने रोगों व कीटों का प्रकोप लगातार बढ़ाया है, जो नई-नई दवाईयों का ज्यादा से ज्यादा उपयोग करने को किसानों को मजबूर कर रहा है। पूरी तरह बाजार आधारित खेती व नकदी फसलें होने से मौद्रिक आमदनी तो बढ़ी है, किंतु पोषण (गांव के गरीबों का) प्रभावित हुआ है तथा गांव से धन का बाहर की ओर प्रवाह भी बढ़ा है। किसान कर्जे में डूबे हैं और इस संकट से उबरने के लिए छटपटा रहे हैं। मशीनीकरण के कारण मजदूरों का रोजगार प्रभावित हुआ है। पहले बड़ी संख्या में दूसरे जिलों से आदिवासी मजदूर फसल कटाई के लिए आते थे। अब उनकी संख्या व मजदूरी के दिन तेजी से कम होते जा रहे हैं।
तवा बांध की नहरों के आने से पूरे कमांड क्षेत्र में जंगल, चारागाह तथा सामुदायिक उपयोग की अन्य भूमि समाप्त हो गई और खेतों में बदल गई। इससे सबसे बड़ा नुकसान पारंपरिक पशुपालन का हुआ तथा पशुओं की संख्या तेजी से घटी है। विशेषकर आदिवासी, दलित एवं अन्य पिछड़े वर्ग के गरीब परिवार इससे ज्यादा प्रभावित हुए हैं, जिनके पास खेती की जमीन नहीं है या कम है। बकरी, भेड़, देशी गाय, भैंस, गधे, घोड़े आदि उनकी आजीविका का सहारा हुआ करते थे। अब जो ‘डेयरी उद्योग’ के रूप में पशुपालन हो रहा है, जिसमें जर्सी गाय-भैंस को खूंटे पर बांधकर खिलाया जाता है, वह काफी महंगा और पूंजी प्रधान है तथा हर किसी के बूते का नहीं है। पशुओं में भी जैविक विविधता के नाश को तवा परियोजना से बल मिला है।
बिजली उत्पादन – किसके लिए?
तवा परियोजना की प्रारंभिक कल्पना में मामूली बिजली उत्पादन की योजना भी थी, जिसे बाद में महंगी मानकर हटा दिया गया था। किंतु करीब 15 वर्ष पहले एचईजी नामक एक कंपनी को बांयी मुख्य नहर के मुंह पर (जहां बांध से नहर में पानी छोड़ा जाता है) 6.5x2 मेगावाट का मिनी बिजली संयंत्र लगाने की इजाजत दी गई। इससे उत्पादित बिजली को कंपनी यहां पर ग्रिड में देती है और बदले में मण्डीदीप स्थित अपने कारखाने में ग्रिड से 80 प्रतिशत बिजली ले लेती है। यह मान लिया जाता है कि 20 प्रतिशत बिजली रास्ते में नुकसान हो जाती है। इस कंपनी से 10 पैसे प्रति यूनिट की दर से बहुत कम रायल्टी ली जाती है। बिजली का उत्पादन तभी होता है, जब बांयी मुख्य नहर में पानी छोड़ा जाता है या बारिश में फालतू पानी बहाया जाता है।
इस तरह तवा परियोजना में जो भी मामूली बिजली पैदा होती है, उसका लाभ समाज को या स्थानीय लोगों को न मिलकर एक- निजी कंपनी को मिलता है। तवानगर व आसपास के गांव लगातार बिजली की कमी व कटौती से जूझते रहते हैं। विडंबना यह है कि तवा बांध के नजदीक कुछ विस्थापित आदिवासी गांवों में आज तक बिजली लाईन भी नहीं पहुंची है। इसे दिया तले अंधेरा कहा जा सकता है।
मछली उत्पादन के अतिरंजित दावे
हर बड़े बांध के फायदों में मछलीपालन को भी गिनाया जाता है। तवा परियोजना में कल्पना की गई थी कि 20,070 हेक्टेयर में फैले इसके विशाल जलाशय में प्रतिवर्ष 500 टन मछली का उत्पादन होगा, जिसमें अनेक लोगों को रोजगार मिलेगा। परियोजना में एक मछली बीज फार्म, एक तीन टन क्षमता का बर्फ कारखाना, डूब क्षेत्र की जंगल कटाई तथा नहर के गेट पर मछली रोकने के लिए लोहे की जाली लगाने का भी प्रावधान किया गया था। किंतु यह जाली नहीं लगी और बर्फ संयंत्र भी आज तक नहीं बना। तवा डूब का जंगल भी पूरा नहीं कट पाया और आज भी जलाशय के अंदर कई पेड़ों के ठूंठ खड़ें हैं। मछुआरों के जाल इनमें फंस जाते हैं। पवारखेड़ा गांव में मछली बीज फार्म जरुर बना, किंतु सरकारी कुप्रबंध के कारण कभी भी इससे तवा जलाशय के लिए पर्याप्त मछली बीज आपूर्ति नहीं हो पाई।
तवा जलाशय से मछली का उत्पादन भी 500 टन कभी नहीं हो पाया, बल्कि ज्यादातर वर्षों में इससे बहुत कम रहा (देखें तालिका-2)। वर्ष 1995 तक तवा जलाशय का सालाना मछली उत्पादन 16 टन से लेकर 176 टन के बीच झूलता रहा। विस्थापितों के बड़े संघर्ष के बाद फिर उनकी मछुआरा समितियों व संघ के हाथ में यह काम आया, तो मछली उत्पादन, रोजगार और मछुआरों की आमदनी में काफी बढ़ोतरी हुई। फिर भी अधिकतम मछली उत्पादन, 393 टन से ज्यादा नहीं बढ़ पाया इस संघ के कार्यकाल में सालाना औसत मछली उत्पादन 300 टन से नीचे ही रहा। जाहिर है कि 500 टन मछली उत्पादन का आंकड़ा अतिरंजित था।
2006 के बाद इस सहकारी संघ की लीज भी खत्म कर दी गई, क्योंकि तवा जलाशय का एक हिस्सा सतपुड़ा राष्ट्रीय उद्यान एवं बोरी अभ्यारण्य के अंदर होने से इसमें व्यवसायिक गतिविधियों पर वन विभाग ने आपत्ति लगा दी। तवा परियोजना से मछलीपालन के लाभों की बात ही अब खत्म हो गई है।
बाढ़ नियंत्रण या बाढ़ का कारण?
बड़े बांधों का एक फायदा यह गिनाया जाता है कि इनसे बाढ़ों का नियंत्रण होगा। किंतु अनुभव इससे उल्टा हो रहा है। वर्ष 1999 में नर्मदा में भयानक बाढ़ आई जिसका प्रकोप होशंगाबाद और अन्य जिलों में आठ दिन तक चलता रहा। इस बाढ़ का कारण तवा बांध, बारना बांध (तवा की ही भांति नर्मदा की सहायक नदी बारना पर बना बांध एवं बरगी बांध (नर्मदा पर जबलपुर के पास बना बांध) से एक साथ लगातार विशाल मात्रा में पानी छोड़ना था। दरअसल तीनों बांधों के जलग्रहण क्षेत्र में लगातार भारी बारिश होने से उनके सारे गेट एक साथ खोलने पड़े थे। बरगी बांध से नर्मदा में छोड़ी गई विशाल जलराशि में तवा और बारना बांधों से छोड़ा पानी आकर मिलता गया और बाढ़ का कारण बना गया।
यह दलील दी जा सकती है कि बांध नहीं भी होते तो भी बाढ़ आ सकती थी। किंतु बांध नहीं होते तो बारिश का पानी पहले संग्रहित न होकर निकलता रहता और बाढ़ आती भी तो उसका रूप इतना भयानक नहीं होता। इधर कुछ वर्षों से तो देश में जहां भी बाढ़ें आ रही हैं, किसी न किसी बांध से पानी छोड़ना उसका तात्कालिक कारण मालूम पड़ रहा है। बड़े बांध भी बनते जा रहे हैं और बाढ़ों का प्रकोप भी बढ़ता जा रहा है। जो भी हो, इतना तो तय है कि बाढ़-नियंत्रण के मामले में बड़े बांध असफल रहे हैं तवा बांध और नर्मदा घाटी के अन्य बांध भी इसका उदाहरण है।
विस्थापन : बलि चढ़े आदिवासी
बड़ी सिंचाई परियोजनाओं के संदर्भ में एक सिद्धांत का प्रतिपादन किया जाने लगा है कि विस्थापितों को सिंचाई क्षेत्र में बसाया जाए ताकि उन्हें लाभ का कुछ हिस्सा मिल सके। म.प्र. में इस बारे में एक कानून भी है, किंतु इस पर कभी अमल नहीं होता है। तवा परियोजना में भी इसकी कोई परवाह नहीं की गई। बल्कि ज्यादातर विस्थापित गांवों को दूसरी जगह व्यवस्थित रूप से बसाने की जरुरत भी नहीं समझी गई। ज्यादातर विस्थापित परिवार बगल में ही ऊंची जमीन पर बस गए। किसी तरह के वैकल्पिक रोजगार के अभाव में उन्होंने दो नए काम सीखे। एक, बाहरी मछुआरों की देखा-देखी उन्होंने जलाशय में जाल डालना और मछली पकड़ना सीखा। तवा बांध से जो विशाल जलाशय बना, उसमें आदिवासियों के 44 गांव पूर्ण या आंशिक रूप से डूबे। इनमें 27 वनग्राम और 17 राजस्व ग्राम थे। इनके 90 प्रतिशत निवासी आदिवासी थे। इन्हें मुआवजा बहुत कम मिला – 100 रु. प्रति एकड़ से 300 रु. प्रति एकड़ तक। किंतु यह मुआवजा भी वनग्रामों में नहीं दिया गया, क्योंकि वहां के निवासी भूमिस्वामी नहीं माने जाते हैं। राजस्व ग्रामों में बगैर पट्टे की भूमि का भी किसी तरह का मुआवजा नहीं दिया गया। इससे बहुत बड़ी मात्रा में आदिवासी वंचित रह गए क्योंकि आदिवासी गांवों में भूमि पट्टे बहुत कम लोगों के पास होते हैं। इसीलिए तवा परियोजना के दस्तावेजों में मात्र 1543 हेक्टेयर कृषि भूमि का अर्जन बताया गया है।
खेती की जमीन और मकानों के सीधे डूबने के अतिरिक्त बगल का जंगल डूबने से भी आदिवासियों का जीवन प्रभावित हुआ, क्योंकि अपनी जीविका और रोजमर्रा की जरूरत दोनों के लिए वे जंगल पर काफी निर्भर रहते हैं। किंतु तवा परियोजना में इस तथ्य को कोई मान्यता नहीं दी गई और इस नुकसान की क्षतिपूर्ति करने के बारे में सोचा भी नहीं गया।
बड़ी सिंचाई परियोजनाओं के संदर्भ में एक सिद्धांत का प्रतिपादन किया जाने लगा है कि विस्थापितों को सिंचाई क्षेत्र में बसाया जाए ताकि उन्हें लाभ का कुछ हिस्सा मिल सके। म.प्र. में इस बारे में एक कानून भी है, किंतु इस पर कभी अमल नहीं होता है। तवा परियोजना में भी इसकी कोई परवाह नहीं की गई। बल्कि ज्यादातर विस्थापित गांवों को दूसरी जगह (सिंचित या असिंचित) व्यवस्थित रूप से बसाने की जरुरत भी नहीं समझी गई। ज्यादातर विस्थापित परिवार बगल में ही ऊंची जमीन पर बस गए। किसी तरह के वैकल्पिक रोजगार के अभाव में उन्होंने दो नए काम सीखे। एक, बाहरी मछुआरों की देखा-देखी उन्होंने जलाशय में जाल डालना और मछली पकड़ना सीखा। किंतु उन्हें कानूनी अधिकार नहीं मिला और वे मछली चोर माने गए। ठेकेदार, पुलिस व मत्स्य निगम की प्रताड़ना वे सहते रहे। दूसरा काम उन्होंने डूब की खेती के रूप में शुरू किया। हर साल अक्टूबर – नवंबर में तवा की नहरें चालू होने पर जलाशय का जलस्तर नीचे जाने लगता है। तब किनारे की जो जमीन पानी से बाहर आती है (जो अक्सर बांध बनने से पहले उनकी ही जमीन थी), उस पर वे गेहूं-चने की फसल लेने लगे। बाद में गर्मी में मूंग व तरबूज-खरबूज की खेती भी उन्होंने शुरू की। किंतु इसमें भी तवा परियोजना एवं वनविभाग के स्टाफ ने रोक-टोक करना और भारी शुल्क लगाना शुरू कर दिया।तवा बांध के विस्थापन की विभीषिका इसलिए भी बढ़ गई कि इसी आदिवासी इलाके में प्रूफ रेंज (फौज का परीक्षण रेंज) तथा ऑर्डनेंस फैक्टरी के लिए भी बड़ी संख्या में आदिवासी गांवों को उजाड़ा गया और अब बोरी अभ्यारण्य तथा सतपुड़ा राष्ट्रीय उद्यान से आदिवासी गांवों को खाली कराया जा रहा है। कुछ लोग तो दो-तीन बार उजड़ रहे हैं।
इन सब मुसीबतों को झेलते हुए 90 के दशक में विभिन्न परियोजनाओं के विस्थापितों का एक मिला-जुला आंदोलन ‘किसान आदिवासी संगठन’ के तत्वाधान में खड़ा हो गया। कई रैली-धरनों के बाद 9 नवंबर 1995 को केसला में राजमार्ग पर एक बड़ा चक्काजाम हुआ। इसमें पुलिस ने बेरहमी से लाठियां चलाई और बूढ़ों व महिलाओं को भी नहीं छोड़ा किंतु इसके बाद विधानसभा में भी यह मामला उठा और सरकार को विस्थापितों की मांगों पर विचार करने के लिए एक समिति बनाना पड़ा।
इस समिति की सिफारिशों के आधार पर 24 अक्टूबर 1996 को म.प्र. सरकार के मंत्रिमंडल ने कुछ फैसले लिए-
1. तवा जलाशय में नीलामी बंद करके मछलीपालन का अधिकार विस्थापितों को सहकारिता के आधार पर दिया जाएगा।
2. विस्थापितों को भूमि व पट्टा दिया जाएगा।
3. डूब की खेती का शुल्क 5 वर्ष के लिए माफ किया जाएगा।
4. तवा जलाशय के किनारे बारधा, सिलवानी एवं कामती में लिप्ट सिंचाई योजनाएं बनाई जाएगी।
5. राष्ट्रीय उद्यान व अभ्यारण्य से बिना सहमति के किसी को नहीं हटाया जाएगा।
किंतु इन फैसलों पर पूरी तरह अमल नहीं हुआ। मछली का अधिकार विस्थापितों को मिला, किंतु दस वर्षों बाद वापस ले लिया गया। कुछ विस्थापित परिवारों को बहुत दूर जमीन आबंटित की गई, किंतु या तो जमीन रेतीली या बंजर थी या फिर दूसरों के कब्जे में थी। वे पट्टे का कागज का टुकड़ा लेकर भटक रहे हैं। डूब का शुल्क 5 वर्ष के लिए माफ हुआ किंतु उसके बाद से लगातार बढ़ाया जा रहा है। लिफ्ट सिंचाई योजनाओं में कामती में कुछ नहीं हुआ, सिलवानी में निर्माण कार्य 15 साल बाद भी पूरा नहीं हुआ तथा बारधा में 13 साल बाद योजना चालू हुई किंतु पर्याप्त पानी नहीं मिल रहा है। राष्ट्रीय उद्यान व अभ्यारण्य में लोगों के जीवन पर इतनी पाबंदियां लगा दी गई हैं कि वे मजबूरन बाहर बसने के लिए सहमति दे रहे हैं। दो गांवों को बाहर बसाया जा चुका है किंतु वहां उनकी हालत खराब है।
कुल मिलाकर, तवा बांध के विस्थापितों का अनुभव एक बार फिर इस सच्चाई को दर्शाता है कि विस्थापितों के साथ कभी न्याय नहीं होता है। उनके इस नुकसान व अन्याय को कभी ठीक से नहीं आंका जाता। उनका पुनर्वास ठीक से न करके ही बांध परियोजना की लागतों को कम रखा जा सकता है।
आदिवासियों के साथ तिहरा अन्याय
होशंगाबाद और हरदा जिले के दक्षिण में सतपुड़ा के पहाड़ों एवं आदिवासी क्षेत्र की पट्टी है। यह इलाका तीन तरह से अन्याय और भेदभाव का शिकार हुआ है। एक, विस्थापन की पूरी मार इसे ही झेलनी पड़ी है। दो, तवा नहरों की सिंचाई से भी यह वंचित रहा है। तीन, आदिवासी इलाकों में छोटी सिंचाई योजनाओं का विकास इसलिए भी ज्यादा नहीं हो सका, क्योंकि तवा परियोजना के कारण इन दोनों जिलों में सिंचाई का औसत प्रतिशत अच्छा हो गया और वे सरकार की प्राथमिकता में नहीं रहे।
पर्यावरण का नुकसान
तवा बांध में बहुत घना और विशाल जंगल डूबा है। यह इतना घना था कि डूबने से पहले वन विभाग इसे पूरा नहीं कटवा पाया और पेड़ों के ठूंठ आज भी पानी के बीच खड़े दिखते हैं। इस घने कुदरती जंगल की भरपाई दूसरी जगह वृक्षारोपण करके नहीं की जा सकती। इस जंगल के साथ ही उसमें रहने वाले वन्य प्राणियों का आवास भी खत्म हो गया, जिनके संरक्षण के नाम पर सरकार अरबों रुपए खर्च कर रही है। दरअसल अब हर बड़े बांध के साथ वन्य प्राणियों के पुनर्वास के लिए राष्ट्रीय उद्यान या अभ्यारण्य बनाया जा रहा, जो वहां रहने वाले गांववासियों पर एक और संकट का स्रोत बन जाता है। दूसरी ओर, घटते हुए वन क्षेत्र के कारण वन्य प्राणियों पर भी मुसीबत आती जाती है, दो मात्र अभ्यारण्य बनाने से दूर नहीं होती है।
वनों, वन्य प्राणियों और पर्यावरण के इस नुकसान को कभी भी ठीक तरीके से बड़े बांधों के नफा-नुकसान के हिसाब में शामिल नहीं किया जाता है। वैसे इस नुकसान का रुपए-पैसे में मूल्यांकन करना मुश्किल भी है।
खेती और पशुओं की जैविक विविधता के नाश का जिक्र ऊपर किया जा चुका है। खेती में भारी रासायनिक खाद, कीटनाशक व नींदानाशक दवाईयों के इस्तेमाल से पर्यावरण में जो जहर फैल रहा है, वह भी एक चिंता का विषय है। एक और चिंताजनक प्रवृत्ति खेतों में नरवाई (फसल कटाई के बाद खेत में शेष भूसा-डंठल) जलने या जलाने की है, जो हार्वेस्टरों के प्रचलन के बाद और व्यापक तथा भयानक हो गई है।
तवा परियोजना की एक ऋणात्मक देन मच्छरों की बढ़ती संख्या और मलेरिया, डेंगू व जल जनित रोगों आदि का बढ़ता प्रकोप है। राष्ट्रीय मलेरिया शोध संस्थान के डॉ. नरेंद्र चौधरी ने अपने अध्ययन ‘बांध और बीमारी’ में पाया कि अन्य क्षेत्र की तुलना में कमांड क्षेत्र में इस तरह की बीमारियां ज्यादा हैं। तवा परियोजना के दस्तावेज बताते हैं कि तवा बांध के निर्माण के दौरान ही 1971 में उसके आसपास मलेरिया की महामारी फैल गई थी, जिसमें मलेरिया के एक हजार से ज्यादा केस पाए गए।
सारे बड़े बांधों में तेजी से गाद भरना एक बड़ी समस्या रहा है, जिससे उनका जीवनकाल मूल परियोजना में बताए काल से काफी कम हो जाता है। तवा जलाशय में भी तेजी से गाद भर रही है। यद्यपि इसके आंकड़ें उपलब्ध नहीं है, लेकिन बगल में रहने वाले ग्रामवासियों के बताए मुताबिक कई जगहों पर 10-12 मीटर तक गाद भर चुकी है।
निष्कर्ष
तवा परियोजना के 35 साल के अनुभव से मालूम होता है कि इसके जितने फायदे कागज पर बताए गए थे, हकीकत में उससे काफी कम रहे। ये फायदे भी कई तरह की मुसीबतों व दिक्कतों को साथ में लेकर आए, जिनका पहले अंदाज नहीं लगाया गया था। विस्थापन की मानवीय लागतों और पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभावों पर तो ध्यान ही नहीं दिया गया, उनके समुचित आकलन की बात तो दूर है। तवा बांध आदिवासियों के साथ भेदभाव व अन्याय का भी प्रतीक बन गया है। बड़े बांधों की संरचना, डिजाईन व प्रकृति में ही कई समस्याएं और विसंगतियां नीहित हैं जो तवा परियोजना में भी दिखाई देती हैं।
कहने का मतलब यह नही है कि तवा परियोजना से कोई फायदे नहीं हुए हैं सवाल यह है कि जितने फायदे बताए गए थे क्या उतने वास्तव में हुए? और किसको? ये फायदे कितने तात्कालिक हैं और कितने स्थाई? और इस परियोजना की जितनी वित्तीय, मानवीय, सामाजिक एवं पर्यावरणीय कीमत देश को, समाज को, स्थानीय लोगों और आदिवासियों को चुकानी पड़ी, क्या ये फायदे उसकी भरपाई करते हैं? सवाल यह भी है कि इन फायदों को हासिल करने के लिए क्या कोई और कम लागत वाले वैकल्पिक तरीके नहीं थे? क्या ऐसे विकल्पों की गंभीरता से तलाश की गई थी?
वक्त आ गया है कि तवा परियोजना के लाभों और लागतों का सही, समग्र और ईमानदारी से विस्तृत अध्ययन एवं मूल्यांकन किया जाए। इससे एक बार फिर बड़े बांधों के प्रति मोह, अंधविश्वास और अंधानुकरण से पैदा हो रहे संकटों को दूर करने में मदद मिलेगी।
(गांधीसागर बांध के 50 वर्ष पूरे होने पर बड़े बांधों के लाभ-हानि पर आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी 18-19 नवंबर 2010 में पेश परचा)
नोट : इस परचे को तैयार करने में ग्राम सेवा समिति (रोहना, जिला होशंगाबाद), ताल (भोपाल) एवं योगेश दीवान (होशंगाबाद) से महत्वपूर्ण मदद मिली।
तालिका 1 : तवा परियोजना से सिंचाई (हजार हेक्टेयर में)
वर्ष | सिंचित भूमि | सिंचित फसल | |||
|
| खरीफ | रबी | गर्मी | योग |
परियोजना रिपोर्ट में अनुमानित वास्तविक | 246.9 | 159.9 | 165.4 | 7.4 | 332.7 |
1974-75 | 1.09 | - | 1.09 | - | 1.09 |
1975-76 | 8.78 | - | 8.78 | - | 8.78 |
1976-77 | 13.67 | 0.06 | 13.67 | 0.01 | 13.74 |
1977-78 | 13.56 | - | 13.56 | - | 13.56 |
1978-79 | 14.20 | 0.03 | 14.20 | 0.03 | 14.20 |
1979.80 | 25.85 | 5.01 | 25.85 | - | 38.80 |
1980-81 | 41.98 | 6.32 | 41.98 | 0.09 | 48.30 |
1981-82 | 46.35 | 1.47 | 46.35 | 0.20 | 48.02 |
1982-83 | 61.50 | 5.18 | 61.50 | - | 67.40 |
1983-84 | 73.65 | 0.55 | 73.65 | - | 74.20 |
1984-85 | 85.20 | 7.30 | 85.20 | 0.05 | 92.37 |
1985-86 | 96.36 | 1.55 | 96.36 | - | 97.91 |
1986-87 | 112.25 | 17.60 | 112.25 | - | 129.85 |
1987-88 | 113.61 | 1.48 | 113.61 | - | 115.09 |
1988-89 | 121.49 | - | 121.49 | - | 121.49 |
1989-90 | 133.51 | 6.5 | 133.51 | - | 140.02 |
1990-91 | 146.49 | - | 146.49 | - | 146.49 |
1991-92 | 159.09 | 16.34 | 159.09 | - | 175.43 |
1992-93 | 165.20 | 21.40 | 165.20 | - | 186.60 |
1993-94 | 169.10 | - | 169.10 | - | 168.40 |
1994-95 | 174.98 | - | 174.98 | - | 174.98 |
1995-96 | 176.20 | - | 176.20 | - | 176.20 |
1996-97 | 176.28 | - | 176.28 | - | 176.28 |
1997-98 | 177.39 | - | 177.39 | - | 177.39 |
1998-99 | 180.65 | - | 180.65 | - | 180.65 |
1999-2000 | 181.53 | - | 181.53 | - | 181.53 |
2000-01 | 171.00 | - | 171.00 | - | 171.00 |
2001-02 | 183.52 | - | 183.52 | - | 183.52 |
2002-03 | 185.50 | - | 185.50 | - | 185.50 |
तालिका 2 : तवा जलाशय में मछली उत्पादन
प्रोजेक्ट में अनुमानित | मीट्रिक टन में |
1979-80 | 34.76 |
198-81 | 76.07 |
1981-82 | 38.16 |
1982-83 | 40.87 |
1983-84 | 58.88 |
1984-85 | 16.79 |
1985-86 | 27.82 |
1986-87 | 111.11 |
1987-88 | 144.86 |
1988-89 | 59.53 |
1989-90 | 165.31 |
1990-91 | 130.69 |
1991-92 | 146.01 |
1992.93 | 88.67 |
1993-94 | 84.42 |
1994-95 | 176.18 |
1995-96 | अधिकृत मत्स्यारवेट बंद |
1996-97 | 93.23 |
1997-98 | 245.81 |
1998-99 | 344.38 |
1999-2000 | 393.16 |
2000.01 | 327.18 |
2001-02 | 269.05 |
2002-03 | 202.14 |
2003-04 | 195.89 |
2004-05 | 382.12 |
सुनील
ग्राम – केसला, तहसील इटारसी,
जिला होशंगाबाद (म.प्र.)
पिनकोड : 461111
मोबाईल 09425040452
ईमेल- sjpsunil@gmail.com
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