तटबंध पीड़ितों के सामने का विकल्प

डगमारा को भपटियाही से जोड़ते हुए कोसी नदी पर एक पुल का निर्माण शुरू हुआ है और वह एक अच्छा काम है और इस तरह के एक-आध पुल और बन जायें तो आवाजाही सुगम हो जायेगी और यहाँ के निवासियों का बाहरी दुनियाँ से सम्पर्क बढ़ेगा और बाजार की दुतरफा वृद्धि होगी। बिहार में गंडक नदी पर वाल्मीकिनगर के अलावा मोतिहारी, रेवा घाट और हाजीपुर में तीन स्थानों पर पुल बने हुये हैं अतः यह कोई नामुमकिन मांग नहीं है। आम जनता की बेहतरी सरकारों की इच्छा शक्ति पर निर्भर करती है। जिस तरह से सरकार ने कोसी परियोजना में विस्थापितों के पुनर्वास के प्रश्न को हल्का करके देखा, उसी का परिणाम है कि आज वहाँ के विस्थापित दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं। उनकी यह कुर्बानी कुछ काम आई होती अगर कोसी योजना के बहु-प्रचारित लाभ किसी दूसरे को मिले होते। देश की लगभग सभी राजनैतिक पार्टियों ने किसी न किसी समय और किसी न किसी रूप में इस देश और प्रान्त पर शासन किया है मगर कभी किसी ने चुनाव का वक्त छोड़ कर कोसी तटबन्ध के बीच फंसे लोगों के बारे में आवाज नहीं उठाई। कोसी नदी पर बराहक्षेत्र बांध, कमला नदी पर शीशा पानी बांध और बागमती नदी पर नुनथर में बांध निर्माण की बात भी हवा में एक लम्बे समय से तैर रही है मगर कोई नहीं जानता कि यह बांध कब वजूद में आयेंगे।

जब भी इन बांधों के निर्माण की गंभीर चर्चा होगी तब और केवल तभी, सिर्फ एक बार, कोसी तटबन्ध पीड़ितों के जीवन में वह समय आयेगा जब वह अपने पुनर्वास, जैसा भी वह चाहते हों, की बात जोर देकर कह पायेंगे कि इसकी लागत प्रस्तावित बांधों की लागत में शामिल की जाये। इस बात के लिए वह सरकार को तथा उन वित्तीय संस्थाओं को मजबूर कर सकते हैं कि अगर उनके वांछित पुर्नवास का काम बांध निर्माण के पहले नहीं किया जायेगा तो वह योजना का विरोध करेंगे। बराहक्षेत्र बांध का निर्माण पहले से बनी कोसी योजना के पीड़ितों के पुनर्वास की शर्त पर ही होना चाहिये।

यह तो तय है कि तटबंध पीड़ितों से पहले किये गये वायदे जैसे जमीन के बदले जमीन, घर के बदले घर, या परिवार पीछे एक व्यक्ति को नौकरी आदि सब झूठे थे। उन्हें पूरा करने की किसी की न तो नीयत थी और न यह संभव ही था। लोगों को फरेब खाना था और वह झांसे में आ गये। लेकिन चन्द्र किशोर पाठक समिति द्वारा सुझाये गये प्रस्ताव अभी भी वैध हैं। सरकारी नौकरियों में सुझाये गये आरक्षण, जिस पर कोसी पीड़ित विकास प्राधिकार की भी मुहर लगी हुई है, में तो कोई अतिरिक्त खर्च नहीं है जिसे लागू करने में किसी को कोई परेशानी नहीं होनी चाहिये।

डगमारा को भपटियाही से जोड़ते हुए कोसी नदी पर एक पुल का निर्माण शुरू हुआ है और वह एक अच्छा काम है और इस तरह के एक-आध पुल और बन जायें तो आवाजाही सुगम हो जायेगी और यहाँ के निवासियों का बाहरी दुनियाँ से सम्पर्क बढ़ेगा और बाजार की दुतरफा वृद्धि होगी। बिहार में गंडक नदी पर वाल्मीकिनगर के अलावा मोतिहारी, रेवा घाट और हाजीपुर में तीन स्थानों पर पुल बने हुये हैं अतः यह कोई नामुमकिन मांग नहीं है। एक बात इन पुलों में जरूर ध्यान देने योग्य है और वह यह कि इससे होकर पानी प्रवाह का रास्ता समुचित होना चाहिये वरना पुल के प्रतिप्रवाह तथा अनुप्रवाह में क्रमशः बालू जमाव और कटाव के कारण लोगों की परेशानियाँ बढ़ेंगी।

सिमराही प्रखंड राघोपुर, जिला सुपौल के सत्य नारायण प्रसाद बताते हैं ‘...मेरा गाँव भुलिया कोसी तटबन्धों के बीच था। गाँव के केवल कुछ लोगों को पुनर्वास मिला पिपरा में जहाँ लोग जाकर जल्दी ही वापस चले आए। अभी करीब सारे लोग वापस पुराने गाँव में हैं और वहीं नदी के थपेड़े झेलते हैं। गाँव का कटना और जमीन पर नदी का बालू पड़ना हमारी नियति है। पूरा गाँव कितनी बार इधर से उधर हुआ होगा अब उसका कोई हिसाब नहीं है। तटबन्धों के अन्दर की बात तो अब जाने ही दीजिये, बाहर वाले हमारे इलाके में कोसी का पूर्वी तटबन्ध है, गमहरिया उप-शाखा नहर है, सहरसा को बीरपुर से जोड़ने वाली सड़क है और सहरसा जोगबनी रेल-लाइन भी है। यह सब सुन कर लगता है कि हमारा इलाका बड़ा खुशहाल होगा। मगर, तटबन्ध और गमहरिया नहर के कारण यहाँ भीषण जल-जमाव रहता है, जमीन दलदल हो जाने जैसी है। केवल गरमा की फसल हो पाती है और नहर के बावजूद गरमा के मौसम में सिंचाई पम्प से होती है। कुछ इलाके जहाँ की जमीन ऊँची है, वहाँ रबी की खेती हो जाती है। उसमें भी इस नहर का कोई योगदान नहीं है। सड़क की हालत ऐसी है कि आप अगर बस में बैठ जाएं तो यहाँ से सहरसा के बीच बगल वाले से दस बार आप का सिर टकरायेगा और इतनी ही बार कम से कम सामने वाली सीट से आप को चोट लगेगी। ...अभी हमारे यहाँ डगमारा से भपटियाही को जोड़ते हुये एक पुल बनने वाला है। यहाँ दोनों तटबन्धों के बीच का फासला 8-9 किलोमीटर होगा और पुल में पानी के बहाव के लिए 2 किलोमीटर चौड़ा रास्ता देने की बात चल रही है। अब कहाँ 9 किलोमीटर में नदी का बहता पानी और कहाँ 2 किलोमीटर में पानी का बहाव? अब इस पुल के उत्तर में नदी की बाढ़ का लेवेल बढे़गा, ज्यादा गाँव ज्यादा समय के लिए पानी की चपेट में आयेंगे और पुल के दक्षिण में भीषण कटाव होगा। दोनों तरफ से लोग उजड़ेंगे। हम लोगों ने कितनी बार पुल की चौड़ाई बढ़ाने के लिए अधिकारियों से कहा, नेताओं से बात की मगर कौन सुनता है? पुल बनना और रास्ता मिलना अच्छी बात है मगर हम कितनी बार उजड़ेंगे?”

स्थानीय लोगों को चाहिये कि वह तटबन्ध पीड़ितों के आर्थिक पुनर्वास, अतिरिक्त पुलों के निर्माण और तटबन्धों के बाहर जल-जमाव से मुक्ति पाने के लिए सरकार पर अभी से दबाव डालें और इन योजनाओं का क्रियान्वयन सुनिश्चित करें। अगर यह मौका लोगों ने गँवा दिया तो फिर कभी भी कोसी तटबन्ध पीड़ितों की बात कोई नहीं सुनेगा। अब यह लोगों पर निर्भर करेगा कि वह अपने हक की लड़ाई के लिए तैयार हैं या नहीं। एक बात और, अगर फिर एक बार राजनतिज्ञों के झांसे में आकर कोसी पीड़ितों ने ही बराहक्षेत्र बांध की बात उठाई और उन्हीं के मुँह में बांध के निर्माण के नारे ठूँस दिये गये तो यह लोग चुपचाप बनते बांध का नजारा देखेंगे और बदले में इन्हें कुछ भी नहीं मिलेगा। मांग और शर्त दोनों कभी एक साथ नहीं रखी जाती, यह बात समझ कर ही कोई कदम उठाना होगा।

तटबन्ध पीड़ितों के सामने एक और भी विकल्प खुला है और वह यह कि वह लोग ऐसे आदमियों को चुन कर जनतांत्रिक संस्थाओं में भेजें जो उनके हितों की आवाज अलग-अलग मंचों पर उठा सकें और पूरा करने के लिए संघर्ष कर सकें। यह अवसर हर पाँच साल बाद निश्चित रूप से आता है और यही एक दिन होता है जब जनता खुद अपना निर्णय लेती है। इस दिन के पहले और इस दिन के बाद वह अपनी ही चुनी हुई व्यवस्था के अधीन होकर जीती है। जनतंत्र द्वारा प्रदत्त इस अवसर को अगर धर्म, जाति, भाषा, समूह, झूठे नारों और प्रतिब(ताओं के नाम पर खो दिया जाता है तो इसके लिए लोग खुद जिम्मेदार हैं। अगर लोग अपने संकुचित मानसिकता के दायरे से उठ कर ऊपर नहीं आते हैं तब तो वह जो भी परदा उठायेंगे उसी के पीछे उन्हें कातिल नजर आयेंगे। इस स्तर की जागरूकता निश्चित ही बड़ी मुश्किल से पैदा होती है।

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Post By: tridmin
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