तटबन्धों की उपयोगिता का द्वन्द

व्यावहारिक सच्चाई यह है कि बाढ़ नियंत्रण के लिए किसी नदी पर तटबन्ध बनें या नहीं, यह फैसला अपनी समझ और स्वार्थ के अनुसार राजनीतिज्ञ लेते हैं और इन अनिर्णित तर्कों का सहारा ले कर इंजीनियर सिर्फ उनकी हाँ में हाँ मिलाते हैं। इंजीनियरों का कद चाहे कितना बड़ा क्यों न हो, जैसी व्यवस्था है, उसमें राजनीतिज्ञ उन पर अपना फैसला थोपने में कामयाब होते हैं और बड़े से बड़े इंजीनियर उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते।

तटबन्धों का निर्माण कर के बाढ़ नियंत्रण का प्रयास करना इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए सर्वसुलभ परन्तु सर्वाधिक विवादास्पद तरीका है। बाढ़ नियंत्रण के लिए तटबन्धों के निर्माण और उनकी भूमिका तथा इस मसले पर पक्ष और विपक्ष की बहस में पड़े बिना यहाँ इतना ही बता देना काफी है कि मुक्त रूप से बहती हुई नदी की बाढ़ के पानी में काफी मात्रा में गाद (सिल्ट/बालू/पत्थर) मौजूद रहती है। बाढ़ के पानी के साथ यह गाद बड़े इलाके पर फैलती है। तटबन्ध पानी का फैलाव रोकने के साथ-साथ गाद का फैलाव भी रोक देते हैं और नदियों के प्राकृतिक भूमि निर्माण में बाधा पहुँचाते हैं। अब यह गाद तटबन्धों के बीच ही जमा होने लगती है जिससे नदी का तल धीरे-धीरे ऊपर उठना शुरू हो जाता है और इसी के साथ तटबन्धों के बीच बाढ़ का लेवल भी ऊपर उठता है। नदी की पेटी लगातार ऊपर उठते रहने के कारण तटबन्धों को ऊँचा करते रहना इंजीनियरों की मजबूरी बन जाती है मगर इसकी भी एक व्यावहारिक सीमा है। तटबन्धों को जितना ज्यादा ऊँचा और मजबूत किया जायेगा, सुरक्षित क्षेत्रों पर बाढ़ और जल-जमाव का खतरा उतना ही ज्यादा बढ़ता है।

तटबन्धों के बीच उठता हुआ नदी का तल और बाढ़ का लेवल तटबन्धों के टूटने का कारण बनते हैं। तटबन्धों के ऊपर से होकर नदी के पानी के बहने के कारण, तटबन्धों से होने वाले रिसाव या तटबन्धों के ढलानों के कटाव या उनके लिए-दिए बैठ जाने के कारण उनमें दरारें पड़ती हैं। तटबन्धों के टूटने की स्थिति में बाढ़ से सुरक्षित क्षेत्रों में तबाही का अन्दाजा सहज ही लगाया जा सकता है। कभी-कभी चूहे, लोमड़ी या छछूंदर जैसे जानवर तटबन्धों में अपने बिल बना लेते हैं। नदी का पानी जब इन बिलों में घुसता है तो पानी के दबाव के कारण तटबन्धों में छेद बड़ा हो जाता है और वे टूट जाते हैं।

किसी भी नदी पर तटबन्धों के निर्माण के कारण उस नदी की सहायक धराओं का पानी मुख्य नदी में न जाकर बाहर ही अटक जाता है। बाहर अटका हुआ यह पानी या तो पीछे की ओर लौटने पर मजबूर होगा या तटबन्धों के बाहर नदी की दिशा में बहेगा। दोनों ही परिस्थितियों में यह नए-नए स्थानों को डुबोयेगा जहाँ कि, मुमकिन है, अब तक बाढ़ न आती रही हो। इस समस्या का जो जाहिर सा समाधन है वह यह कि जहाँ सहायक धरा तटबन्ध पर पहुँचती है वहाँ एक स्लुइस गेट बना दिया जाए। लेकिन स्लुइस गेट बन जाने के बाद भी उसे बरसात के मौसम में खोलना समस्या होती है क्योंकि अगर कहीं मुख्य धारा में पानी का लेवल ज्यादा हुआ तो उसका पानी सहायक धारा में उलटा बहने लगेगा और अनियंत्रित स्थिति पैदा करेगा। इसके अलावा अपने निर्माण के कुछ ही वर्षों के अन्दर स्लुइस गेट अक्सर जाम हो जाया करते हैं क्योंकि नदी की तरफ फाटकों के सामने बालू जमा हो जाता है। इस तरह से लगभग बरसात के पूरे मौसम में स्लुइस गेट के होने या न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता और सहायक धारा का पानी कन्ट्रीसाइड के सुरक्षित क्षेत्रों में फैलता ही है। इस तरह से स्लुइस गेट का संचालन बरसात समाप्त होने के बाद ही हो पाता है जब मुख्य नदी में पानी का स्तर काफी नीचे चला जाए। इस बीच तथाकथित बाढ़ से सुरक्षित क्षेत्रों में जो नुकसान होना था वह हो चुकता है।

जब स्लुइस गेट काम नहीं कर पाते हैं तो अगला उपाय बचता है कि सहायक धाराओं पर भी तटबन्ध बना दिये जाएं जिससे कि बाढ़ सुरक्षित क्षेत्रों में उनका पानी न फैले। ऐसा कर देने पर मुख्य नदी के तटबन्ध और सहायक धरा के तटबन्ध के बीच वर्षा का जो पानी जमा हो जाता है, उसकी निकासी का रास्ता ही नहीं बचता। यह पानी या तो भाप बन कर ऊपर उड़ सकता है या जमीन में रिस कर समाप्त हो सकता है। तीसरा रास्ता है कि इस अटके हुए पानी को पम्प कर के किसी एक नदी में डाल दिया जाए। अब अगर पम्प कर के ही बाढ़ की समस्या का समाधन करना था तो मुख्य नदी या सहायक नदी पर तटबन्ध और स्लुइस गेट बनाने की क्या जरूरत थी? और अगर कभी दुर्योग से इन दोनों तटबन्धों में से कोई एक टूट गया तो बीच के लोगों की जल-समाधि निश्चित है।

कभी-कभी तटबन्ध के कन्ट्री साइड में बसे लोग भी जल-जमाव से निजात पाने के लिए तटबन्धों को काट दिया करते हैं। इसके अलावा, न तो आज तक कोई ऐसा तटबन्ध बना और न ही इस बात की उम्मीद है कि भविष्य में कभी बन पायेगा जो कभी टूटे नहीं। अतः दरारें तटबन्ध तकनीक का अविभाज्य अंग हैं जिनके चलते कन्ट्रीसाइड के तथाकथित सुरक्षित इलाकों में बसे लोग अवर्णनीय कष्ट भोगते हैं और जान-माल का नुकसान उठाते हैं।

तटबन्धों के कारण बारिश का वह पानी, जो अपने आप नदी में चला जाता, तटबन्धों के बाहर अटक जाता है और जल-जमाव की स्थिति पैदा करता है। तटबन्धों से होने वाला रिसाव जल-जमाव को बद से बदतर स्थिति में ले जाता है। इसके अलावा नदी की बाढ़ के पानी में जमीन के लिए उर्वरक तत्व मौजूद होते हैं। बाढ़ के पानी को फैलने से रोकने की वजह से यह उर्वरक तत्व भी खेतों तक नहीं पहुँच पाते हैं। इस तरह से जमीन की उर्वराशक्ति धीरे-धीरे समाप्त हो जाती है। उर्वराशक्ति में गिरावट की भरपाई आजकल रासायनिक खाद से की जाने लगी है जिसका खेतों पर बुरा प्रभाव पड़ता है और इस तरह की खाद की नकद कीमत अदा करनी पड़ती है।

कभी-कभी स्थानीय कारणों से नदी के एक ही किनारे पर तटबन्ध बनाने पड़ते हैं। ऐसे मामलों में बाढ़ का पानी नदी के दूसरे किनारे फैल कर तबाही मचाता है। अतः तटबन्धों द्वारा बाढ़ का नियंत्रण करना अपने आप को एक ऐसे चक्रव्यूह में फंसाना है जहाँ से निकलना बहुत मुश्किल होता है।

उधर इंजीनियरों के एक बड़े वर्ग का विश्वास है कि नदी पर जब तटबन्ध बना दिया जाता है तो उसके पानी की निकासी का रास्ता कम हो जाने से पानी का वेग बढ़ जाता है। धरा का वेग बढ़ जाने से नदी की कटाव करने की क्षमता बढ़ जाती है और वह अपने दोनों किनारों को काटना आरंभ कर देती है और अपनी तलहटी को भी खंगाल देती है जिससे उसकी चौड़ाई और गहराई दोनों बढ़ जाती है और उसका जलमार्ग पहले से कहीं ज्यादा हो जाता है। नतीजतन नदी की प्रवाह क्षमता पहले से कहीं ज्यादा बढ़ जाती है जिससे बाढ़ का प्रभाव कम हो जाता है। तकनीकी हलकों में आज तक इस बात पर सहमति नहीं हो पायी है कि नदी पर बना तटबन्ध बाढ़ को बढ़ाता है या कम करता है। अलग-अलग नदियों और उनमें आने वाली गाद का चरित्र अलग-अलग होता है-ऐसा कह कर इंजीनियर लोग किसी भी बहस से बच निकलते हैं या फिर किसी योजना को स्वीकार करने या उसे खारिज करने के लिए अपनी सुविधा या अपने ऊपर पड़ने वाले सामाजिक और राजनैतिक दबाव के सन्दर्भ में इन तर्कों की व्याख्या करते हैं। तटबन्धों के पक्ष में और उनके खिलाफ यह दोनों तर्क इतने मजबूत हैं कि उन पर कोई भी अनजान आदमी उंगली नहीं उठा सकता। व्यावहारिक सच्चाई यह है कि बाढ़ नियंत्रण के लिए किसी नदी पर तटबन्ध बनें या नहीं, यह फैसला अपनी समझ और स्वार्थ के अनुसार राजनीतिज्ञ लेते हैं और इन अनिर्णित तर्कों का सहारा ले कर इंजीनियर सिर्फ उनकी हाँ में हाँ मिलाते हैं। इंजीनियरों का कद चाहे कितना बड़ा क्यों न हो, जैसी व्यवस्था है, उसमें राजनीतिज्ञ उन पर अपना फैसला थोपने में कामयाब होते हैं और बड़े से बड़े इंजीनियर उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते।

सच यह है कि दामोदर, महानदी, ब्राह्मणी आदि नदियों को नियंत्रित करने की अंग्रेजों की कोशिशें काम नहीं आईं और उनको लगा कि अगर कोई तटबन्ध, मान लीजिये, 10 साल तक ठीक-ठाक काम करता है और ग्यारहवें साल टूट जाता है तो इस एक साल में हुए जान-माल के नुकसान, तटबन्ध का पुनर्स्थापन तथा राहत और पुनर्वास पर होने वाला खर्च आदि सब मिला कर पिछले दस वर्षों में हुए फायदे पर भारी पड़ता था और इस तरह का बाढ़ नियंत्रण उनके लिए निश्चित रूप से घाटे का सौदा था। इसलिए उन्होंने उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य से ही इस अनुष्ठान से हाथ खींच लिया मगर कोई जमीन्दार, राजा-महाराजा या जन-साधारण अपने पैसे से और खुद खतरा उठा कर कहीं तटबन्ध बनाता था तो वह उसे टोकने भी नहीं आते थे। बिहार की सबसे चंचल नदी कोसी को नियंत्रित करने के लिए अंग्रेजों ने सिर्फ गलचौरा किया और समस्या को टालते रहे। यह पूरी बहस अन्यत्र उपलब्ध है, अतः हम उसके विस्तार में यहाँ नहीं जायेंगे।

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Post By: tridmin
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