इस तरह से रंगमंच पर अब सारे पात्रा इकट्ठे थे। एक तरफ वह लोग थे जो चाहते थे कि पश्चिमी तटबन्ध को पूरब की ओर ठेल दिया जाय। दूसरी ओर वह थे जो पूरबी तटबन्ध को पश्चिम की ओर ठेलने की मांग कर रहे थे। अगर यह दोनों मांगें मान ली जाती हैं तो बीच में नदी के पानी के बहाव के लिए जगह बहुत कम बचती है और इसलिए तटबन्धों के बीच में रहने वाले लोगों की मांग थी कि अव्वल तो तटबन्ध बनें ही नहीं और अगर उसका निर्माण एकदम जरूरी है तो उनके बीच का फासला जितना ज्यादा से ज्यादा हो सके उतना ही अच्छा होगा। यह तीसरी मांग अगर मान ली जाती तब पहली दो मांगें अपने आप खारिज हो जाती थीं।
जैसे इतना ही काफी नहीं था कि एक और मांग उन लोगों की तरफ से थी जिनकी इस बात में कोई दिलचस्पी नहीं थी कि तटबन्ध किस तरफ से होकर जाता है और किस तरफ से नहीं। उनकी दिलचस्पी सिर्फ इतनी ही थी कि किसी तरह से तटबन्धों पर काम शुरू हो ताकि उन्हें रोजगार मिल सके और ऐसे लोगों की तादाद काफी थी। सरकार ने इन्हीं लोगों का इस्तेमाल यह प्रचार करने के लिए किया कि कोसी क्षेत्र में तटबन्धों की मांग कितनी जबर्दस्त है। इन चारों समूहों के अपने अपने निहित स्वार्थ थे और वह बाकी तीन के खिलाफ कमर कस कर खड़े थे। सरकार चाहती भी शायद यही थी कि लोग आपस में लड़ें और फिर तकनीकी औचित्य का हवाला देकर वह जो मन में आये सो करे और अपनी राय सब पर थोपे।
यह एक अलग बात थी कि तकनीकी औचित्य को बहुत पहले ही कूड़े के ढेर पर फेंक दिया गया था। बेहतर यही रहा होता कि तटबन्धों की ऊँचाई, चौड़ाई और उनके बीच का फासला इंजीनियर और केवल इंजीनियर तय करते मगर कोसी तटबन्धों के मामले में जो कुछ भी हुआ वह किसी भी मायने में जनमत संग्रह से अलग नहीं था।
इस समस्या का कोई समाधान था नहीं मगर जैसे-तैसे तटबन्धों का काम पूरा कर ही लिया गया। इसलिए यह एकदम आश्चर्यजनक नहीं है कि फिलहाल जो कोसी तटबन्ध बना है वह मूल डिजाइन का, अगर ऐसी कोई डिजाइन रही हो तो, मखौल भर है। बाढ़ नियंत्राण की इस तकनीक और तटबन्धों का अगर कार्टून देखना हो तो कोसी तटबन्ध जैसी उपयोगी जगह शायद दूसरी कोई न हो।
इतनी कशमकश के बाद बने तटबन्धों ने क्या अपना कथित उद्देश्य पूरा किया? यह जानने का प्रयास हम अगले अध्याय में करेंगे। निर्माण के समय तटबन्धों की जो आतंकमयी छवि बन गई थी वह एक दूसरी शक्ल में, उनकी टूटन के रूप में, सामने आ रही है।
जैसे इतना ही काफी नहीं था कि एक और मांग उन लोगों की तरफ से थी जिनकी इस बात में कोई दिलचस्पी नहीं थी कि तटबन्ध किस तरफ से होकर जाता है और किस तरफ से नहीं। उनकी दिलचस्पी सिर्फ इतनी ही थी कि किसी तरह से तटबन्धों पर काम शुरू हो ताकि उन्हें रोजगार मिल सके और ऐसे लोगों की तादाद काफी थी। सरकार ने इन्हीं लोगों का इस्तेमाल यह प्रचार करने के लिए किया कि कोसी क्षेत्र में तटबन्धों की मांग कितनी जबर्दस्त है। इन चारों समूहों के अपने अपने निहित स्वार्थ थे और वह बाकी तीन के खिलाफ कमर कस कर खड़े थे। सरकार चाहती भी शायद यही थी कि लोग आपस में लड़ें और फिर तकनीकी औचित्य का हवाला देकर वह जो मन में आये सो करे और अपनी राय सब पर थोपे।
यह एक अलग बात थी कि तकनीकी औचित्य को बहुत पहले ही कूड़े के ढेर पर फेंक दिया गया था। बेहतर यही रहा होता कि तटबन्धों की ऊँचाई, चौड़ाई और उनके बीच का फासला इंजीनियर और केवल इंजीनियर तय करते मगर कोसी तटबन्धों के मामले में जो कुछ भी हुआ वह किसी भी मायने में जनमत संग्रह से अलग नहीं था।
इस समस्या का कोई समाधान था नहीं मगर जैसे-तैसे तटबन्धों का काम पूरा कर ही लिया गया। इसलिए यह एकदम आश्चर्यजनक नहीं है कि फिलहाल जो कोसी तटबन्ध बना है वह मूल डिजाइन का, अगर ऐसी कोई डिजाइन रही हो तो, मखौल भर है। बाढ़ नियंत्राण की इस तकनीक और तटबन्धों का अगर कार्टून देखना हो तो कोसी तटबन्ध जैसी उपयोगी जगह शायद दूसरी कोई न हो।
इतनी कशमकश के बाद बने तटबन्धों ने क्या अपना कथित उद्देश्य पूरा किया? यह जानने का प्रयास हम अगले अध्याय में करेंगे। निर्माण के समय तटबन्धों की जो आतंकमयी छवि बन गई थी वह एक दूसरी शक्ल में, उनकी टूटन के रूप में, सामने आ रही है।
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