त्रासदी में परम्परा


हम सब तालाबों को पीते जा रहे हैं, लिहाजा आज पीने के लिये पानी को तरस रहे हैं। मिटते-सिमटते तालाब मौजूदा चल संकट की बड़ी वजह है। दैनिक जागरण अपने जल संरक्षण सरोकार के तहत सोमवार (नौ मई से) ‘तलाश तालाबों की’ नामक देशव्यापी समाचारीय शुरू कर रहा है। मकसद सिर्फ इतना है कि समाज और सरकार तालाबों की महत्ता समझें और अपने दायित्वों के निर्वहन द्वारा इनका मिटना-सिमटना रोकें।

.प्रकृति, पानी और परम्परा हमेशा साथ रही हैं। यह तो मनुष्य ही है जिसकी इनको नियंत्रण करने की मंशा ने सब कुछ खो दिया है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पानी की परम्पराओं को कोई भी वर्तमान व्यवस्था चुनौती नहीं दे सकती। गत दशकों में ऐसा ही कुछ हुआ है। पानी की परम्पराओं को दरकिनार कर अपनी सुविधाओं के चक्कर में पानी के सारे रास्तों को ध्वस्त कर दिया गया।

इन्हीं परम्पराओं में तालाब भी एक थे। जिसके विज्ञान व व्यवस्था को समझने में हमने बड़ी भूल की है। पहले घर, गाँवों में पानी की व्यवस्था तालाबों से ही पनपती थी। मैदानी इलाकों में ये तालाब ही थे जो सबके लिये पानी को जुटाकर रखते थे। ऐसे ही पहाड़ों में ताल व खाल इनके ही स्वरूप थे। आज हमने अगर पानी की जिस व्यवस्था का सबसे बड़ा तिरस्कार किया वो तालाब ही हैं। यह भी सच है कि आज भी कई स्थानों में तालाब ही हैं जिन्होंने अभी भी लोगों को पानी के संकट से मुक्त रखा है।

असल में घर, गाँव के तालाबों को मारने के पीछे वर्तमान सरकारी जल वितरण व्यवस्था ही रही है। नलकों, नहरों और नलकूपों की नई पानी की पीढ़ी ने तालाबों को पीछे छोड़ने की कोशिश की। तालाबों के बिगड़ते स्वरूप पर अवसरवादियों, बिल्डर माफियाओं की गिद्धदृष्टि हमेशा ही थी। जैसे ही अवसर मिला, तालाबों को घेरकर कंक्रीट के जंगल खड़े कर दिये गए। ये दृश्य सारे देश में दिखाई देता है। पर सच है कि आज भी देश के दक्षिणी हिस्से में तमिलनाडु, कर्नाटक, ओड़िशा जैसे राज्यों में तालाब कुछ हद तक जिन्दा हैं।

कुछ बड़े शहरों में पानी की पैठ तालाबों से ही है। अदीलाबाद व हैदराबाद इसके बड़े उदाहरण हैं। यहाँ शहर की पानी की व्यवस्था बड़े तालाबों से ही है। बेताल का पानी ही इसके ताल से है। आन्ध्र प्रदेश के निर्मल क्षेत्र ने सात तालाबों के पानी के साथ रिश्ता बनाकर रखा है। यह परम्परा ही थी जिसमें आज शहरों को पानी के साथ जोड़कर रखा हुआ है। पहले के बादशाह पानी को लेकर संजीदा थे और वर्षा के पानी के संग्रहण करने के सारे रास्ते खुले रखते थे।

दिल्ली की हौजखास इसी का उदाहरण है। ऐसे ही सारे तरह के बड़े निर्माण में वर्षाजल के संग्रहण की व्यवस्था थी। तालाबों को नकारने का हश्र है कि आज हमसे यह पानी छूट गया है। देश के वर्तमान जल संकट का एक बड़ा कारण यह ही रहा है। तालाबों का अपना एक विज्ञान है जिसे हम कभी नही समझे। हमें जानना चाहिए कि तालाब पानी के दो तरह की व्यवस्था करते थे।

तात्कालिक पानी की उपलब्धता के साथ में भूजल को भी तालाब सींचते रहे हैं। गाँव में तालाब प्राकृतिक रूप से भी रहे और एक खास वर्ग तालाबों को बनाने में दक्ष रहा और वह ही उनका रोजगार भी था। ये कारीगर मिट्टी ढलाव और अन्य परिस्थितियों को ध्यान में रखकर तालाबों का निर्माण करते रहे। जब तालाब विलुप्त होते गए तो ये वर्ग भी अन्य रोजगार के लिये भटक गए। आज ये दक्षता भी हमारे बीच से खत्म हो गई।

अगर देश-दुनिया को जल संकटा से बचाना है तो तालाबों और परम्पराओं को दकियानूसी व्यवस्था की संज्ञा देने से बचना होगा। तालाबों की वापसी ही इन्द्र देवता की कृपा को जोड़ने का रास्ता बन सकता है। पानी चाहिए तो पानी की परम्पराओं का सम्मान तो करना ही होगा। वरना ट्रेन, ट्रक व ट्रैक्टर का साथ दो दिन से ज्यादा का नहीं होगा। ये तालाब ही होंगे जो हमारी जान और जहान को तय करेंगे।

अपनाने होंगे पुरखों के नुस्खे


मनोज मिश्रा (संयोजक, यमुना जिये अभियान)

जल के सम्बन्ध में बुद्धिमान बनकर समाधान निकाला जा सकता है। 28 जनवरी, 2011 को सुप्रीम कोर्ट के जज मार्कंडेय काटजू का एक निर्णय यहाँ एक युक्तिसंगत लगता है, ‘हमारे पूर्वज मूर्ख नहीं थे। वे जानते थे कि एक निश्चित अवधि के बाद सूखा या किसी अन्य कमी के कारण जल की समस्या उत्पन्न होगी….इसलिये उन्होंने हर गाँव के साथ जुड़े तालाब बनाए। हर मन्दिर के साथ एक जलाशय बनाया। ये उनका परम्परागत रेनवाटर हार्वेस्टिंग तरीका था जो हजारों सालों से उनके लिये उपयोगी बना रहा।’

लेकिन अब किसी भी गाँव या मन्दिर चले जाइए तो वहाँ भयावह उपेक्षा और बढ़ते लोभ की तस्वीर ही दिखाई देती है। गाँव के तालाबों का या तो अतिक्रमण हो गया है या ये कूड़े का ढेर बनकर रह गया है। शहरों में इस तरह की जमीन पर लोगों ने यदि अवैध कब्जा कर निर्माण नहीं करवा लिया है तो सबसे पहले इस तरह की भूमि को या तो स्कूल जैसे अन्य सामुदायिक केन्द्र के निर्माण में इस्तेमाल कर लिया जाता है।

अंग्रेजों ने राजस्व के लालच में स्थानीय लोगों से जल संसाधनों से नियंत्रण छीन अपने हाथ में ले लिया। इनसे जुड़ा सारा कामकाज खुद देखने लगे। अंग्रेजों की इस कदम से आम आदमी इस प्राकृतिक संसाधन से बेपरवाह हो गया और किसी भी सूरत में राज्य से इसके आपूर्ति की अपेक्षा करने लगा। कालान्तर में इसका नतीजा जल की बर्बादी की संस्कृति के रूप में दिखाई देने लगा। उसकी अब भारी कीमत चुकानी पड़ रही है।

सिर्फ इतना ही नहीं और प्रभावशाली लोग राज्य के प्रबन्धन वाली सप्लाई को प्रभावित कर रहे हैं। इससे भी ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि एक राष्ट्र के रूप में जल और जल संसाधन प्रबन्धन की इस औपनिवेशिक सोच पर कभी सवाल नहीं खड़ा होता और यह सिलसिला सतत रूप से जारी है। इसकी बानगी इस रूप में देखी जा सकती है कि राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली को अपनी जरूरतों के हिसाब से पूरा पानी चाहिए भले ही उसे 200 किमी दूर से लाया जाये।

भले ही वहाँ के स्थानीय लोग इसकी कमी, वंचना और दुख को झेलते रहें। यही नहीं, इसके लिये मरणासन्न नदी पर बाँध बनाकर उसके पानी को भी उलीचे जाने से सरकार को परहेज नहीं। जल गर्वनेंस के इस मॉडल में निहित अन्याय को न्यायपालिका भी देखने में बहुधा विफल रही है।

संयोग से अभी हाल में प्रधानमंत्री मोदी की ‘मन की बात’ कार्यक्रम में कही गई बात से कुछ आस बँधी है। उसमें उन्होंने देशवासियों से अपील करने हुए कहा कि यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि गाँव का पानी गाँव में ही रहने का प्रबन्ध किया जाना चाहिए। इससे जल प्रबन्धन और नियंत्रण के सम्बन्ध में एक बार फिर से पहले की तरह स्थानीय लोगों की जिम्मेदारी के साथ भागीदारी होगी और जल के प्रति सम्मान की भावना फिर से बलवती होगी। राज्य के नियंत्रण से बाहर स्थानीय स्तर पर जल गवर्नेंस की अवधारणा सतत जल सुरक्षा का रास्ता है।

सिमट-सिमट जल भरहिं तलाबा


अनुपम मिश्र की कालजयी पुस्तक ‘आज भी खरे हैं तालाब’ से साभार

सैकड़ों, हजारों तालाब अचानक शून्य से प्रकट नहीं हुए थे। इनके पीछे एक इकाई थी बनवाने वालों की, तो दहाई थी बनाने वालों की। यह इकाई, दहाई मिलकर सैकड़ा, हजार बनती थी। पिछले दो सौ बरसों में नए किस्म की थोड़ी सी पढ़ाई पढ़ गए समाज ने इस इकाई, दहाई, सैकड़ा, हजार को शून्य ही बना दिया।

इस नए समाज के मन में इतनी उत्सुकता भी नहीं बची कि उससे पहले के दौर में इतने सारे तालाब भला कौन बनाता था। उसने इस तरह के काम को करने के लिये जो नया ढाँचा खड़ा किया है, आईआईटी का, सिविल इंजीनियरिंग का, उस पैमाने से, उस गज से भी उसने पहले हो चुके इस काम को नापने की कोई कोशिश नहीं की। वह अपने गज से भी नापता तो कम-से-कम उसके मन में ऐसे सवाल तो उठते कि उस दौर की आईआईटी कहाँ थी? कौन थे उसके निर्देशक? कितना बजट था, कितने सिविल इंजीनियर निकलते थे? लेकिन उसने इस सब को गए जमाने का गया बीता काम माना और पानी के प्रश्न को नए ढंग से हल करने का वायदा भी किया और दावा भी। गाँवों, कस्बों की तो कौन कहे, बड़े शहरों के नलों में चाहे जब बहने वाला सन्नाटा इस वायदे और दावे पर सबसे मुखर टिप्पणी है। इस समय के समाज के दावों को गज से नापें तो कभी दावे छोटे पड़ते हैं तो कभी गज ही छोटा निकल आता है।

एकदम महाभारत और रामायण काल के तालाबों को अभी छोड़ दें, तो भी कहा जा सकता है कि कोई पाँचवी सदी से पन्द्रहवीं सदी तक देश के इस कोने से उस कोने तक तालाब बनते ही चले आये थे। कोई एक हजार वर्ष तक अबाध गति से चलती रही इस परम्परा में पन्द्रहवीं सदी के बाद कुछ बाधाएँ आने लगी थीं, पर उस दौर में भी यह धारा पूरी तरह से रुक नहीं पाई, सूख नहीं पाई।

तालाबसमाज ने जिस काम को इतने लम्बे समय तक बहुत व्यवस्थित रूप में किया था, उस काम को उथल-पुथल का वह दौर भी पूरी तरह से मिटा नहीं सका। अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी के अन्त तक भी जगह-जगह पर तालाब बन रहे थे। लेकिन फिर बनाने वाले लोग धीरे-धीरे कम होते गए।

गिनने वाले कुछ जरूर आ गए पर जितना बड़ा काम था, उस हिसाब से गिनने वाले बहुत ही कम थे और कमजोर भी। इसलिये ठीक गिनती भी कभी हो नहीं पाई। धीरे-धीरे टुकड़ों में तालाब गिने गए, पर सब टुकड़ों का कुल मेल कभी बिठाया नहीं गया। लेकिन इन टुकड़ों की झिलमिलाहट पूरे समग्र चित्र की चमक दिखा सकती है।

आज तालाबों से कट गया समाज, उसे चलाने वाला प्रशासन तालाब की सफाई और गाद निकालने का काम एक समस्या की तरह देखता है और वह इस समस्या को हल करने के बदले तरह-तरह के बहाने खोजता है। उसके नए हिसाब से यह काम खर्चीला है।

कई कलेक्टरों ने समय-समय पर अपने क्षेत्र में तालाबों से मिट्टी नहीं निकाल पाने का एक बड़ा कारण यही बताया है कि इसका खर्च इतना ज्यादा है कि उससे तो नया तालाब बनाना सस्ता पड़ेगा। पुराने तालाब साफ नहीं करवाए गए और नए तो कभी बने ही नहीं। गाद तालाबों में नहीं नए समाज के माथे में भर गई है। तब समाज का माथा साफ था। उसने गाद को समस्या की तरह नहीं बल्कि तालाब के प्रसाद की तरह ग्रहण किया था।

इंटरनेट पर भी खत्म तालाब


तालाब। गूगल पर यह ‘शब्द’ लिखते ही पल भर में 6.21 लाख नतीजे सामने आ जाते हैं। इन सभी नतीजों में या तो तालाबों की दुर्दशा का जिक्र है, तालाबों के खात्मे के चलते होने वाली समस्या की कहानी है या फिर तमाम सरकारी योजनाओं के तहत तालाबों के पुनरुद्धार में होने वाले घोटाले-घपले की बानगी है।

इंटरनेट युग की पीढ़ी अगर इस स्रोत के माध्यम से तालाबों की जानकारी लेना चाहे, तो उसे इससे ज्यादा कुछ नहीं मिलेगा। तालाब, पोखर, ताल-तलैया जैसे प्राकृतिक जलस्रोतों का सजीव अहसास शायद उनके नसीब में नहीं है। अधिकांश ऐसे जलस्रोत मिटा दिये गए, मिट गए या मिटने को अभिशप्त हैं।

समाज को सींचने वाला तालाब खत्म हो रहे हैं


जानकी तारा, ठाकुर तारा, ऊँचा ताल जैसे नाम आज भी देश के कोने-कोने में मौजूद हैं, लेकिन नामधारी गायब हो चले हैं। ये तालाबों के नाम हैं। हर गाँव का एक तालाब हुआ करता था। इनकी संख्या अधिक भी होती थी। ये ताल गाँवों के आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक केन्द्र होते थे। मानसून के चार महीनों में बारिश का पानी इनमें जमा होता था।

यह पानी साल भर यहाँ के लोगों की दिनचर्या का अंग बना रहता था। खेतों की सिंचाई की जाती थी। मवेशियों को नहलाया जाता था। तमाम सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियाँ इसी तालाब के किनारे सम्पन्न हुआ करती थीं। तमाम प्रत्यक्ष लाभों के इतर या तालाब धरती के गर्भ में इतना पानी रिसा देता था कि गाँव का भूजलस्तर हमेशा चढ़ा रहता था।

लोग तालाबों से मछली पकड़कर आजीविका चलाते थे। इसी तालाब की मिट्टी से कुम्हार साल भर अपने धंधे को आकार देता रहता था। कपड़े धोने से लेकर दैनिक जीवन के अन्य अनेक कामों के सम्पन्न होने में इन तालाबों का योगदान बताते आज के बुजुर्गों की आँखों में चमक आना स्वाभाविक ही है। इसी महत्ता के चलते उस जमाने में किसी सम्पन्न व्यक्ति को जब कोई खुशी हासिल होती थी, तो वह तालाब खुदवा देता था।

जीवनदायी संरचना


तालाब, पोखर, ताल या तलैया कमोबेश एक ही जलस्रोत के अलग-अलग नाम हैं। ये ऐसी प्राकृतिक संरचानएँ होती हैं, जिनसे नफा छोड़ नुकसान नहीं होता है। मानसून के दौरान चार महीने होने वाली बारिश का पानी इनमें जमा होता है जो बाद में अलग-अलग कार्यों में इस्तेमाल किया जाता है। भूजल स्तर दुरुस्त रहता है। जमीन की नमी बरकार रहती है। धरती के बढ़ते तापमान पर नियंत्रण रहता है।

स्थानीय लोगों के सामाजिक, सांस्कृतिक केन्द्र होते हैं। लोगों के जुटान से सामुदायिकता पुष्पित-पल्लवित होती है। लोगों के रोजगार के भी ये बड़े स्रोत होते हैं। खास बात यह है कि इस संरचना के निर्माण के लिये न तो विशिष्ट तकनीक की जरुरत पड़ती है और न ही बड़ी पूँजी की। पहले के दिनों में तो लोग श्रमदान करके तालाब या पोखर बना डालते थे। विडम्बना यह है कि जो तालाब पारम्परिक रूप से जल के सबसे बड़े जल संसाधन माने जाते रहे हैं, सरकारी भाषा उन्हें ‘जल संसाधन’ नहीं मानता है।

संख्या


पहले एक आँकड़े के अनुसार 1947 में देश में कुल चौबीस लाख तालाब थे। तब देश की आबादी आज की आबादी की चौथाई थी।

अब 2000-01 की गिनती के अनुसार देश में तालाबों, बावड़ियों और पोखरों की संख्या 5.5 लाख थी। हालांकि इसमें से 15 फीसद बेकार पड़े थे, लेकिन 4 लाख 70 हजार जलाशयों का इस्तेमाल किसी-न-किसी रूप में हो रहा था।

अजब तथ्य


1944 में गठित अकाल जाँच आयोग ने कहा था कि आगामी वर्षों में पेयजल की बड़ी समस्या खड़ी हो सकती है। इसमें तालाब ही कारगर होंगे। जहाँ इनकी बेकद्री ज्यादा होगी, वहाँ जल समस्या हाहाकारी रूप लेगी। आज बुन्देलखण्ड, तेलंगाना और कालाहांडी जैसे क्षेत्र पानी संकट के पर्याय के रूप में जाने जाते हैं, कुछ दशक पहले अपने प्रचुर और लबालब तालाबों के रूप में इनकी पहचान थी।

कहाँ कितनी संख्या


मेरठ राजस्व रिकॉर्ड के अनुसार जिले में कुल 3276 तालाब थे। इनमें से 1232 अतिक्रमण के शिकार थे। 2015 में जिला विकास अधिकारी ने सर्वे में पाया कि जिले के 12 ब्लाकों में 1651 तालाब ही मौजूद हैं। तालाबों जैसे जलस्रोतों की बदहाली के चलते क्षेत्र में भूजल स्तर 68 सेमी प्रति साल की दर से गिर रहा है।

बुन्देलखण्ड 2014 में उत्तर प्रदेश सरकार ने आरटीआई के जबाव में माना कि पिछले दशक में बुन्देलखण्ड से 4020 तालाब विलुप्त हो गए। चित्रकूट में 151, बाँदा में 869, हमीरपुर में 541 और झाँसी में 2459 तालाब खत्म हुए। जालौन और ललितपुर में संख्या न बढ़ी न घटी। इससे अलग एक सर्वे में पाया गया कि 4424 तालाब और पोखर अतिक्रमण के शिकार हैं। प्रदेश में कुुओं समेत संख्या 8,75,345 है।

दिल्ली सरकार की ‘पार्क एंड गार्डन सोसाइटी’ के अनुसार, वर्तमान में यहाँ 629 तालाब हैं, लेकिन असल में अधिकांश खस्ताहाल हैं। इन पर अवैध कब्जे हैं। 180 तालाबों का अतिक्रमण किया जा चुका है। 70 पर आंशिक तो 110 तालाबों पर पूरा अवैध कब्जा हो चुका है। इसके अलावा कितनी ही जगहों पर सीवेज और कूड़े के निपटान की सही व्यवस्था न होने का खामियाजा भी ये तालाब ही भुगत रहे हैं।

मैसूर राज्य अंग्रेजों के राजस्व रिकॉर्ड में यहाँ 39 हजार तालाब दर्ज थे।

मद्रास प्रेसीडेंसी आजादी के समय यहाँ पचास हजार तालाबों के होने का उल्लेख मिलता है।

खात्मे की वजह


तालाबों के खात्मे के पीछे समाज और सरकार समान रूप से जिम्मेदार है। तालाब कहीं कब्जे से तो कहीं गन्दगी से तो कहीं तकनीकी ज्ञान के अभाव में सूख रहे हैं। कुछ मामलों में इन्हें गैर जरूरी मानते हुए इनकी जमीन का दूसरे मदों में इस्तेमाल किया जा रहा है। दरअसल तालाबों पर अवैध कब्जा इसलिये भी आसान है क्योंकि देश भर के तालाबों की जिम्मेदारी अलग-अलग महकमों के पास है। कोई एक स्वतंत्र महकमा अकेले इनके रखरखाव-देखभाल के लिये जिम्मेदार नहीं है। राजस्व विभाग, वन विभाग, पंचायत, मछली पालन, सिंचाई, स्थानीय निकाय और पर्यटन जैसे विभागों के पास इन तालाबों का जिम्मा है। लिहाजा अतिक्रमण की स्थिति में सब एक दूसरे पर जिम्मेदारी डाल जवाबदेही से बचने की कोशिश करते हैं।

महाभारतकालीन तालाब

सरकार का कर्तव्य


सुप्रीम कोर्ट का फैसला सुप्रीम कोर्ट ने 2006 में एक मामले में व्यवस्था देते हुए कहा था कि गुणवत्तापरक जीवन हर नागरिक का मूल अधिकार है और इसको सुनिश्चित करने के लिये भारत सरकार का प्राकृतिक जल निकायों की सुरक्षा करना कर्तव्य है। इसके साथ ही पर्यावरण की सुरक्षा राज्यों का भी कर्तव्य है। कोर्ट के मुताबिक जल निकायों की सुरक्षा इस तथ्य में निहित है कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गुणवत्तापरक जीवन के दायरे में जल के अधिकार की गारंटी भी शामिल है। संविधान के अनुच्छेद 47 और 48 के तहत भी सरकार का क्रमशः पर्यावरण की सुरक्षा और नागरिकों के जीवन स्तर को सुधारने का कर्तव्य है। सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि प्राकृतिक झीलों और तालाबों की सुरक्षा अनुच्छेद 21 के तहत मिले जीवन के मूल अधिकार के प्रति सम्मान है।

मसला 17 अगस्त, 2006 को केरल के एक गाँव में स्थित पुराने सूखे जलाशय पर एक शॉपिंग केन्द्र बनाने पर सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एसबी सिन्हा और दलवीर भण्डारी की खण्डपीठ ने निर्णय दिया था। दरअसल कोर्ट में एक याचिका दायर की गई थी कि गाँव के ऐसे जलाशय जो हाईवे के निकट या सटे हुए होते हैं, उन पर शक्तिशाली बिल्डरों की नजर पड़ जाती है और वे मोटा पैसा कमाने की चाहत में इन सूख चुके जल निकायों को भरकर रिहायशी मकान और शॉपिंग केन्द्र बनाते हैं। इस याचिका का निपटारा करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यह व्यवस्था दी थी। साथ ही कोर्ट ने यह भी कहा था कि कृत्रिम रूप से बनाए गए टैंक दूसरी श्रेणी में आएँगे और उनकी प्राकृतिक जल निकायों के साथ तुलना नहीं की जा सकती।

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