तराई में खिला विलायती फूल

उत्तर भारत के तराई जनपद लखीमपुर खीरी की एक नदी पिरई और उसके दक्षिण में बसा एक गाँव मैनहन, बस यहीं की यह दास्ताँ है, जो एक फूल से बावस्ता है। दरअसल, कभी यह नदी यहाँ के शाखू, महुआ, पलाश आदि के जंगलों और घास के बड़े-बड़े मैदानों से होकर गुजरती थी। भौगोलिक दृष्टिकोण से नदी की धारा अभी भी अपने हजारों वर्ष वाले रास्ते पर मुस्तकिल है, परन्तु अब यह नदी बहती नहीं रिसती है। वजह जाहिर है कि जंगलों और मैदानों से जो बरसाती पानी एकत्र होता था, वह इस नदी को पोषित करता था, किन्तु इसके आसपास के जंगल और घास के मैदान उजड़ चुके हैं, यहाँ अब सिर्फ इंसानी बस्तियाँ और उनके खेत हैं, जिनमें अब पारम्परिक खेती और असली बीज नदारद हैं, सिर्फ गन्ना, गेहूँ और धान के संकर बीजों की खेती ही बची हुई है, वह भी तमाम रासायनिक खादों और पेस्टीसाइड के बलबूते पर।

परशपुर के उजड़ने और यहाँ की जमीन पर ऐसी कई प्रजातियों का उगना जो बंजर जमीनों में भी अपना अस्तित्व बरकरार रख सके, यह रहस्य उस फूल की यहाँ मौजूदगी से जाहिर हो जाता है। जहाँ इस खूबसूरत फूल से मेरी पहली मुलाकात हुई, वह जगह नदी के उत्तरी छोर पर है, इस उजाड़ बंजर जमीन पर अब कुछ किसान खेती करने लगे हैं, फिर भी जमीन की तासीर अभी भी अम्लीय है। इस उजड़ी हुई धरती पर यह फूल कैसे खिला, यह कहानी दिलचस्प है। इस फूल का यूरोप से एशिया तक का सफर इंसानी सभ्यताओं और उपनिवेशों के इतिहास से जुड़ा हुआ है। सम्भव है, चिड़ियों की हजारों मील की लम्बी यात्राओं में भी राज हो, इस फूल के कास्मोपोलिटन होने का, खैर इस वनस्पति का बीज मैनहन की धरती पर कैसे पल्लवित हुआ और इसकी खासियतें क्या हैं, यह बयान करना जरूरी है।

इस वनस्पति को पुलीकेरिया डिसेण्टेंरिका वैज्ञानिक नाम मिला तकरीबन दो सौ पचास वर्ष पूर्व, हालांकि कार्ल लीनियास ने इसका पहला नाम इन्युला डिसेण्टेंरिका रखा था, जो बाद में बदला गया। पुलीकेरिया के ग्रीक में मायने होते हैं- यह गुण और डिसेण्टेंरिका, इसके पेचिस में उपयोगी होने के कारण कहा गया। दुनिया की एक बड़े वनस्पति परिवार एस्टेरेसी कुल का यह पौधा है, इस कुल में सूरजमुखी जैसी सर्वविदित प्रजाति भी आती है और जरबेरा जैसे जीनस भी, जिनमें तमाम खूबसूरत पुष्पों की प्रजातियाँ सम्मिलित हैं। इस एस्टेरेसी कुल के सभी फूलों की खासियत यह है कि जिन्हें हम एक पुष्प कह कर पुकारते हैं, दरअसल उसमें सैकड़ों पुष्प होते हैं। यह एक संयुक्त पुष्पों का गुच्छा होता है, जो देखने में एक पुष्प सा प्रतीत होता है और इसके सैकड़ों पुष्प निषेचन के पश्चात सैकड़ों बीज बनाते हैं। इसमें नर व मादा पुष्प एक साथ होते हैं, इस फूल के परिवार की एक और अहम बात है कि यह विषम परिस्थितियों में भी अपने वजूद को बरकरार रख सकता है। इस कुल की प्रजातियों में ऊर्जा सरंक्षित रखने की काबिलियत होती है और यह क्षमता सूरजमुखी आदि के अतिरिक्त गेहूँ और तमाम घासों में भी पाई जाती है।

इस फूल वाली वनस्पति की पत्तियाँ व तना रोएँदार होते हैं, एक या दो फीट तक यह वनस्पति बढ़ती है और खीरी जनपद में अप्रैल से जुलाई तक इस प्रजाति में पुष्पन होता है। तना ताम्बे की तरह लाल, पुष्प पीतवर्ण, पत्तियाँ रोमिल, जड़ें दूर तक फैलने की क्षमता रखती हैं। आमतौर पर नदियों व तालाबों के किनारे, सड़कों के आसपास इस प्रजाति का उग आना सामान्य है और यह वनस्पति थोड़ी-बहुत क्षारीय जमीन में भी उग आने की कूबत रखती है। दक्षिणी और उत्तरी ध्रुव को छोड़कर इस प्रजाति ने यूरोप के अलावा एशिया, अफ्रीका और अमेरिकी महाद्वीप में भी अपना अस्तित्व बनाया।

पुलीकेरिया डिसेण्टेंरिका, जिसे अंग्रेजी में कामन फ्लीबेन कहते हैं, इस नाम के पीछे की कहानी यह है कि सदियों पहले जब हमारे पूर्वजों ने आग में इस प्रजाति के सूखे पौधों को डाला तो उस धुएँ से वहाँ के वातावरण से मक्खियाँ व कीट-पतंगे गायब हो गए, इसके इस विषाक्त गुण के कारण इसे यह नाम दिया गया। कहते हैं, एक रूसी जनरल जब परसिया पर आक्रमण करने जा रहा था तो राह में उसे डिसेण्ट्री हुई और वहाँ के स्थानीय लोगों ने कामन फ्लीबेन के रस से उसे ठीक कर दिया, यह बात उस जनरल ने कार्ल लीनियस को खुद बताई और इस प्रजाति के अद्भुत गुण को लीनियस ने अपने जर्नल्स में लिखा। यही वह औषधीय गुण है, जिसने इस प्रजाति को डिसेण्टेंरिका नाम दिया। दुनिया के तमाम हिस्सों में इस वनस्पति का उपयोग अल्सर, त्वचा रोग और घावों के उपचार के लिए किया जाता है।

अब सवाल यह है कि यह कामन फ्लीबेन यूरोप से भारत और भारत के इस गाँव तक कैसे पहुँचा। वनस्पति विज्ञान के जर्नल्स में बहुत कम जिक्र है इस प्रजाति का, पुलिकेरिया जीनस के अन्तर्गत आने वाली कुछ प्रजातियों का जिक्र ब्रिटिश भारत के बंगाल में पाए जाने का जिक्र हुआ है कुछ अंग्रेज वैज्ञानिकों द्वारा। किन्तु उत्तर भारत में यह प्रजाति अभी भी दर्ज नहीं है। कुल मिलाकर तराई में यह पौधा कैसे पहुँचा, इस रहस्य से पर्दा उठाने की कोशिश है।

यूरोप से नील नदी तक फिर गंगा के मैदानों से होकर तराई की इस छोटी नदी के किनारे खिला यह पुष्प अपनी खिलखिलाहट में वह रहस्य छुपाए हुए है, जो सैकड़ों वर्ष की लम्बी दास्ताँ कहते हैं। अंग्रेजों के उपनिवेश काल के दौरान यह पुष्प यूरोप से अफ्रीका होता हुआ एशिया में दाखिल हुआ, चाहे इसके बीज अनजाने में जहाज में दाखिल हुए हों या इसे साज-सज्जा वाले पुष्प के तौर पर अंग्रेज अफसरों ने स्वयं इसे धरती के विभिन्न भागों में रोपित किया हो, चूँकि भारत के प्राचीन आयुर्वेद में इस प्रजाति का जिक्र नहीं है, तो सम्भव है कि यह प्रजाति ईस्ट इण्डिया कम्पनी के साथ-साथ उत्तर भारत की तराई में दाखिल हुई हो।

अंग्रेज अफसरों की पत्नियों का प्रकृति प्रेम खासतौर से तितलियों और फूलों के प्रति पूरी दुनिया में जाहिर है। वे अपने उपनिवेश वाले देशों से न जाने कितनी वनस्पतियों और तितलियों की प्रजातियाँ इकट्ठा कर इंग्लैण्ड ले गईं, जो आज भी वहाँ के संग्रहालयों में मौजूद हैं। कई गवर्नर जनरल्स की मेमसाहिबों ने तो न जाने कितनी पेण्टिंग्स बनाईं जंगली पुष्पों और तितलियों की, जो बाद में कई किताबों का हिस्सा बनीं।

चूँकि पुलीकेरिया जीनस की प्रजातियों पर भारत में बहुत कम अध्ययन हुआ है, इसलिए अभी भी ये खूबसूरत फूल वाली वनस्पति लोगों की नजर में कम ही आ पाई है। इनकी कितनी हाइब्रिड प्रजातियाँ हैं, यह भी कहना मुश्किल है। जाहिर है, इसकी प्रजातियों की पहचान में त्रुटियाँ सम्भव हैं, किन्तु भारत में कुछ जानकारी मौजूद हैं। विभिन्न देशों की रेड डाटा बुक में इन प्रजातियों को संरक्षण की जरूरत वाली प्रजातियों की श्रेणी में रखा गया है, कुछ तो खतरे में पड़ी प्रजाति के तौर पर भी दर्ज की गई हैं। इस पीतवर्ण पुष्प वाली वनस्पति में जो गुण छिपे हैं, मानव ने जानकारी के आधार पर उसके लाभ भी लिए हैं। जरूरत है तो बस इतना जानने की कि प्रकृति में यदि कोई नुकसान पहुँचाने वाली चीज मौजूद है तो उसका इलाज भी इसी प्रकृति में है, बस नजरिया चाहिए ताकि आप उसे खोज सकें।

इस कहानी में जो सबसे रोचक बात है, वह यह है कि इसके कुछ-कुछ अम्लीय जमीन पर उगने की। क्योंकि जिस जमीन पर इंसानी बसाहट होती है उस जमीन की उपजाऊ शक्ति क्षीण हो जाती है और मिट्टी अम्लीय या क्षारीय हो जाती है। जब वह इंसानी बसाहट वहाँ से खत्म होती है किसी कारणवश, जैसे- भयानक बीमारी या कोई अन्य मानव जनित कारण तो ऐसी जमीनों में अक्सर खजूर जैसे दरख्त उग आते हैं। ये निशानी होते हैं कि इस जगह पर इंसान कभी रहा है। परशपुर के उजड़ने और यहाँ की जमीन पर ऐसी कई प्रजातियों का उगना जो बंजर जमीनों में भी अपना अस्तित्व बरकरार रख सके, यह रहस्य उस फूल की यहाँ मौजूदगी से जाहिर हो जाता है। कहते हैं, जीवन अपनी राह तलाश ही लेता है, प्रकृति देश-प्रदेश की लकीरें नहीं खींचती, जिसे धरती ने अपना लिया उसके लिए क्या यूरोप, क्या एशिया और क्या भारत, आखिर इस एक धरती का जीवन भी एक ही है, बस प्रजातियों का रंग-रूप अलग है, यहाँ कुछ भी इतर नहीं!

(लेखक वन्यजीव विशेषज्ञ व दुधवा लाइव पत्रिका के संस्थापक सम्पादक हैं)
लेखक का ई-मेल : krishna.manhan@gmail.com

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