टपक सिंचाई विधि

टपक सिंचाई विधि, Pc- Bhartvarsh
टपक सिंचाई विधि, Pc- Bhartvarsh

साधारणतया किसी फसल अथवा खेत में पानी दिए जाने के ढंग को सिंचाई की विधि कहा जाता है। सिंचाई की उत्कृष्ट अथवा वैज्ञानिक विधि का अभिप्राय ऐसी सिंचाई व्यवस्था से होता है जिसमें सिंचाई जल के साथ उत्पादन के अन्य आवश्यक उपादानों का प्रभावकारी उपयोग एवम् फसलोत्पादन में वृद्धि सुनिश्चित हो सकें। सिंचाई की सबसे उपयुक्त विधि वह होती है जिसमें जल का समान वितरण होने के साथ ही पानी का कम नुकसान हो तथा कम से कम पानी से अधिक क्षेत्र सींचा जा सके ।

टपक सिंचाई :

सिमका ब्लास नाम के एक इजराइल के इंजीनियर ने 1940 में देखा कि पानी की टोटी से रिसाव होने वाले स्थान के वृक्षों की वृद्धि उसके आस-पास के वृक्षों से अधिक थी। इसके आधार पर उन्होनें 1964 में टपकदार सिंचाई पद्धति विकसित कर उसका एकत्वरूप अर्थात पेटेन्ट कराया। साठवें दशक के अन्त में टपकदार सिंचाई पद्धति का प्रचार-प्रसार आस्ट्रेलिया, संयुक्त राज्य अमेरिका एवम् विश्व के अनेक देशों में हुआ। भारत में सत्तर के दशक में टपकदार सिंचाई पद्धति से यद्यपि लोग परिचित हो चुके थे परन्तु इसका व्यापक प्रसार आठवें दशक में हुआ। हमारे देश में आजकल टपकदार सिंचाई का उपयोग जलाभाव वाले स्थानों में विशेषकर दूर-दूर कतारों में बाई गई फसलों जैसे नारियल, गन्ना, अंगूर, बेर, नीबू, कपास, टमाटर, बैगन, मक्का, अमरूद इत्यादि फसलों की सिंचाई के लिए महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कनार्टक, गुजरात, मध्य प्रदेश इत्यादि राज्यों में किया जा रहा है।

टपक सिंचाई की प्रक्रिया :

जलस्रोत से पानी उठाने के लिए पम्प, जल प्रवाह का नियमित दबाव बनाए रखने के लिए एक ऊँचाई पर स्थित पानी की टंकी । जल की मात्रा एवम् दबाव को नियंत्रित करने के लिए मुख्य जलापूर्ति लाइन से जुड़ी केन्द्रीय जल वितरण प्रणाली। सिंचाई जल के साथ उर्वरक के प्रयोग के लिए केन्द्रीय वितरण प्रणाली से जुड़ी हुई टंकी होती है ।

जल में घुले ठोस अवांछित पदार्थों को छानने के लिए केन्द्रीय वितरण प्रणाली से जुड़ी एक छननी होती है । वांछित मात्रा में जलापूर्ति हेतु उचित लम्बाई एवम् व्यास की पाइप होती है। उचित व्यास एवम् परिमाप की सहायक एवम् पार्श्व पाइप लाइन तथा ये मुख्य पाइप लाइन से एक दूसरे से समानान्तर रूप में जुड़ी रहती हैं। नियत मात्रा में पानी देने के लिए पौधों की कतारों के समान दूरी पर लगाये जाने के लिए प्लास्टिक के बने उत्सर्जक जिन्हें पार्श्व पाइप लाइन में वांछित दूरी पर लगाया गया हो की जरूरत पड़ती है । आजकल कई प्रकार की टपकदार सिंचाई पद्धति उपकरण उपलब्ध है जिनका प्रयोग स्थानीय आवश्यकता एवम् सुविधानुसार किया जा सकता है। विभिन्न प्रकार की टपकदार पद्धति में से सतही टपकदार प्रणाली का अधिक प्रचलन है। इस प्रणाली में पार्श्व पाइप लाइन एवम् जल उत्सर्जक भूतल पर लगाए जाते हैं। इस प्रणाली को स्थापित करने, देख-रेख करने, उत्सर्जक की सफाई करने अथवा उसे बदलने में सुविधा होती है। अवभूमि टपकदार सिंचाई में पार्श्व पाइप लाइन तथा उत्सर्जक दोनों भूमि के भीतर गड़े रहते हैं ।

सूक्ष्म फुहार सिंचाई पद्धति में सहायक पार्श्व पाइप लाइन एवम् उत्सर्जक भूतल पर स्थित होते हैं परन्तु इनसे सिंचाई जल बारीक फुहार अथवा कुहरा के रूप में जमीन पर पड़ता है। इस प्रकार की सिंचाई पद्धति का उपयोग मुख्यतः कम दूरी पर बोई गई फसलों में किया जाता है। स्पन्द सिंचाई पद्धति में पानी के लगातार स्पन्द में दिया जाता है। अर्थात् सिंचाई के लिए यंत्र में इस प्रकार की व्यवस्था होती है कि यंत्र का समंजन करके 5-10 यो 15 मिनट के अन्तराल पर पानी दिया जाता रहता है।

टपक सिंचाई का उद्देश्य :

टपकदार सिंचाई व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य सिंचाई जल प्रयोग दक्षता में वृद्धि, एक समान जल प्रदान करना, तथा उपज की उचित वृद्धि के लिए फसल के जड़ क्षेत्र में जलधारण क्षमता के आस-पास नमी बनाए रखना होता है।

टपक सिंचाई विधि में जल की मात्रा का निर्धारण :

इस प्रकार एक अच्छी टपकदार सिंचाई पद्धति के अभिन्यास के लिए निम्न बातें आवश्यक होती हैं। स्थलाकृति की जानकारी करने के लिए स्थान का समोच्च सर्वेक्षण | सिंचाई हेतु उपलब्ध जल की मात्रा, जलशीर्ष एवम् उपलब्ध जल दबाव का आंकलन । उगाई गई फसल की किस्म, अवस्था एवम् दूरी होती है।

वाष्प -  वाष्पोत्सर्जन की गणना करने के लिए जलवायु सम्बन्धी आंकड़े। मृदा की किस्म एवम् उसकी पारगम्यता एवम् अन्तःसरण की दर । सिंचाई जल के गुण। पौधे के उपभौमिक उपयोग हेतु दैनिक जल की आवश्यक मात्रा होती है । अध्ययनों के आधार पर सिद्ध  हो चुका है कि किसी प्रकार से जल की वातावरण में होने वाली क्षति को बचाते हुए, बहुत सी फसलों की उचित वृद्धि के लिए आवश्यक जलापूर्ति द्वारा अच्छा उत्पादन प्राप्त करने के लिए टपकदार सिंचाई एक उचित विधि है। इस विधि से सिंचाई करके अधिक उपज, उत्तम उत्पाद गुण, के साथ सिंचाई जल एवम् सिंचाई हेतु आवश्यक ऊर्जा की बचत की जा सकती है ।

टपक सिंचाई के लाभ :
  •  चूंकि सिंचाई की इस पद्धति से पानी की गहराई तक रिसाव, अपवाह या वाष्पीकरण नहीं होता तथा पौधो के जड़ क्षेत्र के एक भाग में ही पानी दिया जाता है इस प्रकार इस विधि द्वारा परम्परागत सिंचाई विधि अथवा बौछारी की तुलना में बहुत कम पानी आवश्यक है।
  • इस विधि में कम पानी लगने तथा पानी देने के लिए कम जल दबाव आवश्यक होता है अतः अन्य सिंचाई विधि की अपेक्षा कम ऊर्जा की खपत होती है।
  • भूमि के ऊपरी तल के शुष्क रहने के कारण फसल में खरपतवारों का प्रकोप कम होता है तथा आर्द्र वातावरण में बढ़ने वाले फफूंद, बैक्टीरिया तथा अन्य रोगाणु एवम् विषाणुओं की वृद्धि कम होती है।
  • टपकदार सिंचाई निश्चित रूप से जल की कमी वाले क्षेत्रों में वरदान है।
  • इसके द्वारा पानी के साथ घुलनशील उर्वरकों का प्रयोग जड़ क्षेत्र में सिंचाई जल के साथ बहुत आसानी से किया जा सकता है।
  • इस तरह इस विधि द्वारा जल तो बचत होती है साथ ही उर्वरकों पर भी व्यय कम होता है और उर्वरकों का उपयोग अच्छा और पूरा होता है।
सावधानियाँ :
  • टपकदार सिंचाई पद्धति में लगने वाली सामग्री जैसे पाइप, नोजल आदि थोड़ी महंगी जरूर पड़ती है परन्तु एक बार खरीदने के बाद लम्बे समय तक उचित देख-रेख और सावधानी के साथ प्रयोग किया जा सकता है।
  • टपकदार सिंचाई प्रणाली में ध्यान देने की बाद यह है कि इसमें प्रयोग किया जाने वाला सिंचाई जल स्वच्छ और साफ हो उसमें बहुत ज्यादा कचड़ा या मिट्टी के कण इत्यादि न हों अन्यथा इसके नोजल में फंस सकता है। जिससे प्रणाली सुचारू रूप से काम करने में सक्षम नहीं होगी । इसलिए पानी छानने के लिए पाइप में जाली लगाई जाती है। जिसको समय-समय पर साफ करते रहना चाहिए ।
  • पार्श्व पाइपों का हमेशा निरीक्षण करते रहना चाहिए। इन पाइपों के फटने पर उनको रबड़ आदि से तत्काल बांध देना चाहिए या जरूरत पड़ने पर उनको बदल देना चाहिए तथा जल उत्सर्जक अर्थात नोजल जो जमीन के अन्दर या ऊपर लगते हैं उनको समय-समय पर परीक्षण करना चाहिए क्योंकि उनके बन्द होने से उस क्षेत्र में सिंचाई जल नहीं पहुँचता है।
  • इस तरह बूँद-बूँद से सिंचाई करके पानी बचाते हुए अपनी फसल का उत्पादन किया जा सकता है जिससे जल की बचत तो होगी ही साथ ही साथ समय और पैसा भी बचेगा और फसल का विकास अच्छा होगा तथा हानिकारक लवण भूमि की सतह पर एकत्रित भी नहीं होंगे और ज्यादा उत्पादन प्राप्त होने से देश-प्रदेश के किसान समृद्धिशाली बनेंगे और हम सब जल संरक्षण को भी बढ़ावा देने में सफल होंगे।
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Post By: Shivendra
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