तो नदियों को जोड़ो तालाबों से

<i>नदी जोड़ परियोजना से संकट में टीकमगढ़ के तालाब</i>
<i>नदी जोड़ परियोजना से संकट में टीकमगढ़ के तालाब</i>
दो खबरें- देश की पहली नदी जोड़ योजना बुंदेलखंड में ही होगी, यहां केन और बेतवा को जोड़ा जाएगा। इस पर 10 हजार करोड़ का खर्चा अनुमानित है। दूसरी खबर-बुंदेलखंड के टीकमगढ़ जिले में बराना के चंदेलकालीन तालाब को जामनी नदी से नहर द्वारा जोड़ा जाएगा। इस पर 15 करोड़ रुपए खर्च होंगे और 18 गांव के किसान इससे लाभान्वित होंगे।

यह किसी से छिपा नहीं हैं कि देश की सभी बड़ी परियोजनाएं कभी भी समय पर पूरी होती नहीं हैं, उनकी लागत बढ़ती जाती है और जब तक वे पूरी होती है, उनका लाभ, व्यय की तुलना में गौण हो जाता है। यह भी तथ्य है कि तालाबों को बचाना, उनको पुनर्जीवित करना अब अनिवार्य हो गया है और यह कार्य बेहद कम लागत का है और इसके लाभ अफरात हैं।

देश की सूखी नदियों को सदानीरा नदियों से जोड़ने की बात लगभग आजादी के समय से ही शुरू हो गई थी । प्रख्यात वैज्ञानिक-इंजीनियर सर विश्वसरैया ने इस पर बाकायदा शोध पत्र प्रस्तुत किया था । पर्यावरण को नुकसान, बेहद खर्चीली और अपेक्षित नतीजे ना मिलने के डर से ऐसी परियोजनाओं पर क्रियान्वयन नहीं हो पाया ।

जब देश में विकास के आंकड़ों का आकलन सीमेंट-लोहे की खपत और उत्पादन से आंकने का दौर आया तो अरबों-खरबों की परियोजनाओं के झिलमिलाते सपने दिखाने में सरकारें होड़ करने लगीं। केन-बेतवा नदी को जोड़ने की परियोजना को फौरी तौर पर देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि इसकी लागत, समय और नुकसान की तुलना में इसके फायदे नगण्य ही हैं ।

विडंबना है कि उत्तर प्रदेश को इस योजना में बड़ी हानि उठानी पड़ेगी तो भी राजनैतिक सोशेबाजी के लिए वहां की सरकार इस आत्महत्या को अपनी उपलब्धि बताने से नहीं चूक रही है।

‘‘नदियों का पानी समुद्र में ना जाए, बारिश में लबालब होती नदियां गांवों-खेतों में घुसने के बनिस्पत ऐसे स्थानों की ओर मोड़ दी जाए जहां इसे बहाव मिले तथा समय-जरूरत पर इसके पानी को इस्तेमाल किया जा सके’’ - इस मूल भावना को लेकर नदियों को जोड़ने के पक्ष में तर्क दिए जाते रहे हैं । लेकिन यह विडंबना है कि केन-बेतवा के मामले में तो ‘‘नंगा नहाए निचोड़े क्या” की लोकोक्ति सटीक बैठती है ।

केन और बेतवा दोनों का ही उद्गम स्थल मध्य प्रदेश में है । दोनों नदियां लगभग समानांतर एक ही इलाके से गुजरती हुई उत्तर प्रदेश में जा कर यमुना में मिल जाती हैं । जाहिर है कि जब केन के जल ग्रहण क्षेत्र में अल्प वर्षा या सूखे का प्रकोप होगा तो बेतवा की हालत भी ऐसी ही होगी । वैसे भी केन का इलाका पानी के भयंकर संकट से जूझ रहा है । सरकारी दस्तावेज़ दावा करते हैं कि केन में पानी का अफरात है । जबकि हकीकत इससे बेहद परे है ।

सन् 1990 में केंद्र सरकार ने नदियों के जोड़ के लिए एक अध्ययन शुरू करवाया था और इसके लिए केन-बेतवा को चुना गया था। सन् 2007 में केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने इस परियोजना में पन्ना नेशनल पार्क के हिस्से को शामिल करने पर आपत्ति जताई। हालांकि इसमें कई और पर्यावरणीय संकट हैं लेकिन सन् 2010 जाते-जाते सरकार में बैठे लोगों ने प्यासे बुंदेलखंड को एक चुनौतीपूर्ण प्रयोग के लिए चुन ही लिया।

अब देखा जा सकता है कि केन-बेतवा के जोड़ की योजना को सिद्धांतया मंजूर होने में ही 24 साल लग गए। उल्लेखनीय है कि राजघाट परियोजना का काम जापान सरकार से प्राप्त कर्जे से अभी भी चल रहा है, इसके बांध की लागत 330 करोड़ से अधिक तथा बिजली घर की लागत लगभग 140 करोड़ है। राजघाट से इस समय 953 लाख यूनिट बिजली भी मिल रही है। यह बात भारत सरकार स्वीकार कर रही है कि नदियों के जोड़ने पर यह पांच सौ करोड़ बेकार हो जाएगा।

समूचे बुंदेलखंड में पारंपरिक तालाबों का जाल है। आमतौर पर ये तालाब एक-दूसरे से जुड़े हुए भी थे, यानी एक के भरने पर उससे निकले पानी से दूसरा भरेगा, फिर तीसरा। इस तरह बारिश की हर बूंद सहेजी जाती थी। बुंदेलखंड में जामनी की ही तरह केल, जमडार, पहुज, शहजाद, टौंस, गरारा, बघैन,पाईसुमी,धसान जैसी आधा सैकड़ा नदियां है जो बारिश में तो उफनती है, लेकिन फिर यमुना, बेतवा आदि में मिल कर गुम हो जाती हैं। यदि छोटी-छोटी नहरों से इन तालाबों को जोड़ा जाए तो तालाब आबाद हो जाएंगे। इससे पानी के अलावा मछली, सिंघाड़ा कमल गट्टा मिलेगा। इसकी गाद से बेहतरीन खाद मिलेगी। टीकमगढ़ जिले में अभी चार दशक पहले तक हजार तालाब हुआ करते थे। यहां का कोई गांव ऐसा नहीं था जहां कम-से-कम एक बड़ा-सा सरोवर नहीं था, जो वहां की प्यास, सिंचाई सभी जरूरतें पूरी करता था। आधुनिकता की आंधी में एक चौथाई तालाब चौरस हो गए और जो बचे तो वे रखरखाव के अभाव में बेकार हो गए।

आज टीकमगढ़ जिले की 20 प्रतिशत से ज्यादा आबादी पानी के अभाव में गांवों से पलायन कर चुकी है। वैसे तो जामनी नदी बेतवा की सहायक नदी है और यह सागर जिले से निकल कर कोई 201 किलोमीटर का सफर तय कर टीकमगढ़ जिले में ओरछा में बेतवा से मिलती है। आमतौर पर इसमें साल भर पानी रहता है, लेकिन बारिश में यह ज्यादा उफनती है।

बम्होरी बराना के चंदेलकालीन तालाब को नदी के हरपुरा बांध के पास से एक नहर द्वारा जोड़ने से तालाब में साल भर लबालब पानी रहेगा। इससे 18 गावों के 708 हेक्टेयर खेत सींचे जाएंगें। यही नहीं नहर के किनारे कोई 100 कुएं बनाने की भी बात है, जिससे इलाके का भूगर्भ स्तर बना रहेगा। अब इस योजना पर व्यय है महज 15 करोड़, इससे जंगल, जमीन को नुकसान कुछ नहीं है, विस्थापन एक व्यक्ति का भी नहीं है। इसको पूरा करने में एक साल से कम समय लगेगा। इसके विपरीत नदी जोड़ने में हजारों लोगों का विस्थापन, घने जंगलों व सिंचित खेतों का व्यापक नुकसान, साथ ही कम-से-कम 10 साल का काल लग रहा है।


नदी जोड़ परियोजना से संकट में टीकमगढ़ के तालाबनदी जोड़ परियोजना से संकट में टीकमगढ़ के तालाबसमूचे बुंदेलखंड में पारंपरिक तालाबों का जाल है। आमतौर पर ये तालाब एक-दूसरे से जुड़े हुए भी थे, यानी एक के भरने पर उससे निकले पानी से दूसरा भरेगा, फिर तीसरा। इस तरह बारिश की हर बूंद सहेजी जाती थी। बुंदेलखंड में जामनी की ही तरह केल, जमडार, पहुज, शहजाद, टौंस, गरारा, बघैन,पाईसुमी,धसान जैसी आधा सैकड़ा नदियां है जो बारिश में तो उफनती है, लेकिन फिर यमुना, बेतवा आदि में मिल कर गुम हो जाती हैं।

यदि छोटी-छोटी नहरों से इन तालाबों को जोड़ा जाए तो तालाब आबाद हो जाएंगे। इससे पानी के अलावा मछली, सिंघाड़ा कमल गट्टा मिलेगा। इसकी गाद से बेहतरीन खाद मिलेगी। केन-बेतवा जोड़ का दस फीसदी यानी एक हजार करोड़ ही ऐसी योजनाओं पर ईमानदारी से खर्च हो जाए तो 20 हजार हेक्टेयर खेत की सिंचाई व भूजल का स्तर बनाए रखना बहुत ही सरल होगा।

सन् 1944 के अकाल आयोग की रपट हो या उसके बाद के कई शोध, यह बात सब जानते हैं कि जिन इलाकों में लगातार अल्प वर्षा होती है, वहां तालाब सबसे ज्यादा कारगर होते हैं। बुंदेलखंड पांच साल में दो बार सूखे के लिए अभिशप्त है, लेकिन इस पर पारंपरिक तालाबों की दुआ भी है। काश कोई नदी जोड़ने के बनिस्बत तालाबों को छोटी नदियों से जोड़ने की व्यापक योजना पर विचार करता।

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Post By: Shivendra
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