धरती के तापमान को बढ़ाने के लिए ग्रीन हाउस गैस जिम्मेदार हैं। जिनका उत्सर्जन फैक्टरी, कारखाने, उद्योग, मोटरगाड़ी, घरेलू किचन और जनसंख्या करती है। कार्बन गैसों का उत्सर्जन नई तकनीक का उपयोग कर रोका जा सकता है। जिसके लिए दुनिया भर में कोशिश हो रही है। कोयला की जगह सौर ऊर्जा का उत्पादन करने पर अनुसंधान हो रहा है। फिर भी इंसानों की जरूरतें पूरा करने के लिए ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन बन्द नहीं हो सकेगा। ग्रीनहाउस गैसों के बेतरतीब उत्सर्जन से धरती का तापमान लगातार बढ़ रहा है। भारत भी इस संकट से अछूता नहीं है। यदि समय रहते नहीं सम्भले तो मुम्बई, कोलकाता, हरिद्वार, व इलाहाबाद जैसे शहरोंं के नामो निशान मिट जाएगा।
विकास की अन्धी दौड़ इसी तरह से जारी रही तो करीब 50 साल बाद गंगा नदी के किनारे बसी आबादी और समुद्र तटों पर बसे शहर जलमग्न हो जाएँगे। खेती बर्बाद हो जाएगी। लू, भारी बारिश, सूखा, बाढ़, ओलावृष्टि, चक्रवात और दावानल जैसी आपदाएँ इंसान की नाक में दम कर देंगे।
इस भयावह स्थिति का अनुमान जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के अन्तर सरकारी पैनल (आईपीसीसी) की ताजा रिपोर्ट में लगाया गया है। वर्ष 2014 को अब तक का सबसे गर्म वर्ष माना गया है। जिससे साबित होता है कि आईपीसीसी की रिपोर्ट में दम है।
जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए 2015 में पेरिस में एक समझौता होना है। यह समझौता क्योटो प्रोटोकॉल का स्थान लेंगा जो 2012 में समाप्त हो चुका है। पेरिस सम्मेलन से पेरू की राजधानी लीमा में 190 देशों के सदस्यों ने एक स्वीकार्य समझौता करने पर विचार विमर्श किया।
ये विचार विमर्श पूरे साल चलेगा। मौसम विज्ञान संगठन ने वर्ष 2014 दुनिया का सबसे गर्म साल घोषित किया है। जलवायु परिवर्तन सम्बन्धी जोखिम और उससे निपटने की क्षमता के विश्लेषण के आधार पर भारत सर्वाधिक जोखिम वाले देशों और क्षेत्रों में शामिल किया गया है।
वर्ष 2070 में मुम्बई और कोलकाता के लोगों और इमारतों को तटीय बाढ़ का सर्वाधिक खतरा है। इसकी वजह धरती का तापमान बढ़ने और उसके कारण ग्लेशियरों के पिघलने के कारण समुद्र का जलस्तर बढ़ेगा जिसके कारण तटीय शहरों में समुद्र का पानी भरने का खतरा पैदा हो जाएगा। धरती का तापमान बढ़ने से हिमालय के ग्लेशियर तेजी से पिघलने लगेंगे जिसके कारण नदियों में बाढ़ आएगी और नदियों के किनारे वाली आबादी पर डूब का खतरा होगा।
गंगा नदी के किनारे उत्तरी मैदानों में करीब 40 प्रतिशत आबादी रहती है। इतनी बड़ी आबादी पर बड़ा खतरा मँडरा रहा है। जिन शहरों पर खतरा है उनमें हरिद्वार, अलीगढ़, कानपुर, आगरा, इलाहाबाद, बनारस, पटना शामिल हैं।
पिछले सप्ताह अमेरिकी वैज्ञानिक एजेंसी नेशनल ओशनिक एंड एटमहृसफेरिक एडमिनिस्ट्रेशन ने चेतावनी दी थी कि यह साल सबसे अधिक गर्म हो सकता है क्योंकि 130 साल पहले जब से तापमान का रिकॉर्ड रखा जाने लगा, तब से इस साल शुरू के 10 महीने सबसे अधिक गर्म रहे। जनवरी से अक्टूबर के बीच औसत तापमान बीसवीं सदी के औसत तापमान 14.1 डिग्री सेल्सियस से 0.68 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा।
ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन बढ़ने के कारण धरती का तापमान बढ़ रहा है जो गरीब-अमीर सभी को प्रभावित करेगा। औद्योगिक देश खासकर अमेरिका ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम करने के लिए तैयार नहीं है लेकिन इसी साल चीन में हुए एपेक सम्मेलन में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा और उनके चीनी समकक्ष ने नवम्बर में एक ऐतिहासिक समझौता किया जिसके तहत् अमेरिका वर्ष 2015 तक और चीन वर्ष 2030 तक उत्सर्जन 28 फीसदी घटाएँगे।
जलवायु परिवर्तन के कारण भारत का तापमान में 0.4 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हुई है। जलवायु परिवर्तन के कुप्रभावों का भारत को मंहगी कीमत अदा करनी होगी। मच्छर जैसे रोग वाहकों के कारण बीमारियाँ विकराल होंगी। चक्रवात ज्यादा आएँगे, मानसूनी बारिश कहीं बढ़ेगी तो कहीं घटेगी।
दुनियाभर में जलवायु परिवर्तन के कारकों और उसके परिणामों पर चल रही बहस के बीच केन्द्र सरकार ने केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन (सीएसओ) का भारत पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के अध्ययन की जिम्मेदारी सौंपी थी। सीएसओ ने डॉक्टर के.एस राव की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया था जिसने वर्ष 2012 के आँकड़ों को जुटाकर अपना विश्लेषण प्रस्तुत कर दिया है। ‘स्टेटिक्स रिलेटेड टू क्लाइमेट इण्डिया’ रिपोर्ट में पुष्टि की गई है कि पिछले 100 सालों में भारत में धरती के तापमान में 0.4 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हुई है।
रिपोर्ट में कुछ बातें परेशान करने वाली हैं। वैसे तो बढ़ते औद्योगीकरण के कारण धरती के तापमान का असर पूरी दुनिया में ही देखा जा रहा है। लेकिन जनसंख्या भौगोलिक परिस्थितियों के कारण उनका असर अलग भी है। भारत में विषम भौगोलिक स्थितियाँ और तेजी से बढ़ती आबादी जलवायु परिवर्तन से ज्यादा प्रभावित होगी। रिपोर्ट के अनुसार आईपीसीसी ने धरती के तापमान में पिछले सौ सालों में 0.74 डिग्री सेल्सियस औसत बढ़ोतरी की प्रवृत्ति पाई है। इसी आधार पर सीएसओ ने भारत में तापमान बढ़ने की प्रवृत्ति 0.4 डिग्री पाई है। तापमान बढ़ने का सबसे बुरा असर खेती पर पड़ेगा। गेहूँ के उत्पादन में 40 से 50 लाख टन कम होने की आशंका जताई गई है।
चावल, फल, सब्जियाँ, बासमती आदि की गुणवत्ता खराब होगी और इनके उत्पादन में वर्ष 2100 तक दस से चालीस प्रतिशत की कमी हो जाएगी।
धरती के तापमान को बढ़ाने के लिए ग्रीन हाउस गैस जिम्मेदार हैं। जिनका उत्सर्जन फैक्टरी, कारखाने, उद्योग, मोटरगाड़ी, घरेलू किचन और जनसंख्या करती है। कार्बन गैसों का उत्सर्जन नई तकनीक का उपयोग कर रोका जा सकता है। जिसके लिए दुनिया भर में कोशिश हो रही है। कोयला की जगह सौर ऊर्जा का उत्पादन करने पर अनुसंधान हो रहा है। फिर भी इंसानों की जरूरतें पूरा करने के लिए ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन बन्द नहीं हो सकेगा।
विकास की अन्धी दौड़ इसी तरह से जारी रही तो करीब 50 साल बाद गंगा नदी के किनारे बसी आबादी और समुद्र तटों पर बसे शहर जलमग्न हो जाएँगे। खेती बर्बाद हो जाएगी। लू, भारी बारिश, सूखा, बाढ़, ओलावृष्टि, चक्रवात और दावानल जैसी आपदाएँ इंसान की नाक में दम कर देंगे।
इस भयावह स्थिति का अनुमान जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के अन्तर सरकारी पैनल (आईपीसीसी) की ताजा रिपोर्ट में लगाया गया है। वर्ष 2014 को अब तक का सबसे गर्म वर्ष माना गया है। जिससे साबित होता है कि आईपीसीसी की रिपोर्ट में दम है।
जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए 2015 में पेरिस में एक समझौता होना है। यह समझौता क्योटो प्रोटोकॉल का स्थान लेंगा जो 2012 में समाप्त हो चुका है। पेरिस सम्मेलन से पेरू की राजधानी लीमा में 190 देशों के सदस्यों ने एक स्वीकार्य समझौता करने पर विचार विमर्श किया।
ये विचार विमर्श पूरे साल चलेगा। मौसम विज्ञान संगठन ने वर्ष 2014 दुनिया का सबसे गर्म साल घोषित किया है। जलवायु परिवर्तन सम्बन्धी जोखिम और उससे निपटने की क्षमता के विश्लेषण के आधार पर भारत सर्वाधिक जोखिम वाले देशों और क्षेत्रों में शामिल किया गया है।
वर्ष 2070 में मुम्बई और कोलकाता के लोगों और इमारतों को तटीय बाढ़ का सर्वाधिक खतरा है। इसकी वजह धरती का तापमान बढ़ने और उसके कारण ग्लेशियरों के पिघलने के कारण समुद्र का जलस्तर बढ़ेगा जिसके कारण तटीय शहरों में समुद्र का पानी भरने का खतरा पैदा हो जाएगा। धरती का तापमान बढ़ने से हिमालय के ग्लेशियर तेजी से पिघलने लगेंगे जिसके कारण नदियों में बाढ़ आएगी और नदियों के किनारे वाली आबादी पर डूब का खतरा होगा।
गंगा नदी के किनारे उत्तरी मैदानों में करीब 40 प्रतिशत आबादी रहती है। इतनी बड़ी आबादी पर बड़ा खतरा मँडरा रहा है। जिन शहरों पर खतरा है उनमें हरिद्वार, अलीगढ़, कानपुर, आगरा, इलाहाबाद, बनारस, पटना शामिल हैं।
पिछले सप्ताह अमेरिकी वैज्ञानिक एजेंसी नेशनल ओशनिक एंड एटमहृसफेरिक एडमिनिस्ट्रेशन ने चेतावनी दी थी कि यह साल सबसे अधिक गर्म हो सकता है क्योंकि 130 साल पहले जब से तापमान का रिकॉर्ड रखा जाने लगा, तब से इस साल शुरू के 10 महीने सबसे अधिक गर्म रहे। जनवरी से अक्टूबर के बीच औसत तापमान बीसवीं सदी के औसत तापमान 14.1 डिग्री सेल्सियस से 0.68 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा।
ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन बढ़ने के कारण धरती का तापमान बढ़ रहा है जो गरीब-अमीर सभी को प्रभावित करेगा। औद्योगिक देश खासकर अमेरिका ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम करने के लिए तैयार नहीं है लेकिन इसी साल चीन में हुए एपेक सम्मेलन में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा और उनके चीनी समकक्ष ने नवम्बर में एक ऐतिहासिक समझौता किया जिसके तहत् अमेरिका वर्ष 2015 तक और चीन वर्ष 2030 तक उत्सर्जन 28 फीसदी घटाएँगे।
जलवायु परिवर्तन के कारण भारत का तापमान में 0.4 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हुई है। जलवायु परिवर्तन के कुप्रभावों का भारत को मंहगी कीमत अदा करनी होगी। मच्छर जैसे रोग वाहकों के कारण बीमारियाँ विकराल होंगी। चक्रवात ज्यादा आएँगे, मानसूनी बारिश कहीं बढ़ेगी तो कहीं घटेगी।
दुनियाभर में जलवायु परिवर्तन के कारकों और उसके परिणामों पर चल रही बहस के बीच केन्द्र सरकार ने केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन (सीएसओ) का भारत पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के अध्ययन की जिम्मेदारी सौंपी थी। सीएसओ ने डॉक्टर के.एस राव की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया था जिसने वर्ष 2012 के आँकड़ों को जुटाकर अपना विश्लेषण प्रस्तुत कर दिया है। ‘स्टेटिक्स रिलेटेड टू क्लाइमेट इण्डिया’ रिपोर्ट में पुष्टि की गई है कि पिछले 100 सालों में भारत में धरती के तापमान में 0.4 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हुई है।
रिपोर्ट में कुछ बातें परेशान करने वाली हैं। वैसे तो बढ़ते औद्योगीकरण के कारण धरती के तापमान का असर पूरी दुनिया में ही देखा जा रहा है। लेकिन जनसंख्या भौगोलिक परिस्थितियों के कारण उनका असर अलग भी है। भारत में विषम भौगोलिक स्थितियाँ और तेजी से बढ़ती आबादी जलवायु परिवर्तन से ज्यादा प्रभावित होगी। रिपोर्ट के अनुसार आईपीसीसी ने धरती के तापमान में पिछले सौ सालों में 0.74 डिग्री सेल्सियस औसत बढ़ोतरी की प्रवृत्ति पाई है। इसी आधार पर सीएसओ ने भारत में तापमान बढ़ने की प्रवृत्ति 0.4 डिग्री पाई है। तापमान बढ़ने का सबसे बुरा असर खेती पर पड़ेगा। गेहूँ के उत्पादन में 40 से 50 लाख टन कम होने की आशंका जताई गई है।
चावल, फल, सब्जियाँ, बासमती आदि की गुणवत्ता खराब होगी और इनके उत्पादन में वर्ष 2100 तक दस से चालीस प्रतिशत की कमी हो जाएगी।
धरती के तापमान को बढ़ाने के लिए ग्रीन हाउस गैस जिम्मेदार हैं। जिनका उत्सर्जन फैक्टरी, कारखाने, उद्योग, मोटरगाड़ी, घरेलू किचन और जनसंख्या करती है। कार्बन गैसों का उत्सर्जन नई तकनीक का उपयोग कर रोका जा सकता है। जिसके लिए दुनिया भर में कोशिश हो रही है। कोयला की जगह सौर ऊर्जा का उत्पादन करने पर अनुसंधान हो रहा है। फिर भी इंसानों की जरूरतें पूरा करने के लिए ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन बन्द नहीं हो सकेगा।
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Post By: Shivendra