टिकाऊ विकास के सपने का ‘रियो’

रियो में ही 1992 में पृथ्वी शिखर सम्मेलन में भविष्य की सुंदर तस्वीर खींची गयी थी। पृथ्वी सम्मेलन से वह सब तो हासिल नहीं हुआ, जिसकी दरकार थी फिर भी उसने सकारात्मक वातावरण बनाया जो आज रियो+20 के रूप में हमारे सामने है। और अब, रियो+20 सम्मेलन में विश्वनेता कई महत्वपूर्ण निर्णय लेंगे जो सकारात्मक या नकारात्मक रूप से धरती की भावी तस्वीर बनायेंगे। इस वैश्विक सम्मेलन में जिन मुद्दों पर बहस और फैसले होने हैं, उनमें गरीबी और सामाजिक असमानता को कम करना खास है। यह सम्मेलन धरती को ताप और जलवायु परिवर्तन से बचाने के अलावा भी कई और मायनों में भी खास है।

सबसे बड़ा सवाल यह है कि टिकाऊहीन विकास और प्राकृतिक संसाधनों के अतिदोहन के कारणों को जाने बिना उठाए गए छोटे-छोटे कदम क्या उस समस्या को हल करने में मददगार साबित हो पाएंगे जिनका हम सामना कर रहे हैं? विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष अर्थव्यवस्था के मानक तय कर रहे हैं। अपनी इस भूमिका के साथ ये प्राकृतिक संसाधनों पर पूंजीवाद के वर्चस्व को बढ़ाने में लगे हुए हैं। यह स्थिति टिकाऊ विकास की राह में प्रमुख रोड़ा है।

रियो में आयोजित हो रहे दूसरे सम्मेलन में भाग लेने के लिए दुनिया भर के नेता एकत्रित हो रहे हैं। यह सम्मेलन 1992 में हुए पृथ्वी सम्मेलन की याद में आयोजित किया जा रहा है। रियो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक अनूठा सम्मेलन था जिसने राजनीतिक एजेंडे के रूप में टिकाऊ विकास की अवधारणा प्रस्तुत की। इस वैश्विक सम्मेलन पर लोगों को बहुत भरोसा था। इस सम्मेलन ने न केवल टिकाऊ विकास का वादा किया बल्कि आर्थिक विकास, गरीबी उन्मूलन और पर्यावरण संरक्षण के बीच तालमेल बनाए रखने पर भी जोर दिया था। यह सम्मेलन स्टॉकहोम सम्मेलन के बीस पूरे होने पर मनाया गया था। इसमें पहली बार लोगों का ध्यान इस बात पर गया कि विकास की भी अपनी कुछ सीमाएं हैं। साथ ही यहां इस बात पर भी जोर दिया गया कि आर्थिक विकास के प्रचलित मॉडल और वास्तविक विकास के बीच के भेद को अच्छी तरह से समझा जाय। रियो से कई तरह की प्रतिबद्धताएं सामने आर्इं जिनमें यूएनएफसीसीसी, सीबीडी, मरुस्थलीकरण के खिलाफ समझौता और एजेंडा-21 प्रमुख थे। इन प्रतिबद्धताओं ने हरित विकास के लिए एक प्रारूप तैयार किया। गौरतलब है कि रियो का यह सम्मेलन अन्य सम्मेलनों से अलग था।

रियो सम्मेलन में यह बात सामने आई थी कि विकसित और औद्योगिक देशों ने विकासशील और गरीब देशों की तुलना में पर्यावरण का अधिक दोहन किया है। इसलिए विकासशील और गरीब देशों ने मांग की कि उनकी अर्थव्यवस्था को हरित बनाए रखने के लिए विकसित देशों को विशेष सहयोग करना चाहिए। इतना ही नहीं, विकसित देशों को आर्थिक और तकनीकी सहायता देनी चाहिए। यही अवधारणा सामान्य मगर विशिष्ट जिम्मेदारी (सीडीबीआर) सिद्धांत को आधिकारिक रूप से स्वीकृति प्रदान करती है और यही अवधारणा उत्तर और दक्षिण के देशों के बीच बातचीत का आधार बनी। पिछले बीस सालों में यह स्पष्ट हुआ है कि वैश्वीकरण की नवउदारवादी नीतियों- उदारीकरण और निजीकरण- ने हमारे सामने बहुत-सी चुनौतियां खड़ी कर दी हैं। साथ ही आर्थिक विकास के मॉडल लड़खड़ाने लगे हैं। भूख, खाद्य असुरक्षा और गरीबी ने न केवल गरीब देशों पर असर डाला है बल्कि पूर्व के धनी देशों को भी परेशानी में डाल दिया है। हमारे जलवायु, र्इंधन और जैव-विविधता से जुड़े संकटों ने भी आर्थिक विकास पर असर दिखाया है।

यहां समावेशी विकास के अभाव के कारण नई आर्थिक नीतियां विफल हुई हैं; इन नीतियों के कारण जनमानस में असंतोष और विरोध पनप रहा है। इसलिए टिकाऊ विकास की नीति समय की मांग है। अगर दुनिया की सरकारें इस तकाजे को लेकर गंभीर हैं तो उन्हें इस पर विचार करना चाहिए कि हम विकास को किस तरह लें और इसे किस तरह परिभाषित करें। पर्यावरण और टिकाऊ विकास की समस्या को दूर करने के लिए आवश्यक कदम उठाए जाने की जरूरत है। लेकिन दूसरी ओर, विश्व के नेताओं में इस विषय की महत्ता और समाधान की तत्परता का घोर अभाव है। वे अब भी अपने मतभेदों को सुलझाने के लिए अधिक समय की मांग कर रहे हैं। इस बार के रियो सम्मेलन के सारतत्व को यूएनसीएसडी ने (यूनाइटेड नेशन कमीशन ऑन सस्टेनेबल डेवलपमेंट) जीरो ड्राफ्ट (शून्य मसविदा) के नाम से प्रस्तुत किया है। इस मसविदे का शीर्षक है ‘भविष्य, जो हम चाहते हैं’। कहा जाता है कि इसे रियो के इस बार के सम्मेलन में आधिकारिक रूप में स्वीकार किया जाएगा। मसविदे के पांच भाग हैं। प्रस्तावना, राजनीतिक प्रतिबद्धताओं का नवीकरण, टिकाऊ विकास और गरीबी उन्मूलन के संदर्भ में हरित अर्थव्यवस्था, टिकाऊ विकास के लिए एक संस्थागत ढांचा और आगे की कार्रवाई। इनमें अंतिम दो इस रियो सम्मेलन प्रमुख विषय हैं।

हरित अर्थव्यवस्था, यह एक नए किस्म की अवधारणा है जिसे अभी तक अच्छी तरह परिभाषित नहीं किया गया है। जब विकसित देश विकासशील देशों पर अपनी अर्थव्यवस्था को हरित करने का दबाव डालते हैं तो विकासशील देश इस बात से डरते हैं कि उनके वैश्विक व्यापार में परेशानियां खड़ी की जाएंगी और विश्वस्तरीय बाजार में उनके उत्पादों को पहुंचने में अवरोध होगा। विकासशील और विकसित देशों का समूह जी-77 इस बात पर जोर देता है कि इस बात को स्पष्ट किया जाना चाहिए कि ‘हरित अर्थव्यवस्था क्या है और इसके अंतर्गत कौन-सी वस्तुएं नहीं आती है।’ विकसित देशों पर यह आरोप है कि उन्होंने आर्थिक-तकनीकी सहयोग करने के जो वादे किए थे उनसे वे पीछे हट गए। रियो में यह संकल्प लिया गया था कि विकसित देश टिकाऊ विकास की दिशा में उठाए कदमों में सहयोग करेंगे। विकसित देश सतत विकास के लिए अपने जीएनपी का 0.7 फीसद भाग विकासशील देशों पर खर्च करेंगे। तकनीकी हस्तांतरण के सवाल पर अमेरिका, कनाडा और आस्ट्रेलिया ने जहां अपना पल्ला झाड़ लिया है वहीं यूरोपीय संघ इसे अनुसंधान, अन्वेषण और तकनीकी विकास के रूप में परिवर्तित करना चाहता है।

टिकाऊ विकास के लिए किए गए प्रयासों में वैश्विक पर्यावरणीय प्रबंधन को सबसे कमजोर कड़ी के रूप में माना जाता है। टिकाऊ विकास परिषद का गठन करने के लिए तीन लोकप्रिय प्रस्ताव सामने आए हैं। उनमें से प्रमुख हैं इसीओएसओसी को सुदृढ़ करना, वैश्विक सदस्यता के जरिए यूएनइपी को मजबूत करना और इसके अंतर्गत आर्थिक संसाधनों में बढ़ोतरी को भी शामिल किया गया है। विकसित देशों में कुछ देशों ने नैरोबी स्थित कार्यालय को सुदृढ़ करने के लिए अपना समर्थन दिया है। यही नहीं, इस कार्यालय को अफ्रीकी समूह का समर्थन का भी समर्थन प्राप्त है। मानवाधिकार आयोग की तर्ज पर एक सुदृढ़ सतत् विकास आयोग के गठन के विचार को भी लगभग समान रूप से समर्थन प्राप्त हुआ है। जीरो ड्राफ्ट में ऐसे कई समस्याग्रस्त क्षेत्रों की चर्चा की गई है- जैसे खाद्य सुरक्षा, पानी और सफाई, शहर, ऊर्जा, हरित रोजगार, पहाड़, सागर, जैव-विविधता और वन, परिवहन, रसायन और अपशिष्ट, खनन, जलवायु परिवर्तन, स्वास्थ्य, लिंग, शिक्षा आदि। यहां भी कई क्षेत्र ऐसे हैं जहां अब भी बातें स्पष्ट नहीं हो पाई हैं। जैसे, विकसित देश गरीबी उन्मूलन के लिए अतिवादी रवैये का समर्थन करते हैं।

टिकाऊ विकास के लक्ष्य जरूरी हैं इस बात पर सभी सहमत हैं। हालांकि इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए इस्तेमाल किए गए उपायों, प्रक्रियों और तथ्यों पर अब भी मतभेद कायम है। व्यापक स्तर पर यह बात सामने आई है कि सतत् विकास के लक्ष्य सहस्त्राब्दी विकास के लक्ष्य से आगे जाएंगे और इनमें टिकाऊ विकास के तीन अंगों- आर्थिक, पर्यावरणीय और सामाजिक भागों- को भी शामिल किया जाता है। कई लोगों का मानना है कि हो सकता है इस सम्मेलन के अंत में संभवत: सतत विकास के लक्ष्यों को अंतिम रूप न दिया जा सके लेकिन इस पर कार्रवाई आरंभ हो सकती है जिसे 2015 में लागू किए जाने की संभावना है। इन बातों को लागू करने में वित्त, व्यापार, तकनीक और क्षमता निर्माण को एक अच्छे साधन के रूप में माना जाता है। वित्त के मामले में विकसित देश सार्वजनिक वित्त को सामने रखते हैं। यही नहीं, वे देश यह भी चाहते हैं कि कारोबार जगत की भूमिका को अधिक से अधिक बढ़ाया जाए और गरीब देशों के बीच होने वित्तीय लेन-देन को गतिशीलता प्रदान की जाए।

इसके अलावा जी-77 देशों ने टिकाऊ विकास कोष बनाने का प्रस्ताव पेश किया है। इस फंड का लक्ष्य 2017 तक तीस अरब डॉलर प्रतिवर्ष और 2017 के बाद सौ अरब डॉलर प्रतिवर्ष रखा गया है। यूरोपीय संघ जापान और कनाडा के साथ पूर्व की ओडीए प्रतिबद्धताओं का समर्थन करता है लेकिन जी-77 के प्रस्ताव पर उनके विचार यथावत बने हुए हैं। व्यापार के मामले में विकासशील देश चाहते हैं कि उनके उत्पादों की पैठ विकसित देशों के बाजार तक हो, व्यापार को आघात पहुंचाने वाली सब्सिडी धीरे-धीरे खत्म हो और पेटेंट-राज को सीमित किया जाए। हालांकि विकसित देश इनका विरोध करते हैं। अलग-अलग रुख कुछ विशिष्ट मुद्दों पर ही नहीं है बल्कि रियो के मूल सिद्धांत पर भी मतभेद कायम है। सामान्य मगर विशिष्ट जिम्मेदारी (सीडीबीआर) मतभेद का मुख्य मुद्दा है। जहां एक ओर विकसित देश इसे कम तवज्जो देते हैं, वहीं दूसरी ओर जी-77 का मानना है कि सीबीडीआर मुख्य सिद्धांत है और इसे बातचीत और अंतरराष्ट्रीय सहयोग का आधार बनाना चाहिए। यही नहीं, यह समूह यह भी चाहता है कि इसकी चर्चा उचित स्थान पर की जानी चाहिए। विकसित देश खासतौर पर अमेरिका सीबीडीआर को क्रमिक रूप से खत्म करने की बात करता है जो उचित नहीं है। इसके अलावा वह यूएनएफसीसीसी को रियो सम्मेलन की तुलना में अधिक महत्त्व देता है। उनकी इस भावना का कनाडा, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और यूरोपीय संघ समर्थन करते हैं।

यहां सबसे बड़ा सवाल यह है कि टिकाऊहीन विकास और प्राकृतिक संसाधनों के अतिदोहन के कारणों को जाने बिना उठाए गए छोटे-छोटे कदम क्या उस समस्या को हल करने में मददगार साबित हो पाएंगे जिनका हम सामना कर रहे हैं? विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष अर्थव्यवस्था के मानक तय कर रहे हैं। अपनी इस भूमिका के साथ ये प्राकृतिक संसाधनों पर पूंजीवाद के वर्चस्व को बढ़ाने में लगे हुए हैं। यह स्थिति टिकाऊ विकास की राह में प्रमुख रोड़ा है। इसके अलावा अंतरराष्ट्रीय वित्तीय ढांचा, व्यापार और अनुदान के नियम, प्रकृति और पर्यावरण के प्रति जिम्मेदारी का अभाव भी टिकाऊ विकास के लिए बाधक साबित हो रहा है। पूंजीवादी देशों ने रियो+20 के माध्यम से उन निजी व्यवसायों और कंपनियों को भी बढ़ावा देने का प्रयास किया है जो आर्थिक विकास पर अपना शिकंजा कसती जा रही हैं। अब देखना यह है कि रियो+20 सम्मेलन हरित व्यापार या हरित विकास के नाम पर इतिहास के गर्भ में समा जाएगा या इसके कुछ दूरगामी परिणाम होंगे।

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