वास्तव में जरुरत तो टिहरी बांध परियोजना जिसमें कोटेश्वर बांध भी आता है, विस्थापितों/प्रभावितों के लिए बनी 1998 की नीति की कमियों को नई परिस्थितियों व अब तक के विस्थापन में आई समस्याओं को देखते हुये उच्चीकृत करना चाहिए। ताकि नए विस्थापितों को भी वही सब नहीं झेलना पड़े जो पूर्व में विस्थापित लोग झेल रहे हैं। सम्पशार्विक नीति की कोई आवश्यकता ही नहीं थी। पुनर्वास नीति 1998 को ही नये संशोधनों के साथ नवीनीकृत करने की जरूरत थी। किंतु यदि यह सरकार पुनः सम्पशार्विक नीति के नाम पर पुनर्वास नीति बना रही है तो उसे यह सब तो करना ही चाहिए। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने श्री एन. डी. जुयाल व शेखर सिंह बनाम भारत सरकार और दूसरे चल रहे मुकदमों में 5 मार्च 2013 को दिये गये आदेश में कहा है कि राज्य सरकार के पुनर्वास निदेशालय के अधिकारी व टीएचडीसी के अधिकारी राज्य ऊर्जा सचिव की अध्यक्षता में बैठकें और सम्पशार्विक नीति में उठ रहे मतभेदों को दूर करें ताकि टिहरी जलाशय के चारों तरफ भिलंगना व भागीरथी घाटी में जलाशय के कारण हो रही क्षति से प्रभावित व्यक्ति/परिवारों का समुचित पुनर्वास हो सके। 19-10-2010 को राज्य सरकार की समिति ने स्थलीय निरीक्षण किया और उसके बाद माननीय सर्वोच्च न्यायालय के 30 जनवरी 2013 के आदेश के बाद 14 जनवरी को सम्पशार्विक नीति अधिसूचित हुई। अधिसूचना में ज़मीनी सच्चाईयों का पूरी तरह अभाव है। टिहरी और कोटेश्वर बांधों के जलाशय की डूब से हुये विस्थापित लोगों की पुनर्वास की समस्याएं आज तक नहीं सुलझ पाई है। नीति को देखने के बाद मालूम पड़ता है कि इससे कोई सबक नहीं लिया गया है। 13 मार्च को उर्जा सचिव उत्तराखंड की अध्यक्षता में पुनर्वास निदेशालय के अधिकारी व टीएचडीसी के अधिकारियों की बैठक होने वाली है। 1989 से टिहरी बांध की समस्या और प्रभावितों के बीच काम के आधार पर प्रभावितों की ओर से हमने उर्जा सचिव और पुनर्वास निदेशक को सुझाव भेजे हैं।
नई सम्पशार्विक नीति बहुत ही सीमित अर्थों में बनाई गई है जिसमें सिर्फ जलाशय से व्यक्तिगत परिवारों पर होने वाले प्रभावों को देखा जा रहा है। नीति में नुकसान को व्यक्तिगत तौर पर लिया गया है। इस बात को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ किया गया है कि यह नुकसान व्यक्तिगत नहीं बल्कि पूरे क्षेत्र में होगा। पत्र के कुछ खास बिंदु हैः- भूस्खलन रुकता नहीं, सांकेतिक योजना का आभाव है, भूमिहीनों का भी पुनर्वास हो,बेनाप/कब्जाधारी भूस्वामियों का पुनर्वास हो, फ्री स्टाम्प ड्यूटी हो, भवन निर्माण के लिये कर्ज, पुनर्वास स्थलों पर सामुदायिक सुविधाएं, पुनर्वास सामुदायिक होना चाहिए न कि व्यक्तिगत इकाई के रूप में। विस्थापितों को पूर्व में बने पुनर्वास स्थलों के आस-पास ही स्थान दिया जाए ताकि उनकी अपनी पहचान बरकरार रह सके। विस्थापितों को चुनने का अधिकार हो।
1. पहाड़ में
2. मैदानी क्षेत्र में
3. अपनी मनचाही स्थल पर ज़मीन खरीदने का।
तीसरी दशा में सरकार उनको जगह खरीदने में मद व मूल्य राशि उपलब्ध करानी होगी। नई सम्पशार्विक नीति में लिखे गये पुनर्वास व मुआवज़े के लिये तौर-तरीके व दिशा-निर्देश स्पष्ट नहीं है। जोकि आने चाहिए। ज्ञातव्य है कि नवम्बर 2011 में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के कारण ही टीएचडीसी ने पुनर्वास कार्यों को पूरा करने के लिये एक अरब से ज्यादा पैसा दिया। यह बताता है कि टिहरी बांध परियोजना की पुनर्वास नीति और उसके क्रियान्वयन में कितनी ख़ामियाँ हैं। आज टिहरी बांध से बिजली उत्पादन चालू हुए लगभग 7 वर्ष होने वाले हैं किंतु आज तक जलाशय स्तर 835 मीटर के नीचे के प्रभावितों का पुनर्वास भी नहीं हो पाया। जिस कारण सर्वोच्च न्यायालय ने पूर्ण जलाशय भरने की अनुमति नहीं प्रदान की है। यह बैठक भी इसीलिए ही हो रही है।
सर्वोच्च न्यायालय में श्री एन. डी. जुयाल व शेखर सिंह बनाम भारत सरकार केस में टीएचडीसी द्वारा उठाये गये प्रश्नों के संदर्भ में हमारा मानना है कि जनप्रतिनिधि का समिति में होना जरूरी है साथ समिति में बांध प्रभावितों का भी एक प्रतिनिधि होना चाहिए। जलाशय से प्रभावित होने वाले भी बांध परियोजना से ही प्रभावित माने जाने चाहिए इसलिए उनको टिहरी बांध परियोजना की पुनर्वास नीति 1998 के अनुसार 2 एकड़ भूमि मिलनी चाहिए। टीएचडीसी का कहना है कि जलाशय के चारों तरफ आठ गांवों में 453.15 हेक्टेयर भूमि उपलब्ध है। इस संदर्भ में पहला प्रश्न यह है कि टीएचडीसी ने यह भूमि अन्य विस्थापितों को उपलब्ध क्यों नहीं कराई। दूसरा प्रश्न की यह ज्यादातर भूमि भी उसी प्रभावित क्षेत्र में आ रही है। तीसरा प्रश्न यह सभी विस्थापितों के लिए पूर्ण नहीं होगी। इसलिए इस भूमि को मात्र एक विकल्प के रूप में रखा जाए न कि अंतिम विकल्प में। जिसके लिये विस्थापितों की सहमति आवश्यक हो। आजतक के अनुभवों के आधार पर टिहरी बांध के विस्थापितों के मानवीय पुनर्वास के लिए जरूरी है-
1.विस्थापन भूमि अधिग्रहण कानून के तहत होना चाहिए।
2.भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया समयबद्ध हो।
3.विस्थापन की प्रक्रिया के बीच किसी पात्र कि मृत्यु होने पर उसके आश्रितों को पात्र माना जाए।
4.धारा 4 लगने के समय 18 वर्ष के व्यक्तियों को पात्र माना जाए।
5.ज़मीन दो एकड़ से कम नहीं हो।
6.मकान के मुआवज़े से पहले ज़मीन दी जाए।
7.रोज़गार संबंधित शासनादेश को तुरंत क्रियान्वित किया जाए
8.जमीन का भूअधिकार दो, फिर ज़मीन लो।
9.गांव को बुनियादी सुविधाओं के साथ सामूहिक रूप से बसाया जाए।
10.पुनर्वास के लिए दूसरों का विस्थापन नहीं हो।
11. पुनर्वास महायोजना-टिहरी बांध की पर्यावरण स्वीकृति 19 जुलाई 1990 को दी गई थी जिसमें पुर्नवास की महायोजना बनाना एक शर्त थी। जो आजतक पूरी नहीं हो पाई। नतीजा है कि पुनर्वास में इतनी समस्याएं हैं। इसलिये अब जो विस्थापन हो रहा है कम से कम उसके लिये एक महायोजना जिसमें सभी पात्र विस्थापितों के लिए ज़मीन और संसाधन की बात हो साथ ही उसकी एक कार्य योजना भी।
12.जानकारी-लोगों को उनके अधिकारों की जानकारी प्रशासन द्वारा ग्राम स्तर पर प्रदान की जाये।
13.पुनर्वास विभाग के शिविर गांव स्तर पर लगे-प्रभावितों के खर्च, समय व साधन बचाने और भ्रष्टाचार को रोकने के लिये यह जरूरी है।
14.घाटे में चल रहें उद्यान, आलू फार्म चाय बगान व इस तरह के क्षेत्र मालूम करके विस्थापितों को दिए जा सकते है।
15.उद्यानकृर्षि के फार्म वाली सरकारी योजनाओं में विस्थापितों को शामिल किये जाएं।
वास्तव में जरुरत तो टिहरी बांध परियोजना जिसमें कोटेश्वर बांध भी आता है, विस्थापितों/प्रभावितों के लिए बनी 1998 की नीति की कमियों को नई परिस्थितियों व अब तक के विस्थापन में आई समस्याओं को देखते हुये उच्चीकृत करना चाहिए। ताकि नए विस्थापितों को भी वही सब नहीं झेलना पड़े जो पूर्व में विस्थापित लोग झेल रहे हैं। वास्तव में सम्पशार्विक नीति की कोई आवश्यकता ही नहीं थी। पुनर्वास नीति 1998 को ही नये संशोधनों के साथ नवीनीकृत करने की जरूरत थी। किंतु यदि यह सरकार पुनः सम्पशार्विक नीति के नाम पर पुनर्वास नीति बना रही है तो उसे यह सब तो करना ही चाहिए। नीति बार-बार नहीं बनती है। यह एक मौका है कि टिहरी बांध विस्थापितों के साथ न्याय हो। मुख्यमंत्री जी बार-बार अदालत में बांध विस्थापितों के हक के लिये जाने की घोषणा करते रहे है। यह मौका है कि वो अपना कथन पूर्ण कर सकते है।
नई सम्पशार्विक नीति बहुत ही सीमित अर्थों में बनाई गई है जिसमें सिर्फ जलाशय से व्यक्तिगत परिवारों पर होने वाले प्रभावों को देखा जा रहा है। नीति में नुकसान को व्यक्तिगत तौर पर लिया गया है। इस बात को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ किया गया है कि यह नुकसान व्यक्तिगत नहीं बल्कि पूरे क्षेत्र में होगा। पत्र के कुछ खास बिंदु हैः- भूस्खलन रुकता नहीं, सांकेतिक योजना का आभाव है, भूमिहीनों का भी पुनर्वास हो,बेनाप/कब्जाधारी भूस्वामियों का पुनर्वास हो, फ्री स्टाम्प ड्यूटी हो, भवन निर्माण के लिये कर्ज, पुनर्वास स्थलों पर सामुदायिक सुविधाएं, पुनर्वास सामुदायिक होना चाहिए न कि व्यक्तिगत इकाई के रूप में। विस्थापितों को पूर्व में बने पुनर्वास स्थलों के आस-पास ही स्थान दिया जाए ताकि उनकी अपनी पहचान बरकरार रह सके। विस्थापितों को चुनने का अधिकार हो।
1. पहाड़ में
2. मैदानी क्षेत्र में
3. अपनी मनचाही स्थल पर ज़मीन खरीदने का।
तीसरी दशा में सरकार उनको जगह खरीदने में मद व मूल्य राशि उपलब्ध करानी होगी। नई सम्पशार्विक नीति में लिखे गये पुनर्वास व मुआवज़े के लिये तौर-तरीके व दिशा-निर्देश स्पष्ट नहीं है। जोकि आने चाहिए। ज्ञातव्य है कि नवम्बर 2011 में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के कारण ही टीएचडीसी ने पुनर्वास कार्यों को पूरा करने के लिये एक अरब से ज्यादा पैसा दिया। यह बताता है कि टिहरी बांध परियोजना की पुनर्वास नीति और उसके क्रियान्वयन में कितनी ख़ामियाँ हैं। आज टिहरी बांध से बिजली उत्पादन चालू हुए लगभग 7 वर्ष होने वाले हैं किंतु आज तक जलाशय स्तर 835 मीटर के नीचे के प्रभावितों का पुनर्वास भी नहीं हो पाया। जिस कारण सर्वोच्च न्यायालय ने पूर्ण जलाशय भरने की अनुमति नहीं प्रदान की है। यह बैठक भी इसीलिए ही हो रही है।
सर्वोच्च न्यायालय में श्री एन. डी. जुयाल व शेखर सिंह बनाम भारत सरकार केस में टीएचडीसी द्वारा उठाये गये प्रश्नों के संदर्भ में हमारा मानना है कि जनप्रतिनिधि का समिति में होना जरूरी है साथ समिति में बांध प्रभावितों का भी एक प्रतिनिधि होना चाहिए। जलाशय से प्रभावित होने वाले भी बांध परियोजना से ही प्रभावित माने जाने चाहिए इसलिए उनको टिहरी बांध परियोजना की पुनर्वास नीति 1998 के अनुसार 2 एकड़ भूमि मिलनी चाहिए। टीएचडीसी का कहना है कि जलाशय के चारों तरफ आठ गांवों में 453.15 हेक्टेयर भूमि उपलब्ध है। इस संदर्भ में पहला प्रश्न यह है कि टीएचडीसी ने यह भूमि अन्य विस्थापितों को उपलब्ध क्यों नहीं कराई। दूसरा प्रश्न की यह ज्यादातर भूमि भी उसी प्रभावित क्षेत्र में आ रही है। तीसरा प्रश्न यह सभी विस्थापितों के लिए पूर्ण नहीं होगी। इसलिए इस भूमि को मात्र एक विकल्प के रूप में रखा जाए न कि अंतिम विकल्प में। जिसके लिये विस्थापितों की सहमति आवश्यक हो। आजतक के अनुभवों के आधार पर टिहरी बांध के विस्थापितों के मानवीय पुनर्वास के लिए जरूरी है-
1.विस्थापन भूमि अधिग्रहण कानून के तहत होना चाहिए।
2.भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया समयबद्ध हो।
3.विस्थापन की प्रक्रिया के बीच किसी पात्र कि मृत्यु होने पर उसके आश्रितों को पात्र माना जाए।
4.धारा 4 लगने के समय 18 वर्ष के व्यक्तियों को पात्र माना जाए।
5.ज़मीन दो एकड़ से कम नहीं हो।
6.मकान के मुआवज़े से पहले ज़मीन दी जाए।
7.रोज़गार संबंधित शासनादेश को तुरंत क्रियान्वित किया जाए
8.जमीन का भूअधिकार दो, फिर ज़मीन लो।
9.गांव को बुनियादी सुविधाओं के साथ सामूहिक रूप से बसाया जाए।
10.पुनर्वास के लिए दूसरों का विस्थापन नहीं हो।
11. पुनर्वास महायोजना-टिहरी बांध की पर्यावरण स्वीकृति 19 जुलाई 1990 को दी गई थी जिसमें पुर्नवास की महायोजना बनाना एक शर्त थी। जो आजतक पूरी नहीं हो पाई। नतीजा है कि पुनर्वास में इतनी समस्याएं हैं। इसलिये अब जो विस्थापन हो रहा है कम से कम उसके लिये एक महायोजना जिसमें सभी पात्र विस्थापितों के लिए ज़मीन और संसाधन की बात हो साथ ही उसकी एक कार्य योजना भी।
12.जानकारी-लोगों को उनके अधिकारों की जानकारी प्रशासन द्वारा ग्राम स्तर पर प्रदान की जाये।
13.पुनर्वास विभाग के शिविर गांव स्तर पर लगे-प्रभावितों के खर्च, समय व साधन बचाने और भ्रष्टाचार को रोकने के लिये यह जरूरी है।
14.घाटे में चल रहें उद्यान, आलू फार्म चाय बगान व इस तरह के क्षेत्र मालूम करके विस्थापितों को दिए जा सकते है।
15.उद्यानकृर्षि के फार्म वाली सरकारी योजनाओं में विस्थापितों को शामिल किये जाएं।
वास्तव में जरुरत तो टिहरी बांध परियोजना जिसमें कोटेश्वर बांध भी आता है, विस्थापितों/प्रभावितों के लिए बनी 1998 की नीति की कमियों को नई परिस्थितियों व अब तक के विस्थापन में आई समस्याओं को देखते हुये उच्चीकृत करना चाहिए। ताकि नए विस्थापितों को भी वही सब नहीं झेलना पड़े जो पूर्व में विस्थापित लोग झेल रहे हैं। वास्तव में सम्पशार्विक नीति की कोई आवश्यकता ही नहीं थी। पुनर्वास नीति 1998 को ही नये संशोधनों के साथ नवीनीकृत करने की जरूरत थी। किंतु यदि यह सरकार पुनः सम्पशार्विक नीति के नाम पर पुनर्वास नीति बना रही है तो उसे यह सब तो करना ही चाहिए। नीति बार-बार नहीं बनती है। यह एक मौका है कि टिहरी बांध विस्थापितों के साथ न्याय हो। मुख्यमंत्री जी बार-बार अदालत में बांध विस्थापितों के हक के लिये जाने की घोषणा करते रहे है। यह मौका है कि वो अपना कथन पूर्ण कर सकते है।
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